भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली/चौथा अंक

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ३५४ से – ३७३ तक

 

चौथा अंक

स्थान---चंद्रावलीजी की बैठक

( खिड़की में से यमुनाजी दिखाई पड़ती हैं। पलँग बिछा हुआ, परदे पड़े हुए, इतरदान पानदान इत्यादि सजे हुए )

[ जोगिन * आती है ]

जोगिन---अलख! अलख! आदेश आदेश गुरू को! अरे कोई है इसघर में? कोई नहीं बोलता। क्या कोई नहीं है? तो अब मैं क्या करूँ? बैठूँ। क्या चिंता है। फकीरों को कहीं कुछ रोक नहीं। उसमें भी हम प्रेम के जोगी, तो अब कुछ गावै।

( बैठकर गाती है )

"कोई एक जोगिन रूप कियै।
भौंहैं बंक छकोहैं लोयन चलि-चलि कोयन कान छियैं॥
सोभा लखि मोहत नारीनर बारि फेरि जल सबहि पियैं।
नागर मनमथ अलख जगावत गावत काँधे बीन लियैं"॥


  • गेरूआ सारी, गहना सब जनाना पहिने, रंग साँवला। सेंदुर का

लंबा टीका बेंडा। बाल खुले हुए। हाथ में सरंगी लिए हुए। नेत्र लाल। अत्यंत सुंदर। जब-जब गावेगी सरंगी बनाकर गावेगी।

काफी।

बनी मनमोहिनी जोगिनियाँ।
गल सेली तन गेरुआ सारी केस खुले सिर बैदी सोहिनियाँ॥
मातै नैन लाल रँग डोरे मद बोरे मोहै सबन छलिनियाँ।
हाथ सरंगी लिए बजावत गाय जगावत बिरह-अगिनियाँ॥*
जोगिन प्रेम की आई।
बड़े-बड़े नैन छुए कानन लौं चितवन-मद अलसाई॥
पूरी प्रीति रीति रस-सानी प्रेमी-जन मन भाई।
नेह-नगर मैं अलख जगावत गावत बिरह बधाई॥
जोगिन-अॉखन प्रेम-खुमारी।
चंचल लोयन-कोयन खुभि रही काजर रेख ढरारी॥
डोरे लाल लाल रस बोरे फैली मुख उँजियारी।
हाथ सरंगी लिए बजावत प्रेमिन-प्रानपियारी॥
जोगिन मुख पर लट लटकाई।
कारी घूँघरवारी प्यारी देखत सब मन भाई॥
छूट केस गेरुआ बागे सोभा दुगुन बढ़ाई।
साँचे ढरी प्रेम की मूरति अँखियाँ निरखि सिराई॥

( नेपथ्य में से पैंजनी की झनकार सुनकर )

अरे कोई आता है। तो मैं छिप रहूँ। चुपचाप सुनूँ। देखूँ यह सब क्या बातें करती हैं।

( जोगिन जाती है, ललिता आती है )


  • चैती गौरी वा पीलू खेमटा। ललिता---हैं अब तक चंद्रावली नहीं आई। साँझ हो गई, न घर में कोई सखी है न दासी, भला कोई चोर-चकार चला आवै तो क्या हो। ( खिड़की की ओर देखकर ) अहा! जमुनाजी की कैसी शोभा हो रही है। जैसा वर्षा का बीतना और शरद का आरंभ होना वैसा ही वृंदावन के फूलों की सुगंधि से मिले हुए पवन की झकोर से जमुनाजी का लहराना कैसा सुंदर और सुहावना है कि चित्त को मोहे लेता है। आहा! जमुनाजी की शोभा तो कुछ कही ही नहीं जाती। इस समय चंद्रावली होती तो यह शोभा उसे दिखाती। वा वह देख ही के क्या करती, उलटा उसका

विरह और बढता। ( यमुनाजी की ओर देखकर ) निस्संदेह इस समय बड़ी ही शोभा है।

तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल-परसन-हित मनहुँ सुहाए॥
कि मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप बारन तीर कों सिमिटि सबै छाए रहत।
कै हरि-सेवा-हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत॥
कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भॉतिन।
कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन॥

