भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास
५––मुद्राराक्षस

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ३७४ से – ३९३ तक

 

मुद्राराक्षस







नाटक







संवत् १९३५

परमश्रद्धास्पद


श्रीयुक्त राजा शिवप्रसाद बहादुर, सी० एस० आई०


के


चरण-कमलों में


केवल उन्ही के उत्साहदान से


उनके


वात्सल्यभाजन छात्र-द्वारा बना हुआ


यह ग्रंथ


सादर समर्पित हुआ।

पूर्व कथा

पूर्व काल में भारतवर्ष में मगधराज एक बड़ा भारी जनस्थान था। जरासंध आदि अनेक प्रसिद्ध पुरुवंशी राजा यहाँ बड़े प्रसिद्ध हुए है। इस देश की राजधानी पाटलिपुत्र अथवा पुष्पपुर थी। इन लोगो ने अपना प्रताप और शौर्य इतना बढाया था कि अाज तक इनका नाम भूमंडल पर प्रसिद्ध है। किंतु कालचक्र बड़ा प्रबल है कि किसी को भी एक अवस्था में रहने नहीं देता। अंत में नंदवंश* ने पौरवो को निकाल कर वहाँ अपनी जयपताका उड़ाई। वरंच सारे भारतवर्ष में अपना प्रबल प्रताप विस्तारित कर दिया।

इतिहास ग्रंथो में लिखित है कि एक सौ अड़तीस बरस नंदवंश ने मगध देश का राज्य किया। इसी वंश में महानंद का जन्म हुआ। यह बड़ा प्रसिद्ध और अत्यंत प्रतापशाली राजा हुआ। जब जगद्विजयी सिकंदर ( अलक्षेद्र ) ने भारतवर्ष पर चढ़ाई की थी तब असंख्य हाथी, बीस हजार सवार और दो लाख पैदल लेकर महानंद ने उसके


  • नंदवंश सम्मिलित क्षत्रियों का वंश था। ये लोग शुद्ध क्षत्रीय नहीं थे। विरुद्ध प्रयाण किया था। सिद्धांत यह कि भारतवर्ष में उस समय महानंद सा प्रतापी और कोई राजा न था।

महानंद के दो मंत्री थे। मुख्य का नाम शकटार और दूसरे का राक्षस था। शकटार शूद्र और राक्षसा ब्राह्मण था। ये दोनो अत्यन्त बुद्धिमान् और महा प्रतिभासंपन्न थे। केवल भेद इतना था कि राक्षस धीर और गंभीर था, उसके विरुद्ध शकटार अत्यंत उद्धतस्वभाव था, यहाँ तक कि अपने प्राचीनपने के अभिमान से कभी-कभी यह राजा पर भी अपना प्रभुत्व जमाना चाहता। महाचंद भी अत्यंत उग्रस्वभाव, असहनशील और क्रोधी था, जिसका परिणाम यह हुआ कि महानंद ने अंत को शकटार को क्रोधांध होकर बड़े निबिड़ बंदीखाने में कैद किया और सपरिवार उसके भोजन को केवल दो सेर सत्तू देता था।


  • सिकंदर के कान्यकुब्ज से आगे न बढ़ने से महानंद से उससे

मुकाबिला नहीं हुआ।

बृहत्कथा में राक्षस मंत्री का नाम कही नहीं है, केवल वररुचि ने एक सच्चे राक्षस से मैत्री की कथा यों लिखी है---एक बडा प्रचंड राक्षस पाटलिपुत्र में फिरा करता था। वह एक रात्रि वररुचि से मिला और पूछा कि "इस नगर में कौन स्त्री सुंदर है?" वररुचि ने उत्तर दिया---"जो जिसको रुचे वही सुंदर है।" इस पर प्रसन्न होकर राक्षस ने उससे मित्रता की और कहा कि हम सब बात में तुम्हारी सहायता करेंगे और फिर सदा राजकाज में ध्यान में प्रत्यक्ष होकर राक्षस वररुचि की सहायता करता।

  • बृहत्कथा में यह कहानी और ही चाल पर लिखी है। वररुचि, शकटार ने बहुत दिन तक महामात्य का अधिकार भोगा था, इससे यह अनादर उसके पक्ष में अत्यंत दुखदाई हुआ। नित्य सत्तू का बरतन हाथ में लेकर अपने परिवार से कहता कि जो एक भी नंदवंश को जड़ से नाश करने में समर्थ हो वह यह सत्तू खाय। मंत्री के इस वाक्य से दुखित होकर उसके परिवार का कोई भी सत्तू न खाता। अंत में कारागार की पीड़ा से एक-एक करके उसके परिवार के सब लोग मर गए।

