सप्तसरोज
प्रेमचंद, संपादक मन्नन द्विवेदी गजपुरी

ज्ञानवापी, काशी: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ११६ से – १२५ तक

 

परीक्षा

जब रियासत देवगढ़के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो परमात्माकी याद आयी। जाकर महाराजसे विनय की कि दीनबन्धु दासने श्रीमान्‌की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गई, राज-काज संभालनेकी शक्ति नहीं रही। कहीं भूल-चूक हो जाय तो बुढ़ापेमें दाग लगे। सारी जिन्दगीकी नेकनामी मिट्टीमें मिल जाय।

राजा साहब अपने अनुभवशील, नीतिकुशल दीवानका वड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहबने न माना तो हारकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। पर, शर्त यह लगा दी कि रियासतके लिये नया दीवान आप हीको खोजना पड़ेगा।

दूसरे दिन देशके प्रसिद्ध प्रसिद्ध पत्रोंमें यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़के लिये एक सुयोग्य दीवानकी जरूरत है। जो सज्जन अपनेको इस पदके योग्य समझे वे वर्त्तमान दीवान सरदार सुजानसिंहकी सेवामें उपस्थित हों। यह जरूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर हृष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है, मन्दाग्निके मरीज-

को यहांतक कष्ट उठानेकी कोई जरूरत नहीं, एक महीने तक उम्मीदवारों की रहन सहन, आचार-विचारकी देख-भाल की जायगी, विद्याका कम, परन्तु कर्त्तव्यका अधिक विचार किया जायगा। जो महाशय इस परीक्षामें पूरे उतरेगे वे इस उच्च पदपर सुशोभित होंगे।

इस विज्ञापनने सारे मुल्कमें हलचल मचा दी। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकारकी कैद नहीं? केवल नसीबका खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखनेके लिये चल खड़े हुए। देवगढ्में नये-नये और रंग विरंगके मनुष्य दिखाई देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ीसे उम्मीदवारोंका एक मेला सा उतरता। कोई पंजाबसे चला आता था, कोई मद्राससे, कोई नये फैशनका प्रेमी, कोई पुरानी सादगीपर मिटा हुआ। पण्डितों और मौलवियोंको भी अपने-अपने भाग्यकी परीक्षा करनेका अवसर मिला। बेचारे सनदके नामको रोया करते थे, यहां उसकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकारके अंगरखे और कन्टोप देवगढ़में अपनी सजधज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटोंकी थी, क्योंकि सनदकी कैद न होनेपर भी सनदसे परदा तो ढका रहता है।

सरदार सुजानसिंहने इन महानुभावोंके आदर-सत्कारका बड़ा अच्छा प्रबन्ध कर दिया था। लोग अपने-अपने कामरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हरएक मनुष्य अपने जीवनको अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूपमें
दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर "अ" नौ बजे दिनतक सोया करते थे, आजकल वे बगीचेमें टहलते हुए ऊषाका दर्शन करते थे। मि० "ब" को हुक्का पीनेकी लत थी, पर आजकल बहुत रात गये किवाड़ बन्द करके अन्धेरेमें सिगार पीते थे। मिस्टर "द"––"स" और "ज" से उनके घरोंपर नौकरोंकी नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल "आप और जनाब" के बगैर नौकरोंसे बातचीत नहीं करते थे। महाशय "क" नास्तिक ये, हक्सलेके उपासक, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देखकर मन्दिरके पूजारीको पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी। मिस्टर "ल" को किताबोंसे घृणा थी परन्तु आजकल वे बडे बडे ग्रन्थ देखनेमें पढ़नेमें डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिये, वह नम्रता और सदाचारका देवता बना मालूम देता था। शर्माजी घड़ी रातसे ही वेद मन्त्र पढ़ने लगते थे और मौलवी साहबको तो नमाज और तलाबतके सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है।

लेकिन मनुष्योंका वह बूढ़ा जौहरी आड़में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलोंमें हस कहां छिपा हुआ है?

एक दिन नये फैशनवालोंको सुझी कि आपसमें "हाकी" का खेल हो जाय। यह प्रस्ताव हाकीके मजे हुए खिलाडियोंने पेश किया। यह भी तो आखिर एक विद्या है। इसे क्यों छिपा रखें। सभव है, कुछ हाथोंकी सफाई ही काम कर जाय। चलिये