मनु दूग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा।
कै उमगे पिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोभा॥
कै करिकै कर बहु पीय को टेरत निज ढिग साहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई॥

कै पियपद उपमान जानि एहि निज उर धारत।
मुख करि बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत॥
कै ब्रज-तियगन-बदन-कमल की झलकत झाई।
कै ब्रज हरिपद-परस हेत कमला बहु आईं॥
कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमंडल बगरे फिरत॥
कै जानि लच्छमी-भौन एहि करि सतधा निज जल धरत॥

तिन पै जेहि छिन चंद-जोति राका निसि आवति।
जल मैं मिलिकै नभ अवनी लौं तान तनावति॥
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा।
तन मन नैन जुड़ात देखि सुंदर सो सोभा॥
सो को कबि जो छबि कहि सकै ता छन जमुना नीर की।
मिलि अवनि और अंबर रहत छबि इकसी नभ तीर की॥

परत चंद्र-प्रतिबिंब कहूँ जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ साई मन भायो॥
मनु हरि-दरसन हेत चंद जल बसत सुहायो।
कै तरंग कर मुकुर लिए सोभित छबि छायो॥

के रास-रमन मैं हरि-मुकुट-आभा जल दिखरात है।
कै जल-उर हरि-मूरति बसति ताप्रतिबिंब लखात है॥

कबहुँ होत सत चंद कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत।
पवन गवन बस बिंब रूप जल मैं बहु साजत॥
मनु ससि भरि अनुराग जमुनजल लोटत डोलै।
कै तरंग की डोर हिंडोरन करत कलोलै॥
कै बालगुड़ी नभ मैं उड़ी सेाहत इत-उत धावती।
कै अवगाहत डोलत कोऊ ब्रजरमनी जल आवती॥

मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन जल।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अविकल॥
कै कालिंदी नीर तरंग जितो उपजावत।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत॥
कै बहुत रजत चकई चलत कै फुहार जल उच्छरत।
कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत!

कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत।
कहुँ कारंडव उड़त कहूँ जलकुक्कुट धावत॥
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रमरावलि गावत॥
कहुँ तट पर नाचत मोर बहु रोर बिबिधि पच्छी करत।
जलपान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब जिय धरत॥

कहूँ बालुका बिमल सकल कोमल बहु छाई।
उज्जल झलकत रजत सिढी मनु सरस सुहाई॥
पिय के आगम हेत पॉवड़े मनहुँ बिछाए।
रत्नरासि करि चूर कूल मैं मनु बगराए॥
मनु मुक्त मॉग सोभित भरी श्यामनीर चिकुरन परसि।
सतगुन छायो कै तीर मैं ब्रज निवास लखि हिय हरसि॥

( चंद्रावली अचानक आती है )

चंद्रा०---वाह वाहरी बैहना अाजु तो बड़ी कबिता करी। कबिताई की मोट की मोट खोलि दीनी। मैं सब छिपेंछिपें सुनती थी।

( दबे पाँव से जोगिन आकर एक कोने में खड़ी हो जाती है )

ललिता०---भलो-भलो बीर, तोहि कबिता सुनिबे की सुधि तौ आई, हमारे इतनोई बहुत है।

चंद्रा०---( सुनते ही स्मरणपूर्वक लंबी सॉस लेकर )

सखी री क्यौं सुधि माहि दिवाई।
हौं अपने गृह-कारज भूली भूलि रही बिलमाई॥
फेर वहै मन भयो जात अब मरिहौं जिय अकुलाई।
हौं तबही लौं जगत-काज की जब लौं रहौं भुलाई॥

ललिता---चल जान दे, दूसरी बात कर।

जोगिन---( आप ही आप ) निस्संदेह इसका प्रेम पक्का है, देखो मेरी सुधि आते ही इसके कपोलों पर कैसी एक साथ जरदी दौड़ गई। नेत्रों में आँसुओं का प्रवाह उमग आया। मुँह सूखकर छोटा सा हो गया। हाय! एक ही पल में यह तो कुछ की कुछ हो गई। अरे इसकी तो यही गति है---

