सप्तसरोज
प्रेमचंद, संपादक मन्नन द्विवेदी गजपुरी

ज्ञानवापी, काशी: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ८ से – २२ तक

 

सप्तसरोज


बड़े घरकी बेटी

————o————

बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गांवके जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन्यधान्य सम्पन्न थे। गांव का पक्का तालाब और मन्दिर, जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हींके कीर्त्तिस्तम्भ थे। कहते हैं, इस दरवाजेपर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीरपे पंजरके सिवा और कुछ शेष न रहा था। पर दूध शायद बहुत देती थी, क्योंकि एक-न-एक आदमी हांडी लिये उसके सिरपर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधीसे अधिक सम्पत्ति वकीलोंकी भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय वार्षिक एक हजारसे अधिक न थी। ठाकुर साहबके दो बेटे थे। बड़ेका नाम श्रीकण्ठ सिंह था। उन्होंने बहुत दिनोंतक परिश्रम और उद्योग के बाद बी॰ ए॰ की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तरमें नौकर थे। छोटा लड़का लालबिहारीसिंह दोहरे बदनका सजीला जवान

था। मुखड़ा भरा हुआ, चौड़ी छाती, भैंसका दो सेर ताजा दूध वह सवेरे उठ पी जाता था । श्रीकंठ सिंहकी दशा उसके बिल्कुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणोंको उन्होंने इन्हीं दो अक्षरोंपर न्यौछावर कर दिया था। इन दो अक्षरोंने इनके शरीरको निर्बल और चेहरेको कान्तिहीन बना दिया था। इसीसे वैद्यक ग्रंथोंपर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियोंपर उनका अधिक विश्वास था। सांझ-सबेरे उनके कमरेसे प्रायः खरलकी सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनाई दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्योंसे बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी।

श्रीकण्ठ इस अंग्रेजी डिग्री के अधिपति होनेपर भी अंग्रेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे। बल्कि वह बहुधा बडे़ जोर से उनकी निन्दा और तिरस्कार किया करते थे। इसीसे गांव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरेके दिनोंमे वह बडे़ उत्साहसे रामलीलामें सम्मिलित होते और स्वयं किसी-न-किसी पात्रका पार्ट लेते। गौरीपुरमें रामलीलाके वे ही जन्मदाता थे। प्राचीन हिन्दू सभ्यताका गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अङ्ग था। सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथाके तो वे एकमात्र उपासक थे। आजकल स्त्रियों की कुटुम्बमें मिल-जुलकर रहनेकी ओर जो अरुचि होती है उसे वे जाति और देशके लिये बहुत ही हानिकर समझते थे। यही कारण था कि गांवकी ललनाएँ उनकी निन्दक थीं। कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी सङ्कोच न करती थीं, स्वयं उनकी पत्नीको ही इस विषयमें उनसे विरोध था। वह इसलिये नहीं कि उसे अपने सास, ससुर, देवर, जेठसे घृणा थी, बल्कि उसका

विचार था कि यदि बहुत कुछ सहन करने और तरह देनेपर भी परिवारके साथ निर्वाह न हो सके तो आये दिनकी कलहसे जीवनको नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय।

आनन्दी एक बड़े कुलकी लड़की थी। उसके बाप एक छोटी-सी रियासतके ताल्लुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी, सिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेटी और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदारके योग्य पदार्थ हैं, वह सभी यहाँ विद्यमान थे। भूपसिंह नाम था। बड़े उदारचित्त, प्रतिभाशाली पुरुष थे। पर दुर्भाग्य लड़का एक भी न था। मात्र लड़कियाँ हुई और दैवयोगसे सब-की सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये, पर जो पंद्रह बीस हजार का कर्ज सिरपर हो गया तो आँखें खुली, हाथ समेट लिया। आनन्दी चौथी लड़की थी। वह अपनी सब बहिनोंसे अधिक रूपवती और गुणशीला थी। इसीसे ठाकुर भूप सिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुन्दर संतान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं। ठाकुर साहव बडे़ धर्मसङ्कट में थे कि इसका विवाह कहाँ करें। न तो यही चाहते थे कि ऋणका बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपनेको भाग्यहीन समझना पड़े। एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चन्देका रुपया मांगने आये। शायद नागरी-प्रचारक चन्दा था। भूपसिंह उनके स्वभावपर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठ सिंहका आनन्दी के साथ विवाह हो गया।

