भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/८–मुद्राराक्षस

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८---मुद्राराक्षस

क--नाटककार

मुद्राराक्षस के प्रणेता का नाम विशाखदत्त या विशाखदेव, पिता का नाम महाराज पृथु और पितामह का नाम सामंत बटेश्वरदत्त था, इतना नाटक की प्रस्तावना से पता चलता है। इनकी एक अन्य कृति देवीचन्द्रगुप्तम् का पता हाल में लगा है, जिसके अब तक ६ उद्धरण मिले है। पूरी प्रति अभी तक अप्राप्य है। जर्मन-देशीय प्रोफ़ेसर हिलब्रैड ने भारत में भ्रमण कर मुद्राराक्षस की सभी प्राप्य प्रतियो का मिलान किया है, जिनमें कुछ प्रतियो में विशाखदत्त के पिता का नाम भास्करदत्त भी लिखा मिला है।

प्रोफ़ेसर विल्सन ने महाराज पृथु को चौहानवंशीय राय पिथौरा या पृथ्वीराज साबित करने का प्रयत्न किया था पर वे स्वयं उनकी पदवियों तथा उनके पिताओं के नामों की विभिन्नता का किसी प्रकार मंडन न कर सके। उनका यह कथन कि 'सामंत बटेश्वर को चद ने भाषा में लिखने के कारण संक्षेपतः सोमेश्वर लिखा होगा' युक्तियुक्त नहीं है क्योकि पृथ्वीराज-विजय नामक संस्कृत महाकाव्य में भी 'जयति सोमेश्वर-नन्दनस्य' लिखा है।

साथ ही पृथु तथा पृथ्वी भी स्पष्टतया विभिन्न हैं और पृथ्वीराज के किसी विशाखदत्त नामधारी पुत्र के होने का पता नहीं है। प्रोफेसर हिलब्रैड की खोज से पृथु का पाठान्तर [ ८३ ]भास्करदत्त मिलने से वह प्रयत्न निर्मूल हो गया और अब वह उपेक्षणीय है।

इसके अतिरिक्त नाटककार के जन्मस्थान और जन्म तथा मृत्युकाल का कुछ भी पता नहीं है। प्रोफेसर विल्सन का कथन है कि विशाखदत्त दक्षिण के निवासी नहीं थे। १ इस कथन का कारण उस उपमा को बतलाया है जिसका अर्थ है 'हिम के समान विमल मोती'। पं० काशीनाथ त्र्यंबक तैलंग इस अंश को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि भारतीय अर्कियोलौजिकल सर्वे की रिपोर्ट में उत्तरी भारत के वराह अवतार के मंदिरो तथा उनके भग्नावशेषो का विवरण पढते हुए मुझे भी यह विचार हुआ कि इस नाटक के भरतवाक्य के अनुसार कवि का उत्तरी भारत का ही निवासी होना समीचीन है। २ महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री की सम्मति है कि गौड़ीय रीति की बहुलता के कारण कवि गौड़ देशीय ज्ञात होते हैं और बटेश्वर शब्द से बटेश्वर नगर के शिव-भक्त के वंश में हो सकते हैं। प्रोफेसर विधुभूषण गोस्वामी ने भी उनको उत्तरी भारत का निवासी मानते हुए लिखा है कि नाटक में एक को छोड़ कर सभी स्थान उत्तरापथ ही के हैं।

पूर्वोक्त कारणो तथा विद्वानो की सम्मति से यह अवश्य निश्चित हो गया कि कवि विशाखदत्त उत्तरी भारतवर्ष के


१. हिन्दू थियेटर जि० २. पृ० १८२ टि०। यह हिम की उपमा सभी प्रतियों में नहीं मिलती। २. मुद्राराक्षस की भूमिका पृ० १३। ३ १.पं० जीवानंद विद्यासागर संपादित मुद्राराक्षस का आरंभ। [ ८४ ]निवासी थे। यह भी निश्चित सा ज्ञात होता है कि वे शैव थे जैसा कि नामों से तथा मंगलाचरण के दोनों श्लोकों में शिव की स्तुति होने से माना जाना चाहिए।

विशाखदत्त एक सामन्त सर्दार के पौत्र तथा महाराजा के पुत्र होने के कारण कुटिल राजनीति के पूर्ण ज्ञाता थे और स्वयं भी उसी प्रकार के समाज में रहने के कारण श्रृंगार, करुण आदि मृदु रसों का उनके हृदय में बहुत कम सञ्चार हुआ था। उन्होंने स्वभावतः राजनैतिक विषय पर ही लेखनी उठाई और उसमें वे पूर्णतया सफल हुए। उनकी कवित्व-शक्ति के बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि वे कालिदास या भवभूति के समकक्ष नहीं थे। इस नीरस राजनीति-विषयक-नाटक से भिन्न इनके एक नाटक देवीचन्द्रगुप्त का कुछ अंश मिले हैं तथा इनके दो अनुष्टुभ् श्लोक बल्लभदेव की सुभाषितावली में संगृहीत हैं। इनकी अन्य कृतियाँ, यदि हों तो, अब अप्राप्य हैं। इनके नाटक से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि ये ज्योतिष शास्त्र के भी ज्ञाता थे।

