वैदेही वनवास/५ सती सीता
प्रकृति-सुन्दरी विहँस रही थी चन्द्रानन था दमक रहा।
परम-दिव्य बन कान्त-अंक में तारक-चय था चमक रहा ॥
पहन श्वेत-साटिका सिता की वह लसिता दिखलाती थी।
ले ले सुधा सुधा-कर-कर से वसुधा पर बरसाती थी ॥१॥
नील-नभोमण्डल बन बन कर विविध-अलौकिक-दृश्य निलय ।
करता था उत्फुल्ल हृदय को तथा हगों को कौतुकमय ।।
नीली पीली लाल बैंगनी रंग बिरंगी उडु अवली ।
बनी दिखाती थी मनोज्ञ तम छटा-पुंज की केलि-थली ॥२॥
कर फुलझड़ी क्रिया उल्काये दिवि को दिव्य बनाती थी।
भरती थीं दिगंत मे आभा जगती-ज्योति जगाती थी।
किसे नही मोहती, देखने को कब उसे न रुचि ललकी ।
उनकी कनक-कान्ति-लीकों से लसी नीलिमा नभ-तल की ॥३॥
जो ज्योतिर्मय बूटों से बहु सज्जित हो था कान्त बना।
अखिल-कलामय कुल लोकों का अति कमनीय वितान तना ॥
दिखा अलौकिकतम-विभूतियाँ चकित चित्त को करता था।
लीलामय की लोकोत्तरता लोक - उरों में भरता था॥४।।
राका-रजनी अनुरंजित हो जन - मन - रंजन में रत थी।
प्रियतम-रस से सतत सिक्त हो पुलकित ललकित तद्गत थी॥
ओस-विन्दु से विलस अवनि को मुक्ता माल पिन्हाती थी।
विरच किरीटी गिरि को तरु-दल को रजताभ बनाती थी ।।५।।
राज-भवन की दिव्य -अटा पर खड़ी जनकजा मुग्ध बनी।
देख रही थीं गगन-दिव्यता सिता-विलसिता-सित अवनी ॥
मंद मंद मारुत बहता था रात दो घड़ी बीती थी।
छत पर बैठी चकित - चकोरी सुधा चाव से पीती थी ।।६।।
थी सब ओर शान्ति दिखलाती नियति - नटी नर्तनरत थी।
फूली फिरती थी प्रफुल्लता उत्सुकताति तरंगित थी।
इसी समय बढ़ गया वायु का वेग, क्षितिज पर दिखलाया-
एक लघु - जलद - खण्ड पूर्व में जो बढ़ वारिद वन पाया ॥७॥
पहले छोटे छोटे घन के खण्ड घूमते दिखलाये।
फिर छायामय कर क्षिति - तल को सारे नभतल में छाये ।
तारापति छिप गया आवरित हुई तारकावलि सारी।
सिता बनी असिता, छिनती दिखलाई उसकी छवि - न्यारी ॥८॥
दिवि-दिव्यता अदिव्य बनी अब नहीं दिग्वधू हॅसती थी।
निशा-सुन्दरी की सुन्दरता अब न हगों में बसती थी ।।
कभी घन-पटल के घेरे में झलक कलाधर जाता था।
कभी चन्द्रिका बदन दिखाती कभी तिमिर घिर आता था ॥९॥
यह परिवर्तन देख अचानक जनक-नन्दिनी अकुलाई ।
चल गयंद-गति से अपने कमनीयतम अयन में आई ॥
उसी समय सामने उन्हें अति-कान्त विधु-बदन दिखलाया।
जिस पर उनको पड़ी मिली चिरकालिक-चिन्ता को छाया ॥१०॥
प्रियतम को आया विलोक आदर कर उनको बैठाला।
इतनी हुई प्रफुल्ल सुधा का मानों उन्हें मिला प्याला ।।
बोली क्यों इन दिनों आप इतने चिन्तित दिखलाते हैं।
वैसे खिले सरोज - नयन किसलिये न पाये जाते हैं ।।११।।
वह त्रिलोक-मोहिनी-विकचता वह प्रवृत्ति - आमोदमयी ।
वह विनोद की वृत्ति सदा जो असमंजस पर हुई जयी ।
वह मानस की महा - सरसता जो रस बरसाती रहती।
वह स्निग्धता सुधा-धारा सी जो वसुधा पर थी बहती ॥१२॥
क्यों रह गई न वैसी अब क्यों कुछ बदली दिखलाती है।
क्यों राका की सिता में न पूरी सितता मिल पाती है ।।
बड़े बड़े संकट -समयों मे जो मुख मलिन न दिखलाया।
अहह किस लिये आज देखती हूँ मैं उसको कुम्हलाया ॥१३।।
पड़े बलाओं में जिस पेशानी पर कभी न बल आया।
