राजा और प्रजा/१ अँगरेज और भारतवासी
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अँगरेज और भारतवासी।
There is nothing like love and admiration for bringing people to a likeness with what they love and admire; but the Englishman seems never to dream of employing these influences upon a race he wants to fuse with himslf. He employs simply material interests for his work of fusion; and, beyond these nothing except scorn and rebuke. Accord- ingly there is no vital union between him and the races he has annexed; and while France can freely boast of her magnificent unity, a unity of spirit no less than of name between all the people who compose her, in our country the Englishman proper is in union of spirit with no one except other Englishmen proper like himself.
Matthew Arnold,
हमारे यहाँके प्राचीन पुराणों और इतिहासोंमें लिखा है कि जबतक चरित्र या आचरणमें कोई छिद्र ( या दोष ) न हो तबतक अलक्ष्मी- को प्रवेश करनेका कोई मार्ग नहीं मिलता, लेकिन दुर्भाग्यवश प्रत्येक जातिमें एक न एक छिद्र हुआ ही करता है । इससे भी बढ़कर दुर्भाग्यका विषय यह है कि जिस बातमें मनुष्यकी दुर्बलता होती है उसीपर उसका स्नेह भी अधिक होता है । अँगरेज लोग भी अपने चरित्रमें उद्धतताका पालन एक प्रकारके कुछ विशेष गौरवके साथ करते हैं। अपनी द्वैपायन संकीर्णतामें वे जो अटल रहते हैं और भ्रमण अथवा शासन कार्यों आदिके सम्बन्धमें जिन लोगोंके साथ उन्हें काम पड़ता है उन लोगोंके साथ मेल-मिलाप करनेका जो कुछ भी प्रयत्न नहीं करते हैं, उनके इस गुणको साधारण लोग मन ही मन कुछ श्लाघाका विषय समझते हैं। उसका भाव यही है कि जिस प्रकार ढेंकी स्वर्ग पहुँच जानेपर भी ढेंकी ही बनी रहती है (अर्थात् उसे सब जगह धान कूटनेका ही काम करना पड़ता है,) उसी प्रकार अँगरेज सभी स्थानोंपर सदा अँगरेज ही रहते हैं। चाहे कुछ हो वे किसी प्रकार अँगरेज होनेके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकते।
अँगरजोंमें मनोहारिताका जो यह अभाव है, वे लोग अपने अनुचरों और आश्रितोंके अंतरंग बनकर उनके मनका भाव जाननेकी ओर जो सदा पूरी उपेक्षा करते हैं, वे लोग समस्त संसारका अपने ही संस्कारोंके अनुसार जो विचार करते हैं वहीं अँगरेजोंके चरित्रमें छिद्र और अलक्ष्मीके प्रवेशका एक मार्ग है।
जब कहींसे शत्रुके आनेकी जरा भी संभावना होती है तब अँगरेज लोग इस छिद्रको बहुत ही यत्नपूर्वक बन्द करते हैं; जहाँ जहाँ जितने मार्ग होते हैं उन सभी मार्गोंपर वे पहरे बैठा देते हैं और आशंकाके अंकुरतकको पददलित करके छोड़ते हैं। परन्तु उनके स्वभावमें जो एक नैतिक विघ्न है उस विघ्नको वे सदा आश्रय देकर दुर्दम करते जा रहे हैं। कभी कभी वे स्वयं ही उसपर थोड़ा बहुत आक्षेप कर बैठते हैं परन्तु ममतावश वे उसे दूर किसी प्रकार नहीं कर सकते। यह बात ठीक वैसी ही है कि एक आदमी बूट पहनकर अपने हरे भरे खेतमें इस विचारसे चारों तरफ चलता है कि जिसमें पक्षी मेरी फसलमेंका एक दाना भी न खा सकें। उसके इस प्रकार बूट पहनकर तेजीके साथ चलनेसे पक्षी भाग तो अवश्य जाते हैं, परन्तु उसको इस बातका कोई ध्यान नहीं रहता कि उसके कड़े बूटके तलेसे बहुतसी फसल नष्ट-भ्रष्ट भी हो जाती है।
हम लोग सब प्रकारके शत्रुओंके उपद्रवोंसे रक्षित हैं। विपत्तिकी हम लोगोंको कोई आशंका नहीं है। केवल हमारी छाती पर अकस्मात् वह बूट आ पड़ता है। हम लोगोंको तो उससे वेदना होती ही है पर यह बात नहीं है कि उससे उस बूट पहनकर चलनेवालेकी कोई हानि न होती हो। लेकिन अँगरेज सब स्थानों पर अँगरेज ही हैं; वे कहीं अपना बूट उतारकर जाने आनेके लिये तैयार नहीं हैं।
आयर्लेण्डके साथ अँगरेजोंका जो झगड़ा खड़ा हुआ है, हमारे लिये उसका जिक्र करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अधीन भारतवर्षमें भी यह बात देखी जाती है कि अँगरेजोंके साथ अँगरेजी शिक्षितोंकी अनबन धीरे धीरे होती ही जा रही है। छोटेसे छोटा अवसर पाकर भी दोनों से कोई दूसरेको छोड़ना नहीं चाहता। ईटके बदलेमें पत्थर मारा जा रहा है।
यह बात नहीं है, कि हम लोग सभी अवसरों पर सुविचारपूर्वक पत्थर फेंकते हों। अधिकांश अवसरों पर हम लोग अंधकारमें ही ढेला मारते हैं। यह बात अस्वीकृत नहीं की जा सकती कि हम लोग अपने समाचारपत्रों आदिमें अनेक अवसरों पर अन्यायपूर्ण ही झगड़ा करते हैं और बिना जड़का टंटा-बखेड़ा खड़ा कर लेते हैं।
लेकिन इन सब बातोंका स्वतंत्र रूपसे विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। उनमेंसे कोई बात सत्य और कोई झूठ, कोई न्याययुक्त और कोई अन्याययुक्त हो सकती है। वास्तविक विचारणीय विषय यह है कि आजकल इस प्रकार ईटें और पत्थर चलानेकी प्रवृति जो इतनी प्रबल हो गई है वह क्यों? शासनकर्त्ता हमारे यहाँ के समाचारपत्रों के किसी एकाध प्रबंध-विशेषको मिथ्या बतलाकर उसके सम्पादकको और यहाँ तक कि हतभाग्य मुद्रकको भी जेल भेज सकते हैं, किन्तु ब्रिटिश साम्राज्यके पथमें प्रतिदिन जो ये छोटे छोटे कँटीले पेड़ बढ़ते जा रहे हैं उनका कौनसा विशेष प्रतिकार किया गया है?
ऐसी दशामें जब कि इन कँटीले वृक्षोंका मूल मनमें है तब उन वृक्षोंको उखाड़ फेंकनेके लिये उसी मनमें प्रवेश करना आवश्यक होगा। किन्तु पक्की और कच्ची सड़कों के द्वारा अँगरेज लोग और तो सब जगह जाआ सकते हैं परन्तु दुर्भाग्यवश वे उस मनके अन्दर नहीं जा सकते। उस जगह प्रवेश करनेके लिये तो कदाचित् सिरको थोड़ा झुकाना पड़ता है। लेकिन अँगरेजोंका मेरुदण्ड कहीं झुकना चाहता ही नहीं।
विवश होकर अँगरेज लोग अपने आपको यही समझानेकी चेष्टा करते हैं कि समाचारपत्रोंमें जो ये कड़वी बातें कही जाती हैं, ये जो सभाएँ होती हैं और राज्यतंत्रकी यह जो अप्रिय समालोचना हुआ करता है उसके साथ सर्वसाधारणका कोई सम्बन्ध नहीं है। ये सब उपद्रव केवल थोड़ेसे शिक्षित पुतली नचानेवालोंके ही उठाए हुए हैं। वे लोग कहते हैं कि अन्दर तो सभी बातें बहुत ठीक हैं और बाहर जो विकृतिका थोड़ा बहुत चिह्न दिखलाई देता है वह सब इन्हीं चतुर लोगोंका बनाया हुआ है। ऐसी अवस्थामें फिर अन्दर प्रवेश करके कुछ देखनेकी आवश्यकता रह नहीं जाती; केवल जिन चतुर लोगोंपर सन्देह किया जाता है उन्हींको दण्ड देनेसे सब झगड़ा खतम हो जाता है। इसीमें अँगरेजोंका दोष हैं। वे किसी प्रकार घरमें ( ठिकानेपर ) आना ही नहीं चाहते। किन्तु दूर ही दूरसे, बाहर ही बाहरसे, सब प्रकारका स्पर्श आदि तक भी बचाकर मनुष्यके साथ किसी प्रकारका व्यवहार नहीं किया जा सकता। आदमी जितना ही अधिक दूर रहता है उसको विफलता भी उतनी ही अधिक होती है। मनुष्य कोई जड़ यंत्र तो है ही नहीं, जो वह बाहरसे ही पहचान लिया जा सके। यहाँ तक कि इस पतित भारतवर्षके भी एक हृदय है और उस हृदय को उसने अपने अँगरखे की आस्तीन में नहीं लटका रक्खा है।
जड़ पदार्थको भी विज्ञान की सहायता से बहुत अच्छी तरह पहचानना पड़ता है और तभी जाकर जड़ प्रकृति पर पूर्ण रूपसे अधिकार किया जा सकता है। इस संसार में जो लोग अपने स्थायी प्रभाव की रक्षा करना चाहते है उनके लिये अन्यान्य अनेक गुणों के साथ साथ एक इस गुण का होना भी आवश्यक है कि वे मनुष्योंको बहुत अच्छी तरह से पहचान सकें, उनके हृदय के भाव समझ सकें। मनुष्यके बहुत ही पास पहुँचने के लिये जिस क्षमता को आवश्यकता होती है वह क्षमता बहुत ही दुर्लभ है।
अँगरेजों में बहुत सी क्षमताएँ हैं किन्तु यही क्षमता नहीं है। बल्कि उपकार करनेसे पीछे न हटेंगे किन्तु किसी प्रकार मनुष्य के पास जाना न चाहेंगे। वे किसी न किसी प्रकार उपकार करके चटपट अपना पीछा छुड़ा लेंगे और तब क्लबमें जाकर शराब पीएँगे, बिलियर्ड खेलेंगे और जिसके साथ उपकार करेंगे उसके सम्बन्धमें अवज्ञाविषयक विशेषणोंका प्रयोग करते हुए उसके विजातीय शरीरको यथासाध्य अपने मनसे दूर कर देंगे। यह लोग दया नहीं करते केवल उपकार करते हैं, स्नेह नहीं करते केवल रक्षा करते हैं, श्रद्धा नहीं करते बल्कि न्यायानुसार आचरण करने की चेष्टा करते हैं; जमीन को पानी से नहीं सींचते पर हाँ, ढेरके ढेर बीज बोने में कंजूसी नहीं करते।
लेकिन ऐसा करने पर यदि यथेष्ट कृतज्ञता के पौधे न उगें तो क्या उस दशामें केवल जमीन को ही दोष दिया जायगा ? क्या यह नियम विश्वव्यापी नहीं है कि यदि हृदय के साथ काम न किया जाय तो हृदयमें उसका फल नहीं फलता ?