छरी सी छकी सी जड़ भई सी जकी सी घर
हारी सी बिकी सी सो तो सबही घरी रहै।
बोले तें न बोलै दूग खोलै नाहिं डोलै बैठी
एकटक देखै सो खिलौना सी धरी रहे॥
'हरीचंद' औरौ घबरात समुझाएँ हाय
हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै।
याद आएँ सखिन रोवावै दुख कहि-कहि
तौ लौं सुख पावै जौ लौं मुरछि परी रहै॥

अब तो मुझसे रहा नहीं जाता। इससे मिलने को अब तो सभी अंग व्याकुल हो रहे हैं।

चंद्रा०---( ललिता की बात सुनी-अनसुनी करके बाएँ अंग का फरकना देखकर आप ही आप ) अरे यह असमय में अच्छा सगुन क्यों होता है। ( कुछ ठहरकर ) हाय आशा भी क्या ही बुरी वस्तु है और प्रेम भी मनुष्य को कैसा अंधा कर देता है। भला वह कहाँ और मैं कहाँ--पर जी इसी भरोसे पर फूला जाता है कि अच्छा सगुन हुआ है तो जरूर आवेंगे। ( हँसकर ) हूँ---उनको हमारी इस बखत फिकिर होगी। "मान न मान मैं तेरा मेहमान," मन को अपने ही मतलब की सूझती है। "मेरो पिय मोहि बात न पूछै तऊ सोहागिन नाम"। ( लम्बी साँस लेकर ) हा! देखो प्रेम की गति! यह कभी आशा नहीं छोड़ती। जिसको आप चाहो वह चाहे झूठमूठ भी बात न पूछे पर अपने जी को यह भरोसा रहता है कि वे भी जरूर इतना ही चाहते होगे। ( कलेजे पर हाथ रखकर ) रहो रहो, क्यों उमगे आते हो, धीरज धरो, वे कुछ दीवार में से थोड़े ही निकल आवेंगे।

जोगिन---( आप ही आप ) होगा प्यारी, ऐसा ही होगा। प्यारी, मैं तो यही हूँ। यह मेरा ही कलेजा है कि अंतर्यामी कहलाकर भी अपने लोगो से मिलने में इतनी देर लगती है। ( प्रगट सामने बढकर ) अलख! अलख!

( दोनों आदर करके बैठाती हैं )

ललिता---हमारे बड़े भाग जो आपुसी महात्मा के दरसन भए।

चंद्रा०---( आप ही आप ) न जाने क्यो इस जोगिन की ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा जाता है।

जोगिन---भलो हम अतीतन को दरसन कहा, योही नित्य ही घर-घर डोलत फिरै। ललिता-कहाँ तुम्हारो देस है?

जोगिन-प्रेम नगर पिय गॉव।

ललिता-कहा गुरू कहि बोलहीं?

जोगिन-प्रेमी मेरो नॉव॥

ललिता-जोग लियो केहि कारनैं?

जोगिन-अपने पिय के काज।

ललिता-मंत्र कौन?

जोगिन-पियनाम इक,

ललिता-कहा तज्यो?

जोगिन-जग-लाज॥

ललिता-आसन कित?

जोगिन-जितही रमे,

ललिता-पंथ कौन?

जोगिन-अनुराग।

ललिता-साधन कौन?

जोगिन-पिया-मिलन,

ललिता-गादी कौन?

जोगिन-सुहाग॥

नैन कहें गुरु मन दियो बिरह सिद्धि उपदेस।
तब सों सब कुछ छोड़ि हम फिरत देस-परदेस॥
चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय! यह भी कोई बड़ी भारी बियोगिन है तभी इसकी ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा

जाता है।

ललिता---तौ संसार को जोग तो और ही रकम को है और आप को तो पंथ ही दूसरो है। तो भला हम यह पूछैं कि का संसार के और जोगी लोग वृथा जोग साधै हैं?

