सप्तसरोज
प्रेमचंद, संपादक मन्नन द्विवेदी गजपुरी

ज्ञानवापी, काशी: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ३४ से – ४२ तक

 

सज्जनता का दंड

साधारण मनुष्यकी तरह शाहजहांपुरके डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर सरदार शिवसिंह में भी भलाइयां और बुराइयां दोनों ही वर्तमान थीं। भलाई यह थी कि उनके यहां न्याय और दया में कोई अन्तर न था। बुराई यह थी कि वे सर्वथा निर्लोभ और निःस्वार्थ थे। भलाईने मातहतोंको निडर और आलसी बना दिया था, बुराई के कारण उस विभागके सभी अधिकारी उनकी जानके दुश्मन बन गये थे।

प्रातःकाल का समय था। वे किसी पुलकी निगरानी के लिए तैयार खड़े थे। मगर साईस अभीतक मीठी नींद ले रहा था। रात को उसे अच्छी तरह सहेज दिया गया था कि पौ फटने पहले गाड़ी तैयार कर लेना। लेकिन सुबह भी हुई, सूर्य भगवान दर्शन भी दिये, शीतल किरणों में गरमी भी आई, पर साईस की नींद अभीतक नहीं टूटी।

सरदार साहब खडे़-खडे़ थककर एक कुर्सीपर बैठ गये। साईस तो किसी तरह जागा, परन्तु अर्दलीके चपरासियों का पता नहीं। जो महाशय डाक लेने गये वे एक ठाकुरद्वार में खड़े चरणामृतकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जो ठेकेदार को बुलाने गये थे वे बाबू रामदासकी सेवा मे बैठे गांजेका दम लगा रहे थे।
धूप तेज होती जाती थी। सरदार साहब झुंझलाकर मकान में चले गये और अपनी पत्नी से बोले, इतना दिन चढ़ आया, अभी तक एक चपरासी का भी पता नहीं। इनके मारे तो मेरे नाक में दम आ गया।

पत्नीने दीवार की ओर देखकर दीवार से कहा, यह सब उन्हें सिर चढ़ानेका फल है।

सरदार साहब चिढ़कर बोले, तो क्या करूं, उन्हें फांसी दे दूँ?

सरदार साहबके पास मोटरकारका तो कहना ही क्या कोई फिटिन भी न थी। वे अपने इक्के से ही प्रसन्न थे, जिसे उनके नौकर-चाकर अपनी भाषा में उड़नखटोला कहते थे। शहर के लोग उसे इतना आदर-सूचक नाम न देकर छकड़ा कहना ही उचित समझते थे। इस तरह सरदार साहब अन्य व्यवहारों में भी बड़े मितव्ययी थे। उनके दो भाई इलाहाबाद में पढ़ते थे। विधवा माता बनारस में रहती थीं। एक विधवा बहिन भी उन्हीं पर अवलम्बित थी। इनके सिवा कई ग़रीब लड़कों को छात्रवृत्तियाँ भी देते थे। इन्हीं कारणों से वे सदा ख़ाली हाथ रहते! यहाँ तक कि उनके कपड़ों पर भी इस आर्थिक दशा के चिह्न दिखायी देते थे! लेकिन यह सब कष्ट सह कर भी वे लोभ को अपने पास फटकने न देते थे! जिन लोगों पर उनका स्नेह था वे उनकी सज्जनता को सराहते थे और उन्हें देवता समझते थे। उनकी सज्जनता से उन्हें कोई हानि होती थी, लेकिन जिन लोगों से उनके व्यावसायिक सम्बन्ध

सम्बन्ध थे वे उनके सद्भावों के ग्राहक न थे, क्योंकि, उन्हें हानि होती थी। यहाँ तक कि उन्हें अपनी सहधर्मिणी से भी कभी-कभी अप्रिय बातें सुननी पड़ती थीं।

एक दिन वे दफ्तर से आये तो उनकी पत्नी ने स्नेहपूर्ण ढंग से कहा, तुम्हारी यह सज्जनता किस काम की, जब सारा संसार तुम को बुरा कह रहा है।

