वैदेही वनवास/४ वशिष्ठाश्रम

वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
वशिष्ठाश्रम

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ५५ से – ६६ तक

 
५५
चतुर्थ सर्ग

वन प्रफुल्ल फल फूल दान में हो निरत ।
मंद मंद दोलित हो, वे थी विलसती ।।
प्रात' - कालिक सरस - पवन से हो सुखित ।
भू पर मंजुल मुक्तावलि थीं बरसती ।।८॥

विहग - वृन्द कर गान कान्त - तम - कंठ से ।
विरच विरच कर विपुल-विमोहक टोलियाँ।
रहे बनाते मुग्ध दिखा तन की छटा ।
बोल बोल कर बड़ी अनूठी बोलियाँ॥९॥

काक कुटिलता वहाँ न था करता कभी।
कॉ कॉ रव कर था न कान को फोड़ता।
पहुँच वहाँ के शान्त - वात - आवरण मे।
हिंसक खग भी हिसकता था छोड़ता ॥१०॥

नाच नाच कर मोर दिखा नीलम - जटित ।
अपने मजुल - तम पंखों की माधुरी ॥
खेल रहे थे गरल - रहित - अहि - वृन्द से।
वजा बजा कर पूत - वृत्ति की वॉसुरी ।।११।।

मरकत - मणि-निभ अपनी उत्तम - कान्ति से।
हरित - तृणावलि थी हृदयो को मोहती ।।
प्रातः - कालिक किरण - सालिका - सूत्र मे।
ओस - विन्दु की मुक्तावलि थी पोहती ॥१२॥

५६
वैदेही-वनवास

विपुल - पुलकिता नवल - शस्य सी श्यामला।
बहुत दूर तक दूर्वावलि थी शोभिता ।।
नील - कलेवर - जलधि ललित - लहरी समा।
मंद - पवन से मंद मंद थी दोलिता ।।१३।।

कल कल रव आकलिता - लसिता - पावनी ।
गगन - विलसिता सुर - सरिता सी सुन्दरी ॥
निर्मल - सलिला लीलामयी लुभावनी ।
आश्रम सम्मुख थी सरसा - सरयू सरी ॥१४॥

परम - दिव्य - देवालय उसके कूल के।
कान्ति - निकेतन पूत - केतनों को उड़ा॥
पावनता भरते थे मानस - भाव में।
पातक - रत को पातक पंजे से छुड़ा ॥१५॥

वेद - ध्वनि से मुखरित वातावरण था।
स्वर - लहरी स्वर्गिक - विभूति से थी भरी ॥
अति - उदात्त कोमलतामय - आलाप था।
मंजुल - लय थी हृत्तंत्री झंकृत करी ॥१६॥

धीरे धीरे तिमिर - पुंज था टल रहा ।
रवि - स्वागत को उपासुन्दरी थी खड़ी ॥
इसी समय सरयू - सरि - सरस - प्रवाह में।
एक दिव्यतम नौका दिखलाई पड़ी ॥१७॥

५७
चतुर्थ सर्ग

जब आकर अनुकूल - कूल पर वह लगी।
तब रघुवंश - विभूपण उस पर से उतर ।।
परम - मन्द - गति से चल कर पहुंचे वहाँ।
आश्रम मे थे जहाँ राजते ऋपि प्रवर ॥१८॥

रघुनन्दन को वन्दन करते देख कर ।
मुनिवर ने उठ उनका अभिनन्दन किया ।।
आशिष दे कर प्रेम सहित पूछी कुशल ।
तदुपरान्त आदर से उचितासन दिया ॥१९।।

सौम्य - मूर्ति का सौम्य - भाव गंभीर - मुख ।
आश्रम का अवलोक शान्त - वातावरण ।।
विनय - मूर्ति ने बहुत विनय से यह कहा ।
निज - मर्यादित भावों का कर अनुसरण ।।२०।।