हमारे देशके शिक्षित-सम्प्रदाय के बहुतसे लोग प्राणपण से इस बातको प्रमाणित करनेकी चेष्टा करते हैं कि अँगरेजोंने हम लोगोंके साथ जो उपकार किये हैं वे उपकार नहीं हैं। हृदयशून्य उपकार को ग्रहण करके वे लोग अपने मनमें किसी प्रकार के आनन्द का अनुभव नहीं कर सकते । वे लोग किसी न किसी प्रकार उस कृतज्ञता के भार से मानों अपने आपको मुक्त करना चाहते हैं । इसी लिये आजकल हमारे यहाँ के समाचारपत्रों में और बातचीतमें अँगरेजोंके सम्बन्धमें अनेक प्रका- रके कुतर्क दिखाई देते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि अँगरेजों ने अपने आपको हम लोगोंके लिये आवश्यक तो कर डाला है लेकिन अपने आपको प्रिय बनाने की आवश्यकता नहीं समझी। वे हम लोगोंको पथ्य तो देते हैं परन्तु उस पथ्यको स्वादिष्ट नहीं बना देते और अन्त में जब उसके कारण के हो जाती है तब व्यर्थ आँखें लाल करके गरज उठते हैं।
आजकलका अधिकांश आन्दोलन मनके गूढ क्षोभ से हीर उत्पन्न है। इस समय प्रत्येक ही बात दोनों पक्षों की हार जीत की बात हो जाती है । जिस अवसर पर केवल दो चार मुलायम बातें कहनेसे ही बहुत अच्छा काम हो सकता हो वहाँ हम लोग तीव्र भाषामें आग उगलने लग जाते हैं और जिस अवसर पर किसी साधारण अनुरोध के पालन करनेमें कोई विशेष हानि नहीं होती उस अवसर पर भी दूसरा पक्ष विमुख हो जाता है।
किन्तु सभी बड़े अनुष्ठान ऐसे होते हैं कि उनमें विना पारस्परिक सद्भाव के काम नहीं चलता । पचीस करोड़ प्रजा का अच्छी तरह शासन करना कोई सहज काम नहीं है । जब कि इतनी बड़ी राजशक्ति के साथ कारबार करना हो तब संयम, अभिज्ञता और विवेचनाका होना आवश्यक है । गवर्नमेण्ट केवल इच्छा करके ही सहसा कोई काम नहीं कर सकती। वह अपने बड़प्पन में डूबी हुई है, अपनी जटिलता से जकड़ी हुई है। यदि उसे जरा भी कोई काम इधरसे उधर करना हो तो उसे बहुत दूर से बहुतसी कलें चलानी पड़ती हैं |
हमारे यहाँ एक और बड़ी बात यह है कि ऐंग्लोइंडियन और भारतवासी इन दो अत्यन्त असमान सम्प्रदायोंका ध्यान रखते हुए सब काम करना पड़ता है। बहुतसे अवसरोंपर दोनोंके स्वार्थ परस्पर विरोधी होते हैं। राज्यतंत्रका चालक इन दो विपरीत शक्तियों में से किसी एक की भी उपेक्षा नहीं कर सकता और यदि वह उपेक्षा करना चाहे तो उसे विफल होना पड़ता है। हम लोग जब अपने मन के अनुसार कोई प्रस्ताव करते हैं तब अपने मनमें यही समझते हैं कि गवर्नमेण्ट के लिये मानों ऐंग्लोइंडियनोंकी बाधा कोई बाधा ही नहीं है। लेकिन सच पूछिए तो शक्ति उन्हीं की अधिक है । प्रबल शक्ति की अच- हेला करने से किस प्रकार संकट में पड़ना पड़ता है इसका परिचय एल्बर्ट बिलके विप्लव से मिल चुका है। यदि कोई सत्य और न्यायके पथ में भी रेलगाड़ी चलाना चाहे तो भी उसे पहले यथोचित उपाय से मिट्टी बराबर करके लाइन बिछानी पड़ेगी। यदि धीरज धरकर उस समय थोड़ी अपेक्षा की जाय और उस कामको सम्पन्न हो लेने दिया जाय, तो पीछे बहुत जल्दी जल्दी चलनेका अच्छा सुभीता हो जाता है।
इंग्लैण्ड में राजा और प्रजा में कोई विषमता नहीं है और वहाँ राज्य- तंत्र की कल बहुत दिनोंसे चलती आ रही है जिसके कारण अब उसका चलना सहज हो गया है। लेकिन फिर भी वहाँ यदि कोई हितजनक परिवर्तन करना होता है तो बहुत कुछ कुशलता, बहुत कुछ अध्यवसाय की आवश्यकता होती है और अनेक सम्प्रदायों का अनेक प्रकारसे परिचालन करना पड़ता है । और फिर वहाँ विपरीत स्वार्थका इतना भीषण संघर्ष भी नहीं है । उस देश में जहाँ एक बार युक्ति से किसी प्रस्तावकी उपयोगिता सब लोगोंके सामने प्रमाणित कर दी जाती है तहाँ साधारण अथवा अधिकांश लोगोंका स्वार्थ एक हो जाता है और सब लोग उस प्रस्तावको ग्रहण कर लेते हैं। और हमारे देशमें जब कि दो शक्तियों का झगड़ा है और जब कि हमीं लोग सब बातों में दुर्बल हैं तब केवल बातों के जोरपर गवर्नमेण्ट को विचलित करने की आशा नहीं की जा सकती । यहाँ दूर दूरके दूसरे उपायोंका अवलम्बन करना आवश्यक है।
राजकीय कार्योंमें सभी जगह डिप्लोमेसी ( Diplomacy ) है और भारतवर्षमें हम लोगों के लिये उसकी सबसे अधिक आवश्यकता इस संसार में केवल इसी बात से कोई काम सहज नहीं हो जाता कि हम उस काम के होने की इच्छा करते हैं और हमारी इच्छा अन्याय- मूलक नहीं है । जब कि हम चोरी करने न जा रहे हों बल्कि अपनी ससुराल जा रहे हों तब यदि रास्तेमें कोई तालाब पड़ जाय तब हमें यह प्रण न कर लेना चाहिए कि हम उस तालाब के ऊपर से होकर ही चलेंगे। क्योंकि यदि हम ऐसा प्रण करेंगे तो कदाचित ससुराल न भी पहुँच सकेंगे । उस स्थानपर तालाबके किनारे किनारे घूमकर ही आगे बढ़ना अच्छा होगा। अपनी राजनीतिक ससुरालमें पहुँचनेके लिये भी जहाँ कि हमारे लिये अच्छे अच्छे पक्कान्न और बढ़िया बढ़िया मिठाइयाँ आदि रखी हुई हैं हमें अनेक प्रकारकी बाधाओंको अनेक उपायोंसे दूर करके आगे बढ़ना पड़ेगा। जिस स्थानपर केवल लाँध- नेसे काम चल सकता हो वहाँ तो हमें लाँघना चाहिए और जहाँ लाँघनेका सुभीता न हो वहाँ हमें क्रोधित होकर और अड़कर न बैट जाना चाहिए, वहाँ घूमकर ही आगे बढ़ना चाहिए ।
डिप्लोमेसीसे हमारा मतलब कपटाचरण नहीं है। उसका वास्तविक मर्म यही है कि अपनी व्यक्तिगत हृदय-वृत्तिके कारण मनुष्य अक- स्मात् विचलित न हो जाय और कार्यका नियम तथा समयका सुयोग समझकर काम करे।
लेकिन हम लोग उस मार्गसे होकर नहीं चलते। काम हो चाहे न हो पर हम लोग बात एक भी नहीं छोड़ सकते। इससे केवल यही नहीं होता कि हम लोगोंकी अनभिज्ञता और अधिवेचना प्रकट होती है बल्कि यह भी प्रकट होता है कि काम करनेकी अपेक्षा हम लोग हुलड़ मचाना, वाहवाही लेना और अपने मनका गुबार निका- लना ही अधिक चाहते हैं। जब इन सब बातोंका हमें कोई सुयोग मिलता है तब हम लोग इतने प्रसन्न हो जाते हैं कि हम लोगोंको यह भी याद नहीं रह जाता कि इन सब बातोंसे हमारे वास्तविक कार्यकी कितनी हानि होती है। और अप्रिय भर्त्सनाके उपरान्त उचित प्रार्थनाको स्वीकृत या पूर्ण करनेमें भी गवर्नमेण्टके मनमें दुबिधा हो जाती है और तब पीछेसे प्रजाकी स्पर्धा बढ़ने लगती है । इसका मुख्य कारण यह है कि मनमें एक प्रकारका असद्भाव उत्पन्न हो गया है और वह असद्भाव दिनपर दिन बढ़ता ही जाता है जिसके कारण दोनों पक्षोंका कर्त्तव्यपालन धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है। राजा और प्रजाकी दिनरातकी यह कलह देखनेमें भी अच्छी नहीं मालूम होती । गवर्नमेण्ट भी बाहरसे देखनेसे चाहे जैसी जान पड़े पर फिर भी यह विश्वास नहीं होता कि वह मन ही मन इस सम्बन्धमें उदासीन होगी। लेकिन इसका उपाय क्या है ? हजार हो ब्रिटिश-चरित्र फिर भी तो मनुष्य-चरित्र ही है ।
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जान पड़ेगा कि इस समस्याकी मीमांसा सहज नहीं है
सबसे पहला संकट तो वर्णके कारण है । शरीरका वर्ण जिम्म प्रकार धो-पोंछकर दूर नहीं किया जा सकता उसी प्रकार मनसे वर्ण- सम्बन्धी संस्कारका हटाना भी बहुत ही कठिन है। गोरे रंगवाले आर्य लोग हजारों वर्षोंसे काले रंगको घृणाकी दृष्ठिसे देखते आए हैं। इस अवसरपर वेदोंके अंगरेजी अनुवाद एवं इन्साइक्लोपीडियासे इस सम्ब- न्धकै अध्याय, सूत्र और पृष्ठसंख्यासमेत उत्कट प्रमाण देकर मैं पाठ- कोंके साथ निष्ठुरताका व्यवहार नहीं करना चाहता । जो बात है वह सभी लोग समझते हैं। गोरे और कालेमें उतना ही अन्तर है जितना कि दिन और रातमें हैं। गोरी जाति दिनके समान सदा जाग्रत रहती है और कर्मशील तथा अनुसन्धानशील है; और काली जाति रातके समान निश्चेष्ट और कर्महीन है और स्वप्न देखती हुई सो रही है। इस श्यामा प्रकृतिमें यदि हो तो रात्रिके समान कुछ गम्भीरता, मधुरता, स्निग्धता, करुणा और घोर आत्मीयताका भाव हो सकता है। पर दुर्भा- ग्यवश व्यस्त और चंचल गोरोंको उसका आविष्कार करनेका अवसर नहीं है और साथ ही उनके नजदीक इसका कोई यथेष्ट मूल्य भी नहीं है। यदि उन लोगोंसे यह बात भी कही जाय कि काली गऊके स्तन- मेंसे भी सफेद ही दूध निकलता है और भिन्न वर्गों में परस्पर हृदयकी भारी एकता होती है तो भी इस कहनेका कोई फल नहीं है । लेकिन ये सब ओरिएण्टल ( Oriental ) उपमाएँ देनेकी आवश्यकता नहीं है। कहनेका तात्पर्य यही है कि कालोंको देखते ही गोरी जातिका मन बिना कुछ विमुख हुए रह ही नहीं सकता ।
और फिर वस्त्र, आभूषण, अभ्यास, आचार आदि सभी बातोंमें ऐसी विसदृशता है जो हृदयको केवल चोट ही पहुँचाया करती है।
ये सब तर्क भी व्यर्थ ही हैं कि शरीरको आधा ढाँककर और आधा नंगा रखकर भी मनके अनेक सद्गुणोंका पोषण किया जा सकता है। मानसिक गुण कुछ छायाप्रिय कोमल जातिके पौधों के समान नहीं हैं और बिना जीन या बनातसे ढाँके दूसरे उपायोंसे भी उनकी रक्षा की जा सकती है। यह तर्ककी बात नहीं है बल्कि संस्कारकी बात है।
यदि दोनों जातियों बहुत ही पास पास और हिल-मिलकर रहें तो इस संस्कारका बल बहुत कुछ कम हो सकता है; परन्तु कठिनता तो यही है कि यह संस्कार ही किसी एकको दूसरेके निकट नहीं जाने देता। जिन दिनों स्टीमर नहीं थे और सारे आफ्रिकाकी परिक्रमा करके पालवाले जहाज बहुत दिनोंमें भारतसे चलकर बिलायत पहुँचते थे उन दिनों अँगरेज लोग भारतवासियोंके साथ कुछ अधिक घनिष्टता रखते थे । लेकिन आजकल साहब बहादुर तीन ही महीनेकी छुट्टी पाते ही चटपट इंग्लैण्ड भाग जाते हैं और भारतकी जो धूल उनपर पड़ी होती है वह सब वहाँ धो आते हैं। और फिर इधर भारतवर्ष में भी उनका आत्मीय समाज बराबर धीरे धीरे बढ़ता ही जाता है इसीलिये उनके लिये यह काम बहुत ही सहज हो गया है कि जिस देशको उन लोगोंने जीता है उस देशमें रहकर भी वे यथासंभव न रहनेवालोंके बरा- बर हो जायें और जिस जातिका वे शासन करते हैं उस जातिके साथ प्रेम न करके भी बराबर अपना काम करत रहें। जिस तरह लोग दिनभर दफ्तरमें बैठकर काम करते और सन्ध्या समय घर जाकर आनन्दसे भोजन करते हैं उसी प्रकार हजार कोस दूरसे समुद्रपार करके एक सम्पूर्ण विदेशी राज्य यहाँ आता और अपना काम करके फिर समुद्र पार करता हुआ अपने घर चला जाता है और वहाँ आनन्द करता है। भला इतिहासमें कहीं ऐसा और भी कोई दृष्टान्त है ?
