भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली/अथ विष्कम्भक

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ २९७ से – ३०३ तक

 

और हम लोग बातों ही से नहीं सुलझे। तो अब मारिष! चलो, हम लोग भी अपना-अपना वेष धारण करें।

पारि०---क्षण भर और ठहरो, मुझे शुकदेव जी के इस वेष की शोभा देख लेने दो, तब चलूँगा।

सूत्र०---सच कहा, अहा कैसा सुंदर बना है, वाह मेरे भाई वाह! क्यों न हो, आखिर तो मुझ रंगरंजक का भाई है।

अति कोमल सब अंग रंग सॉवरो सलोना।
घूँघरवाले बालन पै बलि वारौं टोना॥
भुज बिसाल, मुख चंद झलमले, नैन लजौहैं।
जुग कमान सी खिंची गड़त हिय में दोउ भौहैं॥

छबि लखत नैन छिन नहिं टरत शोभा नहिं कहि जात है।
मनु प्रेमपुंज ही रूप धरि आवत आजु लखात है॥

तो चलो, हम भी अपने-अपने स्वाँग सजकर आवें।

( दोनों जाते हैं )



अथ विष्कम्भक

( आनंद में झूमते हुए डगमगी चाल से शुकदेवजी आते हैं )

शुक०---( सपन-सुखद इत्यादि फिर से पढ़कर ) अहा! संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है, कोई नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त, कोई मत-मतांतर के झगड़े में मतवाला हो रहा है, एक दूसरे को दोष देता है, अपने को अच्छा समझता है, कोई संसार ही को सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता है, कोई परमार्थ ही को परम पुरुषार्थ मानकर घर-बार तृण सा छोड़ देता है। अपने-अपने रंग में सब रँगे है। जिसने जो सिद्धांत कर लिया है वही उसके जी में गड़ रहा है और उसी के खंडन-मंडन में जन्म बिताता है, पर वह जो परम प्रेम अमृत-मय एकांत भक्ति है, जिसके उदय होते ही अनेक प्रकार के आग्रह-स्वरूप ज्ञान-विज्ञा-नादिक अंधकार नाश हो जाते हैं और जिसके चित्त में आते ही संसार का निगड़ आपसे आप खुल जाता है--- वह किसी को नहीं मिली; मिले कहाँ से? सब उसके अधिकारी भी तो नहीं हैं। और भी, जो लोग धार्मिक कहाते हैं उनका चित्त, स्वमत-स्थापन और पर-मत-निराकरण-रूप वादविवाद से, और जो विचारे विषयी हैं उनका अनेक प्रकार की इच्छा-रूपी तृष्णा से, अवसर तो पाता ही नहीं कि इधर झुके। ( सोचकर ) अहा! इस मदिरा को शिवजी ने पान किया है और कोई क्या पिएगा? जिसके प्रभाव से अर्द्धांग में बैठी पार्वती भी उनको विकार नहीं कर सकतीं, धन्य हैं, धन्य हैं और दूसरा ऐसा कौन है। ( विचारकर ) नहीं नहीं, व्रज की गोपियों ने उन्हें भी जीत लिया है। अहा! इनका कैसा विलक्षण प्रेम है कि अकथनीय और अकरणीय है; क्योंकि जहाँ माहात्म्य-ज्ञान होता है वहाँ प्रेम नहीं होता और जहाँ पूर्ण प्रीति होती है वहाँ माहात्म्य-ज्ञान नहीं होता। ये धन्य हैं कि इनमें दोनों बातें एक संग मिलती हैं, नहीं तो मेरा सा निवृत्त मनुष्य भी रात-दिन इन्हीं लोगो का यश क्यों गाता।

( नेपथ्य में वीणा बजती है )

( आकाश की ओर देखकर और वीणा का शब्द सुनकर )

आहा! यह आकाश कैसा प्रकाशित हो रहा है और वीणा के कैसे मधुर स्वर कान में पड़ते हैं। ऐसा संभव होता है कि देवर्षि भगवान् नारद यहाँ आते हैं। आहा! वीणा कैसे मीठे सुर से बोलती है। ( नेपथ्य-पथ की ओर देखकर ) अहा वही तो हैं, धन्य हैं, कैसी सुंदर शोभा है।