ब्याड़ि और इद्रदत्त तीनों को गुरुदक्षिणा देने के हेतु करोडों रुपए के सोने की आवश्यकता हुई। तब इन लोगों ने सलाह की कि नंद ( सत्यनद ) राजा के पास चलकर उससे सोना लें। उन दिनों राजा का डेरा अयोध्या में था, ये तीनों ब्राह्मण वहाँ गए, किंतु संयोग से उन्ही दिनों राजा मर गया। तब आपस में सलाह करके इद्रदत्त योगबल से अपना शरीर छोडकर राजा के शरीर में चला गया, जिससे राजा फिर जी उठा। तभी से उसका नाम योगानंद हुआ। योगानद ने वररुचि को करोड रुपए देने की आज्ञा की। शकटार बड़ा बुद्धिमान् था; उसने सोचा कि राजा का मर कर जीना और एक बारगी एक अपरिचित को करोड रुपया देना इसमें हो न हो कोई भेद है। ऐसा न हो कि अपना काम करके फिर राजा का शरीर छोडकर यह चला जाय, यह सोचकर शकटार ने राज्य भर में जितने मुरदे मिले उनको जलवा दिया, उसी में इंद्रदत्त का भी शरीर जल गया। जब व्याडि ने यह वृत्तांत योगानंद से कहा तो यह सुनकर वह पहिले तो दुखी हुआ पर फिर वररुचि को अपना मत्री बनाया। वह अंत में शकटार की उग्रता से सतप्त होकर उसको अधे कुएँ में कैद किया। बृहत्कथा में शकटार के स्थान पर शकटाल नाम लिखा है। एक तो अपमान का दुःख, दूसरे कुटुंब का नाश, इन दोनों कारणों से शकटार अत्यंत तनछीन मनमलीन दीन-हीन हो गया। किंतु अपने मनसूबे का ऐसा पक्का था कि शत्रु से बदला लेने की इच्छा से अपने प्राण नहीं त्याग किए और थोड़े-बहुत भोजन इत्यादि से शरीर को जीवित रखा। रात दिन इसी सोच में रहता कि किस उपाय से वह अपना बदला ले सकेगा।

कहते हैं कि राजा महानंद एक दिन हाथ-मुँह धोकर हँसते-हँसते जनाने में आ रहे थे। विचक्षणा नाम की एक दासी, जो राजा के मुँह लगने के कारण कुछ धृष्ट हो गई थी, राजा को हँसता देखकर हँस पड़ी। राजा उसकी ढिठाई से बहुत चिढ़े और उससे पूछा---तू क्यों हँसी? उसने उत्तर दिया---"जिस बात पर महाराज हँसे उसी पर मैं भी हँसी।" महानंद इस बात पर और भी चिढ़ा और कहा कि अभी बतला मैं क्यों हँसा, नहीं तो तुझको प्राणदंड होगा। दासी से और कुछ उपाय न बन पड़ा और उसने घबड़ाकर इसके उत्तर देने को एक महीने की मुहलत चाही। राजा ने कहा---आज से ठीक एक महीने के भीतर जो उत्तर न देगी तो कभी तेरे प्राण न बचेंगे।

विचक्षणा के प्राण उस समय तो बच गए, परंतु महीने के जितने दिन बीतते थे, मारे चिंता के वह मरी जाती थी। कुछ सोच-विचार कर वह एक दिन कुछ खाने-पीने की सामग्री लेकर शकटार के पास गई और रो-रोकर अपनी सब विपत्ति कहने लगी। मंत्री ने कुछ देर तक सोचकर उस अवसर की सब घटना पूछी और हँसकर कहा---" मैं जान गया राजा क्यों हँसे थे। कुल्ला करने के समय पानी के छोटे छीटो पर राजा को वटबीज की याद आई, और यह भी ध्यान हुआ कि ऐसे बड़े बड़ के वृक्ष इन्हीं छोटे बीजों के अंतर्गत हैं। किंतु भूमि पर पड़ते ही वह जल के छोटे नाश हो गए। राजा अपनी इसी भावना को याद करके हँसते थे।" विचक्षणा ने हाथ जोड़कर कहा---"यदि आप के अनुमान से मेरे प्राण की रक्षा होगी तो मैं जिस तरह से होगा आपको कैदखाने से छुड़ाऊँगी और जन्म भर आपकी दासी होकर रहूँगी।"