अँगरेजोंके लिये हम लोग यों ही विदेशी हैं । हम लोगोंका रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श अँगरेजोंको स्वभावतः ही अरुचिकर होता है। तिसपर बीचमें एक और बात पैदा हो जाती है । ऐंग्लो-इंडियन- समाज इस देशमें जितना ही प्राचीन होता जाता है उतना ही उनके कितने ही लोकव्यवहार और जनश्रुति क्रमशः बद्धमूल होती जाती हैं। यदि कोई अँगरेज अपनी स्वाभाविक उदारता और सहृदयताके कारण बाहरी बाधाओंको दूर करके हम लोगोंके अन्तरमें प्रवेश करनेके लिये मार्ग निकाल सकता है और हम लोगोंको अपने अन्तरमें आह्वान करनेके लिये द्वार खोल सकता है तो वह यहाँ आते ही अँगरेज- समाजके जालमें फँस जाता है। उस समय उसका निजका स्वाभा- विक संस्कार उसकी जातिके समाजके बहुतसे एकत्र संस्कारोंमें मिल जाता है और एक अलंध्य बाधाका स्वरूप धारण कर लेता है। पुराने विदेशी किसी नए विदेशीको हम लोगोंके पास नहीं आने देते और उसे अपने दुर्गम समाज-दुर्गमें बन्द कर रखते हैं। स्त्रियाँ समाजके लिये शक्तिस्वरूप होती हैं। यदि स्त्रियाँ चाहें तो वे दो विरोधी पक्षोंको परस्पर मिला सकती हैं । किन्तु दुर्भाग्यवश वे स्त्रियाँ ही सबसे बढ़कर उन संस्कारोंके वशमें हैं । हम लोगोंको देखते ही उन ऐंग्लो-इंडियन स्त्रियों के स्नायुओंमें विकार और सिरमें दर्द होने लगता है । इसके लिये हम उन लोगोंको क्या दोष दें, यह हम लोगोंके भाग्यका ही दोष है। विधाताने हम लोगोंको ऐसा बनाया ही नहीं कि हम लोग पूरी तरह उन्हें पसन्द आते ।
इसके बाद हम लोगोंके बीचमें आकर अँगरेज लोग जिस प्रकार हम लोगोंके सम्बन्धमें बातचीत करते हैं, बिना कुछ भी परवाह किए हम लोगोंके सम्बन्धमें जिन सब विशेषणोंका प्रयोग करते हैं और हम लोगोंको बिना पूर्ण रूपसे जाने ही हम लोगोंकी जो शिकायतें और निन्दायें किया करते हैं, प्रत्येक साधारण बातमें भी हम लोगोंके प्रति उनका जो बद्धमूल अप्रेम प्रकट होता है, उस सबको कोई नया आया हुआ अँगरेज धीरे धीरे अपने अन्त:करणमें स्थान दिए बिना रह ही नहीं सकता।
हम लोगोंको यह बात स्वीकृत करनी ही पड़ेगी कि कुछ ईश्वरीय बातोंके कारण ही हम लोग अँगरेजोंकी अपेक्षा बहुत दुर्बल हैं और अंगरेज लोग हम लोगोंका जो असम्मान करते हैं उसका हम लोग किसी प्रकार कोई प्रतिकार कर ही नहीं सकते। जो स्वयं अपने सम्मानका उद्धार नहीं कर सकता उसका इस संसारमें कहीं सम्मान नहीं होता । जब विलायतसे कोई नया आया हुआ अँगरेज यहाँ आकर देखता है कि हम लोग चुपचाप सारा अपमान सहते रहते हैं तब हम लोगोंके सम्बन्धमें उसे कुछ भी श्रद्धा नहीं रह सकती।
ऐसी दशामें उन्हें यह बात कौन समझाने जायगा कि हम लोग अपमानके सम्बन्धमें उदासीन नहीं हैं बल्कि हम लोग दरिद्र हैं और हम लोगोंमें कोई भी स्वप्रधान नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति एक एक बड़े परिवारका प्रतिनिधि है। उसके ऊपर केवल अपना ही भार नहीं है बल्कि उसके पिता, माता, भाई, बहन, पुत्र और परिवारका जीवन भी उसीपर निर्भर करता है। उसे बहुत कुछ आत्मसंयम और आत्म- त्याग करके सब काम करना पड़ता है। उसे सदासे इसीकी शिक्षा मिली है और इसीका अभ्यास हुआ है। यह बात नहीं है कि वह आत्मरक्षाकी तुच्छ इच्छाके सामने आत्मसम्मानकी बलि देता है बल्कि वह बड़े परिवारके सामने, अपने कर्तव्यज्ञानके सामने उसकी बलि देता है। कौन नहीं जानता कि दरिद्र भारतीय कर्मचारी नित्य कितनी फटकारें और धिक्कार सुनकर आफिससे घर चले आते हैं और उन्हें अपना अपमानित जीवन कितना असह्य और दुर्भर जान पड़ता है। उसे जो जो बातें सुननी पड़ती हैं वे इतनी कड़ी होती हैं कि उस दशामें पड़कर सबसे गया बीता आदमी भी अपने प्राण देनेके लिये तैयार हो सकता है; लेकिन फिर भी वह बेचारा भारतवासी दूसरे दिन ठीक समयपर पाजामेपर चपकन पहनकर फिर उसी आफिस में जा पहुँचता है और उसी स्याहीसे भरे हुए टेबुलपर चमड़ेकी जिल्दवाला बड़ा रजिस्टर खोलकर उसी पिङ्गलवर्ण बड़े साहबकी नित्यकी फटकारें चुपचाप सहता रहता है। क्या वह आत्मविस्मृत होकर एक क्षणके लिये भी अपनी बड़ी गृहस्थीका ध्यान छोड़ सकता है ? क्या हम लोग अँगरेजोंकी तरह स्वतंत्र और गृहस्थीके भारसे रहित हैं । यदि हम प्राण देनेके लिये तैयार हों तो बहुतसी निरुपाय स्त्रियाँ और बहुतसे असहाय बालक व्याकुल होकर हाथ उठाते हुए हमारी कल्पनादृष्टि के सामने आ खड़े होते हैं। हम लोगोंको बहुत दिनोंस इसी प्रकार अपमान सहनका अभ्यास हो गया है । लेकिन यह बात अंगरेजोंके समझनेकी नहीं है। इसके लिये उनके पास केवल एक ही शब्द है और वह शब्द है भीरुता । संसारमें अपने लिए भी- रुता और पराएके लिये भीरुताके भेदका निर्णय करके किसी बातकी सृष्टि नहीं हुई। इसलिये ज्यों ही भीरु शब्दका ध्यान आता है त्यों ही उसके साथ दृढ़तापूर्वक जकड़ी हुई अवज्ञाका भी ध्यान होता है। हम लोग बड़े परिवार और बड़े अपमानका बोझ एक साथ ही ढोते हैं ।
इसके अतिरिक्त भारतवर्षके अधिकांश अँगरेजी समाचारपत्र सदा हम लोगोंके विरुद्ध रहते हैं । चाय रोटी और अंडेके साथ साथ हम लोगोंकी निन्दा भी भारतीय अँगरेजोंकी छोटी हाजिरीका एक अंग हो गई है। अँगरेजी साहित्य, गल्प, भ्रमण-वृत्तान्त, इतिहास, भूगोल, राज- नीतिक प्रबन्ध और विद्रूपात्मक कवितायें, सभी भारतवासियों और विशेषतः शिक्षित बाबुओंके प्रति अँगरेजोंकी अरूचि बराबर बढ़ती ही जाती है।
भारतवासी अपनी झोंपड़ियोंमें पड़े पड़े उसका बदला चुकानेकी चेष्टा करते हैं लेकिन भला हम लोग उसका क्या बदला चुका सकते हैं ! हम लोग अंगरेजोंकी कितनी हानि कर सकते हैं ! हम लोग मनमें नाराज हो सकते हैं, घरमें बैठकर गाल बजा सकते हैं लेकिन अँगरेज यदि केवल दो ही उँगलियोंसे हमारा मुलायम कान पकड़ कर जरा जोरसे मल दें तो हमें चुपचाप सह लेना पड़ता है । और यह बात किसीसे छिपी नहीं है कि अँगरेजोंको इस प्रकार कान मलनेके छोटे और बड़े कितने प्रकार मालूम हैं और इसके लिये कितने अधिक अवसर मिलते हैं । अँगरेज मन ही मन हम लोगोंसे जितने ही विमुख होंगे और हम लोगोंकी ओरसे उनकी श्रद्धा जितना ही हट जायगी, हम लोगोंका सच्चा स्वभाव समझना, हम लोगोंका अच्छी तरह विचार करना और हम लोगोंका उपकार करना भी उन लोगोंके लिये उतना ही अधिक दुस्साध्य होता जायगा । भारतवासियोंकी निरन्तर निन्दा और उनके प्रति अवज्ञा प्रकट करके अँगरेजी समाचारपत्र भारतवर्षके शासनका कार्य और भी कठिन करते जा रहे हैं। और हम लोग अँगरेजोंकी निन्दा करके केवल अपने निरुपाय असंतोषकी ही वृद्धि कर रहे हैं।
अबतक भारत पर अधिकार रखनेके सम्बन्धमें जो अभिज्ञता उत्पन्न हुई है उससे यह बात निश्चयात्मक रूपसे मालूम हो गई है कि अंगरेजोंके लिये डरनेका कोई कारण नहीं है। जब आजसे डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ही इस प्रकार डरनेका कोई कारण नहीं था तब आजक- लका तो कुछ कहना ही नहीं है। राज्यमें जो लोग उपद्रव मचा सकते थे अब उनके नाखून और दाँत नहीं रह गए और अभ्यासके अभा- वके कारण वे लोग इतने अधिक निर्जीव हो गए हैं कि स्वयं भारत- वर्षकी रक्षा करनेके लिये सेना तैयार करना ही क्रमशः बहुत कटिन होता जा रहा है। लेकिन फिर भी अँगरेज लोग सेडिशन या राजद्रो- हका दमन करनेके लिये सदा तैयार रहते हैं। इसका एक कारण है। वह यह कि प्रवीण राजनीतिज्ञ किसी अवस्थामें भी सतर्कताको शिथिल नहीं होने देते। जो सावधान रहता है उसका विनाश नहीं होता।
अतः बात केवल इतनी ही है कि अंगरेज लोग बहुत अधिक साव- धान हैं । लेकिन दूसरी ओर अँगरेज यदि क्रमश: भारतद्रोही होते जायँ तो राजकार्यमें वास्तविक विघ्नोंका उत्पन्न होना सम्भव है। यद्यपि उदासीन भावसे भी कर्त्तव्यपालन किया जा सकता है; किन्तु जहाँ आन्तरिक विद्वेष हो वहाँ कर्तव्यपालन करना मनुष्यकी शक्तिके बाहर है। यदि अमानुषिक शक्तिकी सहायतासे सब कर्तव्योंका ठीक ठीक पालन हुआ करे तो भी वह आन्तरिक विद्वेष प्रजाको पीड़ित करता रहता है । इसका कारण यह है कि जिस प्रकार जलका धर्म्म अपना समतल ढूँढ़ना है उसी प्रकार मनुष्यके हृदयका धर्म अपना सम ऐक्य ढूँढना है । यहाँतक कि प्रेमके सूत्रसे वह ईश्वर तकके साथ अपना ऐक्य स्थापित करता है । जिस स्थानपर वह अपने ऐक्यका मार्ग नहीं पाता उस स्थानपर और जितने प्रकारकी सुविधाएँ होती हैं वे सब बहुत ही क्लिष्ट हो जाती हैं । मुसलमान राजा अत्याचारी होते थे लेकिन उनके साथ बहुतसी बातोंमें हम लोगोंकी समकक्ष- ताकी समानता थी । हम लोगोंके दर्शन और काव्य, हम लोगोंकी कला और विद्या और हम लोगोंकी बुद्धिवृत्तिमें राजा और प्रजाके बीचमें आदान-प्रदानका सम्बन्ध था। इसलिये मुसलमान हम लोगोंको पीड़ित तो कर सकते थे लेकिन वे हम लोगोंका असम्मान नहीं कर सकते थे। मन मनमें हम लोगोंके आत्मसम्मानका कोई लाघव न था--उसमें कोई कमी न थी । क्योंकि श्रेष्ठता केवल बाहुबलके द्वारा कभी किसी प्रकार दबाई ही नहीं जा सकती।
किन्तु हम लोग अँगरेजोंकी रेलगाड़ी, कल-कारखाने और राज्य- शृंखला देखते हैं और चकित होकर सोचने लगते हैं कि ये लोग मय दानवके वंशज हैं—ये लोग बिलकुल स्वतंत्र हैं, इन लोगोंके लिये कोई बात असम्भव नहीं है । बस यही समझकर निश्चिन्त भावसे हम लोग रेलगाड़ीपर सवार होते हैं, सस्ते दामपर कलोंका बना हुआ माल खरीदते हैं और सोचते हैं कि अँगरेजों के राज्यमें हम लोगोंको न तो कुछ डरनेकी आवश्यकता है न चिन्ता करनेकी आवश्यकता है और न कोई उद्योग करनेकी आवश्यकता है—केवल इतना है कि पहले हम लोगोंसे जो कुछ डाकू लोग छीन लिया करते थे वह अब पुलिस और वकील दोनों मिलकर ले लेते हैं।
इस प्रकार मनका एक भाग जितना निश्चित निश्चेष्ट होता है उसके दूसरे भागपर उतना ही अधिक भारी बोझ मालूम होता है । खाद्यरस और पाकरसके मिलनेसे भोजनका परिपाक होता है । अंगरे- जोंकी सभ्यता हम लोगोंफे लिये खाद्यमात्र है किन्तु उसमें रसका बिलकुल अभाव है। इस कारण हम लोगोंका मन अपने आपमें ऐसा पाकरस एकत्र नहीं कर सकता जो उस खाद्यके उपयुक्त हो। हम लोग लेते तो हैं लेकिन पाते नहीं। हम लोग अँगरेजोंके सब कार्योंका फल तो भोगते हैं लेकिन हम उसे अपना नहीं कर सकते और उसे अपना करनेकी आशा भी बराबर नष्ट होती जाती है।
राज्य जीतनेसे गौरव और लाभ होता है। यदि राज्यका अच्छी तरह शासन किया जाय तो उससे धर्म और अर्थ होता है। तो क्या राजा और प्रजाके हृदयोंमें मेल स्थापित करनेका कोई माहात्म्य नहीं है और उससे कोई सुभीता नहीं हो सकता ? आजकलके भारतवर्षकी राजनीतिमें क्या यही विषय सबसे बढ़कर चिन्तनीय और आलोचना करने योग्य नहीं है ?
