वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कातरोक्ति

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ७९ से – ९७ तक

 
षष्ठ सर्ग
कातरोक्ति
पादाकुलक

प्रवहमान प्रातः - समीर था।
उसकी गति में थी मंथरता॥
रजनी - मणिमाला थी टूटी।
पर प्राची थी प्रभा - विरहिता ॥१॥

छोटे छोटे धन के टुकड़े।
घूम रहे थे नभ - मण्डल में ।
मलिना - छाया पतित हुई थी।
प्राय जल के अन्तस्तल में ॥२॥

८०
वैदेही-वनवास

कुछ कालोपरान्त कुछ लाली ।
काले घन - खंडों ने पाई॥
खड़ी ओट में उनकी ऊपा।
अलस भाव से भरी दिखाई ॥३॥

अरुण - अरुणिमा देख रही थी।
पर था कुछ परदा सा डाला ॥
छिक छिक करके भी क्षिति-तल पर।
फैल रहा था अब उँजियाला॥४॥

दिन-मणि निकले तेजोहत से।
रुक रुक करके किरणे फूटीं ॥
छूट किसी अवरोधक - कर से ।
छिटिक छिटिक धरती पर टूटी ।।५।।

राज - भवन होगया कलरवित ।
बजने लगा वाद्य तोरण पर ॥
दिव्य - मन्दिरों को कर मुखरित ।
दूर सुन पड़ा वेद - ध्वनि स्वर ॥६॥

इसी समय मंथर गति से चल ।
पहुंची जनकात्मजा वहाँ पर ।।
कौशल्या देवी बैठी थी।
बनी विकलता - मूर्ति जहाँ पर ॥७॥

षष्ठ सर्ग

पग - वन्दन कर जनक तान्दना।
उनके पास बैठ कर वोलीं।।
धीरज धर कर विनत - भाव से ।
प्रिय - उक्तियाँ थैलियाँ खोली ॥८॥

कर मंगल - कामना प्रसव की।
जनन - क्रिया की सद्वांछा से ॥
सकल - लोक उपकार - परायण ।
पुत्र - प्राप्ति की आकांक्षा से॥९॥

है पतिदेव भेजते मुझको।
वाल्मीक के पुण्याश्रम में।
दीपक वहाँ वलेगा ऐसा ।
जो आलोक करेगा तम में ॥१०॥

आज्ञा लेने मैं आई है।
और यह निवेदन है मेरा॥
यह दे आशीर्वाद सदा ही।
रहे सामने दिव्य सवेरा ॥११॥

दुख है अब मैं कर न सकूँगी।
कुछ दिन पद - पंकज की सेवा ।।
आह प्रति-दिवस मिल न सकेगा।
अब दर्शन मजुल - तम - मेवा ॥१२॥

८२
वैदेही-वनवास

माता की ममता है मानी।
किस मुंह से क्या सकती हूँ कह ।।
पर मेरा मन नहीं मानता।
मेरी विनय इसलिये है यह ॥१३॥

मैं प्रति - दिन अपने हाथों से।
सारे व्यंजन रही बनाती ॥
पास बैठ कर पंखा झल झल ।
प्यार सहित थी उन्हें खिलाती ॥१४॥

प्रिय-तम सुख - साधन-आराधन-
में थी सारा - दिवस बिताती ॥
उनके पुलके रही पुलकती ।
उनके कुम्हलाये कुम्हलाती ।।१५।।

हैं गुणवती दासियाँ कितनी ।
हैं पाचक पाचिका नही कम ।।
पर है किसी में नही मिलती।
जितना वांछनीय है संयम ॥१६॥

जरा - जर्जरित स्वयं आप हैं।
है क्षन्तव्य धृष्टता मेरी॥
इतना कह कर जननि आपकी ।
केवल दृष्टि इधर है फेरी ॥१७॥

८३
षष्ठ सर्ग

कहा श्रीमती कौशल्या ने।
मुझे ज्ञात हैं सारी बाते ।
मंगलमय हो पंथ तुम्हारा।
बने दिव्य - दिन रंजित - राते ॥१८॥

पुण्य - कार्य है गुरु - निदेश है।
है यह प्रथा प्रशंसनीय - तम ॥
कभी न अविहित - कर्म करेगा।
रघुकुल - पुंगव प्रथित - नृपोत्तम ॥१९॥

आश्रम - वास - काल होता है।
कुलपति द्वारा ही अवधारित ॥
बरसों का यह काल हुए, क्यों ?
मेरे दिन होंगे अतिवाहित ॥२०॥