आपकी कृपा के बल से सब कुशल है।
सकल - लोक के हित व्रत मे मैं हूँ निरत ।।
प्रजा सुखित है शान्तिमयी है मेदिनी ।
सहज - नीति रहती है सुकृतिरता सतत ॥२१॥

किन्तु राज्य का संचालन है जटिल-तम ।
जगतीतल है विविध - प्रपंचो से भरा।
है विचित्रता से जनता परिचालिता।
सदा रह सका कब सुख का पादप हरा ।।२२।।

५८
वैदेही-वनवास

इतना कह कर हंस - वंश - अवतंस ने।
दुर्मुख की सव बाते गुरु से कथन की।
पुनः सुनाई भ्रातृ - वृन्द की उक्तियाँ।
जो हित-पट पर मति-मृदु-कर से थीं अॅकी ॥२३॥

तदुपरान्त यह कहा दमन वांछित नही ।
साम - नीति अवलम्बनीय है अब मुझे ॥
त्याग करूँ तब बड़े से बड़ा क्यों न मैं।
अंगीकृत है लोकाराधन जब मुझे ॥२४॥

हैं विदेहजा मूल लोक - अपवाद की।
तो कर दूं मैं उन्हें न क्यों स्थानान्तरित ।।
यद्यपि यह है बड़ी मर्म - वेधी - कथा।
तथा व्यथा है महती - निर्ममता - भरित ॥२५॥

किन्तु कसौटी है विपत्ति मनु - सूनु की।
स्वयं कष्ट सह भव - हित - साधन श्रेय है।
आपत्काल, महत्त्व - परीक्षा - काल है।
संकट मे धृति धर्म प्राणता ध्येय है ॥२६॥

ध्वंस नगर हों, लुटे लोग, उजड़े सदन ।
गले कट, उर छिदे, महा - उत्पात हो।
वृथा मर्म - यातना विपुल - जनता सहे।
बाल वृद्ध वनिता पर वज्र - निपात हो ॥२७।।

५९
चतुर्थ सर्ग

इन बातों से तो अब उत्तम है। यही।
यदि वनती है वात, स्वयं मैं सब सहूँ ।।
हो प्रियतमा वियोग, प्रिया व्यथिता बने।
तो भी जन-हित देख अविचलित-चित रहूँ ॥२८॥

प्रश्न यही है कहाँ उन्हें मैं भेज दूं।
जहाँ शान्त उनका दुखमय जीवन रहे ।।
जहाँ मिले वह वल जिसके अवलंब से।
मर्मान्तिक बहु - वेदन जाते हैं सहे ॥२९॥

आप कृपा कर क्या बतलायेगे मुझे।
वह शुचि - थल जो सब प्रकार उपयुक्त हो॥
जहाँ बसी हो शान्ति लसी हो दिव्यता।
जो हो भूति - निकेतन भीति - विमुक्त हो ॥३०॥

कभी व्यथित हो कभी वारि हग में भरे।
कभी हृदय के उद्वेगों का कर दमन ।
वाते रघुकुल - रवि की गुरुवर ने सुनी ।
कभी धीर गंभीर नितान्त - अधीर वन ॥३१।।

कभी मलिन - तम मुख - मण्डल था दीखता ।
उर मे वहते थे अशान्ति सोते कभी ।।
कभी संकुचित होता भाल विशाल था ।
युगल - नयन विस्फारित होते थे कभी ॥३२॥

६०
वैदेही-वनवास

कुछ क्षण रह कर मौन कहा गुरुदेव ने।
नृपवर यह ससार म्वार्थ - सर्वम्ब है।
आत्म - परायणता ही भव मे है भरी।
प्राणी को प्रिय प्राण समान निजस्व है ॥३३

अपने हित साधन की ललकों में पडे ।
अहित लोक लालों के लोगों ने किये ॥
प्राणिमात्र के दुख को भव - परिताप को।
तृण गिनता है मानव निज सुख के लिये ॥३४॥

सभी सॉसते सह बलाओ में फंसे ।
करे लोग विकराल काल का सामना ।।
तो भी होगी नहीं अल्प भी कुण्ठिता ।
मानव की ममतानुगामिनी कामना ।।३५।।