उसे सिकुड़ता बार बार क्यों देख मम हगों ने पाया ।।
क्यों उद्वेजक - भाव आपके आनन पर दिखलाते हैं।
क्यों मुझको अवलोक आपके हग सकरुण हो जाते हैं ॥१४॥
कुछ विचलित हो अति-अविचल-मति क्यों बलवत्ता खोती है।
क्यों आकुलता महा - धीर - गंभीर हृदय में होती है।
कैसे तेजः - पुंज सामने किस बल से वह अड़ती है।
कैसे रघुकुल-रवि-आनन पर चिन्ता छाया पड़ती है ॥१५॥
देख जनक - तनया का आनन सुन उनकी बाते सारी।
बोल सके कुछ काल तक नही अखिल-लोक के हितकारी ।
फिर बोले गंभीर भाव से अहह प्रिये क्या बतलाऊँ।
है सामने कठोर समस्या कैसे भला न घबराऊँ ॥१६॥
इतना कह लोकापवाद की सारी बातें बतलाई ।
गुरुताये अनुभूत उलझनों की भी उनको जतलाई ।
गन्धर्वो के महा-नाश से प्रजा - वृन्द का कॅप जाना।
लवणासुर का गुप्त भाव से प्रायः उनको उकसाना ॥१७॥
लोकाराधन में वाधाये खड़ी कर रहा है कैसी।
यह बतला फिर कहा उन्होने शान्ति - अवस्था है जैसी॥
तदुपरांत बन संयत रघुकुल-पुंगव ने यह बात कही।
जो जन-रव है वह निन्दित है, है वह नही कदापि सही ॥१८॥
यह अपवाद लगाया जाता है मुझको उत्तेजित कर ।
द्रोह - विवश दनुजों का नाश कराने में तुम हो तत्पर ।
इसी सत्र से कतिपय - कुत्साओं की है कल्पना हई।
अविवेकी जनता के मुख से निन्दनीय जल्पना हुई ॥१९॥
दमन नही मुझको वांछित है तुम्हें भी न वह प्यारा है।
सामनीति ही जन अशान्ति-पतिता की सुर-सरि-धारा है।
लोकाराधन के बल से लोकापवाद को दल दूंगा।
कलुषित-मानस को पावन कर मैं मन वांछित फल लूंगा ॥२०॥
इच्छा है कुछ काल के लिये तुमको स्थानान्तरित करूँ।
इस प्रकार उपजा प्रतीति में प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ ॥
क्यों दूसरे पिसे, संकट में पड़, बहु दुख भोगते रहें।
क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाये हम स्वयं सहें ॥२१॥
जनक - नन्दिनी ने हग में आते ऑसू को रोक कहा।
प्राणनाथ सब तो सह लूंगी क्यों जायेगा विरह सहा ॥
सदा आपका चन्द्रानन अवलोके ही मैं जीती हूँ।
रूप-माधुरी-सुधा तृषित बन चकोरिका सम पीती हूँ ॥२२॥
बदन विलोके बिना बावले युगल - नयन बन जायेगे।
तार वॉध बहते ऑसू का वार - वार घबरायेगे।
मुंह जोहते बीतते बासर राते सेवा में कटतीं।
हित-वृत्तियाँ सजग रह पल-पल कभी न थी पीछे हटती ॥२३॥
मिले बिना ऐसा अवसर कैसे मैं समय बिताऊँगी।
अहह आपको विना खिलाये मैं कैसे कुछ खाऊँगी॥
चित्त-विकल हो गये विकलता को क्यों दूर भगाऊँगी।
थाम कलेजा वार - बार कैसे मन को समझाऊँगी ।।२४।।
क्षमा कीजिये आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया ।
नही उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया ।।
अपने दुख की जितनी बाते मैंने हो उद्विग्न कही।
आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नही ।।२५।।
वह तो स्वाभाविक - प्रवाह था जो मुँह से बाहर आया।
आह ! कलेजा हिले कलपता कौन नहीं कव दिखलाया ।
किन्तु आप के धर्म का न जो परिपालन कर पाऊँगी।
सहधर्मिणी नाथ की तो मैं कैसे भला कहाऊँगी ॥२६॥