सरदार साहब ने दृढ़ता से जवाब दिया, संसार जो चाहे कहे परमात्मा तो देखता है।

रामाने यह जबाव पहले ही सोच लिया था। वह बोली, मैं तुमसे विवाद तो करती नहीं, मगर जरा अपने दिलमें विचार करके देखो कि तुम्हारी इस सच्चाई का दूसरों पर क्या असर पड़ता है? तुम तो अच्छा वेतन पाते हो। तुम अगर हाथ न बढ़ाओ तो तुम्हारा निर्वाह हो सकता है। रूखी रोटियां मिल ही जायंगी। मगर ये दस-दस, पांच पांच रुपये के चपरासी, मुहर्रिर, दफ्तरी बेचारे कैसे गुजर करें। उनके भी बाल-बच्चे हैं। उनके भी कुटुम्ब परिवार हैं। शादी-गमी, तिथि-त्यौहार यह सब उनके साथ लगे हुए हैं। भलमनसीका भेष बनाये बिना काम नहीं चलता। बताओ उनका गुजर कैसे हो? अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आयी थी, रोते-रोते आंचल भीगता था। लड़की हो गयी है। अब उसका ब्याह करना पड़ेगा। ब्राह्मण की जाति हजारों का खर्च। बताओ उसके आँसू किसके सिर पड़ेंगे?

ये सब बाते सच थीं। इससे सरदार साहब को इनकार नहीं हो सकता था। उन्होंने स्वयं इस विषय में बहुत कुछ

किया था। यही कारण था कि वह अपने मातहतोंके साथ बङी नरमी का व्यवहार करते थे। लेकिन सरलता और शालीनताका आत्मिक गौरव चाहे जो हो, उनका आर्थिक मोल बहुत कम है। वे बोले, तुम्हारी बातें सब यथार्थ है, किन्तु मैं विवश हूँ। अपने नियमों को कैसे तोड़ू? यदि मेरा वश चले तो मैं उन लोगों का चेतन बढ़ा दूँ। लेकिन यह नहीं हो सकता कि मैं खुद लूट मचाऊ और उन्हें लूटने दूं।

रामा ने व्यंग्यपूर्ण शब्दोंमें कहा, तो यह हत्या किसपर पड़ेगी? सरदार साहबने तीखे होकर उत्तर दिवा, यह उन लोगोंपर पड़ेगी जो अपनी हैसियत और आमदनी से अधिक खर्च करना चाहते हैं। अरदली धनकर क्यों वकील के लड़के से लड़की व्याहने की ठानते हैं। दफ्तरीको यदि टहलुवेकी जरूरत हो तो यह किसी पाप-कार्य से कम नहीं। मेरे साईस की स्त्री अगर चाँदीकी सिल गलेमें डालना चाहे तो यह उसकी मूर्खता है। इस झूठी बड़ाई का उत्तरदाता मैं नहीं हो सकता।

इन्जिनियरों का ठेकेदारो से कुछ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा मधुमक्खियों का फूलों से। अगर वे अपने नियत भाग से अधिक पाने की चेष्टा न करें तो उनसे किसी को शिकायत नहीं हो सकती। यह मधु रस कमीशन कहलाता है। रिश्वत और कमीशन में बडा अन्तर है। रिश्वत लोक और परलोक दोनों का ही सर्वनाश कर देती है। उसमें भय है, चोरी है, बदमाशी है। मगर कमीशन एक मनोहर वाटिका है, जहां न मनुष्यका डर है, न पर—

आत्मा का भय, यहाँँ तक कि वहाँ आत्माकी छिपी हुई चुटकियों भी गुजर नहीं है और कहांँ तक कहे इसकी ओर बदनामी आँख भी नहीं उठा सकती। यह वह बलिदान है जो हत्या होते हुए भी धर्म का एक अंश है। ऐसी अवस्था मे यदि सरदार शिव सिंह अपने उज्ज्वल चरित्र को इस धब्बे से साफ रखते थे और उसपर अभिमान करते थे तो वे क्षमाके पात्र थे।

मार्च का महीना बीत रहा था। चीफ इन्जिनियर साहब जिलेमें मुआयना करने आ रहे थे। मगर अभीतक इमारतों का काम अपूर्ण था। सड़कें खराब हो रही थीं, ठेकेदारों ने मिट्टी और कंकड़ भी नहीं जमा किये थे।