राजा ने विचक्षणा से एक दिन फिर हँसने का कारण पूछा, तो विचक्षणा ने शकटार से जैसा सुना था कह सुनाया। राजा ने चमत्कृत होकर पूछा---"सच बता, तुझसे यह भेद किसने कहा?" दासी ने शकटार का सब वृत्त कहा और राजा को शकटार की बुद्धि की प्रशंसा करते देख अवसर पाकर उसके मुक्त होने की प्रार्थना भी की। राजा ने शकटार को बंदी से छुड़ाकर राक्षस के नीचे मंत्री बनाकर रखा।

ऐसे अवसर पर राजा लोग बहुत चूक जाते हैं। पहले तो किसी की अत्यंत प्रतिष्ठा बढ़ानी ही नीतिविरुद्ध है। यदि संयोग से बढ़ जाय तो उसकी बहुत सी बातों को तरह देकर टालना चाहिए, और जो कदाचित् बड़े प्रतिष्ठित मनुष्य का राजा अनादर करे तो उसकी जड़ काटकर छोड़े, फिर उसका कभी विश्वास न करे। प्रायः अमीर लोग पहले तो मुसाहिब या कारिंदो को बेतरह सिर चढ़ाते हैं, और फिर छोटी-छोटी बातों पर उनकी प्रतिष्ठा हीन कर देते हैं। इसी से ऐसे लोग राजाओ के प्राण के गाहक हो जाते हैं और अंत में नंद की भांति उनका सर्वनाश होता है।

शकटार यद्यपि बंदीखाने से छूटा और छोटा मंत्री भी हुआ, किंतु अपनी अप्रतिष्ठा और परिवार के नाश का शोक उसके चित्त में सदा पहिले ही सा जागता रहा। रात-दिन वह यही सोचता कि किस उपाय से ऐसे अव्यवस्थित-चित्त उद्धत राजा का नाश करके अपना बदला ले। एक दिन वह घोड़े पर हवा खाने जाता था। नगर के बाहर एक स्थान पर देखता है कि एक काला सा ब्राह्मण अपनी कुटी के सामने मार्ग की कुशा उखाड़-उखाड़ कर उसकी जड़ में मठा डालता जाता है। पसीने से लथपथ है, परंतु कुछ भी शरीर की ओर ध्यान नहीं देता। चारो ओर कुशा के बड़े-बड़े ढेर लगे हुए हैं। शकटार ने आश्चर्य से ब्राह्मण से इस श्रम का कारण पूछा। उसने कहा---"मेरा नाम विष्णुगुप्त चाणक्य है। मैं ब्रह्मचर्य में नीति, वैद्यक, ज्योतिष, रसायन आदि संसार की उपयोगी सब विद्या पढ़कर विवाह की इच्छा से नगर की ओर आया था, किंतु कुश गड़ जाने से मेरे मनोरथ में विघ्न हुआ, इससे जब तक इन बाधक कुशाओं का सर्वनाश न कर लूँगा और काम न करूँगा। मठा इस वास्ते इनकी जड़ में देता हूँ जिससे पृथ्वी के भीतर इनका मूल भी भस्म हो जाय।"

शकटार के जी में यह बात आई कि ऐसा पक्का ब्राह्मण जो किसी प्रकार राजा से क्रुद्ध हो जाय तो उसका जड़ से नाश करके छोड़े। यह सोचकर उसने चाणक्य से कहा कि जो आप नगर में चलकर पाठशाला स्थापित करें तो मैं अपने को बड़ा अनुगृहीत समझूँ। मैं इसके बदले बेलदार लगाकर यहाँ को सब कुशाओं को खुदवा डालूँगा। चाणक्य इस पर सम्मत हुआ और उसने नगर में आकर एक पाठशाला स्थापित की। बहुत से विद्यार्थी लोग पढने आने लगे और पाठशाला बड़े धूमधाम से चल निकली।

अब शकटार इस सोच में हुआ कि चाणक्य से राजा से किस चाल से बिगाड़ हो। एक दिन राजा के घर में श्राद्ध था। उस अवसर को शकटार अपने मनोरथ सिद्ध होने का अच्छा समय सोचकर चाणक्य को श्राद्ध का न्योता देकर अपने साथ ले आया और श्राद्ध के आसन पर बिठला कर चला गया, क्योंकि वह जानता था कि चाणक्य का रंग