प्रश्न केवल यही है कि यह सब काम कैसे हो ? एक एक करके यह दिखला ही दिया गया है कि राजा और प्रजाके बीचमें बहुतसी दुर्भेद्य, दुरूह और स्वाभाविक बाधाएँ खड़ी हैं। उन बाधाओंके लिये किसी किसी सहृदय अँगरेजको भी अनेक अवसरोंपर चिन्तित और दुःखी होना पड़ता है। लेकिन फिर भी जो बात असम्भव हो, जो बात असाध्य हो उसके लिये विलाप करनेका फल ही क्या हो सकता है ? लेकिन क्या कभी कोई बड़ा काम, कोई भारी अनुष्ठान सहजमें हुआ है ? इसी भारतवर्षको जीतने और उसका शासन करनेके लिये अंगरेजोंको जिन सब गुणोंकी आवश्यकता हुई है क्या वे सब गुण सुलभ हैं ? वह साहस, वह अदम्य अध्यवसाय, वह त्याग-स्वीकार क्या थोड़ी साधनाका फल है ! और पचीस करोड़ विदेशी प्रजाके हृदयपर विजय प्राप्त करनेके लिये जिस दुर्लभ सहृदयताको आवश्य- कता होती है क्या वह सहृदयता साधना करनेके योग्य नहीं है ?
बहुतसे अँगरेज कवियोंने यूनान, इटली, हंगरी और पोलैण्डके दुःखोंसे दुखी होकर अश्रुमोचन किया है । यद्यपि हम लोग उतने अश्रुपा- तके अधिकारी नहीं हैं लेकिन आजतक महात्मा एडविन आर्नल्डके अति- रिक्त और किसी अँगरेज कविने किसी अवसरपर भारतवर्षके प्रति अपनी प्रीति व्यक्त नहीं की। बल्कि यह सुना है कि निःसम्पर्क फ्रान्सके कुछ बड़े कवियोंने भारतवर्षके सम्बन्धमें कुछ कविताएँ की हैं। इससे अँगरेजोंकी जितनी अनात्मीयता प्रकट हुई है उतनी और किसी बातसे नहीं हुई।
भारतवर्ष और भारतवासियों के सम्बन्धमें आजकल बहुतसे अँग- रेजी उपन्यास निकल रहे हैं। सुनते हैं आधुनिक ऐंग्लो-इंडियन लेख- कोंमें रुड्यार्ड किपलिंग सबसे बढ़कर प्रतिभाशाली लेखक हैं । उनकी भारतसम्बन्धी आख्यायिकाओं पर अँगरेज पाठक बहुत मुग्ध हैं । उनकी सारी रचना पढ़कर उनके एक अनुरक्त भक्त अँगरेज कविके मनमें जो धारणा हुई है वह हमने लिखी हुई देखी है। किप्लिंगकी रचनाकी समालोचना करते हुए ऐडमण्ड गस्ने लिखा है----"इन सब आख्यायि- काओंको पढ़नेसे यही मालूम होता है कि भारतवर्षकी छावनियाँ जनहीन, वालुका-समुद्रके बीचमें एक एक द्वीपके समान हैं। चारों और भारतवर्षकी असीम मरुभूमि है । वह मरुभूमि अप्रसिद्ध, नूतन- तारहित और बहुत विशाल है । उसमें केवल काले आदमी पड़िया कुत्ते, पठान, हरे रंगके तोते, चील, मगर और घासके लम्बे चौड़े निर्जन क्षेत्र हैं । इस मरु-समुद्रके बीचबाले टापुओंमें थोड़ेसे युवा पुरुष विधवा महाराणीका काम करने और उनके अधीनस्थ पूर्व- देशीय धनसम्पत्तिपूर्ण जंगली साम्राज्यकी रक्षा करनेके लिय सुदूर इंग्लैण्डसे भेजे हुए आए और बैठे हैं।" अंगरेज द्वारा खींचा हुआ भारतवर्षका यह शुष्क और शोभाहीन चित्र देखकर मन निराशा और विषादसे भर जाता है। हम लोगोंका भारतवर्ष तो ऐसा नहीं है, लेकिन क्या अँगरेजोंके भारतवर्ष और हम लोगोंके भारतवर्ष में इतना अन्तर है?
परन्तु आजकल ऐसे प्रबन्ध प्रायः देखे जाते हैं जिनमें भारतवर्ष के साथ स्वार्थ-सम्पर्ककी बातें होती हैं। इंग्लैण्डकी जनसंख्याके प्रति- वर्ष बढ़नेके कारण वहाँ खाने-पीनेकी चीजोंका अभाव क्रमशः कितना बढ़ता जाता है और भारतवर्ष उस अभावको कहाँतक पूर्ति करता है और विलायती माल मँगाकर बहुतसे विलायती मजदूरोंको काम देकर किस प्रकार उनकी जीविकाका प्रबन्ध करता चलता है, इसकी सूचियाँ खूब निकलती हैं।
अँगरेज लोग दिनपर दिन यही समझते जाते हैं कि भारतवासी हम लोगोंकी राजकीय पशुशालामें सदासे पले हुए पशु हैं। वे लोग गौशालाको साफ रखते और घास-भूसेका प्रबन्ध करनेमें कभी आलस्य नहीं करते। इस अस्थावर सम्पत्तिकी रक्षाके लिये उनका प्रयत्न सदा होता रहता है । ये पशु कभी कोई बदमाशो न कर बैठे इस विचारसे वे उनके सींग घिस देनेसे भी उदासीन नहीं रहते और सवेरे सन्ध्या दूध दुहनेके समय वे दुबले पतले बछड़ोंको भी एकदमसे वंचित नहीं करते । लेकिन फिर भी दिनपर दिन स्वार्थका सम्पर्क ही बराबर बढ़ता जा रहा है। इन सब प्रबन्धोंमें प्रायः एक ही समय भारतवर्षके साथ साथ अँगरेजी उपनिवेशोंके सम्बंधकी बातें भी दे दी जाती हैं। लेकिन दोनोंके सुरोंमें कितना भेद होता है । उपनिवेशोंके प्रति कितना प्रेम और कितना उत्तम भ्रातृभाव दिखलाया जाता है। उनके सम्ब- न्धमें तो किस प्रकार बार बार कहा जाता है कि यद्यपि वे लोग मातृ- भूमिसे अलग हो गए हैं तथापि माताके प्रति अबतक उनमें अचला भक्ति है-वे लोग रक्तसंबंधको भूल नहीं सके हैं । अर्थात् जब उनका जिक्र होता है तब स्वार्थके साथ साथ प्रेमपूर्ण बातोंका उल्लेख करना भी आवश्यक होता है। परन्तु इस बातका कहीं कोई आभास मात्र भी नहीं रहता कि हतभाग्य भारतवर्षका भी कहीं कोई हृदय है और उस हृदयके साथ कहीं न कहींसे थोड़ासा सम्बन्ध रहना आवश्यक है। हाँ केवल हिसाब किताबके समय श्रेणीबद्ध अंकोंके द्वारा भारत- वर्ष निर्दिष्ट होता है । इंग्लैण्डके प्रैक्टिकल लोगोंके सामने भारतवर्षका गौरव केवल मनके हिसाबसे, सेरके हिसाबसे, रुपएके हिसाबसे और शिकारके हिसाबसे है। समाचारपत्रों और मासिकपत्रोंके लेखक लोग क्या इंग्लैण्डको केवल इसी शुष्क पाठका अभ्यास करावेंगे ? भारत- वर्षके साथ यदि उनका केवल स्वार्थसम्बन्ध ही दृढ़ हो तो जो श्यामां- गिनी गऊ आज दूध दे रही है सम्भव कि गोपकुलकी बेहिसाब वंशवृद्धि और क्षुधावृद्धिके कारण कल ही उसकी पूँछ खुर तक और घिसकर गायब हो जायें। केवल स्वार्थका ही ध्यान रखा जाता है इसीलिये लंकाशायरने तो निरुपाय भारतवर्षके सूतपर महसूल लगा दिया है और अपना माल वह बिना महसूलके ही चलान कर रहा है। हम लोगोंका देश भी वैसा ही है। जैसी धूप वैसी ही धूल | जैसी रूह वैसे ही फरिश्ते । साहब लोग बिना पंखेकी हवा खाए और बरफका पानी पीए जीते नहीं रह सकते । लेकिन दुर्भाग्यवश यहाँके पंखे-कुली रुग्ण-प्लीहा यातापतिल्ली लेकर सो जाते हैं और बरफ सब जगह सहजमें मिल नहीं सकता। अँगरेजोंके लिये भारतवर्ष रोग, शोक, स्वजन-विच्छेद और निर्वासनका देश है। इसलिये उन्हें बहुत अधिक वेतन लेकर इन सब त्रुटियोंकी पूर्ति कर लेनी पड़ती है । लेकिन कम्बख्त एक्सचेञ्ज ( Exchange ) उसमें भी झगड़ा खड़ा करना चाहता है । अँगरेजोंको स्वार्थसिद्धिके अतिरिक्त भारतवर्ष और क्या दे सकता है ?