पिंग जटा को भार सीस पै सुंदर सोहत।
गल तुलसी की माल बनी जोहत मन मोहत॥

कटि मृगपति को चरम चरन मैं घुँघरू धारत।
नारायण गोविंद कृष्ण यह नाम उचारत॥
लै बीना कर बादन करत तान सात सुर सों भरत।
जग अघ छिन मैं हरि कहि हरत जेहि सुनि नर भवजल तरत॥
जुग तूँबन की बीन परम सेोभित मनभाई।
लय अरु सुर की मनहुँ जुगल गठरी लटकाई॥
आरोहन अवरोहन के कै द्वै फल सेाहैं।
कै कोमल अरु तीब्र सुर भरे जग-मन मोहैं॥
कै श्रीराधा अरु कृष्ण के अगनित गुन गन के प्रगट।
यह अगम खजाने द्वै भरे नित खरचत तो हू अघट॥
मनु तीरथ-मय कृष्णचरित की काँवरि लीने।
कै भूगोल खगोल दोउ कर-अमलक कीने॥
जग-बुधि तौलन हेत मनहुँ यह तुला बनाई।
भक्ति-मुक्ति की जुगल पिटारी कै लटकाई॥
मनु गावन सों श्रीराग के बीना हू फलती भई।
कै राग-सिंधु के तरन हित, यह दोऊ तूँबी लई॥
ब्रह्म-जीव, निरगुन-सगुन, द्वैताद्वैत-बिचार।
नित्य-अनित्य विवाद के द्वै तूँबा निरधार॥
जो इक तूँबा लै कढै, सो बैरागी होय।
क्यों नहिं ये सबसो बढै, लै तूंबा कर दोय॥
तो अब इनसे मिलके आज मैं परमानंद लाभ करूँगा।

( नारदजी आते हैं )

शुक०---( आगे बढ़कर और गले से मिलकर ) आइए आइए, कहिए कुशल तो है? किस देश को पवित्र करते हुए आते हैं?

नारद---आप से महापुरुष के दर्शन हों और फिर भी कुसल न हो, यह बात तो सर्वथा असंभव है; और आप से तो कुशल पूछना ही व्यर्थ है।

शुक०---यह तो हुआ, अब कहिए आप आते कहाँ से हैं?

नारद---इस समय तो मैं श्रीवृंदावन से आता हूँ।

शुक०---अहा! आप धन्य हैं जो उस पवित्र भूमि से आते हैं। ( पैर छूकर ) धन्य है उस भूमि की रज, कहिए वहाँ क्या-क्या देखा?

नारद---वहाँ परम प्रेमानंदमयी श्रीब्रजवल्लभी लोगों का दर्शन करके अपने को पवित्र किया और उनकी विरहावस्था देखता बरसो वहीं भूला पड़ा रहा। अहा, ये श्रीगोपीजन धन्य हैं। इनके गुणगण कौन कह सकता है---

गोपिन की सरि कोऊ नाहीं।
जिन तृन-सम कुल-लाज-निगड़ सब तोखो हरिरस माहीं॥
जिन निज बस कीने नँदनंदन बिहरीं दै गलबॉहीं।
सब संतन के सीस रहौ चरन-छन की छाँहीं॥

व्रज की लता पता मोहि कीजै
गोपी-पद-पंकज-पावन की रज जामैं सिर भींजै॥
आवत जात कुंज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै।
श्रीराधे राधे मुख, यह बर मुँहमाँग्यौ हरि दीजै॥

( प्रेम-अवस्था में आते हैं और नेत्रों से आँसू बहते हैं )

शुक०---( अपने आँसू पोछकर ) हा धन्य हैं आप, धन्य हैं, अभी जो मैं न सम्हालता तो वीणा आपके हाथ से छूटके गिर पड़ती। क्यों न हो, श्रीमहादेवजी की प्रीति के पात्र होकर आप ऐसे प्रेमी हों इसमें आश्चर्य नहीं।

नारद---( अपने को सम्हालकर ) अहा! ये क्षण कैसे आनंद से बीते हैं, यह आप से महात्मा की संगत का फल है।

शुक०---कहिए, उन सब गोपियों में प्रेम विशेष किसका है?

नारद---विशेष किसका कहूँ और न्यून किसका कहूँ, एक से एक बढ़कर हैं। श्रीमती की कोई बात ही नहीं, वे तो श्रीकृष्ण ही हैं, लीलार्थ दो हो रही हैं; तथापि सब गोपियों में श्रीचंद्रावलीजी के प्रेम की चर्चा आजकल ब्रज के डगर-डगर में फैली हुई है। अहा! कैसा विलक्षण प्रेम है, यद्यपि माता-पिता, भाई-बन्धु सब निषेध करते हैं और उधर श्रीमतीजी का भी भय है, तथापि श्रीकृष्ण से जल में दूध की भाँति मिल रही है। लोकलाज-गुरुजन कोई बाधा नहीं कर सकते। किसी न किसी उपाय से श्रीकृष्ण से मिल ही रहती हैं।

शुक०---धन्य हैं, धन्य हैं! कुल को, वरन् जगत् को अपने निर्मल प्रेम से पवित्र करनेवाली हैं।

( नेपथ्य में वेणु का शब्द होता है )

अहा! यह वंशी का शब्द तो और भी ब्रजलीला की सुधि दिलाता है। चलिए, चलिए अब तो ब्रज का वियोग सहा नहीं जाता; शीघ्र ही चलके उनका प्रेम देखें, उस लीला के बिना देखे आँखें व्याकुल हो रही है।

( दोनों जाते हैं )

इति प्रेममुख नामक विष्कंभक