भा० ना०---१८
काला, ऑखे लाल और दाँत काले होने के कारण नंद उसको

आसन पर से उठा देगा, जिससे चाणक्य अत्यंत क्रुद्ध होकर उसका सर्वनाश करेगा।

और ठीक ऐसा ही हुआ---जब राक्षस के साथ नंद श्राद्धशाला में आया और एक अनिमंत्रित ब्राह्मण को आसन पर बैठा हुआ और श्राद्ध के अयोग्य देखा तो चिढ़कर आज्ञा दी कि इसको बाल पकड़ कर यहाँ से निकाल दो। इस अपमान से ठोकर खाए हुए सर्प की भाँति अत्यंत क्रोधित होकर शिखा खोलकर चाणक्य ने सब के सामने प्रतिज्ञा की कि जब तक इस दुष्ट राजा का सत्यानाश न कर लूँगा तब तक शिखा न बाधूँगा। यह प्रतिज्ञा करके बड़े क्रोध से राजभवन से चला गया।

शकटार अवसर पाकर चाणक्य को मार्ग में से अपने घर ले आया और राजा की अनेक निंदा करके उसका क्रोध और भी बढ़ाया और अपनी सब दुर्दशा कहकर नंद के नाश में सहायता करने की प्रतिज्ञा की। चाणक्य ने कहा कि जब तक हम राजा के घर का भीतरी हाल न जानें कोई उपाय नहीं सोच सकते। शकटार ने इस विषय में विचक्षणा की सहायता देने का वृत्तांत कहा और रात को एकांत में बुलाकर चाणक्य के सामने उससे सब बात का करार ले लिया।

महानंद को नौ पुत्र थे। पाठ विवाहिता रानी से और एक चंद्रगुप्त मुरा नाम को नाइन स्त्री से। इसी से चंद्रगुप्त को मौर्य और वृषल भी कहते हैं। चंद्रगुप्त बड़ा बुद्धिमान था इसी से और आठो भाई इससे भीतरी द्वेष रखते थे। चंद्रगुप्त को बुद्धिमानी की बहुत सी कहानियाँ हैं। कहते हैं कि एक बेर रूम के बादशाह ने महानंद के पास एक कृत्रिम सिंह लोहे की जाली के पिंजड़े में बंद करके भेजा और कहला दिया कि पिंजड़ा टूटने न पावे और सिंह इसमें से निकल जाय। महानंद और उसके आठ औरस पुत्रो ने इसको बहुत कुछ सोचा, परंतु बुद्धि ने कुछ काम न किया। चंद्रगुप्त ने विचारा कि यह सिंह अवश्य किसी ऐसे पदार्थ का बना होगा जो या तो पानी से या आग से गल जाय, यह सोच कर पहले उसने उस पिंजड़े को पानी के कुंड में रखा और जब वह पानी से न गला तो उस पिंजड़े के चारो तरफ आग जलवाई, जिसकी गर्मी से वह सिंह, जो लाह और राल का बना था, गल गया। एक बेर ऐसे ही किसी बादशाह ने एक अँगीठी में दहकती हुई आग *, एक बोरा सरसो और


  • दहकती आग की कथा---'जरासंधमहाकाव्य" ( सर्ग ६ पद ६---१२ ) में भी है कि जरासघ ने उग्रसेन के पास अंगीठी भेजी थी शायद उसी से यह कथा निकाली गई हो।
सवैया---

रूप की रूपनिधान अनूप अँगीठी नई गढ़ि मोन मँगाई।
ता मधि पावकपुंज धरयो गिरिधारन बामें प्रभा अधिकाई॥

एक मीठा फल महानंद के पास अपने दूत के द्वारा भेज दिया।

राजा की सभा का कोई भी मनुष्य इसका आशय न समझ सका; किंतु चंद्रगुप्त ने सोचकर कहा कि अँगीठी यह दिखलाने को भेजी है कि मेरा क्रोध अग्नि है और सरसो यह


तेज सों ताके ललाई भई रज मैं मिलि आसु सबै रजताई।
मानो प्रबाल की थाल बनाय के लाल की रास बिसाल लगाई॥१॥
ढाँकि कै पावक दूत के हाथ दै बात कही इहि भाँति बुझाय कै।
भैम भुआल सभा महँ सनमुख राखि कै यों कहियो सिर नाय कै॥
याहि पठायो जरासुत नै अवलोकहु नीके अधीरज लाय कै।
पुन सुखाय के नातिन पाय कै जीहो जै पाय कै कौन उपाय कै॥२॥