मंगल - मूलक महत्कार्य है।
है विभूतिमय यह शुभ - यात्रा॥
पूरित इसके अवयव में है।
प्रफुल्लता की पूरी मात्रा ॥२१॥

किन्तु नहीं रोके रुकता है।
ऑसू ऑखों मे है आता ॥
समझाती हूँ पर मेरा मन ।
मेरी बात नहीं सुन पाता ॥२२॥

८४
वैदेही-वनवास

तुम्ही राज - भवनों की श्री हो।'
तुमसे वे हैं शोभा पाते ।।
तुम्हें लाभ करके विकसित हो।
वे हैं हँसते से दिखलाते ॥२३॥

मंगल - मय हो, पर न किसीको ।
यात्रा - समाचार भाता है।
ऐसी कौन आँख हैं जिसमें।
तुरत नहीं ऑसू आता है ॥२४॥

गृह में आज यही चर्चा है।
जावेगी तो कब आवेगी।
कौन सुदिन वह होगा जिस दिन ।
कृपा - वारि आ बरसावेंगी ॥२५॥

हो अनाथ - जन की अवलम्बन ।
हृदय वड़ा कोमल पाया है।
भरी सरलता है रग रग मे।
पूत - सुरसरी सी काया है ॥२६॥

जव देखा तव हंसते देखा।
क्रोध नही तुमको आता है।
कटु वाते कव मुख से निकलीं।
वचन सुधा - रस वरसाता है ॥२७।।

८५
षष्ठ सर्ग

जैसी तुम में पुत्री वैसी।
किस जी मे ममता जगती है।
और को कलपता अवलोके ।
कौन यों कलपने लगती है ।।२८।।

विना बुलाये मेरा दुख सुन । '
कौन दौड़ती आ जाती थी।
पास बैठकर कितनी राते ।
जगकर कौन विता जाती थी ।।२९।।

मेरा क्या दासी का दुख भी।
तुम देखने नही पाती थी।
भगिनी के समान ही उसकी ।
सेवा में भी लग जाती थी॥३०॥

विदा मॉगते समय की कही।
विनयमयी तव बाते कहकर ।।
रोई वार वार कैकेयी ।
बनी सुमित्रा ऑखे निर्झर ।।३१।।

उनकी आकुलता अवलोके ।
कल्ह रात भर नीद न आई ॥
रह रह घबराती हूँ, जी मे-
आज भी उदासी है छाई ॥३२॥

८६
वैदेही-वनवास

तुम जितनी हो, कैकेयी को।
है न माण्डवी उतनी प्यारी॥
वधुओं बलित सुमित्रा में भी।
देखी ममता अधिक तुमारी ॥३३॥

फिर जिसकी आँखों की पुतली ।
लकुटी जिस वृद्धा के कर की।
छिनेगी न कैसे वह कलपे।
छाया रही न जिसके सिर की ॥३४॥

जिसकी हृदय - वल्लभा तुम हो।
जो तुमको पलकों पर रखता।
प्रीति - कसौटी पर कस जो है।
पावन - प्रेम - सुवर्ण परखता ॥३५॥

जिसका पत्नी - व्रत प्रसिद्ध है।
जो है पावन • चरित कहाता ।।
देख तुमारा अरविन्दानन ।
जो है विकच - वदन दिखलाता ॥३६॥

जिसकी सुख - सर्वस्व तुम्ही हो।
जिसकी हो आनन्द - विधाता ।।
जिसकी तुम हो शक्ति - स्वरूपा ।
जो तुम से पौरुप है पाता ॥३७॥

८७
पष्ठ सर्ग

जिसकी सिद्धि-दायिनी तुम हो।
तुम सच्ची गृहिणी हो जिसकी ।।
सव तन मन धन अपण कर भी।
अब तक बनी ऋणी हो जिसकी ॥३८॥

अरुचिर कुटिल - नीति से ऊबे ।
जिसको तुम पुलकित करती हो ।।
जिसके विचलित-चिन्तित-चित मे ।
चारु - चित्तता तुम भरती हो ॥३९॥

कैसे काल कटेगा उसका।
उसको क्यों न वेदना होगी।
होते हृदय मनुज - तन - धर वह ।
बन पायेगा क्यों न वियोगी ॥४०॥

रघुनन्दन है धीर - धुरंधर ।
धर्म प्राण है भव - हित - रत है।
लोकाराधन में है तत्पर ।
सत्य - संध है सत्य - व्रत है ॥४१॥