ख---नाटकीय घटना का सामयिक इतिहास

मगध देश या मागधों का प्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। पुराणों से पता लगता है कि महाभारत युद्ध के पहले मगध देश में वार्हद्रथो का राज्य स्थापित हो चुका था। वृहद्रथ के लिये ही पहले पहल मगध-नरेश की पदवी लिखी मिलती है जिसका पुत्र जरासन्ध और पौत्र सहदेव महाभारत युद्ध के समसामयिक थे। सहदेव के २३ पीढ़ी अनंतर अवन्ती-नरेश चण्डप्रद्योत का [ ८५ ]मगध पर अधिकार हो गया। इसके अनन्तर गिरिब्रज के शैशुनाग- वंशी राजाओ का मगध पर अधिकार हुआ। इस वंश का पहला प्रतापी राजा बिम्बसार गौतम बुद्ध और महावीर तीर्थंकर का समकालीन तथा अंग देश का विजेता था। इसका पुत्र अजातशत्रु बुद्ध के उपदेशों को सुनकर बौद्ध हो गया। इसने लिच्छिवियो पर विजय प्राप्त कर उन्हें दबाने को पाटलिपुत्र नामक दुर्ग बनवाया। यह इस वंश का प्रथम सम्राट् था। इसका उत्तराधिकारी दर्शक हुआ, जिसके अनन्तर उदयाश्व या उदायी राजा हुआ। इनके अनन्तर नन्दिवर्द्धन और महानन्दि नामक दो सम्राटों का उल्लेख है। महानंदि इस वंश का अन्तिम सम्राट था, जिसकी शूद्रा स्त्री से नन्द नामक पुत्र हुआ। इसने मगध राज्य पर अधिकार करके नन्द वंश स्थापित किया।

यह अठासी वर्ष राज्य कर मर गया। इसके अनन्तर बारह वर्ष तक इसके पुत्रो के हाथ में रहकर मगध राज्य मौर्यों के हाथ में चला गया। जिस समय चाणक्य नंदों से बिगड़ खड़ा हुआ, उसी समय के आसपास सिकंदर भारत में आया और चला गया। उस समय चंद्रगुप्त पंजाब में चक्कर लगा रहा था। सिकंदर की मृत्यु पर पंजाब के राजाओं ने यवनो के शासन के विरुद्ध विद्रोह किया और चंद्रगुप्त इन बलवाइयो का मुखिया बन बैठा। इसी समय चाणक्य ने चंद्रगुप्त को नंदो के विरुद्ध उभाड़ा और पंजाब के राजाओं की सहायता से तथा प्रांतरिक षड्चक्र द्वारा मगध राज्य पर अधिकार कर चंद्रगुप्त को प्रथम मौर्य सम्राट् बनाया।

चंद्रगुप्त ने अधिकार-प्राप्ति के अनंतर कोशल तक अपना [ ८६ ]राज्य बढ़ाया। वि० सं० २४० पू० में ग्रीक राजा सिल्यूकस निकेटोर चंद्रगुप्त से परास्त होकर लौट गया। इसके उपरांत सिल्यूकस ने मेगास्थनीज को अपना राजदूत बनाकर चन्द्रगुप्त के दरबार में रखा।

इस प्रकार चौबीस वर्ष निष्कंटक राज्य कर पचास वर्ष की अवस्था में सं० २४१ पू० के निकट चंद्रगुप्त की मृत्यु हुई। इसके अनंतर इसके पुत्र बिदुसार ने पच्चीस वर्ष राज्य किया और तब परम प्रसिद्ध अशोक भारतवर्ष का सम्राट् हुआ।

ग---ग्रंथ-परिचय

मुद्राराक्षस का स्थान संस्कृत साहित्य में बहुत ऊँचा है और अन्य नाटकों से भिन्न ऐतिहासिक तथा राजनीति-विषयक होने के कारण इसका कथावस्तु पुराण, महाभारत या रामायण से नहीं लिया गया है और न कोरो कपोल-कल्पना ही है। वह शुद्ध इतिहास से लिया गया है। नाटक का मुख्य उद्देश्य है चाणक्य द्वारा स्थापित प्रथम मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त की राज्यश्री की स्थिरता, जिसके लिये नंद वंश के पुराने स्वामिभक्त मंत्री राक्षस को, जो मौर्य वंश से शत्रु भाव रखता था, मिलाना ध्येय रखा गया। भाषा नाटक के विषयानुकूल है। यदि इसमें महाकवि कालिदास के नाटको का माधुर्य या सौन्दर्य ढूँढ़ा जाय तो अवश्य ही न मिलेगा पर उसका न मिलना ही इस नाटक की विशेषता है। इसकी भाषा ज़ोरदार तथा व्यावहारिक है और कहीं कहीं कुछ हास्यरस का भी पुट दिया गया है।

इस नाटक में एक विचित्रता यह है कि इसमें स्त्री पात्रों [ ८७ ]का प्रभाव सा है और श्रृंगार तथा करुण रस का संसर्ग भी नहीं होने पाया है। यद्यपि अंतिम अंक में चंदनदास की स्त्री रंगमंच पर आती है, पर वह भी नीरस, कठोर कर्तव्य-पाल-नोन्मुखी तथा स्वार्थत्यागिनी के रूप में प्रदर्शित है। उसके पास भी करुण रस नहीं फटकने पाया, तब श्रृंङ्गार की कहाँ पूछ होती। नाटककार ने लिख ही दिया है कि 'कलत्रमितरे सम्पतसु चापत्सुच', ( अंक १ श्लो० १५ ) अर्थात् राजनीतिज्ञ के लिए स्त्रियाँ सुख दुःख दोनों में भार सी प्रतीत होती हैं। इस प्रकार के राजनीति-धुरंधर नाटककार के लिखे गए राजनीति-विषयक नाटक में माधुर्य या सौंदर्य का खोजना ही व्यर्थ है।