दोहा---

सुनत चार तिहि हाथ लै, गयो भैम दरबार।
बासव ऐसे कैक सब, जहँ बैठे सरदार॥३॥

अड़िल्ल---

जाय जरासुत-दूत भैमपति-पद परयौ।
देखि जराऊ जगह हिये सभ्रम भरयौ॥
जगत जरावन-द्रव्यपात्र आगे धरयौ।
सोच जरा ह्वै अभय हाल बरनन करयौ॥४॥
सुनि बिहँसे जदुबीर जीत की चाय सों।
हँसि बोले गोविंद कहहु यह राय सों॥
उचित ससुरपन कीन क्षत्रकुल-न्याय सों।
दही दमाद सहाय सुता की हाय सों॥५॥

सोरठा---

इमि कहि द्रुत गहि चाय, आप आप सिखि मैं दियो।
तुरतहि गयो बुझाय, ज्ञान पाय मन भ्रांत जिमि॥६॥
बिदा कियो नृप दूत, उर मैं सर को अक करि।
निरखि बृहदरथ-पूत, सबन सहित कोप्यो अतिहि॥७॥

सूचना कराती है कि मेरी सेना असंख्य है और फल भेजने का आशय यह है कि मेरी मित्रता का फल मधुर है। इनके उत्तर में चंद्रगुप्त ने एक घड़ा जल और एक पिंजड़े में थोड़े से तीतर और एक अमूल्य रत्न भेजा, जिसका आशय यह था कि तुम्हारी सेना कितनी भी असंख्य क्यों न हो हमारे बीर उसको भक्षण करने में समर्थ हैं और तुम्हारा क्रोध हमारी नीति से सहज ही बुझाया जा सकता है और हमारी मित्रता सदा अमूल्य और एक रस है। ऐसे ही तीन पुतलीवाली कहानी भी इसी के साथ प्रसिद्ध है। इसी बुद्धिमानी के कारण चंद्रगुप्त से उसके भाई लोग बुरा मानते थे; और महानंद भी अपने औरस पुत्रो का पक्ष करके इससे कुढ़ता था। यह यद्यपि शूद्रा के गर्भ से था, परंतु ज्येष्ठ होने के कारण अपने को राज का भागी समझता था; और इसी से इसका राज-परिवार से पूर्ण वैमनस्य था। चाणक्य और शकटार ने इसी से निश्चय किया कि हम लोग चन्द्रगुप्त को राज का लोभ देकर अपनी ओर मिला ले और नंदो का नाश करके इसी को राजा बनावें।

यह सब सलाह पक्की हो जाने के पीछे चाणक्य तो अपनी पुरानी कुटी में चला गया और शकटार ने चन्द्रगुप्त और विचक्षणा को तब तक सिखा-पढ़ाकर पक्का करके अपनी ओर फोड़ लिया। चाणक्य ने कुटी में जाकर हलाहल विष मिले हुए कुछ ऐसे पकवान तैयार किए जो परीक्षा करने में न पकड़े जायँ, किंतु खाते ही प्राण नाश हो जाय। विचक्षणा ने किसी प्रकार से महानंद को पुत्रो समेत यह पकवान खिला दिया, जिससे बेचारे सब के सब एक साथ परमधाम को सिधारे *।


  • भारतवर्ष की कथाओं मे लिखा है कि चाणक्य ने अभिचार से मारण का प्रयोग करके इन सभों को मार डाला। विचक्षणा ने उस