नीति - निपुण है न्याय - निरत है।
परम - उदार महान - हृदय है।
पर उसको भी गूढ़ समस्या ।
विचलित करती यथा समय है॥४२॥

८८
वैदेही-वनवास

ऐसे अवसर पर सहायता ।
सच्ची वह तुमसे पाता था।
मंद मंद बहते मारुत से।
घिरा घन - पटल टल जाता था ।॥४३॥

है विपत्ति - निधि - पोत-स्वरूपा।
सहकारिणी सिद्धियों की है।
है पत्नी केवल न गेहिनी।
सहधर्मिणी मंत्रिणी भी है ॥४४॥

खान पान सेवा की बाते ।
कह तुमने है मुझे रुलाया ।।
अपनी व्यथा कहूँ मैं कैसे ।
आह कलेजा मुँह को आया ।।४५।।

जिस दिन सुत ने आ प्रफुल्ल हो । .
आश्रम - वास प्रसंग सुनाया।
उस दिन उस प्रफुल्लता में भी।
मुझको मिली व्यथा की छाया ॥४६॥

मिले चतुर्दश - वत्सर का वन ।
राज्य श्री की हुए विमुखता ।।
कान्ति-विहीन न जो हो पाया।
दूर हुई जिसकी न विकचता ।।४७।।

८९
षष्ठ सर्ग

क्यों वह मुख जैसा कि चाहिये ।
वैसा नही प्रफुल्ल दिखाता॥
तेज - वन्त - रवि के सम्मुख क्या ।
है रज - पुंज कभी आ जाता ।।४८।।

आत्मत्याग का बल है सुत को।
उसकी सहन - शक्ति है न्यारी॥
वह परार्थ - अर्पित - जीवन है।
है रघुकुल - मुख - उज्वलकारी ॥४९॥

है मम - कातरोक्ति स्वाभाविक ।
व्यथित हृदय का आश्वासन है ।।
शिरोधार्य गुरु - देवाज्ञा है।
मांगलिक सुअन - अनुशासन है ।।५०॥

रोला


जाओ पुत्री परम - पूज्य पति - पथ पहचानो।
जाओ अनुपम - कीर्ति वितान जगत मे तानो ।।
जाओ रह पुण्याश्रम मे वांछित फल पाओ।
पुत्र - रत्न कर प्रसव वंश को वंद्य वनाओ ।।५१।।

जाओ मुनि - पुंगव - प्रभाव की प्रभा वढ़ाओ।
जाओ परम - पुनीत - प्रथा की व्वजा उड़ाओ।
जाओ आकर यथा - शीघ्र उर - तिमिर भगाओ।
निज-विधु-वदन समेत लाल-विधु-वदन दिखाओ ।।५२।।

९१
षष्ठ सर्ग

वाल्मीकाश्रम में जाकर ।
कब तक तुम वहाँ रहोगी ।।
यह ज्ञात नही तुमको भी।
कुछ कैसे भला कहोगी ।।५८।।

दस पॉच बरस तक तुमको।
जो रहना पड़ जायेगा ।।
'विच्छेद' बलाये कितनी।
हम लोगों पर लायेगा ।।५९।।

कर अनुगामिता तुमारी।
सुखमय है सदन हमारा ।।
कलुषित - उर में भी बहती-
रहती है सुर - सरि - धारा ॥६०॥

जो उलझन सम्मुख आई।
उसको तुमने सुलझाया ॥
जो ग्रंथि न खुलती, उसको-
तुमने ही खोल दिखाया ॥६१।।

अवलोक तुमारा आनन ।
है शान्ति चित्त में होती ।।
हृदयों मे बीज सुरुचि का।
है सूक्ति तुमारी बोती ॥६२।।

९२
वैदेही-वनवास

स्वाभाविक स्नेह
भव - जीव - मात्र है पाता ।।
कर भला तुमारा मानस ।
है विकच - कुसुम बन जाता ॥६३॥

प्रति दिवस तुमारा दर्शन ।
देवता - सहश थी करती ।।
अवलोक - दिव्य - मुख - आभा ।
निज हृदय – तिमिर थीं हरती ॥६४॥

अव रहेगा न यह अवसर ।
सुविधा दूरीकृत होगी।
विनता बहनों की विनती।
आशा है स्वीकृत होगी ।।६५।।

माण्डवी का कथन सुन कर ।
मुख पर विलोक दुख - छाया ।
बोली विदेहजा धीरे।
नयनों में जल था आया ।।६६।।