हाय ! हतभागिनी भारतभूमि ! तुम्हें तुम्हारा स्वामी पसन्द न आया । तुम उसे प्रेमके बन्धनमें न बाँध सकीं। लेकिन अब ऐसा काम करो जिससे उसकी सेवामें त्रुटि न हो। उसको बहुत यत्नसे पंखा झलो, उसके लिये खसका परदा टैंगवाकर उसपर पानी छिड़को जिसमें वह अच्छी तरह स्थिर होकर दो घड़ी तुम्हारे घर बैठ सके। खोलो, अपने सन्दूक खोलो। तुम्हारे पास जो कुछ गहने आदि हों उन्हें बेच डालो और अपने स्वामीकी भरपेट भोजन कराओ और भरजेब दक्षिणा दो । तौ भी वह तुमसे अच्छी तरहसे न बोलेगा, तो भी वह नाराज ही रहेगा और तो भी तुम्हारे मैकेकी निन्दा ही करेगा । आजकल तुमने लज्जा छोड़कर मान अभिमान करना आरम्भ किया है। तुम झनककर दो चार बातें कह बैठती हो। परन्तु यह व्यर्थका बकवाद करनेकी आवश्यकता नहीं । तुम मन लगाकर वही काम करो जिससे तुम्हारा विदेशी स्वामी सन्तुष्ट हो और आरामसे रहे । तुम्हारा सौभाग्य सदा बना रहे। ।श अँगरेज राजकवि टेनिसनने मरनेसे पहले अपने अन्तिम ग्रन्थमें सौभाग्यवश भारतवर्षका भी थोड़ासा स्मरण किया है।
कविवर टेनिसनने उक्त ग्रन्थमें 'अकबरका स्वप्न' नामकी एक कविता दी है। उस कवितामें अकबरने अपने प्रिय मित्रको रातका स्वप्न वर्णन करते हुए अपने धर्मका आदर्श और जीवनका उद्देश्य बत- लाया है। अकबरने भिन्न भिन्न धर्मोंमें जो एकता तथा भिन्न भिन्न जातियोंमें प्रेम और शान्ति स्थापित करनेके लिये जो चेष्टा की थी, उसने स्वप्नमें देखा कि मेरे उत्तराधिकारियों तथा परवर्तियोंने उस चेष्टाको व्यर्थ तथा मेरे कार्योको नष्ट कर दिया है । अन्तमें जिस ओर सूर्यास्त होता है उस ओर (पश्चिम) से विदेशियोंके एक दलने आकर उसके उस टूटे-फूटे और ढहे हुए मन्दिरको एक एक पत्थर चुनकर फिरसे प्रतिष्ठित कर दिया है और उस मन्दिरमें सत्य और शान्ति, प्रेम और न्यायपरताने फिरसे अपना सिंहासन स्थापित कर लिया है।
हम प्रार्थना करते हैं कि कविका यह स्वप्न सफल हो । आजतक इस मन्दिरके पत्थर आदि तो चुने गए हैं । बल, परिश्रम और निपुणताके द्वारा जो कुछ काम हो सकता है उसे करनेमें भी किसी प्रकारकी त्रुटि नहीं हुई है। लेकिन अभीतक इस मन्दिरमें समस्त देवताओंके अधि- देवता प्रेमदेवकी प्रतिष्ठा नहीं हुई है ।
प्रेम वास्तवमें भावात्मक हैं, अभावात्मक नहीं। अकबरने समस्त धर्मोका विरोध नष्ट करके प्रेमकी एकता स्थापित करनेकी जो चेष्टा की थी वह भावात्मक ही थी। उसने अपने हृदयमें एकताका एक आदर्श खड़ा किया था। उसने उदार हृदय लेकर श्रद्धाके साथ सब धर्मों के अन्त- रमें प्रवेश किया था । वह एकाग्रता और निष्ठाके साथ हिन्दू मुसल मान, ईसाई और पारसी आदि धर्मज्ञोंसे धर्मालोचना सुना करता था। उसने हिन्दू स्त्रियोंको अपने अन्तःपुरमें, हिन्दू अमात्योंको मंत्रीसभामें और हिन्दू वीरोंको सेनानायकतामें प्रधान आसन दिया था । उसने केवल राजनीतिके द्वारा ही नहीं बल्कि प्रेमके द्वारा समस्त भारतवर्षको, राजा और प्रजाको एक करना चाहा था । सूर्यास्तभूमि ( पश्चिम ) से विदेशियोंने आकर हम लोगोंके धर्ममें किसी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन प्रश्न यह है कि वह निर्लिप्तता प्रेमके कारण है या राज- नीतिके कारण ? क्योंकि इन दोनोंमें आकाश और पातालका अन्तर है।
किन्तु एक महदाशय भाग्यवान् पुरुषने जो बहुत ऊँचा आदर्श खड़ा किया था उस आदर्शकी किसी एक सारीकी सारी जातिसे कोई आशा नहीं की जा सकती। इसीलिये यह बतलाना कठिन है कि कविका उक्त स्वप्न कब सत्य होगा । और यह कहना इस लिये और भी कठिन है, कि राजा और प्रजामें जो आने जानेका मार्ग था उस मार्गको दोनों पक्ष बराबर काँटे बिछाकर घेरते जा रहे हैं और दिनपर दिन वह मार्ग बन्द होता जाता है । नए नए विद्वेष खड़े होकर मिलन-क्षेत्रको आच्छन्न करते जा रहे हैं।
राज्यमें इस प्रेमके अभावका आजकल हम इतना अधिक अनुभव कर रहे हैं कि जिसके कारण मन ही मन लोगोंमें एक प्रकारकी आशंका और अशान्ति बढ़ रही है। उसका एक दृष्टान्त लीजिए। आजकल हिन्दुओं और मुसलमानोंमें जो दिनपर दिन बहुत अधिक विरोध बढ़ता जाता है उसके सम्बन्धमें हम आपसमें किस प्रकारकी बात- चीत किया करते हैं ? क्या हम लोग लुक छिपकर यह बात नहीं कहते कि इस उत्पातका प्रधान कारण यही है कि अँगरेज यह विरोध दूर कर- नेके लिये यथार्थ रूपसे प्रयत्न नहीं करते । बात यह है कि अंगरेजोंकी राजनीतिमें प्रेमनीति के लिये कोई स्थान ही नहीं है । भारतवर्षके दो प्रधान सम्प्रदायोंमें उन लोगोंने प्रेमके बीजकी अपेक्षा ईर्ष्याका बीज ही अधिक बोया है । सम्भव है कि ऐसा काम उन्होंने बिना इच्छाके ही किया हो; लेकिन अकबरने प्रेमके जिस आदर्शको सामने रखकर टुकड़े टुकड़े भारतवर्षको एक करनेकी चेष्टा की थी वह आदर्श अंगरेजोंकी पालिसीमें नहीं है। इसीलिये इन दोनों जातियोंका स्वाभा- विक विरोध घटता नहीं है बल्कि दिनपर दिन उसके बढ़नेके ही लक्षण दिखाई देते हैं । केवल कानूनके द्वारा केवल शासनके द्वारा दोनों एक नहीं किए जा सकते। दोनोंको एक करानेके लिये उनके अन्तरमें प्रवेश करनेकी आवश्यकता होती है, उनकी वेदना समझनी पड़ती है, यथार्थ रूपसे प्रेम करना पड़ता है, स्वयं पास आकर और दोनोंके हाथ पकड़कर मेल कराना होता है। यदि केवल पुलिस तैनात करके और हथकड़ी पहनाकर शान्ति स्थापित की जाय तो उससे केवल दुर्द्धर्य या बहुत ही प्रबल बलका परिचय मिलता है । लेकिन अकबरके स्वप्नमें यह बात नहीं थी । सूर्यास्तभूमिके कवि लोग यदि व्यर्थका और मिथ्या अहंकार छोड़कर विनीत प्रेमके साथ गम्भीर आक्षेप करते हुए अपनी जातिको उसके दोष दिखलावें और प्रेमके उस उच्च आदर्शकी शिक्षा दें तो उनकी जातिकी भी उन्नति हो और इस आश्रितवर्गका मी उपकार हो । अँगरेजोंमें इस समय जो आत्माभिमान, अपनी सभ्यताका जो गर्व, अपनी जातिका जो अहं- कार है, क्या वह यथेष्ट नहीं है ? कवि लोग क्या केवल उसी अग्निमें आहुति देंगे---उसीको बढावेंगे । क्या अब भी नम्रताकी शिक्षा देने और प्रेमकी चर्चा करनेका समय नहीं आया सौभाग्यके सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़कर क्या अब भी अँगरेज कवि केवल आत्मघोषणा ही करेंगे। लेकिन जिस अवस्थामें हम लोग पड़े हुए हैं उसे देखते हुए हम लोगोंके मुँह से ऐसी बातोंका निकलना कुछ शोभा नहीं देता। इसीलिये कहनेमें भी हमें लज्जा मालूम होती है। विवश होकर प्रेमकी भिक्षा करनेके समान दीनता और किसी बातमें नहीं है। और बीच बीचमें इस सम्बन्धमें हम लोगोंको दो चार उल्टी-सीधी बातें सुननी भी पड़ती हैं।
हमें याद आता है कि कुछ दिन हुए भक्तिभाजन प्रतापचन्द्र मजूमदार महाशयके एक पत्रके उत्तरमें लंडनके 'स्पेक्टेटर नामक पत्रने लिखा था कि आजकलके बंगालियोंमें बहुतसे अच्छे लक्षण हैं; लेकिन उनमें एक दोष दिखाई पड़ता है । उनमें Sympathy ( सहानु- भूति ) की लालसा बहुत बढ़ गई है।
हमें अपना यह दोष मानना पड़ता है और अबतक हम जिस प्रकार सब बातें कहते आए हैं उसमें बराबर जगह जगह इस दोषका प्रमाण मिलता है । अँगरेजोंसे अपना आदर करानेकी इच्छा हम लो- गोंमें कुछ अस्वाभाविक परिमाणमें बढ़ गई है । लेकिन उसका कारण यह है कि हम लोग स्पेक्टेटरकी तरह स्वाभाविक अवस्था नहीं हैं। हम लोग जिस समय बहुत प्यासे होकर एक लोटा पानी माँगते हैं, उस समय हमारे राजा चटपट हमारे सामने आधा बेल (फल) ला रखते हैं ! किसी विशिष्ट समय पर आधा बेल बहुत कुछ उपकारक हो सकता है, लेकिन उससे भूख और प्यास दोनों एक साथ ही दूर नहीं हो सकतीं । अँगरेजोंकी सुनियमित और सुविचारित गवर्नमेण्ट बहुत उत्तम और उपादेय है, लेकिन उससे प्रजाके हृदयकी तृष्णा नहीं मिट सकती बल्कि उल्टे जिस प्रकार बहुत अधिक गरिष्ठ भोजन कर नेसे प्यास बहुत बढ़ जाती है उसी प्रकार इस गवर्नमेण्टसे भी प्रजाके हृदयकी तृष्णा और भी बढ़ जाती है। स्पेक्टेटर देश-देशान्तरके सब प्रकारके भोज्य और पानीय पदार्थ बहुत अधिक परिमाणमें मँगाकर परिपूर्ण डिनर (dinner) में बैठकर किसी तरह भी यह नहीं समझ सकता कि उसके झरोखेसे बाहर रास्तेमें खड़े हुए ये विदेशी बंगाली इस प्रकार भूखे कंगालोंकी तरहके भाव क्यों रखते हैं ?
लेकिन कदाचित् स्पेक्टेटर यह सुनकर प्रसन्न होगा कि उसकी बहुत ही दुष्प्राप्य सहानुभूति के अंगूर धीरे धीरे हम लोगोंके निकट भी खट्टे होते जाते हैं। हम लोग बहुत देरतक लोलुपकी तरह ऊपर आँख उठाकर देखते रहे हैं और अब अन्तमें धीरे धीरे घर लौटनेकी तैयारी कर रहे हैं। हम लोगोंके इस चिर उपवासी और क्षुधित स्वभावमें भी जो थोड़ा बहुत मनुष्यत्व बच गया था यह अब धीरे धीरे विद्रोही होता जा रहा है !