मुद्राराक्षस नाटक सात अंको में है और नाट्यकला के सभी लक्षण इसमें पूर्ण रूप से वर्तमान हैं। इस नाटक में वीर रस प्रधान है। यद्यपि आश्चर्य की मात्रा भी प्रचुर रूप से वर्तमान है पर कर्मवीरत्व या उद्योग ही का प्राधान्य सारे नाटक में है। प्रधान नायक चंद्रगुप्त धीरोदात्त है। पात्रों का विवेचन आगे दिया जायगा। प्रथम अंक में चाणक्य का मौर्य-राज्य की स्थिरता के लिए राक्षस को चंद्रगुप्त का मंत्री बनाने को दृढ़ इच्छा प्रकट करना बीज है। राक्षस की मोहर की प्राप्ति और शकटदास से पत्र लिखाकर मोहर करना तथा उसे मलयकेतु को कपट से दिखलाना विंदु है। इसी विंदु तथा कार्य से नाटक का नामकरण हुआ है। विराधगुप्त का राक्षस से उसके प्रयत्नों का निष्फल होने का संदेश कहना पताका है। चाणक्य और चंद्रगुप्त के मिथ्या कलह का संवाद राक्षस के पास लाना प्रकरी है। राक्षस का मंत्रित्व ग्रहण करना कार्य है। [ ८८ ]नाटक के कथावस्तु का निर्वाह भी विवेचनीय है। इसका प्रासंगिक कथावस्तु सर्वदा गौण तथा आधिकारिक कथावस्तु की सौंदर्य-वृद्धि में सहायक रहा। इसके दृश्य और घटनाक्रम ऐसी बुद्धिमानी और कुशलता से संगठित किए गए हैं कि वे कहीं उखड़े से या असंबद्ध नहीं ज्ञात होते। कथावस्तु का आरम्भ, मध्य की अवस्थाएँ तथा अंत भी बड़ी योग्यता से रखे गए हैं, जिससे वे कहीं बेडौल या भद्दे नहीं मालूम पड़ते। प्रथम अंक में चाणक्य का आकार कुछ पूर्वेतिहास कहना और नाटक का उद्देश बतलाना तथा उसीके साथ ही राक्षस की मुद्रा की प्राप्ति से उसे फँसाने का प्रबंध करना दिखलाकर दर्शको को नाटक की घटना का पूरा ज्ञान करा दिया गया। इसके अनंतर द्वितीय अंक में राक्षस के प्रयत्नों का निष्फल होना तथा तृतीय अंक में चंद्रगुप्त और चाणक्य का झूठा झगड़ा दिखलाना उद्देशपूर्ति का यत्न है। चतुर्थ और पंचम अक में मलयकेतु का राक्षस के प्रति शंकोत्पत्ति से लेकर अत में सत्य कलह दिखलाना प्राप्त्याशा है। छठे में राक्षस का वधस्थान को जाना नियताप्ति और सातवें में मंत्रित्व ग्रहण करना फलागम है।

इस प्रकार विवेचना करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि मुद्राराक्षस रूपक का प्रथम भेद नाटक है और नाट्यकला के अनुसार नाटक के सभी लक्षणों से युक्त है।

घ---नाटकीय कथावस्तु का समय

नंदवंश के नाश, चंद्रगुप्त के राज्याधिकार, पर्वतक और सर्वार्थसिद्धि के मारे जाने तथा राक्षस के मलयकेतु के पास [ ८९ ]चले जाने से लेकर उसके फिर से चंद्रगुप्त का मंत्रित्व ग्रहण करने तक लगभग एक वर्ष का समय व्यतीत हुआ था। चतुर्थ अंक पंक्ति ४५ में मलयकेतु का कथन है कि 'अाज पिता को मरे दस महीने हुए' और पर्वतक के मारे जाने के बाद ही राक्षस मलयकेतु के पास गया था। नाटक का आरंभ उस दिन से होता है जब जीवसिद्धि पर्वतक पर विषकन्या के प्रयोग करने के दंड में राज्य से निर्वासित किया जाता है और यह दंड पर्वतक के घात के दो ही चार दिन के अनंतर दिया गया होगा। जिस दिन मलयकेतु ने पूर्वोक्त बात कही थी, उस दिन मार्गशीर्ष की पूर्णिमा थी। इससे दस मास पिछले गिनने से फाल्गुन की पूर्णिमा अाती है, जिसके दो एक दिन इधर या उधर पर्वतक की मृत्यु हुई होगी।

तीसरे अंक का दृश्य चातुर्मास के अनंतर आश्विन शुक्ल पूर्णिमा का है। इसका वर्णन उसी अंक में है।

चौथे अंक का दृश्य मार्गशीर्ष की पूर्णिमा का है।

पाँच अंक का भी पूर्वोक्त तिथि के एक मास बाद का होना संभव है, क्योंकि मलयकेतु की सेना करभक की कथित दूरी को ( अंक ४ पृ० ३६४ ) तैकर कुसुमपुर के पास पहुँच गई थी। ( अंक ५ पृ० ३८२ )।

अंतिम दो अंको की घटना का समय लेने पर नाटक की कथावस्तु का समय एक वर्ष के भीतर ही होता है।