अभिचार का निर्माल्य किसी प्रकार इन लोगों के अग में छुला दिया था। किंतु वर्तमान काल के विद्वान् लोग सोचते हैं कि उस निर्माल्य में मंत्र का बल नहीं था, चाणक्य ने कुछ औषधि ऐसे विषमिश्रित बनाए थे कि जिनके भोजन वा स्पर्श से मनुष्य का सद्यः नाश हो जाय। भट्ट सोमदेव के कथा सरित्सागर के पीठलबक के चौथे तरग में लिखा है---योगानद को ऊँची अवस्था मे नए प्रकार की कामवासना उत्पन्न हुई। वररुचि ने यह सोचकर कि राजा को तो भोगविलास से छुट्टी ही नही है, इससे राजकाज का काम शकटार से निकाला जाय तो अच्छी तरह से चले। यह विचार कर और राजा से पूछकर शकटार को अंधे कुएँ से निकाल कर वररुचि ने मंत्रीपद पर नियत किया। एक दिन शिकार खेलने में गंगा में राजा ने अपनी पाँचों उँगली की परछाई वररुचि को दिखलाई। वररुचि ने अपनी दो उंगलियों की परछाईं ऊपर से दिखाई, जिससे राजा के हाथ की परछाई छिप गई। राजा ने इन सज्ञाओं का कारण पूछा। वररुचि ने कहा---आपका यह आशय था कि पाँच मनुष्य मिल कर सब कार्य साध सकते हैं। मैंने यह कहा कि जो दो चित्त एक हो जायँ तो पाँच का बल व्यर्थ है। इस बात पर राजा ने वररुचि की बडी स्तुति की। एक दिन राजा ने अपनी रानी को एक ब्राह्मण से खिड़की में से बात करते देखकर उस ब्राह्मण को मारने की आज्ञा की, किंतु अनेक कारणों से वह बच गया। वररुचि ने कहा कि आपके सब महल की यही दशा है। अनेक स्त्री-वेषधारी पुरुष महल में रहते हैं और चन्द्रगुप्त इस समय चाणक्य के साथ था। शकटार अपने दु:ख और पापों से संतप्त होकर निविड़ वन में चला गया और


उन सबों को पकड कर दिखला दिया। इसी से उस ब्राह्मण के प्राण बचे। एक दिन योगानद की रानी के एक चित्र में, जो महल में लगा हुआ था, वररुचि ने जॉघ में तिल बना दिया। योगानन्द को गुप्त स्थान में वररुचि के तिल बनाने से उस पर भी संदेह हुश्रा और शकटार को आज्ञा दी कि तुम वररुचि को आज ही रात को मार डालो। शकटार ने उसको अपने घर में छिपा रखा और किसी और को उसके बदले मार कर उसका मारना प्रकट किया। एक बेर राजा का पुत्र हिरण्यगुप्त जंगल में शिकार खेलने गया था, वहाँ रात को सिंह के भय से एक पेड पर चढ़ गया। उस वृक्ष पर एक भालू था, कितु इसने उसको अभय दिया। इन दोनों में यह बात ठहरी कि आधी रात तक कुँवर सोवे भालू पहरा दे, फिर भालू सोवे कुँवर पहरा दें। भालू ने अपना मित्रधर्म निबाहा और सिह के बहकाने पर भी कुँवर की रक्षा की। किंतु अपनी पारी में कुँवर ने सिह के बहकाने से भालू को ढकेलना चाहा, जिस पर उसने जागकर मित्रता के कारण कुँवर को मारा तो नहीं कितु कान में मूत दिया, जिससे कुँअर गूँगा और बहिरा हो गया। राजा को बेटे की इस दुर्दशा पर बडा सोच हुआ और कहा कि वररुचि जीता होता तो इस समय उपाय सोचता। शकटार ने यह अवसर समझकर राजा से कहा कि वररुचि जीता है और लाकर राजा के सामने खडा कर दिया। वररुचि ने कहा--कुँवर ने मित्रद्रोह किया है उसी का यह फल है। यह वृत्त कह कर उसको उपाय से अच्छा किया। राजा ने पूछा---तुमने यह सब वृत्तांत किस तरह जाना? वररुचि ने कहा---योगबल से, जैसे रानी का तिल। ( ठीक यही कहानी राजा भोज, उसकी रानी भानुमती और उसके पुत्र और कालिदास की भी प्रसिद्ध है ) यह सब कह कर और उदास होकर वररुचि जङ्गल मे चला गया। वररुचि से शकटार ने राजा को मारने को कहा था, किंतु वह अनशन करके प्राण त्याग किए। कोई-कोई इतिहास-लेखक कहते हैं कि चाणक्य ने अपने हाथ से शस्त्र द्वारा नंद का वध किया और फिर क्रम से उसके पुत्रों को भी मारा, कितु इस विषय का कोई दृढ़ प्रमाण नहीं है। चाहे जिस प्रकार से हो चाणक्य ने नंदों का नाश किया, किंतु केवल पुत्र सहित राजा के मारने ही से वह चंद्रगुप्त को राजसिंहासन पर न बैठा सका, इससे अपने अंतरंग मित्र जीवसिद्धि को क्षपणक के वेष में राक्षस के पास छोड़कर आप राजा लोगो से सहायता लेने की इच्छा से विदेश निकला। अंत में अफगानिस्तान वा उसके उत्तर ओर के निवासी पर्वतक नामक लोभ-परतंत्र एक राजा से मिलकर और उसको जीतने के पीछे मगध राज्य को प्राधा भाग देने के नियम पर उसको पटने पर चढा लाया। पर्वतक के भाई का नाम वैरोधक * और पुत्र का मलयकेतु था। और भी पाँच म्लेच्छ राजाओं को पर्वतक अपनी सहायता को लाया था। इधर राक्षस मंत्री राजा के मरने से दुखी होकर उसके भाई सर्वार्थसिद्धि को सिंहासन पर बैठाकर राजकाज चलाने लगा। चाणक्य ने पर्वतक की सेना लेकर कुसुमपुर को चारों ओर से घेर लिया। पंद्रह दिन


