भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली/पहिला अंक
पहिला अंक
( जवनिका उठी )
स्थान–--श्रीवृंदावन, गिरिराज दूर से दिखाता है
( श्रीचंद्रावली और ललिता आती हैं )
ललिता---प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यो करती है?
चंद्रा०---नहीं सखी! मुझे शोच किस बात का है।
ललिता---ठीक है, ऐसी ही तो हम मूर्ख हैं कि इतना भी नहीं समझतीं।
चंद्रा०---नहीं सखी! मैं सच कहती हूँ, मुझे कोई शोच नहीं।
ललिता---बलिहारी सखी! एक तू ही तो चतुर है, हम सब तो निरी मूर्ख हैं।
चंद्रा०---नहीं सखी! जो कुछ शोच होता तो मैं तुझसे कहती न। तुझसे ऐसी कौन बात है जो छिपाती?
ललिता---इतनी ही तो कसर है, जो तू मुझे अपनी प्यारी सखी समझती तो क्यों छिपाती?
चंद्रा०---चल मुझे दुख न दे, भला मेरी प्यारी सखी तू न होगी तो और कौन होगी?
ललिता---पर यह बात मुख से कहती है, चित्त से नहीं।
चंद्रा०---क्यों?
चंद्रा०---नहीं सखी, यह केवल तेरा झूठा संदेह है।
ललिता---सखी, मैं भी इसी व्रज में रहती हूँ और सब के रंग- ढंग देखती ही हूँ। तू मुझसे इतना क्यों उड़ती है? क्या तू यह समझती है कि मैं यह भेद किसी से कह दूँगी? ऐसा कभी न समझना। सखी, तू तो मेरी प्राण है। मैं तेरा भेद किससे कहने जाऊँगी?
चंद्रा०---सखी, भगवान् न करे कि किसी को किसी बात का संदेह पड़ जाय; जिसको जो संदेह पड़ जाता है वह फिर कठिनता से मिटता है।
ललिता---अच्छा, तू सौगंद खा।
चंद्रा०---हॉ सखी, तेरी सौगंद।
ललिता---क्या मेरी सौगंद?
चंद्रा०---तेरी सौगंद कुछ नहीं है।
ललिता---क्या कुछ नहीं है, फिर तू चली न अपनी चाल से? तेरी छलविद्या कहीं नहीं जाती। तू व्यर्थ इतना क्यों छिपाती है! सखी, तेरा मुखड़ा कहे देता है कि तू कुछ न कुछ सोचा करती है।
चंद्रा०---क्यों सखी, मेरा मुखड़ा क्या कहे देता है?
ललिता---यही कहे देता है कि तू किसी की प्रीति में फँसी है।
चंद्रा०---बलिहारी सखी, मुझे अच्छा कलंक दिया। ललिता---यह बलिहारी कुछ काम न आवेगी, अंत में फिर मैं ही काम आऊँगी और मुझी से सब कुछ कहना पड़ेगा, क्योंकि इस रोग का वैद्य मेरे सिवा दूसरा कोई न मिलेगा।
चंद्रा०---पर सखी जब कोई रोग हो तब न?
ललिता---फिर वही बात कहे जाती है। अब क्या मैं इतना भी नहीं समझती! सखी, भगवान् ने मुझे भी ऑखें दी हैं और मेरे भी मन है और मैं कुछ ईट-पत्थर की नहीं हूँ।
चंद्रा०---यह कौन कहता है कि तू ईट-पत्थर की बनी है, इससे क्या?
ललिता---इससे यह कि इस ब्रज में रहकर उससे वही बची होगी जो ईट-पत्थर की होगी।
चंद्रा०---किससे?
ललिता---जिसके पीछे तेरी यह दशा है।
चंद्रा०---किसके पीछे मेरी यह दशा है?
ललिता---सखी, तू फिर वही बात कहे जाती है। मेरी रानी, ये अॉखें ऐसी बुरी हैं कि जब किसी से लगती हैं तब कितना भी छिपाओ नहीं छिपतीं।
छिपाए छिपत न नैन लगे।
उधरि परत, सब जानि जात हैं घूँघट मैं न खगे॥
कितनो करौ दुराव, दुरत नहीं जब ये प्रेम-पगे।
निडर भए उघरे से डोलत मोहनरंग रँगे॥
तो एक पहेली बूझनेवालों में बची है। चल, बहुत झूठ न बोल, कुछ भगवान् से भी डर।
ललिता---जो तू भगवान् से डरती तो झूठ क्यों बोलती? वाह सखी! अब तो तू बड़ी चतुर हो गई है। कैसा अपना दोष छिपाने को मुझे पहिले ही से झूठी बना दिया। ( हाथ जोड़ कर ) धन्य है, तू दंडवत् करने के योग्य है। कृपा करके अपना बॉयाँ चरण निकाल तो मैं भी पूजा करूँ। चल मैं आज पीछे तुझसे कुछ न पूछूँगी।
चंद्रा०---( कुछ सकपकानी सी होकर ) नहीं सखी, तू क्यो झूठी है, झूठी तो मैं हूँ, और जो तू ही बात न पूछेगी तो कौन बात पूछेगा? सखी, तेरे ही भरोसे तो मैं ऐसी निडर रहती हूँ और तू ऐसी रूसी जाती है!