हम लोगोंने यह कहना आरम्भ कर दिया है कि क्या तुम लोग इतने श्रेष्ट हो ! तुम लोगोंने बहुत किया तो कल चलाना और तोप बन्दूक छोड़ना सीखा है, लेकिन मनुष्यमें वास्तविक सभ्यता आध्यात्मिक सभ्यता है और उस सभ्यतामें हम लोग तुमसे कहीं अधिक श्रेष्ट हैं । हम लोग तुम्हें अध्यात्मविद्या क ख ग घ से आरम्भ करके अच्छी तरह सिखला सकते हैं । हम लोगोंको तुम जो कम सभ्य समझकर अवज्ञा करते हो, यह तुम लोगोंकी अन्ध मूढ़ता है। तुम लोगोंमें हिन्दू जातिकी श्रेष्ठता समझनेकी शक्ति ही नहीं है। हम लोग फिर आँखें बन्द करके ध्यानमें बैठ जायेंगे । अब हमने तुम्हारे युरोपकी सुखासक्त चपल सभ्यताकी बाल-लीलाकी ओरसे अपनी दृष्टि हटा ली है और । अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमा ली है। तुम लोग कचहरी करो, आफिस चलाओ, दूकान करो, नाच-खेल, मार-पीट लूट-पाट करो और शिमलेके शैल-शिखरपर विलासकी स्वर्गपुरी- बनाकर सभ्यताके मदमें मत्त होकर रहो।
दरिद्र बंचित मनुष्य अपने आपको इसी प्रकार सान्त्वना देनेकी चेष्टा करता है। जिस श्रेष्टताके साथ प्रेम नहीं होता उस श्रेष्ठताको वह किसी प्रकार वहन करनेके लिये राजी नहीं होता। इसका कारण यह है कि उसके अन्दर एक सहज ज्ञान होता है जिसके द्वारा वह यह समझता है कि यदि विवश होकर यह सूखी श्रेष्ठता वहन करनी होगी तो उससे धीरेधीरे भार ढोनेवाले मूढ़ पशुके समान हो जाना पड़ेगा।
लेकिन कौन कह सकता है कि यह मानसिक विद्रोह विधाताकी ही इच्छा नहीं है ! वह विधाता जिस प्रकार इस क्षुद्र पृथ्वीकी प्रचण्ड सूर्य के प्रवल आकर्षणसे रक्षा करता है; उसने पृथ्वीमें एक प्रतिकूल शक्ति छिपा रखी है, उसी शक्तिके द्वारा यह पृथ्वी सूर्यके प्रकाश और उत्तापका भोग करके भी अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा करती है और सूर्यके समान प्रतापशाली होनेकी चेष्टा न करके अपने अन्दर छिपी हुई स्नेहशक्तिके द्वारा वह श्यामला, शस्यशालिनी, कोमला मातृ- रूपिणी हो गई है, जान पड़ता है कि उसी प्रकार उस विधाताने अँगरेजोंके भारी आर्कषणसे हम लोगोंकी केवल रक्षा करनेका ही यह उद्योग किया है। जान पड़ता है कि उसका अभिप्राय यही है कि हम लोग अँगरेजी सभ्यताके प्रकाशमें अपनी स्वतंत्रताको समुज्वल कर डालें।
इस बातके लक्षण भी दिखाई देते हैं। अँगरेजों के साथ होनेवाले संघर्षने हम लोगोंके हृदयमें जो एक प्रकारके उत्तापका संचार कर दिया है उसके द्वारा हम लोगोंकी मुमूर्षु जीवनी शक्ति फिरसे सचेतन हो रही है । हम लोगोंके हृदयमें हम लोगोंकी जो समस्त विशेष शक्ति अबतक अन्ध और जड़के समान होकर पड़ी हुई थी वह शक्ति नए प्रकाशमें फिरसे अपने आपको पहचानने लग गई है । स्वाधीन युक्ति, तर्क और विचारसे हम लोग मानो अपनी मानस-भूमिका फिरसे आविष्कार कर रहे हैं । दीर्घ प्रलय-रात्रिके अन्तमें अरुणोदय होनेपर हम लोग मानो अपने ही देशका आविष्कार करनेके लिये निकल खड़े हुए हैं। हम लोगोंने श्रुति, स्मृति, काव्य, पुराण, इतिहास और दर्शनके पुराने घने जंगल में प्रवेश किया है । हम अपने पुराने छिपे हुए धनको नए सिरेसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं । हम लोगोंके मनमें धिक्का- रका जो प्रतिघात हुआ है उसीने हम लोगोंको जोरसे फिर हमारी ही ओर फेंक दिया है। पहले आक्षेपमें हम लोग कुछ अन्धभावसे अपनी मिट्टी पकड़कर रह गये हैं-किन्तु आशा की जाती है कि एक दिन स्थिर भाव और शान्त चित्तसे अच्छे बुरेका विचार करनेका समय आवेगा और हमलोग इसी प्रतिघातसे यथार्थ गूढ शिक्षा और स्थायी उन्नति प्राप्त कर सकेंगे।
एक प्रकारकी स्याही होती है जो कुछ समयके उपरान्त कागज- पर दिखलाई ही नहीं देती और अन्तमें जब उस कागजको कुछ आँच दिखलाते हैं तब वह स्याही फिर उठ आती है। पृथ्वीकी अधि- कांश सभ्यता मानो उसी स्याहीसे लिखी हुई है । समय पाकर वह लुप्त हो जाती है और फिर शुभ संयोग पाकर नई सभ्यताके संबंधसे, नए जीवनके उत्तापसे उसका फिरसे उठआना असम्भव नहीं जान पड़ता। हम लोग तो यही आशा करके बैठे हैं और इसी बड़ी आशासे उत्साहित होकर हम लोग अपने प्राचीन पोथी पत्रे आदि लाकर उसी उत्तापके पास रख रहे हैं। यदि उसके पहले अक्षर फिरसे उठ आवें तब तो संसारमें हमारे गौरवकी रक्षा हो सकती है और नहीं तो वृद्ध भारतकी इसीमें सद्गति है कि उसका जराजीर्ण शरीर सभ्यताकी जलती हुई चितामें डाल दिया जाय और वह लोकान्तरित तथा रूपान्तरित हो जाय ।
हम लोगोंमें सर्वसाधारणके सम्मानभाजन एक सम्प्रदायके लोग हैं जो वर्तमान समस्याकी एक सहज मीमांसा करना चाहते हैं । उन लोगोंके भाव इस प्रकार हैं;—
बहुतसी बाहरी बातें ऐसी हैं जिनके कारण अँगरेजोंके साथ हम लोगोंका मेल नहीं हो सकता । यही बाहरी बातें सबसे पहले आँखों- पर आघात करती हैं और उससे विजातीय विद्वेषका सूत्रपात हो जाता है । इसलिये सबसे पहले उसी बाहरी विरोधको यथासम्भव दूर करना आवश्यक है। जो आचार व्यवहार और दृश्य बहुत दिनोंके अभ्यासके कारण सहजमें ही अँगरेजोंकी श्रद्धा आकृष्ट करते हैं, इस देशके लिये उन्हीं आचार-व्यवहारों और दृश्योंका प्रवर्तन करना लाभ- दायक । वस्त्र, भूषण, भावभङ्गी, और यहाँ तक कि यदि भाषा भी अँगरेजी हो जाय तो दोनों जातियोंका मेल होनेमें जो बड़ाभारी भेद पड़ता है वह दूर हो जाय और हम लोगोंको अपने सम्मानकी रक्षा करनेका एक सहज उपाय मिल जाय ।
हमारी समझमें यह बात ठीक नहीं है। बाहरी . अनेकता लुप्त कर देनमें सबसे बड़ी विपत्ति यह है कि उससे अनभिज्ञ दर्श- कके मनमें एक झूठी आशाका संचार हो जाता है । और उस आशाकी रक्षा करनेके लिये छिपे तौरपर हमें झूठका शरणापन्न होना पड़ता है। अँगरेजोंको यह जतला देना होता है कि हम भी तुम्हीं लोगोंकी तरह हैं । और जहाँ कोई उनसे भिन्न बात निकल आती है तो उसे चटपट वहीं दबा देनेकी इच्छा होती है । आदम और हौआ ज्ञानवृक्षका फल खानेसे पहले जिस सहल वेशमें घूमा करते थे वह बहुत ही शोभायुक्त और पवित्र था, लेकिन ज्ञानवृक्षका फल खानके बादसे लेकर जबतक इस पृथ्वीपर दरजीकी दूकान नहीं खुली थी तबतक इसमें सन्देह नहीं कि उन लोगोंका वेश आदि अश्लीलता- निवारिणी सभा निन्दनीय समझा जाता था। हम लोगोंके लिये भी यही सम्भव है कि नए आवरणमें हम लोगोंकी लज्जा दूर न होगी बल्कि और बढ़ जायगी। क्योंकि, अभीतक कपड़े सीनेका कोई ऐसा कारखाना नहीं खुला है जो सारे देशवासियोंके शरीर ढक सके। यदि हम इस प्रकार शरीर ढकना चाहेंगे तो एक तो ढके ही न जा सकेंगे और फिर इसके समान विडम्बनाकी बात और कोई हो नहीं सकती। जो लोग लोभमें पड़कर सभ्यतावृक्षका यह फल खा बैठे हैं उन लोगोंको बहुत ही परेशान होना पड़ता है। इन लोगोंको सिर्फ इसी लिये परदा टाँगकर सब काम करना पड़ता है कि जिसमें कोई अँगरेज यह न देख ले कि हम हाथसे खाते हैं या चौका लगाकर भोजन करने बैठते हैं। एटीकेट ( Ettiquete ) शास्त्रमें यदि जरासी भी त्रुटि हो जाय, अथवा अँगरेजी भाषा बोलनेमें जरासी भी भूल हो जाय, तो वे उसे पातकके समान समझते हैं और अपने सम्प्रदायमें यदि वे आपसमें एक दूस- रेके साहबी आदर्शमें कुछ भी कमी देखते हैं तो लजा और अवज्ञा अनुभव करते हैं । यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो नंगे रहनेकी अपेक्षा इस अधूरे कपड़े पहनने में ही और कपड़े पहननेकी निष्फल चेष्टामें ही वास्तविक अश्लीलता है——इसीमें यथार्थ आत्म-अवमानना है । जहाँ थोड़ा बहुत अंगरेजी ठाठ बनाया जाता है वहाँ असमानता या बेढंगापन और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। उसका फल कुछ अधिक शोभायुक्त नहीं होता । इसी लिये रुचिपर दोहरा आघात होता है । अपने पुराने अभ्यासके कारण भारतवासियोंके निकट आकृष्ट होनेमें अँगरेज मनमें यही समझते हैं कि यह बड़ा अन्याय हो रहा है---ठगे जा रहे हैं और इस कारण उनका मन दूने वेगसे प्रतिहत होता है ।
आधुनिक जापान युरोपीय सभ्यताका ठीक ठीक अनुयायी हो गया है । उसकी शिक्षा केवल बाहरी शिक्षा नहीं है । कल-कारखाने, शासन-प्रणाली, विद्या-विस्तार आदि सभी काम वह स्वयं अपने हाथोंसे चलाता है। उसकी पटुता देखकर युरोप विस्मित होता है और उसे ढूँढ़नेपर भी कहीं कोई त्रुटि नहीं मिलती । लेकिन फिर भी युरोप अपने विद्यालयके इस सबसे बड़े छात्रको विलायती वेश-भूषा और आचार-व्यवहारका अनुकरण करते हुए देखकर विमुख हुए बिना नहीं रह सकता । जापान अपनी इस अद्भुत कुरुचि, इस हास्यजनक असंगतिके सम्बन्धमें स्वयं बिलकुल अन्धा है । किन्तु युरोप इस छद्म- वेशी एशियावासीको देखकर मनमें बहुत कुछ श्रद्धा रखनेपर भी बिना हँसे हुए नहीं रह सकता।
और फिर क्या हम लोग युरोपके साथ और समस्त विषयों में इतने अधिक एक हो गए हैं कि बाहरी अनेकता दूर करते ही असंगति नामक बहुत बड़ा रुचिदोष न होगा ?
यह तो हुई एक बात, दूसरी बात यह है कि इस उपायसे लाभ तो गया चूल्हेमें उल्टे मूल धनकी ही हानि होती है । अँगरेजोंके साथ जो अनेकता है वह तो है ही, दूसरे अपने देशवासियोंके साथ भी अनेकता सूचित होती है । आज यदि हम अंगरेजोंकी नकल बनकर किसी अँगरेजके पास सम्मान प्राप्त करनेके लिये जायें तो हमारे जो भाई अँगरेजोंकी नकल नहीं बन सकते उन लोगोंको 'अपना' कहने में हमें स्वभावतः ही कुछ संकोच होगा। उनके लिये बिना लजा अनुभव किए हमारे लिये और कोई उपाय ही नहीं है। अपने विषयमें लोगोंसे यही कहनेकी प्रवृत्ति होती है कि हम अपने गुणोंसे इन सब लोगोंसे अलग होकर स्वतंत्र जातिमें मिल गए
इसका अर्थ ही यह है कि हम अपना जातीय सम्मान बेचकर, आत्म-सम्मान मोल लें । यह एक प्रकारसे अंगरेजोंके सामने यही कहना है कि साहब इन जंगलियोंके साथ आप चाहे जैसा व्यवहार करें; परन्तु जब हम बहुत कुछ आपहीकी तरह शकल बनाकर आए हैं तब हम अपने मनमें इस बातकी बहुत बड़ी आशा रखते हैं कि आप हमें अपने पाससे दूर न कर देंगे।
अब आप ही सोच लीजिए कि इस प्रकारके कंगालपनसे कुछ प्रसाद भले ही मिल जाय, लेकिन क्या इससे कभी अपने अथवा अपनी जातिके सम्मानकी रक्षा हो सकती है ?