धर्मिष्ठ था इससे सम्मत न हुआ। वररुचि के चले जाने पर शकटार ने अवसर पाकर चाणक्य द्वारा कृत्या से नद को मारा।

  • लिखी पुस्तकों मे यह नाम विरोधक, वैरोधक, वैरोचक, बैबोधक विरोध, वैराध इत्यादि कई चाल से लिखा है। तक घोरतर युद्ध हुआ। राक्षस की सेना और नागरिक लोग लड़ते-लड़ते शिथिल हो गए; इसी समय में गुप्त रीति से जीवसिद्धि के बहकाने से राजा सर्वार्थसिद्धि बैरागी होकर बन में चला गया। इस कुसमय में राजा के चले जाने से राक्षस और भी उदास हुआ। चंदनदास नामक एक बड़े धनी जौहरी के घर में अपने कुटुंब को छोड़ कर और शकटदास कायस्थ तथा अनेक राजनीति जाननेवाले विश्वासपात्र मित्रो को और कई आवश्यक काम सौंपकर राजा सर्वार्थसिद्धि के फेर लाने को आप तपोधन की ओर गया।

चाणक्य ने जीवसिद्धि-द्वारा यह सब सुनकर राक्षस के पहुँचने के पहले ही अपने मनुष्यो से राजा सर्वार्थसिद्धि को मरवा डाला। राक्षस जब तपोवन में पहुँचा और सर्वार्थसिद्धि को मरा देखा तो अत्यंत उदास होकर वहीं रहने लगा। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि के मार डालने से चाणक्य की नंदकुल के नाश की प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी थी, किंतु उसने सोचा कि जब तक राक्षस चंद्रगुप्त का मंत्री न होगा तब तक राज्य स्थिर न होगा। वरंच बड़े विनय से तपोवन में राक्षस के पास मंत्रित्व स्वीकार करने का संदेसा भेजा, पंरतु प्रभुभक्त राक्षस ने उसको स्वीकार नहीं किया।

तपोवन में कई दिन रहकर राक्षस ने यह सोचा कि जब तक पर्वतक को हम न फोड़ेगे, काम न चलेगा। यह सोच-कर वह पर्वतक के राज्य में गया और वहाँ उसके बूढ़े मंत्री से कहा कि चाणक्य बड़ा दगाबाज है, वह आधा राज कभी न देगा। आप राजा को लिखिए, वह मुझसे मिले तो मैं सब राज्य उनको दूँ। मंत्री ने पत्रद्वारा पर्वतक को यह सब वृत्त और राक्षस की नीतिकुशलता लिख भेजा और यह भी लिखा कि मैं अत्यंत वृद्ध हूँ, आगे से मंत्री का काम राक्षस को दीजिए। पाटलिपुत्र विजय होने पर भी चाणक्य आधा राज्य देने में विलंब करता है, यह देखकर सहज लोभी पर्वतक ने मंत्री की बात मान ली और पत्रद्वारा राक्षस को गुप्त रीति से अपना मुख्य अमात्य बनाकर इधर ऊपर के चित्त से चाणक्य से मिला रहा।

जीवसिद्धि के द्वारा चाणक्य ने राक्षस का सब हाल जान-कर अत्यंत सावधानतापूर्वक चलना आरंभ किया। अनेक भाषा जानने वाले बहुत से धूर्त पुरुषों को वेष बदल-बदलकर भेद लेने को चारो ओर नियुक्त किया। चंद्रगुप्त को राक्षस का कोई गुप्तचर धोखे से किसी प्रकार की हानि न पहुँचावे इसका भी पक्का प्रबंध किया और पर्वतक की विश्वासघात-कता का बदला लेने का छढ़ संकल्प से, परंतु अत्यंत गुप्त रूप से, उपाय सोचने लगा।