किसे अनिच्छा प्रिय इच्छाओं से हुई।
वांछाओं के बन्धन मे हैं बद्ध सब ।।
अर्थ लोभ से कहाँ अनर्थ हुआ नही ।
इष्ट सिद्धि के लिये अनिष्ट हुए न कव ॥३६॥

ममता की प्रिय - रुचियाँ वाधाये पड़े।
बन जाती जनता निमित्त हैं ईतियाँ ।।
विबुध - वृन्द की भी गत देती हैं बना ।
गौरव - गर्वित - गौरवितों की वृत्तियाँ ॥३७॥

६१
चतुर्थ सर्ग

तम - परि - पूरित अमा - यामिनी - अंक में।
नही विलसती मिलती है राका - सिता ॥
होती है मति, रहित सात्विकी - नीति से ।
स्वत्व - ममत्व महत्ता - सत्ता मोहिता ॥३८॥

किन्तु हुए हैं महि मे ऐसे नृमणि भी।
मिली देवतो जैसी जिनमे दिव्यता ।।
जो मानवता तथा महत्ता मूर्ति थे।
भरी जिन्होने भव - भावो मे भव्यता ॥३९॥

वैसे ही है आप भूतियाँ आप की।
हैं तम - भरिता - भूमि की अलौकिक - विभा ।।
लोक - रंजिनी पूत - कीर्ति - कमनीयता।
है सज्जन सरसिज निमित्त प्रात - प्रभा॥४०॥

बात मुझे लोकापवाद की ज्ञात है।
वह केवल कलुपित चित का उद्गार है।
या प्रलाप है ऐसे पामर - पुंज का।
अपने उर पर जिन्हें नहीं अधिकार है ॥४१।।

होती है सुर - सरिता अपुनीता नही ।
पाप - परायण के कुत्सित आरोप से ॥
होंगी कभी अगौरविता गौरी नही।
किन्ही अन्यथा कुपित जनों के कोप से ॥४२॥

६२
वैदेही-वनवास

रजकण तक को जो करती है दिव्य तम ।
वह दिनकर की विश्व - व्यापिनी - दिव्यता ॥
हो पायेगी बुरी न अंधों के बके ।
कहे उलूकों के न बनेगी निन्दिता ।।४३।।

ज्योतिमयी की परम - समुज्ज्वल ज्योति को।
नहीं कलंकित कर पायेगी कालिमा ॥
मलिना होगी किसी मलिनता से नहीं।
ऊपादेवी की लोकोत्तर - लालिमा ॥४४॥

जो सुकीर्ति जन - जन - मानस में है लसी।
जिसके द्वारा धरा हुई है धवलिता ।।
सिता - समा जो है दिगंत में व्यापिता।
क्यों होगी वह खल कुत्सा से कलुषिता ।।४५।।

जो हलचल लोकापवाद आधार से।
है उत्पन्न हुई, दुरन्त है हो रही ।
उसका उन्मूलन प्रधान - कर्त्तव्य है।
किन्तु आप को दमन - नीति प्रिय है नहीं ॥४६॥

यद्यपि इतनी राजशक्ति है बलवती ।
कर देगी उसका विनाश वह शीघ्र तम ।।
पर यह लोकाराधन - व्रत - प्रतिकूल है।
अतः इष्ट है शान्ति से शमन लोक भ्रम ॥४७॥

६३
चतुर्थ सर्ग

सामनीति का मैं विरोध कैसे करूँ।
राजनीति को वह करती है गौरवित ।।
लोकाराधन ही प्रधान नृप - धर्म है।
किन्तु आपका व्रत विलोक मैं हूँ चकित ॥४८॥

त्याग आपका है उदात्त धृति धन्य है।
लोकोत्तर है आपकी सहनशीलता ॥
है अपूर्व आदर्श लोकहित का जनक ।
है महान भवदीय नीति - मर्मज्ञता ॥४९॥