जर्जरित - गात अति - वृद्धा।
हैं तीन तीन माताएँ ।
जिन्हें घेरती रहती।
आ आ कर दुश्चिन्ताये ॥६७॥

९३
षष्ठ सर्ग

है सुख - मय रात न होती।
दिन में है चैन न आता ।।
दुर्वलता - जनित - उपद्रव ।
प्रायः है जिन्हें सताता ॥६८।।

मेरी यात्रा से अतिशय ।
आकुल वे हैं दिखलाती ।।
है कभी कराहा करती।
है ऑसू कभी वहाती ॥६९॥

वहनों उनकी सेवा तज ।
क्या उचित है कही जाना ॥
तुम लोग स्वयं यह समझो।
है । धर्म उन्हें कलपाना ? ।।७०॥

है मुख्य - धर्म पत्नी का।
पति - पद - पंकज की अर्चा ।।
जो स्वय पति - रता होवे ।
क्या उससे इसकी चर्चा ॥७१॥

पर एक बात कहती हूँ।
उसके मर्मों को छूलो ॥
निज - प्रीति - प्रपंचों मे पड ।
पति - पद सेवा मत भूलो ॥७२॥

९४
वैदेही-वनवास

अन्य स्त्री 'जा, न सकी यह ।
है पूत - प्रथा बतलाती ॥
नृप - गर्भवती - पत्नी ही।
ऋषि - आश्रम में है जाती ॥७३॥

अतएव सुनो प्रिय बहनो।
क्यों मेरे साथ चलोगी।
कर अपने कर्तव्यों को।
कल - कीर्ति लोक में लोगी ॥७४॥

है मृदु तुम लोगों का उर ।
है उसमें प्यार छलकता ॥
मुझ से लालित पालित हो।
है मेरी ओर ललकता ॥७५॥

जैसा ही मेरा हित है।
तुम लोगों को अति - प्यारा॥
वैसी ही मेरे उर में।
बहती है हित की धारा ७६॥

तुम लोगों का पावन - तम ।
अनुराग - राग अवलोके ॥
है हृदय हमारा गलता।
ऑसू रुक पाया रोके ॥७७॥

९५
षष्ट सर्ग

क्यों तुम लोगों को बहनो।
मैं रो रो अधिक रुलाऊँ॥
क्यों आहें भर भर करके।
पत्थर को भी पिघलाऊँ ॥७८॥

इस जल - प्रवाह को हमको।
तुम लोगों को संयत रह ॥
सद्बुद्धि बाँध के द्वारा।
रोकना पड़ेगा सव सह ॥७९॥

दस पाँच बरस आश्रम में।
मैं रहूँ या रहूँ कुछ दिन ॥
तुम लोग क्या करोगी इन ।
आश्रम के दिवसों को गिन ॥८०॥

जैसी कि परिस्थिति होगी।
वह टलेगी नहीं टाले ॥
भोगना पड़ेगा उसको ।
क्या होगा कंधा डाले ॥८१॥

मांडवी कहो क्या तुमने।
यौवन - सुख को कर स्वाहा ॥
पति - ब्रह्मचर्य को चौदह-
सालों तक नही निबाहा ॥८२॥

९६
वैदेही-वनवास

इस खिन्न उर्मिला ने है।
जो सहन - शक्ति दिखलाई ॥
जिसकी सुध आते, मेरा-
दिल हिला ऑख भर आई ॥८३॥

क्या वह हम लोगों को है।
धृति - महिमा नही बताती ॥
क्या सत्प्रवृत्ति की शिक्षा ।
है सभी को न दे जाती ॥८४॥

ऑसू
पर सीच
तो उनमें
जो बूंद
आयेगे आवे ।
सुकृत - तरु - जावे ।।
पर - हित द्युति हो ।
वने दिखलाये ॥८५॥

श्रुतिकीर्ति मांडवी जैसी।
महनीय - कीर्ति तू भी हो।
मत विचल समझ मधु - मारुत ।
चल रही अगर लू भी हो ॥८६॥

उर्मिला सहा तुझ में भी।
वसुधावलम्बिनी - धृति हो ।
जिससे भव - हित हो ऐसी।
तीनों बहनों की कृति हो ।।८७।।

षष्ठ सर्ग

मत रोना भूल न जाना।
कुल - मंगल सदा मनाना ।।
कर पूत - साधना अनुदिन ।
वसुधा पर सुधा वहाना ॥८८।।

दोहा

इसी समय आये वहाँ, धीर - वीर - रघुवीर।
बहने विदा हुई बरस नयनों से बहु - नीर ॥८९।।