जोगिन---यामैं का संदेह है, सुनो। ( सारंगी छेड़कर गाती है )

पचि मरत वृथा सब लोग जोग सिर धारी।
साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥
बिरहागिन धूनी चारो ओर लगाई।
बंसी धुनि की मुद्रा कानो पहिराई॥
अँसुअन की सेली गल में लगत सुहाई।
तन धूर जमी साइ अंग भभूत रमाई॥
लट उरझि रहीं सोइ लटकाई लट कारी।
सॉची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥
गुरु बिरह दियो उपदेस सुनो ब्रजबाला।
पिय बिछुरन दुख को बिछानो तुम मृगछाला॥
मन के मनके की जपो पिया की माला।
बिरहिन की तो हैं सभी निराली चाला॥
पीतम से लगि लौ अचल समाधि न टारी।
सॉची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥

यह है सुहाग का अचल हमारे बाना।
असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना॥
सिर सेंदुर देकर चोटी गूँथ बनाना।
कर चूरी मुख में रंग तमोल जमाना॥
पीना प्याला भर रखना वही खुमारी।
साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥
है पंथ हमारा नैनो के मत जाना।
कुल लोक वेद सब औ परलोक मिटाना॥
शिवजी से जोगी को भी जोग सिखाना।
'हरिचंद' एक प्यारे से नेह बढ़ाना॥
ऐसे बियोग पर लाख जोग बलिहारी।
साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय-हाय इसका गाना कैसा जी को बेधे डालता है। इसके शब्द का जी पर एक ऐसा विचित्र अधिकार होता है कि वर्णन के बाहर है। या मेरा जी ही चोटल हो रहा है। हाय-हाय! ठीक प्रानप्यारे की सी इसकी आवाज है। ( बलपूर्वक आँसुओ को रोककर और जी बहलाकर ) कुछ इससे और गवाऊँ। ( प्रगट ) जोगिन जी कष्ट न हो तो कुछ और गाओ। ( कहकर कभी चाव से उसको ओर देखती है और कभी नीचा सिर करके कुछ सोचने लगती है ) जोगिन---( मुसकाकर ) अच्छा प्यारी! सुनो। ( गाती है )

जोगिन रूप-सुधा की प्यासी।
बिनु पिय मिलें फिरत बन ही बन छाई मुखहि उदासी॥
भोग छोड़ि धन-धाम काम तजि भई प्रेम-बनबासी।
पिय-हित अलख अलख रट लागी पीतम-रूप उपासी॥
मनमोहन प्यारे तेरे लिये जोगिन बन बन-बन छान फिरी।
कोमल से तन पर खाक मली ले जोग स्वॉग सामान फिरी॥
तेरे दरसन कारन डगर-डगर करती तेरा गुन-गान फिरी।
अब तो सूरत दिखला प्यारे 'हरिचंद' बहुत हैरान फिरी॥

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय यह तो सभी बातें पते की कहती है। मेरा कलेजा तो एक साथ ऊपर को खिंचा आता है। हाय! 'अब तो सूरत दिखला प्यारे।'

जोगिन---तो अब तुमको भी गाना होगा। यहाँ तो फकीर हैं। हम तुम्हारे सामने गावें तुम हमारे सामने न गाओगी। ( आप ही आप ) भला इसी बहाने प्यारी की अमृत बानी तो सुनेंगे। ( प्रगट ) हाँ! देखो हमारी यह पहिली भिक्षा खाली न जाय, हम तो फकीर हैं हमसे कौन लाज है?

चंद्रा०---भला मैं गाना क्या जानूँ। और फिर मेरा जी भी आज अच्छा नहीं है, गला बैठा हुआ है। ( कुछ ठहरकर नीची अॉख करके ) और फिर मुझे संकोच लगता है। जोगिन---( मुसक्याकर ) वाह रे संकोचवाली! भला मुझसे कौन संकोच है? मैं फिर रूठ जाऊँगी जो मेरा कहना न करेगी।