ङ---पात्रों का विवेचना

इस नाटक के प्रधान पात्र चाणक्य उपनाम कौटिल्य है और [ ९० ]इनके प्रतिद्वंद्वी नंदवंश के मंत्री राक्षस हैं। नाटक के नायक मौर्य वंश के प्रथम सम्राट चंद्रगुप्त तथा प्रतिनायक मलयकेतु हैं। अन्य पात्रों में चंदनदास, शकटदास और भागुरायण उल्लेखनीय हैं। चाणक्य और चंद्रगुप्त ऐतिहासिक पुरुष है। राक्षस भी ऐतिहासिक पुरुष होंगे क्योकि ऐसे प्रधान पात्र को कल्पित मानना उचित नहीं। यदि ये कोरे कवि कल्पना मात्र होते तो क्या कवि राक्षस से अच्छे नाम की कल्पना नहीं कर सकता था। मलयकेतु भी ऐतिहासिक हो सकता है। अन्य पात्र कल्पित है।

इस नाटक में प्रथम पात्र-युगल के जीवन का केवल वही अंश दिखलाया गया है, जो राज्य के षड्यंत्रों में व्यतीत होता था। दोनों ही में स्वार्थ का चिन्ह भी नहीं देख पड़ता। चाणक्य ने इतने परिश्रम से, केवल अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करने के लिये चंद्रगुप्त को राज्य का अधिकारी बनाया और अंत में उस राज्य को दृढ़ कर मत्रित्व का पद तक न ग्रहण किया वरन् स्वस्थापित राज्य की भलाई के लिए उसे अपने प्रतिद्वंद्वी राक्षस को सौंप दिया। राक्षस भी निःस्वार्थ भाव से ही अपने गत स्वामिवंश का बदला लेने को प्राणपण से लगा था। निःस्वार्थता ही तक दोनों समान हैं, पर इससे परे वे कहाँ तक एक दूसरे से भिन्न है, यह स्पष्टतया दिखला दिया गया है। चाणक्य दूरदर्शी, दृढ़प्रतिज्ञ और कुटिल नीति में पारंगत था। उन्हे अपने ऊपर पूर्ण विश्वास था और उनकी मेधा तथा स्मरण शक्ति बलवती थी। इन्हीं गुणो के कारण उन्होने शत्रु के षड्यंत्रो को निष्फल करते हुए उनसे स्वयं लाभ उठाया और निज उद्देशसिद्धि के लिये उन्हीं का प्रयोग ठीक समय पर कर वे सफल प्रयत्न हुए। इनमें [ ९१ ]मनुष्यों के पहचानने की शक्ति भी अपूर्व थी पर इसके विपरीत राक्षस ने अंत तक अपने विश्वस्त मनुष्यों से ही धोखा खाया। शत्रु के यहाँ से भाग आने को इन्होने उत्तम प्रमाण तथा प्रशंसा-पत्र मान लिया था। एक बार इन्हें इस विषय पर शंका हुई थी ( देखिए अं० ५ पृ० ३९३ ) पर वह भी अन्तिम समय में। राक्षस वीर सैनिक थे पर राजनीति के कुटिल मार्गों के वे अच्छे ज्ञाता नहीं थे, जिस से कभी कभी भूल करते थे। ( देखिए अंक २ पृ० ३२४ ) ये स्वभाव से मृदुल थे और उदार हृदय होने के कारण किसी पर अविश्वास नहीं करते थे। स्वामी के सर्वस्व नाश हो जाने के दुःख तथा उनका बदला लेने के उत्कट उत्साह से भी उनकी मेधाशक्ति आच्छादित हो रही थी। घटनाओ के वर्णन में यह विशेषता भी है कि सब बातें ठीक वैसी ही होती थीं जैसा कि चाणक्य चाहता था। कहीं भी उनकी इच्छा के विपरीत कोई घटना नहीं हुई। ऐसा जान पड़ता है कि चाणक्य घटनाओं का अनुशासन उसी प्रकार करता था जैसे काठ की पुतली नचाने वाला सूत्रों को हाथ में पकड़कर इच्छानुकूल उनसे कार्य कराता है। इस अवस्था में या तो हम चाणक्य की बहुज्ञता और दूरदर्शिता का परिचय पाते हैं अथवा कवि पर अस्वाभाविकता का दोष लगा सकते हैं। कभी कभी अनुकूल घटनाएँ ठीक समय पर हो जाती है पर आदि से अन्त तक चाणक्य द्वारा प्रेरित सब घटनाओ का सरोतर उतरना नाटक की स्वाभाविकता में वाधक होता है।

चाणक्य पक्षपात का नाम भी नहीं था और शत्रु के उत्तम गुणो की प्रशंसा करने में भी नहीं चूकते थे ( देखिए अंक [ ९२ ]१ पृ० २६५ अं० ७ पृ० ४२४ ) । स्वस्थापित साम्राज्य के प्रधान अमात्य होने पर भी साधु के समान जीवन व्यतीत करना इनके विराग का अत्युत्कृष्ट प्रमाण है ( देखिए कंचुकी का वर्णन अंक ३ पृ० ३४७ ) । इनका अपने शिष्यों पर बड़ा प्रेम रहता था ( देखिए अं० १ पृ० २९४ की टि० ) । इनमें क्रोध, उग्रता तथा हठ की मात्रा भी पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से सब उनसे डरते थे और यदि इन पर आत्मश्लाघा का दोषारोपण किया जाय तो अनुचित है क्योंकि इन्होने असंभव कार्य को भी संभव कर दिखाया था। 'दैव देव आलसी पुकारा' कहने वाले थे जैसा अंक ३ पृ० ३६१ में चंद्रगुप्त से कहा है।