वही करूँगी जो कुछ करने की मुझको आज्ञा होगी।
'त्याग, करूँगी, इष्ट सिद्धि के लिये वना मन को योगी ।।
सुख - वासना स्वार्थ की चिन्ता दोनों से मुंह मोड़ेंगी।
लोकाराधन या प्रभु - आराधन निमित्त सब छोड़ेगी ।।२७।।
भवहित - पथ में क्लेशित होता जो प्रभु - पद को पाऊँगी।
तो सारे कण्टकित - मार्ग में अपना हृदय विछाऊँगी ।।
अनुरागिनी लोक - हित की वन सच्ची-शान्ति-रता हूँगी।
कर अपवर्ग - मंत्र का साधन तुच्छ स्वर्ग को मममँगी ।।२८।।
यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी।
जीवनधन पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगो ।
है लोकोत्तर त्याग आपका लोकाराधन है न्यारा।
कैसे संभव है कि वह न हो शिरोधार्य मेरे द्वारा ।।२९।।
विरह - वेदनाओं से जलती दीपक सम दिखलाऊँगी।
पर आलोक - दान कर कितने उर का तिमिर भगाऊँगी ।।
बिना बदन अवलोके आँखे ऑसू सदा बहायेगी।
पर मेरे उत्तप्त चित्त को सरस सदैव बनायेगी ॥३०॥
आकुलताये बार - बार आ मुझको बहुत सतायेगी।
किन्तु धर्म - पथ मे धृति-धारण का सन्देश सुनायेगी।
अन्तस्तल की विविध-वृत्तियाँ बहुधा व्यथित बनायेगी।
किन्तु वंद्यता विवुध-वृन्द - वन्दित की बतला जायेगी ॥३१॥
लगी लालसाये लालायित हो हो कर कलपायेगी।
किन्तु कल्पनातीत लोक - हित अवलोके बलि जायेगी ।।
आप जिसे हित समझे उस हित से ही मेरा नाता है ।
हैं जीवन - सर्वस्व आप ही मेरे आप विधाता हैं ॥३२॥
कहा राम ने प्रिये अब प्रिये कहते कुण्ठित होता हूँ।
अपने सुख - पथ में अपने हाथों में काटे बोता हूँ ॥
मैं दुख भोगू व्यथा सहूँ इसकी मुझको परवाह नहीं।
पड़ें, संकटों मे कितने निकलेगी मुँह से आह नही ।।३३।।
किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ।
कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को दुख देता हूँ।
तो विचित्रता भला कौन है जो प्रायः घबराता हूँ।
अपने हृदय - वल्लभा को मैं वन - वासिनी बनाता हूँ ॥३४॥
धर्म-परायणता पर-दुख-कातरता विदित तुमारी है।
भवहित-साधन-सलिल-मीनता तुमको अतिशय प्यारी है ।
तुम हो मूर्तिमती दयालुता दीन पर द्रवित होती हो।
संसृति के कमनीय क्षेत्र में कर्म - बीज तुम बोती हो ॥३५॥
इसीलिये यह निश्चित था अवलोक परिस्थिति हित होगा।
स्थानान्तरित विचार तुमारे द्वारा अनुमोदित होगा।
वही हुआ, पर विरह - वेदना भय से मैं बहु चिन्तित था।
देख तुमारी प्रेम प्रवणता अति अधीर था शंकित था ॥३६॥
किन्तु बात सुन प्रतिक्रिया की सहृदयता से भरी हुई।
उस प्रवृत्ति को शान्ति मिल गई जो थी अयथा डरी हुई।
तुम विशाल - हृदया हो मानवता है तुम से छबि पाती।
इसीलिये तुम में लोकोत्तर त्याग-वृत्ति है दिखलाती ॥३७॥
है प्राचीन पुनीत प्रथा यह मंगल की आकांक्षा से।
सब प्रकार की श्रेय दृष्टि से बालक हित की वांछा से॥
गर्भवती - महिला कुलपति - आश्रम में भेजी जाती है।
यथा - काल संस्कारादिक होने पर वापस आती है ॥३८॥
इसी सूत्र से वाल्मीकाश्रम में तुमको मैं भेजूंगा ।
किसी को न कुत्सित विचार करने का अवसर मैं दूंगा।
सब विचार से वह उत्तम है, है अतीव उपयुक्त वही ।