आनन्दी अपने नये घरमे आई तो यहांका रङ्ग-ठङ्ग कुछ और

ही देखा। जिस टीमटीमकी उसे बचपनसे ही आदत पड़ी हुई थी वह यहाँ नाममात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों की तो बात क्या, कोई सजी हुई सुन्दर बहली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लाई थी, पर यहाँ बाग कहाँ। मकानमें खिडकियाँ तक न थीं, न जमीनपर फर्श, न दीवारपर तस्वीरे। यह एक सीधे-सादे देहाती गृहस्थ का मकान था। किन्तु आनन्दी ने थोड़े ही दिनो में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानो उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।

एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिडियाँ लिये हुए आया और भावज से कहा, जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर इनकी राह देख रही थी। अब नया नया व्यंजन बनाने बैठी। हांंडीमें देखा तो घी पावभर से अधिक न था। बड़े घरकी बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मासमें डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा तो दाल में घी न था, बोला, दालमें घी क्यों नहीं छोडा?

आनन्दीने कहा, घी सब मांसमें पड़ गया। लालबिहारा जोरसे बोला, अभी परसों घी आया है, इतनी जल्दी उठ गया।

आनन्दीने उत्तर दिया, आज तो कुल पावभर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुघासे बावला मनुष्य जरा जरासी बातपर तिनक जाता हैं।
लालबिहारी को भावजकी यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई। तिनककर बोला, मैकेमें तो चाहे घी की नदी बहती है।

स्त्री गालियां सह लेती है, मार भी सह लेती है, पर मैके की निन्दा उससे नहीं सही जाती। आनन्दी मुँँह फेरकर बोली, हाथी मरा भी तो नौ लाख का,वहा इतना घी नित्य नाई कहार खा जाते हैं।

लालबिहारी जल गया,थाली उठाकर पटक दी और बोला जी चाहता है कि जीभ पकड़कर खींच लूँ।

आनन्दीको भी क्रोध आया। मुँँह लाल हो गया, बोली, वह होते तो आज इसका मजा चखा देते।

अब अपढ़, उजद्द ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमीन्दार की बेटी थी। जब जी चाहता उसपर हाथ साफ कर लिया करता था। उसने खडाऊँ उठाकर आनन्दी की ओर जोरसे फेंकी और बोला, जिसके गुमानपर भूली हुई हो, उसे भी देखूँँगा और तुम्हें भी।

आनन्दीने हाथसे खडाऊँ रोकी, सिर बच गया। पर अगुली- से बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते हुए पत्तेकी भांति कापती हुई अपने कमरेमें आकर खडी़ हो गई। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमण्ड होता है। आनन्दी लोहू का घुँँट पीकर रह गई।

श्रीकण्ठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। वृहस्पति को यह घटना हुई थी। दो दिनतक आनन्दी कोपभवनमें रही। न

कुछ खाया, न पिया, उनकी बाट देखती रही। अन्त में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठकर कुछ इधर-उधर की बाते, कुछ देश और काल सम्बन्धी समाचार तथा कुछ नये मुकद्दमो आदिकी चर्चा करने लगे। यह वार्त्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गांव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनन्द मिलता था कि खाने-पीनेकी भी सुधि न रहती थी। श्रीकण्ठ का पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। यह दो-तीन घंटे आनन्दीने बड़े कष्टसे काटे। किसी तरह भोजन का समय आया। पञ्चायत उठी। जब एकान्त हुआ तब लालबिहारीने कहा——भैया, आप जरा घरमें समझा दीजियेगा कि मुंह संभालकर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायगा।

बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर से साक्षी दी, हां,बहू बेटियो का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि पुरुषों के मुँँह लगे।

लालबिहारी——वह बडे़ घर की बेटी है तो हमलोग भी कोई कुर्मी कहार नहीं है।

श्रीकण्ठने चिन्तित स्वरसे पूछा, आखिर बात क्या हुई।

लालबिहारीने कहा, कुछ भी नहीं, योंही आप ही आप उलझ पड़ी। मैके के सामने हमलोगों को तो कुछ समझती ही नहीं।

श्रीकण्ठ खा पीकर आनन्दीके पास गये। वह भरी बैठी थी यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनन्दी ने पूछा, चित्त तो प्रसन्न है

श्रीकण्ठ बोले, बहुत प्रसन्न है, पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रक्खा है?

आनन्दीकी तेवरियोंपर बल पढ गये और झुझलाहट के मारे

बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली, जिसने तुम्हे यह आग लगाई है, उसे पाऊ तो मुह झुलस दूँ।

श्रीकण्ठ––इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो ?