इतिहास से राक्षस के बारे में कुछ नहीं ज्ञात होता। ऐसा कहा जाता है कि सुबुद्धिशर्मा नामक ब्राह्मण चंदनदास के पड़ोस में बसता था और उसकी तीव्र बुद्धि पर प्रसन्न होकर नंद ने उसे मंत्री बना दिया था। राक्षस में मित्रस्नेह अधिक था और उन्होंने भी शत्रु की योग्यता की प्रशंसा कर हृदय की महत्ता दिखलाई है ( अं० ७ पृ० ४२७ ) । ये दैव, अशकुन और शुभाशुभ का विचार रखते थे। इनके सेवकों पर इनका रोब नहीं पड़ता था। चाणक्य मार्ग की कठिनाइयों को कुचलते हुए उन्नत मस्तक होकर चले चलते थे, पर राक्षस दैव को दोष देकर चित्त को शांत कर लेते थे ( अं० ६ पृ० ४०९ ) ।

अन्य पात्र-युगल, चंद्रगुप्त और मलयकेतु, नाटक के नायक तथा प्रतिनायक हैं। चंद्रगुप्त चाणक्य में पूज्य भाव रखता था और उसे उनकी योग्यता तथा नीति कुशलता पर पूर्ण विश्वास था। मलयकेतु राक्षस पर पहले ही से शंका करता था ( अंक० [ ९३ ]४ पृ० ३६९ ) और अंत में अविश्वास योग्य पुरुषों के कहने सुनने पर विश्वास कर उसने उन्हें निकाल भी दिया। इसमें चंद्रगुप्त के समान योग्यता नहीं थी। यह बिना विचार किए मनमाना कर बैठता था, जैसे कि पॉच राजाओं का मार डालना ( अंक० ५ पृ० ४०२ ) । दृढ प्रकृति का न होने से यह शत्रु के भेदियों की बातों में आ गया।

अन्य पात्रों में चन्दनदास मित्रस्नेह का आदर्श रूप है। धन-प्राण आदि सभी को तिलांजलि देकर इसने उसका निर्वाह किया। शकटदास ने भी मित्रता निबाही। भागुरायण ने मलयकेतु से स्नेह हो जाने पर भी स्वामिभक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा ( अं० ५ पृ० ३८३ ) । अन्य पात्रो में भी यह गुण वर्तमान था।

च---कथावस्तु

नाटक का कथावस्तु बड़ी सफलता तथा बुद्धिमानी से संगठित किया गया है और उसकी मुख्य घटनाएँ इस प्रकार हैं। प्रथम अंक---( १ ) राक्षस की मुहर की अँगूठी का दैवात् चाणक्य को मिल जाना ( २ ) शकटदास से जाली पत्र लिखवाना तथा उसको सन्देश सहित सिद्धार्थक को सौंपना ( ३ ) जीवसिद्धि का देशनिर्वासन, शकटदास का भागना तथा चन्दनदास का कैद होना। द्वितीय अंक---( ४ ) शकटदास का चाणक्य के चर सिद्धार्थक के साथ भागना और सिद्धार्थक का राक्षस की सेवा में नियुक्त हा होना ( ५ ) मलयकेतु के गहनो को सिद्धार्थक को देना और सिद्धार्थक का मुहर लौटाना ( ६ ) [ ९४ ]पर्वतक के गहनों को धोखे से राक्षस के हाथ बेचना। तृतीय अंक---( ७ ) चंद्रगुप्त और चाणक्य का झूठा कलह। चतुर्थ अंक---( ८ ) मलयकेतु का राक्षस पर शंका करना और चाणक्य के चर भागुरायण पर विश्वास। पंचम अक---( ९ ) मलयकेतु का राक्षस से कलह कर पॉच सहायक राजाओ को मरवा डालना ( १० ) मलयकेतु का युद्ध करने जाना तथा कैद होना। छठा अंक---( ११ ) चंदनदास के रक्षार्थ चन्द्रगुप्त की अधीनता मानने के लिए चाणक्य के चर का चतुरता से राक्षस को वाध्य करना। सातवॉ अंक---( १२ ) अंत में राक्षस का मंत्रित्व ग्रहण करना।

आरम्भ में दर्शकों को सभी बातों का पूरा पूरा ज्ञान कराते हुए जो उत्सुकता उत्पन्न की गई है, वह प्रायः अन्त तक बढ़ती गई है और इसके दृश्य इतने सजीव और स्वाभाविक हैं कि कहीं जी नहीं ऊबता।