ललिता---नहीं, बस अब मैं कभी कुछ नहीं पूछने की। एक बेर पूछ कर फल पा चुकी।
चंद्रा०---( हाथ जोड़कर ) नहीं सखी, ऐसी बात मुँह से मत निकाल। एक तो मैं आप ही मर रही हूँ, तेरी बात सुनने से और भी अधमरी हो जाऊँगी। ( अॉखों में आँसू भर लेती है )
ललिता---प्यारी, तुझे मेरी सौगंद। उदास न हो, मैं तो सब भाँति तेरी हूँ और तेरे भले के हेतु प्राण देने को तैयार हूँ। यह तो मैंने हँसी की थी। क्या मैं नहीं जानती कि तू मुझसे कोई बात न छिपावेगी और छिपावेगी तो काम कैसे चलेगा, देख!
हम भेद न जानिहै जो पै कछू
औ दुराव सखी हम मैं परिहै।
कहि कौन मिलैहै पियारे पियै
पुनि कारज कासों सबै सरिहै॥
बिन मोसो कहै न उपाय कछु
यह बेदन दूसरी को हरिहै।
नहिं रोगी बताइहै रोगहि जौ
सखी बापुरो बैद कहा करिहै॥
चंद्रा०---तो सखी, ऐसी कौन बात है जो तुझसे छिपी है? तू जान-बूझ के बार-बार क्यो पूछती है? ऐसे पूछने को तो मुँह चिढ़ाना कहते हैं और इसके सिवा मुझे व्यर्थ याद दिलाकर क्यो दुःख देती है? हा!
ललिता---सखी, मैं तो पहिले ही समझी थी, यह तो केवल तेरे हठ करने से मैंने इतना पूछा, नहीं तो मैं क्या नहीं जानती?
चंद्रा---सखी, मैं क्या करूँ, मैं कितना चाहती हूँ कि यह ध्यान भुला दूँ, पर उस निठुर की छबि भूलती नहीं, इसी से सब जान जाते हैं।
ललिता---सखी, ठीक है। लगौंही चितवनि औरहि होति।
दुरत न लाख दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति॥
घूँघट मैं नहिं थिरत तनिक हूँ अति ललचौंहीं बानि।
छिपत न कैसहुँ प्रीति निगोड़ी अंत जात सब जानि॥
चंद्रा०---सखी, ठीक है। जो दोष है वह इन्हीं नेत्रो का है। यही रीझते, यही अपने को छिपा नहीं सकते और यही दुष्ट अंत में अपने किए पर रोते हैं।
सखी ये नैना बहुत बुरे।
तब सों भए पराये, हरि सो जब सों जाइ जुरे॥
मोहन के रस बस कै डोलत तलफत तनिक दुरे।
मेरी सीख प्रीति सब छॉड़ी ऐसे ये निगुरे॥
जग खीझ्यौ बरज्यौ पै ये नहिं हठ सो तनिक मुरे।
अमृत-भरे देखत कमलन से विष के बुते छुरे॥
ललिता---इसमें क्या संदेह है। मुझ पर तो सब कुछ बीत चुकी है। मैं इनके व्यवहारो को अच्छी रीति से जानती हूँ। ये निगोड़े नैन ऐसे ही होते हैं।
होत सखि ये उलझौंहैं नैन।
उरझि परत, सुरझ्यौ नहिं जानत, सोचत समुझत हैं न॥
कोऊ नहिं बरजै जो इनको बनत मत्त जिमि गैन।
कहा कहौं इन बैरिन पाछे होत लैन के दैन॥
रीझते हैं उसे भूलते नहीं, और कैसे भूलें, क्या यह भूलने के योग्य है, हा!