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय-हाय! इसकी कैसी मीठी बोलन है जो एक साथ जी को छीने लेती है। जरा से झूठे क्रोध से जो इसने भौंहे तनेनी की हैं वह कैसी भली मालूम पड़ती हैं। हाय! प्राननाथ कहीं तुम्हीं तो जोगिन नहीं बन पाए हो। ( प्रगट ) नहीं-नहीं, रूठो मत, मैं क्यों न गाऊँगी। जो भला बुरा आता है सुना दूँगी, पर फिर भी कहती हूँ आप मेरे गाने से प्रसन्न न होंगी। ऐ मैं हाथ जोड़ती हूँ मुझे न गवाओ। ( हाथ जोड़ती है )

ललिता---वाह, तुझे नए पाहुने की बात अवश्य माननी होगी। ले मैं तेरे हाथ जोड़ें हूँ, क्यौं न गावैगी। यह तो उससे बहाली बता जो न जानती हो।

चंद्रा---तो तू ही क्यों नहीं गाती। दूसरों पर हुकुम चलाने को तो बड़ी मुस्तैद होती है।

जोगिन---हाँ हाँ, सखी तू ही न पहिले गा। ले मैं सरंगी से सुर की आस देती जाती हूँ।

ललिता---यह देखो। जो बोले सो घी को जाय। मुझे क्या, मैं अभी गाती हूँ।

( राग बिहाग-गाती है )

अलख गति जुगल पिया-प्यारी की।
को लखि सकै लखत नहिं आवै तेरी गिरिधारी की॥
बलि बलि बिछुरनि मिलनि हँसनि रूठनि नित हीं यारी की।
त्रिभुवन की सब रति गति मति छबि या पर बलिहारी की॥

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय! यहाँ आज न जाने क्या हो रहा है, मैं कुछ सपना तो नहीं देखती। मुझे तो आज कुछ सामान ही दूसरे दिखाई पड़ते हैं। मेरे तो कुछ समझ ही नहीं पड़ता कि मैं क्या देख-सुन रही हूँ। क्या मैंने कुछ नशा तो नहीं पिया है! अरे यह जोगिन कहीं जादूगर तो नहीं है। ( घबड़ानी सी होकर इधर उधर देखती है )

( इसकी दशा देखकर ललिता सकपकाती और जोगिन हँसती है )

ललिता---क्यों, आप हँसती क्यों हैं?

जोगिन---नहीं, योही मैं इसको गीत सुनाया चाहती हूँ पर जो यह फिर गाने का करार करे।

चंद्रा०---( घबड़ाकर ) हाँ, मैं अवश्य गाऊँगी, आप गाइए। ( फिर ध्यानावस्थित सी हो जाती है )

( जोगिन सारंगी बजाकर गाती है )

( संकरा )

नू केहि चितवति चकित मृगी सी?
केहि ढूँढ़त तेरो कहर खोयो क्यौं अकुलाति लखाति ठगी सी॥

तन सुधि करु उधरत री आँचर कौन ख्याल तू रहति खगी सी।
उतरु न देत जकी सी बैठी मद पीया कै रैन जगी सी॥
चौंकि चौंकि चितवति चारहु दिस सपने पिय देखति उमगी सी।
भूलि बैखरी मृगछौनी ज्यौं निज दल तजि कहुँ दूर भगी सी॥
करति न लाज हाट घर बर की कुलमरजादा जाति डगी सी।
'हरीचंद' ऐसिहि उरझी तौ क्यौं नहिं डोलत संग लगी सी॥
तू केहि चितवति चकित मृगीसी?