कहा जाता है कि इस नाटक से कोई उत्तम शिक्षा नहीं मिलती और इसके दोनों प्रधान पात्र अवसर पड़ने पर मित्रों तथा शत्रुओं को मार्ग से हटाने के लिए किसी उपाय को घृणित नहीं समझते थे। अस्तु, इसमें आदर्श सामने रखकर दैव पर भरोसा करने वालों को उद्योग या कर्मवीरत्व को उचित शिक्षा दी गई है। कर्म का ही फल दैव या निज कर्म है। कर्म में जो कुछ लिखा जाता है वह पुस्तकाकार किसी के साथ संसार में नहीं आता पर जो कुछ कर्म किया जाता है वही पुस्तक स्वरूप में जाते समय यहीं छोड़ जाना पड़ता है। कर्मवीरत्व को यदि कुशिक्षा समझा जाय तो इस पर मेरा कुछ कथन [ ९५ ]नहीं है। प्रधान पात्रों पर जो कटाक्ष है उस पर कुछ लिखने के पहले इस गौण बात पर विचार करना उचित है। यदि कोई दस पाँच शस्त्रधारी पुरुष साथ लेकर किसी के गृह पर आक्रमण करता है तो कहा जाता है कि वह डॉका डालता है पर जब कोई लाख दो लाख सेना लेकर किसी दूसरे के राज्य पर आक्रमण करता है तो वह जगद्विजयी, दिग्विजयी या चक्रवर्ती की उपाधियों से विभूषित किया जाता है। एक में केवल स्वार्थ है तो दूसरे में स्वार्थ के साथ, यशोलिप्सा की मात्रा भी प्रचुरता से विद्यमान है। पर इस नाटक के इन दोनों पात्रो में यह दिखलाया जा चुका है कि स्वार्थ का लेश भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि व्यक्तिगत दोष तथा समाज के लिए किए गए दोष एक ही बॉट से नहीं तौले जाते।

नन्द-वंश की राज्यलक्ष्मी चन्द्रगुप्त के वशीभूत होकर भी अस्थिर हो रही थी। चाणक्य ने यह विचार कर कि साम्राज्य के दो भाग होने से पड़ोस में दो प्रबल साम्राज्यों का शान्तिपूर्वक रहना असंभव है और आपस के झगड़े में सहस्रों सैनिकों का रक्तपात होगा, इससे वह बँटवारे के विरुद्ध हो गया। इधर राक्षस ने बदला लेने के लिये चन्द्रगुप्त पर विषकन्या का प्रयोग किया। चाणक्य ने अच्छा अवसर पाकर उस विषकन्या का पर्वतक पर प्रयोग करा दिया, जिससे बँटवारे का प्रश्न ही मिट गया। इसके अनन्तर जब राक्षस पर्वतक के पुत्र मलयकेतु से मिलकर राज्य में षड्यन्त्र रचने लगा और उसने अनेक राजाओं को सहायतार्थ उभाड़ा तब चाणक्य को भविष्य में होने वाले युद्ध की आशङ्का हुई। चाणक्य ने [ ९६ ]राक्षस को मिलाना ही उत्तम समझा और सहस्रों मनुष्यों के रक्तपात से उन्होने एक जाली पत्र बना लेना या दो चार मानुष्यों का मारा जाना अधिक उचित माना। तृतीय अंक में नाटककार ने चाणक्य ही द्वारा इस विषय पर बहुत कुछ कहलाया है। मलयकेतु अंत में छोड़ दिया गया और शकटदास तथा चन्दनदास की शूली दिखावट मात्र थी। बधिकों का मारा जाना केवल राक्षस से शस्त्र फेंकवाने के लिये झूठ ही कहा गया था।

पूर्वोक्त विचारों से चाणक्य तथा राक्षस पर आरोपित दोषों का मार्जन हो जाता है। राजनीतिज्ञो का कार्य कितना कठिन है, यह नाटककार ने स्वयं ही कहा है ( देखिए अंक ४ पृ० ३६५ )।

इस नाटक का अनुवाद भारतेंदुजी ने राजा शिवप्रसाद के अाग्रह से लिखा था और उन्होने इसको कोर्स में चलाने का विशेष प्रयत्न किया था। यह नाटक राजा लक्ष्मणसिंह की शकुंतला के समान ही कोर्स में उसी समय से अब तक प्रचलित थी और है। यह पहिले पहिल बाला-बोधिनी में प्रकाशित हुई थी। इसकी प्रस्तावना व० २ नं० २ फाल्गुन सं० १९३१ ( फरवरी सन् १८७५ ई० ) में प्रकाशित हुई और फिर यह क्रमशः सन् १८७७ तक छपती रही। कहा जाता है कि मुद्राराक्षस का एक अनुवाद महामना पं० मदनमोहन मालवीय जी के पितृव्य पं० गदाधर भट्ट मालवीय जी कर रहे थे पर जब उन्हें मालूम हुआ कि भारतेंदु जी ने उसका अनुवाद किया है तब उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया कि अब इसकी आवश्यकता नहीं है।


भा० ना० भू०---७
[ ९७ ]वह समय कुछ और था नहीं तो अब एक अनुवाद से सहायता

लेकर दूसरा प्रकाशित कर पैसा कमाना ही कितने लेखकों और प्रकाशकों का काम रह गया है। तुर्रा यह कि सहायक अनुवाद का कहीं उल्लेख भी न रहेगा।