यही वशिष्ट देव अनुमति है शान्तिमयी है नीति यही ॥३९॥
तपो - भूमि का शान्त-आवरण परम-शान्ति तुमको देगा।
विरह - जनित - वेदना आदि की अतिशयता को हर लेगा।
तपस्विनी नारियाँ ऋषिगणों की पत्नियाँ समादर दे।
तुमको सुखित बनायेगी परिताप शमन का अवसर दे ॥४०॥
परम - निरापद जीवन होगा रह महर्षि की छाया मे ।
धारा सतत रहेगी बहती सत्प्रवृत्ति की काया में ।
विद्यालय की सुधी देवियाँ होंगी सहानुभूतिमयी।
जिससे होती सदा रहेगी विचलित-चित पर शान्ति जयी ॥४१॥
जिस दिन तुमको किसी लाल का चन्द्र-वदन दिखलायेगा।
जिस दिन अंक तुमारा रवि-कुल-रंजन से भर जायेगा ।।
जिस दिन भाग्य खुलेगा मेरा पुत्र रत्न तुम पाओगी।
उस दिन उर विरहांधकार मे कुछ प्रकाश पा जाओगी ॥४२॥
प्रजा - पुंज की भ्रान्ति दूर हो, हो अशान्ति का उन्मूलन ।
वुरी धारणा का विनाश हो, हो न अन्यथा उत्पीड़न ॥
स्थानान्तरित - विधान इसी उद्देश्य से किया जाता है।
अत. आगमन मेरा आश्रम में संगत न दिखाता है ॥४३॥
प्रिये इसलिये जब तक पूरी शान्ति नही हो जावेगी।
लोकाराधन - नीति न जव तक पूर्ण-सफलता पावेगी।
रहोगी वहाँ तुम तब तक मैं तब तक वहाँ न आऊँगा।
यह असह्य है, सहन-शक्ति पर मैं तुम से ही पाऊँगा ॥४४॥
आज की रुचिर राका - रजनी परम-दिव्य दिखलाती थी।
विहँस रहा था विधु पा उसको सिता मंद मुसकाती थी।
किन्तु बात की बात में गगन-तल में वारिद घिर आया ।
जो था सुन्दर समा सामने उस पर पड़ी मलिन-छाया ॥४५॥
पर अब तो मैं देख रहा हूँ भाग रही है घन - माला।
बदले हवा समय ने आकर रजनी का संकट टाला ।।
यथा समय आशा है यों ही दूर धर्म - संकट होगा।
मिले आत्मबल, आतप में सामने खड़ा वर - वट होगा ॥४६॥
चौपदे
जिससे अपकीर्ति न होवे।
लोकापवाद से छूट ।।
जिससे सद्भाव - विरोधी।
कितने ही बंधन टूटे ॥४७॥
जिससे अशान्ति की ज्वाला।
प्रज्वलित न होने पावे ।।
जिससे सुनीति - घन - माला ।
घिर शान्ति - वारि वरसावे ॥४८॥
जिससे कि आपकी गरिमा ।
बहु गरीयसी कहलावे ॥
जिससे गौरविता भू हो ।
भव मे भवहित भर जावे ॥४९।।
जानकी ने कहा प्रभु मैं।
उस पथ की पथिका हूँगी ।।
उभरे कॉटों में से ही।
अति - सुन्दर - सुमन चुनेंगी ॥५०॥
पद - पकज - पोत सहारे।
संसार - समुद्र तरूँगी।
वह क्यों न हो गरलवाला।
मैं सरस सुधा ही लूंगी ॥५१।।
शुभ - चिन्तकता के बल से।
क्यों चिन्ता चिंता बनेगी।
उर - निधि - आकुलता सीपी।
हित - मोती सदा जनेगी ॥५२॥
प्रभु - चित्त - विमलता सोचे ।
धुल जायेगा मल सारा ।।
सुरसरिता बन जायेगी।
ऑसू की बहती धारा ॥५३।।
कर याद दयानिधिता की।
भूगी बाते दुख की।
उर - तिमिर दूर कर देगी।
रति चन्द - विनिन्दक मुख की ॥५४॥
मैं नही बनूंगी व्यथिता ।
कर सुधि करुणामयता की।
मम हृदय न होगा विचलित ।
अवगति से सहृदयता की ॥५५।।
होगी न वृत्ति वह जिससे ।
खोऊँ प्रतीति जनता की ।
धृति - हीन न हूँगी समझे।
गति धर्म - धुरंधरता की ।।५६।।
कर भव - हित सच्चे जी से।
मुझमें निर्भयता होगी ।
जीवन - धन के जीवन में।
मेरी तन्मयता होगी ॥५७।।
दोहा
पति का सारा कथन सुन, कह बातें कथनीय ।
रामचन्द्र - मुख - चन्द्र की, वनीं चकोरी सीय ॥५८।।