सरदार साहब रोज ठेकेदारों को ताकीद करते थे, मगर इसका कुछ फल न होता था।

एक दिन उन्होंने सबको बुलाया। वे कहने लगे, तुम लोग क्या यही चाहते हो कि मैं इस जिलेसे बदनाम होकर जाऊ? मैंने तुम्हारे साथ कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं चाहता तो आपसे काम छीनकर खुद करा लेता, मगर मैंने आपको हानि पहुँचाना उचित न समझा। उसकी मुझे याद सदा मिल रही है। खैर।

ठेकेदार लोग यहांँ सें चले तो होगस्टर गोपाल। दास बोले, अव आटे-दालका भाव मालूम हो जायगा।

शहबाज़खां ने कहा, किसी तरह इसका जनाजा निकले तो यहाँ से....

सेठ चुन्नीलालने फरमाया-इन्जिनियर से मेरी जान-पहचान है। मैं उनके साथ काम कर चुका हूँ। वह इन्हें खूब लथेड़ेगा।
इसपर बूढ़े हरिदास ने उपदेश दिया, यारो, स्वार्थ की बात और है। नहीं तो सच यह है कि यह मनुष्य नहीं देवता है। भला और नहीं तो सालभर में कमीशन के १० हजार तो होते होंगे। इतने रुपयों को ठीकरेकी तरह तुच्छ समझना क्या कोई सहज बात है? एक हम हैं कि कौड़ियों के पीछे ईमान बेचते फिरते हैं। जो सज्जन पुरुष हमसे एक पाईका रवादार न हो, सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी जिसकी नीयत डावाडोल न हो, उसके साथ ऐसा नीच और कुटिल बर्ताव करना पड़ता है। इसे अपने अभाग्य के सिवा और क्या समझे।

शहबाज़ खाने फरमाया हो, इसमें तो कोई शक नहीं कि यह शख्स नेकीका फरिश्ता है।

सेठ धुन्नीलालने गम्भीरता से कहा, खां साहब बात तो यही है, जो तुम कहते हो। लेकिन किया क्या जाय? नेकनीयती से तो काम नहीं चलता। यह दुनिया तो छल-कपट की है।

मिस्टर गोपालदास बी० ए० पास थे। वे गर्व के साथ बोले, इन्हें जब इस तरह रहना था तो नौकरी करने की क्या जरूरत थी? यह कौन नहीं जानता कि नियतको साफ रखना अच्छी बात है। मगर यह भी तो देखना चाहिये कि इसका दूसरों पर क्या असर पड़ता है। हमको तो ऐसा आदमी चाहिये जो खुद खाय और हमें भी खिलावे। खुद हलुवाखाय, हमें रूखी रोटियाँ ही खिलावे। वह अगर एक रुपया कमीशन लेगा तो उसकी जगह पाँच का फायदा करा देगा। इन महाशय के यहा क्या है? इसलिये आप जो चाहे कहें, मेरी तो कभी इनसे निम ही नहीं सकती।
शहबाज खां बोले, हां, नेक और पाक-साफ रहना जरूर अच्छी चीज है, मगर ऐसी नेकी ही से क्या जो दूसरो की जान ही ले ले।

बूढे हरिदास की बातों की जिन लोगों ने पुष्टि की थी वे, सब गोपालदास की हा-में-हा मिलाने लगे। निर्बल आत्माओंं में सच्चाई का प्रकाश जुगनू की चमक है।

सरदार साहब को एक पुत्री थी। उसका विवाह मेरठ के एक वकील के लड़के से ठहरा था। लड़का होनहार था। जाति कुल ऊचाँ था। सरदार साहब ने कई महीने की दौड-धूप में इस विवाह को तै किया था और सब बाते हो चुकी थीं, केवल दहेज का निर्णय न हुआ था। आज वकील साहब का एक पत्र आया। उसने इस बात का भी निश्चय कर दिया, मगर विश्वास, आशा और वचन के बिलकुल प्रतिकूल। पहले वकील साहब ने एक ज़िले के इञ्जिनियर के साथ किसी प्रकारका ठहराव व्यर्थ समझा। बङी सस्ती उदारता प्रकट की। इस लज्जित और घृणित व्यवहार पर खुब आँसू बहाये। मगर जब ज्यादा पूछ-ताछ करने पर सरदार साहब के धन-वैभव का भेद खुल गया तब दहेज का ठहरान आवश्यक हो गया। सरदार साहेब ने आशकित हाथो से पत्र खोला पाच हजार रुपये में कम पर विवाह नहीं हो सकता। वकील साहेब को बहुत खेद और लग्जा थी कि वे इस विषयमें स्पष्ट होने पर मजबूर किये गये। मगर वे अपने खानदान के कई बूढ़े, खुर्राद विचार हीन, स्वार्थान्ध महात्माओं के हाथों बहुत तंग थे। उनका