नैना वह छबि नाहिंन भूले।
दया-भरी चहुँ दिसि की चितवनि नैन कमल-दल फूले॥
वह भावनि, वह हँसनि छबीली, वह मुसकनि चित चोरै।
वह बतरानि, मुरनि हरि की वह, वह देखन चहुँ कोरैं॥
वह धीरी गति कमल फिरावन कर लै गायन पाछे।
वह बीरी मुख बेनु बजावनि पीत पिछौरी काछे॥
परबस भए फिरत हैं नैना इक छन टरत न टारे।
हरि-ससि-मुख ऐसी छबि निरखत तनमन धन सब हारे॥
ललिता---सखी मेरी तो यह विपति भोगी हुई है, इससे मैं तुझे कुछ नहीं कहती; दूसरी होती तो तेरी निंदा करती और तुझे इससे रोकती।
चंद्रा०---सखी, दूसरी होती तो मैं भी तो उससे यों एक संग न कह देती। तू तो मेरी आत्मा है। तू मेरा दुःख मिटावेगी कि उलटा समझावेगी?
ललिता---पर सखी, एक बड़े आश्चर्य की बात है कि जैसी तू इस समय दुखी है वैसी तू सर्वदा नहीं रहती।
चंद्रा---नहीं सखी, ऊपर से दुखी नहीं रहती पर मेरा जी जानता है जैसे रातें बीतती हैं। मनमोहन तें बिछुरी जब सो
तन आँसुन सों सदा धोवती हैं।
'हरिचंद जू' प्रेम के फंद परी
कुल की कुल लाजहि खोवती हैं॥
दुख के दिन कों कोउ भॉति बितै
बिरहागम रैन सँजोवती हैं।
हमही अपुनी दशा जानै सखी,
निसि सोवती हैं किधौं रोवती हैं॥
ललिता---यह हो पर मैंने तुझे जब देखा तब एक ही दशा में देखा और सर्वदा तुझे अपनी आरसी वा किसी दर्पण में मुँह देखते पाया पर वह भेद अाज खुला।
हौं तो याही सोच मैं बिचारत रही री काहे
दरपन हाथ तें न छिन बिसरत है।
त्यौंही 'हरिचंद जू' बियोग औ सॅजोग दोऊ
एक से तिहारे कछु लखि न परत है॥
जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात
तू तौ परम पुनीत प्रेम पथ बिचरत है।
तेरे नैन मूरति पियारे की बसति, ताहि
पारसी मैं रैन-दिन देखिबो करत है॥
सखी! तू धन्य है, बड़ी भारी प्रेमिन है और प्रेम शब्द को सार्थ करनेवाली और प्रेमियों की मंडली की शोभा है। चंद्रा०---नहीं सखी! ऐसा नहीं है। मैं जो आरसी देखती थी उसका कारण कुछ दूसरा ही है। हा! ( लंबी सॉस लेकर ) सखी! मैं जब पारसी में अपना मुँह देखती और अपना रंग पीला पाती थी तब भगवान् से हाथ जोड़कर मनाती थी कि भगवान्, मैं उस निर्दयी को चाहूँ पर वह मुझे न चाहे, हा! ( ऑसू टपकते हैं )
ललिता---सखी, तुझे मैं क्या समझाऊँगी, पर मेरी इतनी बिनती है कि तू उदास मत हो। जो तेरी इच्छा हो, पूरी करने को उद्यत हूँ।
चंद्रा०---हा! सखी यही तो आश्चर्य है कि मुझे कुछ इच्छा नहीं है और न कुछ चाहती हूँ। तौ भी मुझको उसके वियोग का बड़ा दुख होता है।
ललिता---सखी, मैं तो पहिले ही कह चुकी कि तू धन्य है। संसार में जितना प्रेम होता है, कुछ इच्छा लेकर होता है और सब लोग अपने ही सुख में सुख मानते हैं, पर उसके विरुद्ध तू बिना इच्छा के प्रेम करती है और प्रीतम के सुख से सुख मानती है। यह तेरी चाल संसार से निराली है। इसी से मैंने कहा था कि तू प्रेमियों के मंडल को पवित्र करने वाली है।
( चंद्रावली नेत्रों में जल भर कर मुख नीचा कर लेती है )
( दासी आकर )
दासी---अरी, मैया खीझ रही है के वाहि घर के कछू और हू काम-काज हैं के एक हाहा ठीठी ही है, चल उठि, भोर सों यहीं पड़ी रही।
चंद्रा०---चल आऊँ, बिना बात की बकवाद लगाई। ( ललिता से ) सुन सखी, इसकी बातें सुन, चल चलें। ( लंबी सॉस लेकर उठती है )
( तीनों जाती हैं )
स्नेहालाप नामक पहिला अंक समाप्त।