राक्षस ने केवल पर्वतक की सहायता से राज के मिलने की आशा छोड़कर कुलूत*, मलय, काश्मीर, सिंधु और पारस इन पाँच देशो के राजा से सहायता ली। जब इन पॉचों देश के


  • कुलूत देश किलात वा कुल्लू देश। राजाओं ने बड़े आदर से राक्षस को सहायता देना स्वीकार किया तो वह तपोवन के निकट फिर से लौट आया और वहाँ से चद्रगुप्त के मारने को एक विषकन्या भेजी और अपना विश्वासपात्र समझ कर जीवसिद्धि को उसके साथ कर दिया। चाणक्य ने जीवसिद्धि द्वारा यह सब बात जान कर और पर्वतक की धूर्तता और विश्वासघातकता से कुढ कर प्रकट में इस उपहार को बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया और लाने वाले को बहुत सा पुरस्कार देकर बिदा किया। सॉझ होने के पीछे धूर्ताधिराज चाणक्य ने इस कन्या को पर्वतक के पास भेज दिया और इंद्रियलोलुप पर्वतक उसी रात को उस कन्या के संग से मर गया। इधर चाणक्य ने

यह सोचा कि मलयकेतु यहाँ रहेगा तो उसको राज्य का हिस्सा देना पड़ेगा, इससे किसी तरह इसको यहाँ से भगावें तो काम चले। इस कार्य के हेतु भागुरायण नामक एक प्रतिष्ठित विश्वासपात्र पुरुष को मलयकेतु के पास सिखा-पढ़ा कर भेज दिया। उसने पिछली रात को मलयकेतु से जा-


विषकन्या शास्त्रों में दो प्रकार की लिखी हैं। एक तो थोड़े से ऐसे बुरे योग हैं कि उस लग्न में उस प्रकार के ग्रहों के समय जो कन्या उत्पन्न हो उसके साथ जिसका विवाह हो वा जो उसका साथ करे वह साथ ही वा शीघ्र ही मर जाता है। दूसरे प्रकार की विषकन्या वैद्यक रीति से बनाई जाती थी। छोटेपन से बरन गर्भ से कन्या को दूध में वा भोजन में थोडा-थोडा विष देते-देते बडी होने पर उसका शरीर ऐसा विषमय हो जाता था कि जो उसका अंग-संग करता वह मर जाता। कर उसका बड़ा हितू बनकर उससे कहा कि आज चाणक्य ने विश्वासघातकता करके आपके पिता को विषकन्या के प्रयोग से मार डाला और अवसर पाकर आपको भी मार डालेगा। मलयकेतु बेचारा इस बात के सुनते ही सन्न हो गया और पिता के शयनागार में जाकर देखा तो पर्वतक को बिछौने पर मरा हुआ पाया। इस भयानक दृश्य के देखते ही मुग्ध मलयकेतु के प्राण सूख गए और वह भागुरायण की सलाह से उस रात को छिपकर वहाँ से भागकर अपने राज्य की ओर चला गया। इधर चाणक्य के सिखाए भद्रभट इत्यादि चंद्रगुप्त के कई बड़े-बड़े अधिकारी प्रगट में राजद्रोही बनकर मलयकेतु और भागुरायण के साथ ही भाग गए।

राक्षस ने मलयकेतु से पर्वतक के मारे जाने का समाचार सुनकर अत्यंत सोच किया और बड़े आग्रह और सावधानी से चंद्रगुप्त और चाणक्य के अनिष्टसाधन में प्रवृत्त हुआ।

चाणक्य ने कुसुमपुर में दूसरे दिन यह प्रसिद्ध कर दिया कि पर्वतक और चंद्रगुप्त दोनो समान बंधु थे, इससे राक्षस ने विषकन्या भेजकर पर्वतक को मार डाला और नगर के लोगों के चित्त पर, जिनको कि यह सब गुप्त अनुसंधि न मालूम थी, इस बात का निश्चय भी करा दिया।

इसके पीछे चाणक्य और राक्षस के परस्पर नीति की जो चोटें चली हैं, उसी का इस नाटक में वर्णन है।