कर्णने जिस समय अश्वत्थामासे कहा था कि तुम ब्राह्मण हो, तुम्हारे साथ क्या युद्ध करूँ ! तब अश्वत्थामाने कहा था कि क्या तुम इसीलिये मुझसे युद्ध नहीं कर सकते कि मैं बाह्मण हूँ ? अच्छा तो लो, मैं अपना यह यज्ञोपवीत तोड़कर फेंक देता हूँ।
यदि कोई अँगरेज हमसे हाथ मिलाकर कहे अथवा हमारे नामके साथ एस्क्वायर ( Esquire=महाशय ) जोड़कर लिखे कि अच्छा जब कि तुम यथासंभव अपनी जातीयताको ताकपर रखकर आए हो तो हम तुम्हें अपने क्लबका सभासद बना लेते हैं, हम लोगोंके होट लमें तुम्हें स्थान दिया जाता है और यदि तुम हमसे भेंट करनेके. लिये आओगे तो एकाद बार हम भी तुम्हारे यहाँ बदलेकी भेंट कर- नेके लिये तुम्हारे यहाँ आ सकेंगे, तो क्या हम उसी समय अपने आपको परम सम्मानित समझकर आनन्दके मारे फूल उठेंगे अथवा यह कहेंगे कि क्या केवल इतनेके लिये ही हमारा सम्मान है ! यदि यही बात हो तो हम अपना यह नकली वेश उतारकर फेंक देते हैं ! जब- तक हम अपनी जातिको यथार्थ सम्मानके योग्य न बना सकेंगे तब- तक हम स्वाँग सजकर और अपवाद-स्वरूप बनकर तुम्हारे दरवाजे न आवेंगे।
हम तो कहते हैं कि हमारा एक मात्र व्रत यही है । हम न तो किसीको ठगकर सम्मान प्राप्त करेंगे और न सम्मानको अपनी ओर आकृष्ट करेंगे । हम अपने आपमें ही सम्मान अनुभव करेंगे । जब वह दिन आवेगा तब हम संसारकी जिस सभा चाहेंगे उस सभामें प्रवेश कर सकेंगे । उस दशामें हमारे लिये नकली वेश, नकली नाम, नकली व्यवहार और भिक्षामें माँगे हुए मानकी कोई आवश्यकता न रह जायगी।
लेकिन इसका उपाय सहज नहीं है। हम पहले ही कह चुके हैं कि सहज उपायसे कभी कोई दुस्साध्य कार्य नहीं होता । यह कार्य बहुत ही कठिन है इसी लिये और सब कार्योंको छोड़कर केवल इसीकी ओर विशेष ध्यान देना पड़ेगा।
कार्य्य प्रवृत्त होनेसे पहले हमें यह प्रण कर लेना पड़ेगा कि जबतक वह सुअवसर न आवेगा तबतक हम अज्ञात वासमें रहेंगे।
निर्माण होनेकी अवस्थामें गुप्त रहनेकी आवश्यकता होती है। बीज मिट्टीके नीचे छिपा रहता है । भ्रूण गर्भके अन्दर गुप्तरूपसे रक्षित रहता है । जिन दिनों बालकको शिक्षा दी जाती है उन दिनों यदि उसे सांसारिक बातोंमें अधिक मिलने दिया जाय तो वह प्रवीण समा- जमें गिने जानेकी दुराशासे प्रवीण लोगोंका अनुचित अनुकरण करके उचित समयसे पहले ही पक्क हो जायगा । वह अपने मनमें समझने लगेगा कि मैं एक गण्य माण्य व्यक्त हो गया हूँ। फिर उसके लिये नियमानुकूल शिक्षाकी आवश्यकता न रह जायगी—विनय उसके लिये व्यर्थ और निरर्थक हो जायगी।
जब पाण्डव अपना प्राचीन गौरव प्राप्त करने चले थे तब उन्होंने पहले अज्ञातवासमें रहकर बल संचित किया था । संसारमें उद्यो- ग-पर्वसे पहले अज्ञातवास-पर्व होता है
आजकल हम लोग आत्म-निर्माण और जाति-निर्माणको अवस्थामें हैं। हम लोगोंके लिये यह अज्ञातवासका समय है।
लेकिन यह हम लोगोंका दुर्भाग्य है कि हमलोग बहुत अधिक प्रकाशित हो गए हैं--संसारके सामने बहुत अधिक आ गए हैं । हम लोग बहुत अपरिपक अवस्थामें ही अधीर भावसे अंडेके बाहर निकल पड़े हैं। इस प्रतिकूल संसारमें हमारे लिये यह दुर्बल और अपरिणत शरीर लेकर अपनी पुष्टि करना बहुत ही कठिन हो गया है ।
संसारकी रणभूमिपर आज हम कौनसा अस्त्र लेकर खड़े हुए हैं ? केवल वक्तृता और आवेदन ही न ? हम कौनसी ढाल लेकर आत्म- रक्षा करना चाहते हैं ? केवल कपट-वेश ही ? इस प्रकार कितने दिनोंतक काम चलेगा और इसका कहाँतक फल होगा ?
एक बार अपने मनमें कपट छोडकर सरल भावसे यह स्वीकृत करनेमें क्या दोष है कि अभीतक हम लोगोंके चरित्र बलका जन्म नहीं हुआ ? हम लोग दलबन्दी, ईर्षा और क्षुद्रतासे जीर्ण हो रहे हैं। हम लोग एकत्र नहीं हो सकते, एक दूसरेका विश्वास नहीं करते और अपनेमेंसे किसीका नेतृत्व स्वीकृत करना नहीं चाहते। हम लोगोंके बड़े बड़े अनुष्ठान बड़े बड़े बुलबुलोंकी तरह बहुत ही थोड़े समयमें नष्ट हो जाते हैं। आरम्भमें तो हम लोगोंका काम बहुत तेजीके साथ उठता है और दो ही दिन बाद पहले तो वह विच्छिन्न होता है तब विकृत होता है और अन्तमें निर्जीव हो जाता है। जबतक यथार्थ त्याग-स्वीका- रका समय नहीं आता तबतक हम लोग खेलवाड़ी बालककी तरह कोई काम हाथमें लेकर पागल बने रहते हैं और थोड़े ही दिनों बाद जब त्यागका समय उपस्थित होता है तो तरह तरहके बहाने करके अपने अपने घर चले जाते हैं। यदि किसी कारणसे हमारा आत्मा- भिमान तिलभर भी भंग होता है तो हमें अपने उद्देश्यके मह- त्वके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञान नहीं रह जाता । जिस प्रकार हो कामके आरम्भ होते न होते हमारा गरमागरम नाम हो जाना चाहिए। यदि विज्ञापन और रिपोर्टो आदिके द्वारा खूब धूमधाम हो जाय और हमारी यथेष्ट प्रसिद्धि हो जाय तो उससे हम लोगोंकी इतनी अधिक तृप्ति हो जाती है कि उसके बाद तुरन्त ही हमारी प्रकृति निद्रालस हो जाती है। फिर जो कार्य धैर्यसाध्य, श्रमसाध्य ओर निष्ठासाध्य होता है उसमें हाथ डालनेमें हमारा जी ही नहीं लगता ।
हमारे लिये सबसे अधिक विस्मय और विचारको बात यही है कि यह दुर्बल अपरिणत और बिलकुल जीर्णचरित्र लेकर हम लोग किस साहससे बाहर निकलकर खड़े हो गए हैं !
ऐसी अवस्थामें अपनी अपूर्णताका संशोधन या पूर्ति न करके उस अपूर्णताको छिपानेकी ही इच्छा होती है। ज्यों ही कोई अपने दोषोंकी समालोचना करनेके लिये खड़ा होता है त्यों ही सब लोग मिल कर उसके मुँहपर हाथ रखकर उसे बन्द कर देते हैं और कहते हैं कि अजी चुप रहो, चुप रहो । अगर अँगरेज लोग यह बात सुन लेंगे तो वे अपने मनमें क्या कहेंगे?
और फिर हम लोगोंके दुर्भाग्यसे एक बात यह भी है कि बहुतसे विषयोंमें अँगरेजोंकी दृष्टि भी कुछ स्थूल है। भारतवासियोंमें जो थोड़ेसे विशेष गुण हैं और जो विशेष आदरके योग्य हैं उन्हें अँगरेज लोग चुनकर ग्रहण नहीं कर सकते। चाहे अवज्ञाके कारण हो और चाहे किसी और कारणसे हो, वे विदेशी आवरण भेद नहीं कर सकते और न उसे भेद करना ही चाहते हैं। इसका एक दृष्टान्त देख लीजिए । विदेशमें रहकर जर्मन लोगोंने जिस प्रकार एकाग्रताके साथ हम लोगोंके संस्कृत शास्त्रोंका अनुशीलन किया है उस प्रकार एकाग्रताके साथ, स्वयं भारतमें उपस्थित रहकर, अँगरेजोंने नहीं किया है । अँग- रेज लोग भारतवर्ष में ही अपना जीवन बिताते हैं और सारे देशपर उन्होंने पूर्णरूपसे अधिकार कर लिया है परन्तु देशी भाषाओंपर वे अधिकार नहीं कर सके हैं।
इस लिये अँगरेज लोग भारतवासियोंको ठीक भारतवर्षीय भावसे समझने और श्रद्धा करने में असमर्थ हैं। इसी लिये हम लोग विवश होकर अँगरेजोंको अँगरेजी भावोंसे ही मुग्ध करनेकी चेष्टा करते हैं । जो बात हम अपने मनमें समझते हैं वह अपने मुंहसे नहीं कहते । कार्यरूपमें हम जो कुछ करते हैं समाचारपत्रों में उसे बहुत बढ़ाकर लिखते हैं। हम लोग समझते हैं कि अँगरेज लोग people ( सर्व साधारण) नामक पदार्थको 'हौआ' समझते हैं । इसी लिये हम लोग भी किसी न किसी प्रकार चार आदमियोंको इकट्ठा करके people बनकर और अपने स्वरको गम्भीर करके अँगरेजोंको डराते हैं। आपसमें हम लोग कहते हैं कि भाई क्या करें । बिना ऐसा किए तो वे कुछ सुनते ही नहीं, इस लिये और क्या किया जाय ! वे लोग अपने यहाँका ही दस्तूर समझते हैं।
इस प्रकार अंगरेजोंके स्वभावके कारण ही हम लोगोंको अँगरेजोंकी नकल और आडम्बर करके उनसे सम्मान पाना और काम कराना पड़ता है लेकिन फिर भी हम कहते हैं कि सबसे बढ़कर अच्छी बात यही है कि हम लोग नकल या ढोंग न करें । यदि बिना नकल किए हमारे विधाता हमें थोड़ा बहुत अधिकार न दें अथवा हमपर थोड़ा बहुत अनुग्रह न करें तो नहीं सही !
यह बात नहीं है कि हम अपने विधाताओंसे बिगड़कर या नाराज होकर यह बात कह रहे हैं। वास्तवमें हमारे मनमें बहुत ही भय है हम लोग ठहरे मिट्टीके बरतन । इन काँसके बरतनोंके साथ विवाद करना तो चूल्हे भाड़में गया यदि हम आत्मीयतापूर्वक इनसे हाथ भी मिलाने जायें तो आशंकाकी सम्भावना होती है।
इसका कारण यह है कि इतनी अनेकताके संघातमें आत्मरक्षा करना बहुत ही कठिन होता है । हम लोग दुर्बल हैं इसी लिए हम सोचते हैं कि चलो किसी अँगरेजके पास चलें, शायद वह कृपा करके प्रसन्नतापूर्वक हमें देखकर हँस दे । हमें इस बातका बहुत अधिक लोभ रहता है-इतना अधिक लोभ रहता है कि उस कृपाके सामने हम अपना यथार्थ हित तक भूल सकते हैं । अगर कोई अँगरेज हँसकर हमसे कहे कि वाह बाबू ! तुम अँगरेजी तो बुरी नहीं बोलते, तो उसके बाद अपनी मातृभाषाकी चर्चा करना हमारे लिये बहुत ही कठिन हो जाता है। हमारे जिस बाहरी अंशपर अंगरेजोंकी कृपादृष्टि पड़ती है उसी अंशको हम खूब मनोहर और चित्ताकर्षक बनाना चाहते हैं और जिस ओर किसी युरोपियनकी दृष्टि पड़नेकी सम्भावना नहीं होती उस ओर बिलकुल अन्धकार ही रह जाता है। उस ओरका हम बिलकुल अनादर और परित्याग ही कर देते हैं। उस ओरका किसी प्रकारका संशोधन करनेमें हमें आलस्य जान पड़ता है।
इसके लिये हम मनुष्यको दोष नहीं दे सकते । किसी अकिंचन, अपमानितके लिये यह प्रलोभन बहुत ही स्वाभाविक है । भाग्यवानकी प्रसन्नता उसे बिना विचलित किए नहीं रह सकती ।
हम आज कहते हैं कि भारतवर्षके सबसे अधिक दीन और मलिन कृषकको भी हम अपना भाई कहकर गलेसे लगावेंगे । और यह जो गोरे टमटम हाँकते हुए हमारे सारे शरीरपर कीचड़के छींटे डालते हुए चले जाते हैं उनके साथ हमारा रत्ती भर भी सम्बन्ध नहीं है।
ठीक उसी समय यदि वह गोरा अचानक टमटम रोककर हमारी दरिद्र कुटियामें आकर पूछ बाबू ! तुम्हारे पास दियासलाई है ?" तब हमारा जी चाहता है कि हमारे देशके पचीस करोड़ आदमी यहाँ आकर कतारके कतार खड़े हो जायें और देख जाय कि साहब आज हमारे ही घरपर दियासलाई माँगने आए हैं । यदि संयोगवश ठीक उसी समय हमारा कोई सबसे दीन और मलिन कृषक भाई हमारी माताको प्रणाम करनेके लिये हमारे दरवाजेपर आखड़ा हो तो यही जी चाहता है कि किसी प्रकार इस कुत्सित दृश्यको पृथ्वीके अन्दर लुप्त कर दें; जिसमें साहब कभी यह न सोचें कि उस जंगलीके साथ हमारा कोई सम्बन्ध या बहुत दूरकी कोई एकता है।
इसलिये जब हम अपने मन ही मन यह कहते हैं कि हम किसी साहबके पास न जायेंगे, तब हम यह बात अहंकारके साथ नहीं कहते बल्कि बहुत ही विनय और बहुत ही आशंकाके साथ कहते हैं। हम समझते हैं कि इसी सौभाग्य-गर्वसे ही हमारा सबसे अधिक सर्व- नाश होगा, हम एकान्तमें बैठकर अपने कर्तव्यका पालन न कर सकेंगे । हमारा मन सदा साशंक और चंचल रहेगा और अपने दरिद्र सम्बन्धियोंका अप्रसिद्ध घर हमें बहुत अधिक सूना जान पड़ेगा। जिन लोगों के लिये अपने प्राण दे देना हमारा कर्तव्य है उन लोगोंके साथ आत्मीयके समान व्यवहार करनेमें हमें लज्जा जान पड़ेगी।
अँगरेज लोग अपने आमोद-प्रमोद, आहार-विहार, आसंग-प्रसंग, बन्धुत्व और प्रेमसे हम लोगोंको बिलकुल बहिष्कृत करके हमारे लिये द्वार बन्द रखना चाहते हैं तो भी यदि हम लोग झुककर, दबकर, कलसे, बलसे, छलसे उस द्वारमें प्रवेश करनेका थोड़ासा अधिकार पा जाते हैं, राजसमाजसे हमारा यदि बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध हो जाता है, हम उसकी केवल गंध भी पा जाते हैं तो हम लोग इतने कृतार्थ हो जाते हैं कि उस गौरबके सामने हमें अपने देशवासियोंकी आत्मीयता बिलकुल तुच्छ जान पड़ती है । ऐसे अवसरपर, ऐसी दुर्बल मानसिक अवस्थामें उस सर्वनाशी अनुग्रह मद्यको हमें बिलकुल अपेय और अस्पृश्य समझना चाहिए और उसका सर्वथा परिहार करना चाहिए।
इसका एक और भी कारण है। अँगरेजोंके अनुग्रहको केवल गौरव समझकर हमारे लिये सर्वथा निस्वार्थ भावसे उसका भोग करना भी कठिन है । इसका कारण यह है कि हम लोग दरिद्र हैं और पेटकी आग केवल सम्मानकी वर्षासे नहीं बुझ सकती। हम यह चाहते हैं कि अवसर पड़नेपर उस अनुग्रहके बदलेमें और कुछ भी ले सकें। हम लोग केवल अनुग्रह नहीं चाहते बल्कि उसके साथ ही साथ अन्नकी भी आशा रखते हैं। हम लोग केवल यही नहीं चाहते कि साहब हमसे हाथ मिलावें बल्कि हमारे लिये यह भी आवश्यक है कि नौकरी परका हमारा वेतन बढ़ जाय । यदि आरम्भमें दो दिनतक हम साहब बहादुरके यहाँ मित्रकी भाँति आते जाते हैं तो तीसरे दिन भिख- मंगोंकी तरह उनके सामने हाथ फैलानेमें भी हमें लज्जा नहीं आती। इस लिये साहबके साथ हमारा जो सम्बन्ध होता है वह बहुत ही हीन हो जाता है। एक ओर तो हम इस लिये अपने मनमें नाराज हो जाते हैं कि अँगरेज हम लोगोंके साथ समानताका भाव नहीं रखते और तदनुकूल हमारा सम्मान नहीं करते और दूसरी ओर उनके दर- वाजेपर जाकर हम भीख माँगना भी नहीं छोड़ते ।
जो भारतवासी अँगरेजोंसे मिलनेके लिये जाते हैं उन्हें वे अँगरेज अपने मनमें उम्मेदवार अनुग्रहप्रार्थी अथवा उपाधिके प्रत्याशी समझे बिना नहीं रह सकते । क्योंकि अँगरेजोंके साथ भेंट करनेका हमारे लिये और कोई कारण या सम्बन्ध तो है ही नहीं । उनके घरके किवाड़ बन्द हैं और हमारे दरवाजेपर ताला लगा है । तब आज अचानक जो आदमी अङ्गा और पगड़ी पहनकर कुछ शंकित भावसे चला आ रहा है, एक अभद्रकी भाँति अनभ्यस्त और अशोभित भावसे सलाम कर रहा है, यह नहीं समझ सकता कि मैं कहाँ बैठूँ और हिचक हिचककर बातें कर रहा है, उसके मनमें सहसा इतनी विरह-वेदना कहाँसे उत्पन्न हो गई जो वह चपरासीको थोड़ा बहुत पारितोषिक देकर भी साहबका मुख-चन्द्र देखने आ रहा है ?