आनन्दी––क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का फेर है। नहीं तो एक गंवार छोकरा जिसको चपरासीगिरी करने का भी ढग नहीं, मुझे खडाऊ से मारकर यों न अकड़ाता।

श्रीकण्ठ––सब साफ-साफ हाल कहो तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं।

आनन्दी––परसों तुम्हारे लाडले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। धी हांडी में पावभर से अधिक न था। वह मैंने सब मांस में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा,दालमें धी क्यों नहीं है? बस, इसीपर मेरे मैके को भला-बुरा कहने लगा। मुझसे न रहा गया, मैंने कहा कि वहां इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस, इतनीसी बातपर उस अन्यायी ने मुझपर खडाऊ फेंक मारी। यदि हाथ से न रोक लेती तो सिर फट जाता। उसीसे पूछो कि मैंने जो कुछ कहा है वह सच है या झूठ।

श्रीकण्ठ की आँँखें लाल हो गई। बोले, यहाँँतक हो गया। इस छोकडे़ का यह साहस।

आनन्दी स्त्रियोंके स्वभावानुसार रोने लगी। क्योंकि आँसू उनकी पलकोंपर रहते हैं। श्रीकण्ठ बडे़ धैर्यवान् और शान्त पुरुष थे। उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था, पर स्त्रियोंके आँसू पुरुषोकी क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते है। रातभर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण, पलक तक नहीं झपकी।
प्रातःकाल अपने बापके पास जाकर बोले, दादा, अब इस घरमें मेरा निर्वाह न होगा।

इस तरहकी विद्रोहपूर्ण बातें कहनेपर श्रीकण्ठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रोंको आड़े हाथों लिया था। परन्तु दुर्भाग्य आज उन्हें स्वयं वही बात अपने मुहसे कहनी पडी़। दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है।

बेनीमाधव सिंह घबडा़कर उठे और बोले, क्यों?

श्रीकण्ठ––इसलिये कि मुझे भी अपनी मान-प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय और हठका प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ोंका आदर-सम्मान करना चाहिये वह उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरेका चाकर ठहरा, घरपर रहता नहीं, यहाँँ मेरे पीछे स्त्रियोंपर खडाऊ और जूतोंकी बौछारे होती हैं। कड़ी बाततक चिन्ता नहीं, कोई एककी दो कह ले, यहाँतक मैं सह सकता हूँ, किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात, धूसे पड़ें और मैं दम न मारू।

बेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकण्ठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढे ठाकुर अवाक् रह गये। केवल इतना ही बोले, बेटा, तुम बुध्दिमान होकर ऐसी बातें करते हो? स्त्रियाँ इसी तरह घर का नाशकर देती हैं। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।

श्रीकण्ठ––इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से इसी गांवमें, कई घर संभल गये, पर जिस स्त्रीकी मान-प्रतिष्ठाका मैं

ईश्वरके दर्बारमें उत्तरदाता हूँ उसके साथ ऐसा घोर अन्याय और पशुवत व्यवहार मुझे असह्य है। आप सच मानिये, मेरे लिये यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारीको कुछ दंड नहीं देता।

अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बाते और न सुन सके। बोले, लालबिहारी तुम्हारा भाई है, उससे जब कभी भूल हो उसके कान पकड़ो। लेकिन––

श्रीकण्ठ––लालबिहारीको मैं अपना भाई नहीं समझता।

बेनीमाधव सिंह––स्रीके पीछे?

श्रीकण्ठ––जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेकके कारण।
प्रातःकाल अपने बापके पास जाकर बोले, दादा, अब इस घरमें मेरा निर्वाह न होगा।

इस तरह की विद्रोहपूर्ण बातें कहने पर श्रीकण्ठने कितनी हो बार अपने कई मित्रोंको आड़े हाथों लिया था। परन्तु दुर्भाग्य आज उन्हें स्वय वही बात अपने मुहसे कहनी पड़ी! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है।

वेनीमाधव सिंह घबडा़कर उठे और बोले, क्यों?