चंद्रा०---( उन्माद से ) डोलूँगी-डोलूँगी संग लगी। ( स्मरण करके लजाकर आप ही आप ) हाय-हाय! मुझे क्या हो गया है। मैंने सब लज्जा ऐसो धो बहाई कि पाए गए भीतर बाहर वाले सबके सामने कुछ बक उठती हूँ। भला यह एक दिन के लिए आई बिचारी जोगिन क्या कहेगी? तो भी धीरज ने इस समय बड़ी लाज रखी नहीं तो मैं-राम-राम-नहीं नहीं, मैंने धीरे से कहा था किसी ने सुना न होगा। अहा! संगीत और साहित्य में भी कैसा गुन होता है कि मनुष्य तन्मय हो जाता है। उस पर जले पर नोन। हाय नाथ! हम अपने उन अनुभवसिद्ध अनुरागों और बढ़े हुए मनोरथों को किस को सुनावें जो काव्य के एक-एक तुक और संगीत की एक-एक तान से लाख-लाखगुन बढ़ते हैं और तुम्हारे मधुर रूप और चरित्र के ध्यान से अपने आप ऐसे उज्ज्वल सरस और प्रेममय हो जाते हैं, मानो सब ललिता---( बड़े आनंद से ) सखी बधाई है, लाखन बधाई है। ले होस में आ जा। देख तो कौन तुझे गोद में लिए हैं!

चंद्रा०---( उन्माद की भाँति भगवान् के गले में लपटकर )।

पिय तोहि राखौंगी भुजन मैं बॉधि।
जान न देहौं तोहि पियारे धरौंगी हिए सो नॉधि॥
बाहर गर लगाइ राखौंगी अंतर करौंगी समाधि।
'हरीचंद' छूटन नहिं पैहौ लाल चतुरई साधि॥
पिय तोहि कैसे हिये राखौं छिपाय?
सुंदर रूप लखत सब कोऊ यहै कसक जिय आय॥
नैनन में पुतरी करि राखौं पलकन ओट दुराय।
हियरे में मनहूँ के अंतर कैसे लेउँ लुकाय॥
मेरो भोग रूप पिय तुमरो छीनत सौतै हाय।
'हरीचंद' जीवनधन मेरे छिपत न क्यौं इत धाय॥
पिय तुम और कहूँ जिन जाहु।
लेन देहु किन मो रंकिन कों रूप-सुधा-रस-लाहु॥
जो-जो कहौ करौं सोइ-सोई धरि जिय अमित उछाहु।
राखौं हिये लगाइ पियारे किन मन माहिं समाहु॥
अनुदिन सुंदर बदन-सुधानिधि नैन चकोर दिखाहु।
'हरीचंद' पलकन की ओटैं छिनहु न नाथ दुराहु॥
पिय तोहि कैसे बस करि राखौं।
तुव दूग मै दूग तुप हिय मैं निज हियरो केहि बिधि नाखौं॥

कहा करौं का जतन बिचारौं बिनती केहि बिधि भाखौं।
'हरीचंद' प्यासी जनमन की अधरसुधा किमि चाखौं॥

भगवान्---तौ प्यारी मैं तोहि छोड़िके कहाँ जाउँगो, तू तौ मेरी स्वरूप ही है। यह सब प्रेम की शिक्षा करिबे को तेरी लीला है।

ललिता---अहा! इस समय जो मुझे आनंद हुआ है उसका अनुभव और कौन कर सकता है। जो आनंद चंद्रावली को हुआ है वही अनुभव मुझे भी होत है। सच है, जुगल के अनुग्रह बिना इस अकथ आनंद का अनुभव और किसको है?

चंद्रा०---पर नाथ, ऐसे निठुर क्यों हौ? अपनो को तुम कैसे दुखी देख सकते हो? हा! लाखों बातें सोची थीं कि जब कभी पाऊँगी तो यह कहूँगी, यह पूछूँगी, पर अाज सामने कुछ नहीं पूछा जाता!

भग०---प्यारी! मैं निठुर नहीं हूँ। मैं तो अपुने प्रेमिन को बिना मोल को दास हूँ। परंतु मोहि निहचै है के हमारे प्रेमिन को हम सों हूँ हमारो बिरह प्यारो है। ताही सो मैं हूँ बचाय जाऊँ हूँ। या निठुरता मैं जे प्रेमी हैं विन को तो प्रेम और बढ़े और जे कच्चे हैं विनकी बात खुल जाय। सो प्यारी यह बात हू दूसरेन की है। तुमारो का, तुम और हम तो एक ही हैं। न तुम हमसौं जुदी हो न प्यारीजू सो। हमने तो पहिले ही कही कै यह सब लीला है। ( हाथ जोड़कर ) प्यारी, छिमा करियौ, हम तौ तुम्हारे सबन के जनम जनम के रिनियाँ हैं। तुमसे हम कभू उरिन होइवेई के नहीं। ( अॉखों में आँसू भर आते है )