आप पुरुष हैं नृप व्रत पालन निरत हैं।
पर होवेगी क्या पति प्राणा की दशा ।।
आह । क्यों सहेगी वह कोमल हृदय पर ।
आपके विरह की लगती निर्मम - कशा ॥५०॥

जो हो पर पथ आपका अतुलनीय है।
लोकाराधन की उदार - तम - नीति है।
आत्मत्याग का बड़ा उच्च उपयोग है।
प्रजा - पुंज की उसमे भरी प्रतीति है ॥५१॥

आर्य - जाति की यह चिरकालिक है प्रथा ।
गर्भवती प्रिय - पत्नी को प्रायः नृपति ।।
कुलपति पावन - आश्रम मे हैं भेजते ।
हो जिससे सब - मंगल, शिशु हो शुद्धमति ॥५२॥

६४
वैदेही-वनवास

है पुनीत - आश्रम वाल्मीकि - महर्षि का।
पतित - पावनी सुरसरिता के कूल पर ।।
वास योग्य मिथिलेश सुता के है वही !
सब प्रकार वह है प्रशान्त है श्रेष्ठतर ॥५३॥

वे कुलपति हैं सदाचार - सर्वस्व हैं।
वहाँ बालिका - विद्यालय भी है विशद ॥
जिसमें सुरपुर जैसी हैं बहु - देवियाँ।
जिनका शिक्षण शारदा सदृश है वरद ॥५४॥

वहाँ ज्ञान के सब साधन उपलब्ध हैं।
सब विपयों के बहु विद्यालय हैं बने ।
दश - सहस्र वर - बटु विलसित वे हैं, वहाँ-
शान्ति वितान प्रकृति देवी के हैं तने ॥५५॥

अन्यस्थल मे जनक - सुता का भेजना।
संभव है वन जाये भय की कल्पना ।।
आपकी महत्ता को समझेगे न सब ।
शंका है, बढ़ जाये जनता - जल्पना ॥५६॥

गर्भवती हैं जनक - नन्दिनी इसलिये ।
उनका कुलपति के आश्रम मे भेजना ।।
सकल - प्रपंचो पचड़ों से होगा रहित ।
कही जायगी प्रथित - प्रथा - परिपालना ॥५७।।

६५
चतुर्थ सर्ग

जैसी इच्छा आपकी विदित, हुई है।
वाल्मीकाश्रम वैसा पुण्य - स्थान- है।
अत वहाँ ही विदेहजा को भेजिये |
वह है शान्त, सुरक्षित, सुकृति-निधान है ।।५८।।

किन्तु आपसे यह विशेष अनुरोध है।
सब बाते कान्ता को बतला दीजिये।
स्वयं कहेगी वह पति प्राणा आप से।
लोकाराधन में विलंब मत कीजिये ॥५९॥

सती - शिरोमणि पति - परायणा पूत - धी।
वह देवी है दिव्य - भूतियों से भरी ।।
है उदारतामयी सुचरिता सव्रता ।
जनक - सुता है परम - पुनीता सुरसरी ।।६०॥

जो हित - साधन होता हो पति - देव का ।
पिसे न जनता, जो न तिरस्कृत हों कृती ॥
तो संमृति में है वह संकट कौन सा।
जिसे नही सह सकती है ललना सती ॥६१॥

प्रियतम के अनुराग - राग मे रेंग गये।
रहती जिसके मंजुल - मुख की लालिमा ॥
सिता - समुज्वल उसकी महती कीत्ति में।
वह देखेगी कैसे लगती कालिमा ॥६२।।

६६
वैदेही-वनवास

अवलोकेगी अनुत्फुल्ल वह क्यों उसे ।
जिस मुख को विकसित विलोकती थी सदा ।।
देखेगी वह क्यों पति - जीवन का असुख ।
जो उत्सर्गी - कृत - जीवन थी सर्वदा ॥६॥

दोहा


सुन बाते गुरुदेव की, सुखित हुए श्रीराम ।
आज्ञा मानी ली विदा, सविनय किया प्रणाम ॥६४॥