भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली

[ २९२ ]
श्रीचंद्रावली






नाटिका







संवत् १९३३

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काव्य, सुरस सिंगार के दोउ दल, कविता नेम।
जग-जन सों के ईस सों कहियत जेहि पर प्रेम॥
हरि-उपासना, भक्ति, वैराग, रसिकता, ज्ञान।
सोधै जग-जन मानि या चंद्रावलिहि प्रमान॥

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समर्पण

प्यारे!

लो, तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है, इस पुस्तक को भी उन्हीं की कानि से अंगीकार करो। इसमें तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है। हाँ, एक अपराध तो हुआ जो अवश्य क्षमा करना होगा। वह यह कि यह प्रेम की दशा छापकर प्रसिद्ध की गई। वा प्रसिद्ध करने ही से क्या जो अधिकारी नहीं हैं उनकी समझ ही में न आवेगा।

तुम्हारी कुछ विचित्र गति है। हमीं को देखो। जब अपराधों को स्मरण करो तब ऐसे कि कुछ कहना ही नहीं। क्षण भर जीने के योग्य नहीं। पृथ्वी पर पैर धरने को जगह नहीं। मुँह दिखाने के लायक नहीं। और जो यों देखो तो ये लंबे-लंबे मनोरथ। यह बोलचाल। यह ढिठाई कि तुम्हारा सिद्धांत कह डालना। जो हो, इस दूध खटाई की एकत्र स्थिति का कारण तुम्हीं जानो। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैसे हों तुम्हारे बनते हैं। अतएव क्षमासमुद्र! क्षमा करो। इसी में निर्वाह है। बस—

भाद्रपद कृष्ण १४ हरिश्चंद्र
सं॰ १९३३
[ २९५ ]सा नाटक करने का विचार है और उसमें ऐसा कौन सा रस है कि फूले नहीं समाते?

सूत्र---आ:, तुमने अब तक न जाना? आज मेरा विचार है कि इस समय के बने एक नए नाटक की लीला करूँ, क्योंकि संस्कृत नाटको को अपनी भाषा में अनुवाद करके तो हम लोग अनेक बार खेल चुके हैं, फिर बारंबार उन्हीं के खेलने को जी नहीं चाहता।

पारि०---तुमने बात तो बहुत अच्छी सोची, वाह क्यों न हो, पर यह तो कहो कि वह नाटक बनाया किसने है?

सूत्र०---हम लोगो के परम मित्र हरिश्चंद्र ने।

पारि०---( मुँह फेर कर ) किसी समय तुम्हारी बुद्धि में भी भ्रम हो जाता है। भला वह नाटक बनाना क्या जाने। वह तो केवल आरंभशूर है। और अनेक बड़े-बड़े कवि हैं, कोई उनका प्रबंध खेलते।

सूत्र---( हँसकर ) इसमें तुम्हारा दोष नहीं, तुम तो उससे नित्य नहीं मिलते। जो लोग उसके संग में रहते हैं वे तो उसको जानते ही नहीं, तुम बिचारे क्या हो।

पारि०---( आश्चर्य से ) हाँ, मैं तो जानता ही न था, भला कहो उनके दो-चार गुण मैं भी सुन सकता हूँ?

सूत्र०---क्यों नहीं, पर जो श्रद्धा से सुनो तो। [ २९६ ]यारि०---मैं प्रति रोम को कर्ण बना कर महाराज पृथु हो रहा हूँ, आप कहिए।

सूत्र०---( आनंद से ) सुनो---

परम-प्रेम-निधि रसिक-बर, अति-उदार गुन-खान।
जग-जन-रंजन आशु-कवि, को हरिचंद-समान॥
जिन श्रीगिरिधरदास कबि, रचे ग्रंथ चालीस।
ता-सुत श्रीहरिचंद कों, को न नवावै सीस॥
जग जिन तृन-सम करि तज्यौ, अपने प्रेम-प्रभाव।
करि गुलाब सो आचमन, लीजत वाको नाँव॥
चंद टरै सूरज टरै, टरैं जगत के नेम।
यह दृढ़, श्रीहरिचंद को, टरै न अविचल प्रेम॥

पारि०---वाह-वाह! मैं ऐसा नहीं जानता था, तब तो इस प्रयोग में देर करनी ही भूल है।

( नेपथ्य में )

स्त्रवन-सुखद भव-भय-हरन, त्यागिन को अत्याग।
नष्ट-जीव बिनु कौन हरि-गुन सों करै विराग?
हम सौंहू तजि जात नहिं, परम पुन्य फल जौन।
कृष्णकथा सौं मधुरतर जग मैं भाखौ कौन?

सूत्र०---( सुनकर आनंद से ) अहा! वह देखो मेरा प्यारा छोटा भाई शुकदेव जी बनकर रंगशाला में आता है [ २९७ ]और हम लोग बातों ही से नहीं सुलझे। तो अब मारिष! चलो, हम लोग भी अपना-अपना वेष धारण करें।

पारि०---क्षण भर और ठहरो, मुझे शुकदेव जी के इस वेष की शोभा देख लेने दो, तब चलूँगा।

सूत्र०---सच कहा, अहा कैसा सुंदर बना है, वाह मेरे भाई वाह! क्यों न हो, आखिर तो मुझ रंगरंजक का भाई है।

अति कोमल सब अंग रंग सॉवरो सलोना।
घूँघरवाले बालन पै बलि वारौं टोना॥
भुज बिसाल, मुख चंद झलमले, नैन लजौहैं।
जुग कमान सी खिंची गड़त हिय में दोउ भौहैं॥

छबि लखत नैन छिन नहिं टरत शोभा नहिं कहि जात है।
मनु प्रेमपुंज ही रूप धरि आवत आजु लखात है॥

तो चलो, हम भी अपने-अपने स्वाँग सजकर आवें।

( दोनों जाते हैं )