चंद्रा०---( घबड़ाकर दोनों हाथ छुड़ाकर ऑसू भर के ) बस बस नाथ, बहुत भई, इतनी न सही जायगी। आपकी आँखों में आँसू देखकर मुझसे धीरज न धरा जायगा। ( गले लगा लेती है )

( विशाखा आती है )

विशाखा---सखी! बधाई है। स्वामिनी ने आज्ञा दई है के प्यारे सों कही दै चंद्रावली की कुंज मैं सुखेन पधारौ।

चंद्रा०---( बड़े आनंद से घबड़ाकर ललिता-विशाखा से ) सखियो, मैं तो तुम्हारे दिए पीतम पाए है। ( हाथ जोड़कर ) तुमारो गुन जनम-जनम गाऊँगी।

विशाखा---सखी, पीतम तेरो तू पीतम की, हम तौ तेरी टहलनी हैं। यह सब तौ तुम सबन की लीला है। यामैं कौन बोलै और बोलै हू कहा जौ कछू समझै तौ बोलै---या प्रेम की तौ अकथ कहानी है। तेरे प्रेम को परिलेख तो प्रेम की टकसार होयगो और उत्तम प्रेमिन को छोड़ि और काहू की समझ ही मैं न आवैगो। तू धन्य, तेरो प्रेम धन्य, या प्रेम के समझिवेवारे धन्य और तेरे प्रेम को चरित्र जो पढ़ै सो धन्य। तो मैं और स्वामिनी मैं भेद नहीं है, ताहू मैं तू रस की पोषक ठैरी। बस, अब हमारी दोउन की यही बिनती है कै तुम दोऊ गलबाहीं दै कै बिराजौ और हम जुगलजोड़ी को दर्शन करि आज नेत्र सफल करै।

( गलबाही देकर जुगल स्वरूप बैठते हैं )

दोनों--

नीके निरखि निहारि नैन भरि नैनन को फल आजु लहौरी।
जुगल रूप छबि अमित माधुरी रूप-सुधा-रस-सिंधु बहौरी॥
इनहीं सौं अभिलाख लाख करि इक इनहीं कों नितहि चहौरी।
जो नर-तनहि सफल करि चाहौ इनहीं के पद-कंज गहौरी॥
करम-ज्ञान-संसार-जाल तजि बरु बदनामी कोटि सहौ री।
इनहीं के रस-मत्त मगन नित इनहीं के ह्वै जगत रहौ री॥
इनके बल जग-जाल कोटि अघ तृन सम प्रेम प्रभाव उमहौ री।
इनहीं को सरबस करि जानौ यहै मनोरथ जिय उमहौ री॥
राधा-चंद्रावली-कृष्ण-व्रज-जमुना-गिरिवर मुखहिं कहौ री।
जनम-जनम यह कठिन प्रेमव्रत 'हरीचंद' इकरस निबहौ री।

भग०---प्यारी! और जो इच्छा होय सो कहौ। काहे सों के जो तुम्हें प्यारो है सोई हमैं हूँ प्यारो है।

चंद्रा०---नाथ! और कोई इच्छा नहीं, हमारी तो सब इच्छा की

अवधि आपके दर्शन ही ताईं है तथापि भरत को यह वाक्य सफल होय--

परमारथ स्वारथ दोउ कँह सँग मेलि न सानै।
जे आचारज होइँ धरम निज तेह पहिचानै॥
बृंदाबिपिन बिहार सदा सुख सों थिर होई।
जन बल्लभी कहाइ भक्ति बिनु होइ न कोई॥
जगजाल छाँड़ि अधिकार लहि कृष्णचरित सबही कहै।
यह रतन-दीप हरि-प्रेम को सदा प्रकाशित जग रहै॥

( फूल की वृष्टि होती है, बाजे बजते हैं और जवनिका गिरती है )

इति परमफलचतुर्थ अंक