कोई वश न था। इञ्जिनियर साहबने एक लम्बी सांस खींची। सारी आशाएं मिट्टी मे मिल गयीं। क्या सोचते थे, क्या हो गया। विकल होकर कमरे में टहलने लगे।

उन्होंने जरा देर पीछे पत्रको उठा लिया और अन्दर चले। विचारा था कि यह पत्र रामा को सुनावे, मगर फिर ख्याल आया कि यहाँ सहानुभूति की कोई आशा नहीं। क्यों अपनी निर्बलता दिखाऊं? क्यों मूर्ख बनूं? वह बिना तानोंके बात न करेगी। यह सोचकर वे आंगनसे लौट गये।

सरदार साहब स्वभावके बड़े दयालु थे और कोमल हृदय आपत्तियों में स्थिर नहीं रह सकता। वे दुःख और ग्लानिसे भरे हुए सोच रहे थे कि मैंने ऐसे कौनसे बुरे कर्म किये हैं जिनका मुझे यह फल मिल रहा है। बरसों की दौड़ धूप के बाद जो कार्य सिद्ध हुआ था वह क्षणमात्रमें नष्ट हो गया। अब वह मेरी सामर्थ्य से बाहर है। मैं उसे नहीं सम्हाल सकता। चारों ओर अन्धकार है। कहीं आशा का प्रकाश नहीं। कोई मेरा सहायक नहीं। उनके नेत्र सजल हो गये।

सामने मेजपर ठेकेदारों के बिल रक्खे हुए थे। वे कई सप्ताहों से योंही पड़े थे। सरदार साहबने उन्हें खोलकर भी न देखा था आज इस आत्मिक ग्लानि और नैराश्यकी अवस्थामें उन्होंने इन बिलों को सतृष्ण आंखों से देखा। जरा से इशारे पर ये सारी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं। चपरासी और क्लर्क केवल मेरी सम्मति के सहारे सब कुछ कर लेंगे। मुझे जबान हिलाने की भी जरूरत नहीं। न मुझे लज्जित ही होना पड़ेगा। इन विचारोंका इतना

रामाने उन्हें बहुत उदास और मलिनमुख देखा। उसने बार-बार कहा था कि बडे इन्जिनियर सानसामाको इनाम दो, हेड क्लर्क, की दावत करो, मगर सरदार साहब ने उसकी बात न मानी थी।इसलिये जब उसने सुना कि उनका दरजा घटा और बदली भी हुई तब उसने बडी निर्दयता से अपने व्यंग-वाण चलाये। मगर इस वक्त उन्हे उदास देखकर उससे ने रहा गया। बोली, क्यों इतने उदास हो? सरदार साहबने उत्तर दिया, क्या करू, हँसू? रामाने गम्भीर स्वर से कहा, हसना ही चाहिये। रोये तो वह जिसने कौडियोंपर अपनी आत्मा भ्रष्ट की हो-जिसने रुपयोंपर अपना धर्म बेचा हो। यह बुराई का दण्ड नहीं है। यह भलाई और जनता का दण्ड है। इसे सानन्द झेलना चाहिये।

यह कहकर उसने पतिकी ओर देखा तो नेत्रों में सच्चा अनुराग भरा हुआ दिखाई दिया । सरदार साहबने भी उसकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखा। उनकी हृदयेश्वरीका मुखारविन्द सच्चे आमोदसे विकसित था। उसे गले लगाकर वे बोले, रामा! मुझे तुम्हारी ही सहानुभूति की जरूरत थी अब मैं इस दण्ड को सहर्ष सहूँगा।