छ---निर्माण-काल

मुद्राराक्षस के निर्माण-काल के निश्चित करने का पहिले पहिल प्रो० विलसन ने प्रयास किया था। इन्होंने नाटक के म्लेच्छ से मुसलमान का तात्पर्य लिया है और गजनवी तथा गोरी का समय निश्चित किया है । पुनः पाँचवें अंक के आरंभ के श्लोक को लेकर कहा है कि इस प्रकार की अलंकृत शैली हिंदू अपने पड़ोसियो से ग्रहण कर रहे थे। इस प्रकार पूर्वोक्त तर्कों के आधार पर मुद्राराक्षस का निर्माण काल ग्यारहवीं या बारहवीं शताब्दि निश्चित किया गया। पूर्वोक्त निश्चय के विरुद्ध पहिले पहिल बंबई हाईकोर्ट के जज पं० काशीनाथ तैलंग ने लेखनी उठाई और विद्वत्तापूर्ण विवेचना कर दिखलाया कि उसकी भित्ति निर्मूल है। प्रो० विलसन जैन क्षपणक जीवसिद्धि के नाटक में पात्र होने को नवीनता मानने का एक कारण बतलाते हैं क्योंकि वे जैनों के समय को बहुत आधुनिक मानते हैं। आधुनिक खोज से उनकी यह युक्ति भी निर्भ्रान्त नहीं रह गई। प्रो० विलसन की खंडनात्मक आलोचना करने पर विद्वद्वर पं० तैलंग ने अन्य कारणों से समय निकालने का भी प्रयत्न किया है। दशरूप में मुद्राराक्षस का तीन बार उल्लेख है। सरस्वती- कंठाभरण में मुद्राराक्षस के नाम का उल्लेख नहीं है, पर एक [ ९८ ]विशेष अंश दोनों में समान रूप से है। दूसरा मुद्राराक्षस के एक प्राकृत श्लोक का संस्कृत अनुवाद है, जिनकी दूसरी पंक्तियों में कुछ भिन्नता है। दशरूपक के लेखक धनंजय परमार-वंशीय राजा मुंज के समय में हुए, जिनकी सरस्वती-कंठाभरण कृति है। मुंज की मृत्यु सम्वत् १०५० और १०५४ के बीच में हुई, इससे यह निश्चित हो गया कि मुद्राराक्षस नाटक सम्वत् १०४४ वि० के पूर्व की कृति है।

मिस्टर तैलंग के बतलाए पूर्वोक्त दोनों ग्रन्थों के सिवा हितोपदेश में एक श्लोक तथा शागंधर-पद्धति में मुद्राराक्षस ( अंक ७ श्लोक ३ ) के एक श्लोक के भावार्थ की नकल मुक्तापीड़ कृत कह कर उद्धृत है। यह मुक्तापीड़ या ललितादित्य काश्मीर के राजा थे और इनका काल सन् ७२६-७५३ ई० है। विशाखदत्त कृत दो अनुष्टुभ श्लोक वल्लभ देव के सुभाषित में संग्रहीत हैं, जिनका काल पंद्रहवीं शताब्दि का पूर्वार्द्ध है। इधर हाल में विशाखदत्त कृत एक नाटक देवीचन्द्र गुप्तम् का पता चला है जिसके उद्धरण उक्त नाटककार के नाम सहित रामचन्द्र-गुणचन्द्र कृत नाट्यदर्पण तथा भोज कृत श्रृंगार प्रकाश में दिए गए हैं। मि० काशीप्रसाद जायसवाल ने भरतवाक्य के 'म्लेच्छैरुद्विज्यमाना, अधुना और चन्द्रगुप्तः' शब्दों पर विचार करते हुए निश्चित किया था कि नाटककार ने अपने समय के राजा गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय का उल्लेख किया है, 'जो हूणों को परास्त करेंगे'। मिस्टर वी० जे अंतानी ने इन विचारो का खंडन किया है। यह सब ऐतिहासिक तर्क वितर्क केवल 'अधुना' शब्द पर उठाया गया था, पर राक्षस मंत्री के कहने का तात्पर्य है कि [ ९९ ]'अब राजा चंद्रगुप्त राज्य करें'। ग्रंथ-निर्माण का समय कुछ भी हो पर चंद्रगुप्त से भरतवाक्य में मौर्य चन्द्रगुप्त ही का भास होता है। नाटककार विशाखदत्त ने अपने आश्रयदाता का नाटक में कहीं उल्लेख नहीं किया है और यदि उस आश्रयदाता का नाम भी चन्द्रगुप्त हो और वह भी मौर्य सम्राट् ही सा प्रतापी रहा हो, तो उसका भी उल्लेख इसमें मान लेना समीचीन हो सकता है।

मुद्राराक्षस की एक हस्तलिखित प्रति में चंद्रगुप्त के स्थान पर अवतिधर्मा पाठ है। इस नाम के दो राजाओ का पता चलता है। एक काश्मीर नरेश थे, दूसरे कान्यकुब्जाधिपति हर्षवर्द्धन के बहनोई मौखरीवंश के ग्रहवर्मा के पिता थे। नाटककार ने अवंतिवर्मा का नाम अपने आश्रयदाता की कोर्ति बढ़ाने के लिए ही लिखा होगा पर उसे काश्मीर-नरेश पुष्कराक्ष के रूप में मलयकेतु के अधीन तथा उसी के द्वारा उसकी अपमृत्यु कराकर मलिन न करते। इस विचार से काश्मीर के अवंतिवर्मा का उल्लेख श्लोक में होना अग्राह्य है । अब दूसरे अवंतिवर्मा के संबंध में विचार करना चाहिए। थानेश्वर के वैसवंशी राजा प्रभाकरवर्द्धन की पुत्री राज्यश्री से कन्नौज के राजा अवंतिवर्मा के पुत्र ग्रहवर्मा का विवाह हुआ था। अवंतिवर्मा के सिक्कों पर गु० स० २५० ( वि० सं० ६१२ ) मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि ये गुप्त वंश के आधीन थे। विशाखदत्त का इन अवंतिवर्मा के समय में नाटक रचना संभव हो सकता है। इन विचारों से कवि विशाखदत्त का समय ईसवी छठी शताब्दि का उत्तरार्द्ध निश्चित होता है। प्रतिवर्मा के सिवा दंतिवर्मा और [ १०० ]रंतिवर्मा भी पाठ मिलता है पर लिपि के कारण चन्द्रगुप्त के स्थान पर इन अन्य नामों का लिखा जाना अधिक संगत ज्ञात होता है। उक्त श्लोक में चन्द्रगुप्त के दो विशेषण पार्थिवः और श्रीमद्वंधुभृत्यः हैं। सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने बड़े भाई सम्राट् रामगुप्त के अत्यंत अनुयायी थे और उन्हीं के लिए यह पद आया है। नाटककार इस पद में विष्णु तथा चन्द्रगुप्त में समानता बतला रहा है और चन्द्रगुप्त नाम से मौर्य सम्राट् तथा अपने आश्रयदाता दोनो का स्मरण कर रहा है। राक्षस के मुख से कहलाने से यह मौर्य सम्राट का द्योतक हुआ और साथ ही कवि अपने आश्रयदाता चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पर भी इसे घटाता है।