जिसकी अवस्था बहुत ही गई-बीती हो वह बिना बुलाए और बिना आदरके किसी भाग्यवानके साथ घनिष्टता बढ़ाने के लिये कभी न जाय। क्योंकि इससे दोनों से किसी पक्षका मंगल नहीं होता। अँगरेज लोग इस देशमें आकर क्रमशः जो नई मूर्ति धारण करते जाते हैं, क्या उसका बहुत कुछ कारण हम लोगोंकी हीनता ही नहीं है ? इसलिये भी हम कहते हैं कि जब अवस्था इतनी बुरी है तब यदि हमारे सम्बन्ध और संघर्षसे अँगरेज लोग रक्षित रहेंगे तो उन लोगोंका चरित्र भी इतनी जल्दी विकृत न होगा । इसमें दोनों ही पक्षोंका लाभ है।
अतएव सब बातोंका अच्छी तरह ध्यान रखकर राजा और प्रजाका आपसका द्वेष शान्त रखनेके लिये सबसे अच्छा उपाय यही जान पड़ता है कि हम लोग अँगरेजोंसे सदा दूर रहें और एकान्त मनसे अपने समस्त निकट-कर्तव्योंके पालनमें लग जायें ! केवल भिक्षा करनेसे कभी हमारे मनमें यथार्थ सन्तोष न होगा । आज हम लोग यह सम- झते हैं कि जब हमें अँगरेजोंसे कुछ अधिकार मिल जायेंगे तब हम लोगोंके सब दुख दूर हो जायेंगे । लेकिन यदि भीख माँगकर हम सारे अधिकार भी प्राप्त कर लेंगे तब हम देखेंगे कि हमारे हृदयमेंसे लांछना किसी प्रकार दूर ही नहीं होती । बल्कि जबतक हमें अधिकार नहीं मिलते तबतक हमारे मनमें जो थोड़ी बहुत सान्त्वना है अधिकार प्राप्त करने पर वह सान्त्वना भी न रह जायगी। हमारे हृदयमें जो शून्यता है जबतक उसकी पूर्ति न होगी तबतक हमें किसी प्रकार शान्ति न मिलेगी। जब हम अपने स्वभावको सारी क्षुद्ताओंके बन्धनसे मुक्त कर सकेंगे तभी हम लोगोंकी यथार्थ दीनता दूर होगी और तभी हम लोग तेजके साथ, सम्मानके साथ अपने शासकोंसे भेंट करनेके लिये जा आ सकेंगे।
हम कुछ ऐसे पागल नहीं हैं जो यह आशा करें कि सारा भारत- वर्ष पद, प्रभाव और अँगरेजोंके प्रसादकी चिन्ता छोड़कर, ऊपरी तड़क भड़क और यश तथा प्रसिद्धिका ध्यान छोड़कर, अँगरेजोंको आकृष्ट करनेके प्रबल मोहसे अपनी रक्षा करके, मनोयोगपूर्वक अवि- चलित चित्तसे चरित्रबलका संचय करने लगेगा, ज्ञान और विज्ञान सीखने लगेगा, स्वाधीन व्यापारमें प्रवृत्त हो जायगा, सारे संसारकी यात्रा करके लोकव्यवहार सीखेगा, परिवार और समाजमें सत्यके आचरण और सत्यके अनुष्ठानका प्रचार करेगा, मनुष्य जिस प्रकार अपना मस्तक सहजमें लिए चलता है उसी प्रकार अनायास और स्वाभाविक रूपमें वह अपना सम्मान बराबर रक्षित रखकर लिए चलेगा, लालायित और लोलुप होकर दूसरोंके पास सम्मानकी भिक्षा माँगने न जायगा और 'धर्मो रक्षति रक्षितः' वाले सिद्धान्तका गूढ तात्पर्य पूर्ण रूपसे अपने मनमें समझ लेगा। यह बात सभी लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि जिस तरफ सुभीतेकी ढालू जगह होती है मनुष्य अनजानमें धीरे धीरे उसी तरफ ढलता जाता है । यदि हैटकोट पहनने, अँगरेजी भाषा बोलने और अँगरेजोंके दरवाजे जानेमें कोई सुभीता हो तो कुछ लोग हैट-कोट पहनने लग जायेंगे, अपने लड़कोंको बहुत कुछ प्रयत्न करके मातृभाषाका बोलना भुला देंगे और साहबोंके दरबानों के साथ अपने पिता या भाईसे भी बढ़कर आत्मीयता स्थापित करने लग जायेंगे । इस प्रवाहको रोकना बहुत ही कठिन है । लेकिन फिर भी अपने मनकी बातको स्पष्ट रूपसे प्रकट कर देना आवश्यक है। चाहे अरण्य-रोदन ही क्यों न हो तो भी हमें कहना ही पड़ता है कि अँगरेजीका प्रचार करनेसे कोई फल न होगा । देशकी स्थायी उन्नति तभी होगी जब शिक्षाकी नीव देशी भाषाओंपर रक्खी जायगी। अँगरेजोंसे आदर प्राप्त करनेका भी कोई फल न होगा। अपने मनु- ष्यत्वको सचेतन और जाग्रत करने में ही यथार्थ गौरव है। यदि किसीको धोखा देकर कुछ वसूल कर लिया जाय तो उससे यथार्थ प्राप्ति नहीं होती । निष्ठापूर्वक प्राणपणसे त्याग स्वीकार करनेमें ही यथार्थ कार्य-सिद्धि है।
सिक्खोंके अन्तिम गुरु गोविन्दसिंहने जिस प्रकार बहुत दिनोंतक दुर्गम एकान्त स्थानमें रहकर भिन्न भिन्न जातियोंके भिन्न भिन्न शास्त्रोंका अ- ध्ययन किया था और बहुत दिनोंमें आत्मोन्नति करनेके उपरान्त तब निर्जन स्थानसे बाहर निकलकर अपना गुरुपद ग्रहण किया था, उसी प्रकार जो मनुष्य हम लोगोंका गुरु होगा उसे अप्रसिद्ध और एकान्तस्थानमें अज्ञातवास करना पड़ेगा। परम धैर्यके साथ गूढचिन्ता करते हुए भिन्न भिन्न देशोंके ज्ञान और विज्ञानमें अपने आपको डुबा देना होगा, आजकल सारा देश अन्धा होकर अनिवार्य वेगसे जिस आकर्षणसे बराबर खिंचा चला जा रहा है उस आकषर्णसे बहुत ही यत्नपूर्वक उसे अपने आपको दूर और रक्षित रखना पड़ेगा और बहुत ही स्पष्ट- रूपसे हानि और लाभके ज्ञानका अर्जन और मार्जन करना पड़ेगा। इतना सब कुछ करनेके उपरान्त जब वह बाहर निकलकर हम लोगोंकी चिरपरिचित भाषामें हम लोगोंका आह्वान करेगा, हम लोगोंको आदेश करेगा तब चाहे और कुछ हो या न हो पर हम लोग सहसा चैतन्य अवश्य हो जायेंगे । तब हम लोग समझेंगे कि इतने दिनोंतक हम लोग भ्रममें पड़े हुए थे। हम लोग एक स्वप्नके वशमें होकर आँखें बन्द करके संकटके रास्तेमें चल रहे थे और वही रास्ता पतनकी उपत्यका है।
हम लोगोंके वे गुरुदेव आजकल के इस उद्भ्रान्त कोलाहलमें नहीं हैं। वे मानमर्य्यादाकी इच्छा नहीं करते। वे कोई बड़ा पद नहीं चाहते । वे अँगरेजी समाचारपत्रोंकी रिपोर्ट नहीं चाहते। वे सब प्रका रके पागलपनसे मूढजनस्रोतके भँवरसे यत्नपूर्वक अपनी रक्षा करते हैं। वे इस बातकी आशा नहीं करते कि किसी विशिष्ट कानूनके संशो- धन अथवा किसी विशिष्ट सभामें स्थान मिलनेसे ही हम लोगोंके देशकी कोई यथार्थ दुर्गति दूर हो जायगी। वे एकान्तमें सब बातोंका झान प्राप्त कर रहे हैं और एकान्तमें ही सब विषयोंका चिन्तन कर रहे हैं। वे अपने जीवनके बहुत ही उच्च आदर्शमें अटल उन्नति करते हुए चारों ओरके जनसमाजको अनजानमें ही अपनी ओर आकृष्ट कर चारों ओर अपना उदार विश्वग्राही हृदय देकर चुपचाप सबको अपना रहे हैं और भारतलक्ष्मी उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखती हुई ईश्वरसे एकान्तमनसे प्रार्थना कर रही है कि आजकलका मिथ्या तर्क और निर्दिष्ट बातें उन्हें कभी अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट न कर सकें और देशके लोगोंकी विश्वासहीनता, निष्ठाहीनता और उद्देश्य के साधनके असाध्य होनेकी झूठी कल्पना उन्हें निरुत्साह न कर दे । इस देशको उन्नति भले ही असाध्य हो परन्तु जो इस देशकी उन्नति करेगा, असाध्य कार्य्यका साधन ही उसका व्रत होगा।
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