श्रीकण्ठ––इसलिये कि मुझे भी अपनी मान-प्रतिष्ठाका कुछ विचार है। आपके घरमें अब अन्याय और हठका प्रकोप हो रहा है। जिनको बडोंका आदर-सम्मान करना चाहिये वह उनके सिर चढते हैं। मैं दूसरे का चाकर ठहरा, घरपर रहता नहीं, यहाँ मेरे पीछे स्त्रियोंपर खडाऊ और जूतोंकी बौछारें होती हैं। कडी बाततक चिन्ता नहीं, कोई एककी दो कह ले, यहांँतक मैं सह सकता हूँ, किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात, घूसे पड़े और मैं दम न मारू।

वेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकण्ठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढे ठाकुर अवाक् रह गये। केवल इतना ही बोले, बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बाते करते हो? स्त्रियाँ इसी तरह घर का नाश कर देती हैं। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।

श्रीकण्ठ––इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मुर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से इसी गांवमें, कई घर संभल गये, पर जिस स्त्रीकी मान-प्रतिष्ठाका मैं

ईश्वरके दरबार में उत्तरदाता हूँ उसके साथ ऐसा घोर अन्याय और पशुवत व्यवहार मुझे असहाय है। आप सच मानिये, मेरे लिये यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारी को कुछ दड नहीं देता।

अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बाते और न सुन सके। बोले, लालबिहारी तुम्हारा भाई है, उमसे जब कभी भूल- हो उसके कान पकड़ो। लेकिन——

श्रीकण्ठ——लालबिहारीको मैं अपना भाई नहीं समझता।

बेनीमाधव सिंह——स्त्रीके पीछे?

श्रीकण्ठ——जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।

दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारीने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गांव के

और कई सज्जन हुक्का चिलमके बहानेसे वहां आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकण्ठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने पर तैयार हैं तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियां सुननेके लिये उनकी आत्माए तलमलाने लगीं। गांवमें कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे जो इस कुलकी नीतिपूर्ण गतिपर मन ही मन जलते थे। वह कहा करते थे, श्रीकण्ठ अपने आपसे दबता है इसलिये वह दब्बू है,उसने इतनी विद्या पढ़ी इसलिये वह किताबों का कीड़ा है, बेनीमाधव सिंह उसकी सलाहके बिना कोई काम नहीं करते यह उनकी मुर्खता है। इन महानुभावोंकी शुभ कामनाएँ आज पूरी होती दिखाई दी। कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने, आ आकर बैठ गये। बेनीमाधवसिंह पुराने आदमी

(४)


जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाये आनन्दी के द्वारपर खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आँखें लाल किये बाहर से आये। भाईको खडा़ देखा तो घृणासे आंखें फेर लीं और कतरा कर निकल गये मानो उसकी परछाहींसे भी दूर भागते हैं।

आनन्दीने लालबिहारीकी शिकायत तो की थी लेकिन अब मनमें पछता रही थी। वह स्वभावसे ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायगी। वह मनमें अपने पतिपर झुझला रही थी कि यह इतनेमें गरम क्यों हो जाते हैं? उसपर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझमे इलाहा -बाद चलनेको कहें तो कैसे क्या करूंँगी। इसी बीचमें जब उसने लालबिहारीको दरवाजेपर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ है उसे क्षमा करना, तो उसका रहा सहा क्रोध भी पानी-पानी हो गया। वह रोने लगी। मनकी मैल धोने के लिये नयन जलसे उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।

श्रीकण्ठ को देखकर आनन्दीने कहा, लाला बाहर खडे़ बहुत रो रहे हैं।

श्रीकंठ––तो में क्या करू?

आनन्दी––भीतर बुला लो। मेरी जीभमें आग लगें मैंने कहाँ से यह झगढ़ा उठाया।

श्रीकठ––मैं न बुलाऊँगा!

आनन्दी––पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गई है, ऐसा न हो कहीं चल दे।
श्रीकण्ठ न उठे। इतने में लालबिहारीने फिर कहा, भाभी। भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुह नहीं देखना चाहते, इसलिये मैं भी अपना मुँँह उन्हे न दिखाऊँँगा।

लालबिहारी इतना कहकर लौट पड़ा और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अन्त में आनन्दी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लालबिहारीने पीछे फिर कर देखा और आँखो मे आंसू भर बोला, मुझे जाने दो।

आनन्दी—कहा जाते हो?

लालबिहारी—जहाँ कोई मेरा मुँह न देखें।

आनन्दी—मैं न जाने दूँगी।

लालबिहारी—मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।

आनन्दी—तुम्हे मेरी सौगन्ध,अब एक पग भी आगे न बढ़ाना।

लालबिहारी—जबतक मुझे यह न मालूम हो जाय कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तबतक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा।

आनन्दी—मैं ईश्वर की साक्षी देकर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से तनिक भी मैल नहीं है।

अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लालबिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट फूट कर रोये। लालबिहारीने सिसकते हुए कहा, भैया अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँँह न देखूँँगा। इसके सिवा आप जो दण्ड देंगे वह मैं सहर्ष स्वीकार करूगा।

श्रीकठने कांपते हुए स्वर से कहा—लल्लू! इन बातों को बिल—