निर्माण काल के निरूपण का एक अन्य मार्ग पाटलिपुत्र नगर की स्थिति है। नाटक में पाटलिपुत्र का जो भूगोल मिलता है, वह मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय की स्थिति के अनुकूल न होगा प्रत्युत् नाटककार के समय ही के अनुकूल होगा क्योंकि नाटककार ने भौगोलिक स्थिति का जो कुछ वर्णन किया है, उसका नाटक में अन्य तात्पर्य से ही उल्लेख हो गया है। नाटक से ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र सोन नदी के दक्षिण में था और सुगांगप्रासाद गंगाजी पर था। चीनी यात्री फाहियान पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी लिखता है पर सुएनच्वांग इसे उजड़ा हुआ लिखता है। आधुनिक पटना शेरशाह का बसाया हुआ है। पाटलिपुत्र की स्थिति के बारे में अन्य विद्वानों ने जो कुछ तर्क किया है, उसमें वे प्रोफेसर विलसन के अनुसार मुद्राराक्षस का रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दि मानकर चले हैं अतः उक्त विवेचना से कोई फल नहीं निकला। मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त के समय के पाटलिपुत्र की स्थिति या अवस्था [ १०१ ]सेल्यूकस के भेजे हुए राजदूत मेगास्थनीज़ के विररण में दी हुई है। उससे तथा मुद्राराक्षस नाटक के वर्णित पाटलिपुत्र की स्थितियों में यह विभिन्नता है कि पहले समय में वह गंगाजी तथा सोन नदी के मध्य में था पर दूसरे समय सोन के दक्षिण और गंगाजी के तट पर था। इस कारण यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कवि ने अपने ही समय की स्थिति का नाटक में समावेश किया है। अब यह विचारणीय है कि यह स्थिति-परिवर्तन कब हुआ। फाहियान ने पाँचवीं शताब्दि के आरंभ के पाटलिपुत्र का जो वर्णन दिया है, यह नाटककार के समय के पाटलिपुत्र का चित्र सा ज्ञात होता है।

ऊपर लिखे गए अनेक विद्वानों के सिद्धान्तों तथा तर्कों पर विचार करने से जो सार निकलता है, वह संक्षेपतः इस प्रकार है। प्रो० विलसन के सिद्धान्तों की खंडनात्मक आलोचना करने पर जस्टिस तैलंग ने लिखा है कि यदि इसे निस्सार न माना जाय तो यह आठवीं शताब्दि का द्योतक हा सकता है। मुद्राराक्षस से जो अश अन्य ग्रंथों में उद्धृत किए गए हैं, उनसे यह निश्चित हो जाता है कि यह सं० १०४४ से पूर्व की रचना है। भरतवाक्य के विषय में तर्क करते हुए उसका निर्माणकाल एक प्रकार निश्चित सा किया गया है। पाटलिपुत्र की स्थिति पर विचार करते हुए जस्टिस तैलंग ने आठवीं शताब्दि में निर्माण-काल का होना संभवित माना है पर अन्य प्रकार से विचार करने पर उसका चौथी शताब्दि के आसपास होना अधिक संभव है। नाटकोल्लिखित स्थानों तथा जातियो के विचार [ १०२ ]से भी ज्ञात होता है कि इन सबका उल्लेख मौर्य कालीन होने के नाते नहीं है प्रत्युत् नाटककार-कालीन होने से है। काश्मीर-नरेश पुष्कराक्ष का समय चौथी-पाँचवी शताब्दि है। कांबोज, खस, मलय आदि जातियों का उल्लेख भी जिस प्रकार हुआ है, उससे उन्हीं शताब्दियों का द्योतन होता है। शक जाति विक्रम शाका के कुछ ही पहिले भारत में आई और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय सन् ३९४ ई० के लगभग उसका उत्तर भारत से लोप हो गया। ऐसी हालत में उक्त जाति का उल्लेख इस नाश के आसपास ही होना चाहिए, बहुत बाद का नहीं। हूणों का उल्लेख भी उनके प्रबल होने के पहिले का है अर्थात् गुप्तकाल के प्रथम तीन सम्राटों के समय का है, स्कंदगुप्त आदि के समय का नहीं है। अतः इन सबसे नाटक का निर्माण काल चौथी शताब्दि ही ज्ञात होता है।