भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/९–भारत दुर्दशा

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९---भारत दुर्दशा

भारतेन्दु जी ने भारतवर्ष के प्राचीन गौरव तथा वर्तमान दुरवस्था को दृष्टि में रखकर तथा भारतोदय की हार्दिक इच्छा रखते हुए भी दासता-प्रेमी भारतीयों के हृदय में स्थायी प्रभाव डालने के लिए यह दुखांत रूपक लिखा था। यह छ अंकों में विभक्त है। पहिले में एक योगी आकर एक लावनी गाता है और उसमें अत्यंत संक्षेप में भारत के प्राचीन गौरव का तथा वर्तमान दुर्दशा का उल्लेख करते हुए कहता है कि अब भारत की दुर्दशा नहीं देखी जाती। दूसरे अंक में 'भारत' स्वयं आता [ १०३ ]है और अपना रोना रोता है। कहता है कि जिस देश के लोग अपनी मातृभूमि की 'सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धन केशव' कहते थे और उसी के लिए मर मिटते थे वहीं के लोगों की आज क्या दशा है। अंग्रेजो का राज्य होने पर सोचा था कि 'हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे' पर यहाँ भी निराशा ही है। इस वाक्य के एक एक शब्द पर ध्यान दीजिए तब मर्म-व्यथा का स्पष्टीकरण आप ही हो जाएगा। अंत में ईश्वर की याद करता है पर वह भी नहीं करने पाता तब डर कर मूर्च्छित हो जात है। निर्लज्जता और आशा ( एक दिग्गज विद्वान भी सम्पति में 'भारतोदय करने की दृढ़ता का भाव' ) आती हैं तथा उसे ले जाती हैं। तीसरे अक में भारतदुर्दैव आता है और उसके मुख से बड़ी खूबी के साथ भारत की दुर्दशा का पूरा विवरण दिलाया गया है। अँग्रेजी राज्य तक के उन दोषो का, जिन्हें वे मानते थे, प्रशंसा में लपेट कर खूब वर्णन किया है। अकाल, मँहगी, रोग, अनावृष्टि, फूट-बैर के साथ साथ नवागंतुको का अनुगमन करते प्लेग आदि रोग, टिकस, काफिर-काला आदि अपमानजनक संबोधन भी आ पहुँचे। 'अँग्रेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरे। लिया भी तो अँग्रेजो से औगुन।' आज भी प्रायः पंचानबे प्रतिशत हिंदू निरक्षर हैं। साक्षरों में कुछ ही सुशिक्षित हैं। ये 'मिलकर देश सुधारा चाहते हैं। हा! हा! एक चने से भाड़ फोड़ेंगे'। इसके लिखे जाने के पचास वर्ष बाद आज भी एक चना से भाड़ फोड़वाने की कोशिश हो रही है। भारत- दुर्दैव के फौजदार सत्यानाश जी आते हैं और अपनी तारीफ [ १०४ ]में कहते हैं कि 'नादिरशाह, चंगेज, तैमूर आदि उसके साधारण सैनिक हैं।' इसके अनंतर भारत के निजी दोषों का भारत-दुर्दैव के सैनिकों के रूप में विवरण है। पहिला स्थान धर्म को दिया जाता है, जिसकी ओट में भारत की बहुत कुछ दुर्दशा हुई है। मतमतांतर का आधिक्य, वर्ण-व्यवस्था की खींचातानी, बालविवाह, विधवा विवाह-निषेध, वृद्ध विवाह, बहुविवाह, समुद्रयात्रा-निषेध आदि से देश की अवनति में बहुत सहायता पहुँची। करोड़ो देवी देवताओं के रहते हुए अन्य लोगो के पीर, गाजीमियाँ आदि की पूजा की जाती है, निमाज पढ़कर निकलते हुए उन म्लेच्छों से अपने बच्चे फूँकवाते हैं, जिनके छुए हुए पानी को भूल से भी पी लेने वाले को अधर्म-भीरु हिंदू हिन्दुत्व से च्युत कर देते थे। वेदांत की कुछ बातें इधर उधर सुनकर भी कितने महाज्ञानी बन जाते हैं और इह लोक की अर्थात् स्वदेश की चिंता छोड़ देते हैं। इसके अनंतर संतोष और बेकारी की पारी आती है, 'थोड़ा कमाना थोड़ा खाना, संतोष परमं सुखं' इस देश वालो की कुछ पालिसी सी रही है, रोटी दाल का जुगाड़ कर लेना ही यहाँ का परम पुरुषार्थ हो रहा है। भारत के पास धन की जो सेना बच गई थी, क्योंकि उसपर बहुत काल से छापे पड़ते रहे है, उसे जीतने के लिए अदालत ( बाजी ), फैशन, घूस, चंदा, तुहफे आदि रास्ते निकाले गए। आपस में ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थपरता, पक्षपात आदि का तो पूरा दौरा दौर है। भारत को दूसरी शक्ति कृषि थी, वह भी निर्बल हो रही है।

चौथे अंक में भारतदुर्दैव रोग, आलस्य, मदिरा और [ १०५ ]अंधकार को क्रमशः भारतवर्ष में भेजते हैं। रोग आकर अपनी प्रशंसा करता है और यहाँ के लोगों की उस मूर्खता पर हँसी लेता है जो रोग की दवा आदि व्यवस्था न कर झाड़ फूँक ही में लगे रह कर प्राण खोते हैं। वैद्यक शास्त्र प्रगतिशील न रहा और रोगों की संख्या बढ़ती गई। अफीमची, मदकची आदि की भारत में कमी नहीं और बालस्य का इसमें निवास ही है। कर्मण्यता तथा पुरुषार्थ आलस्य से बहुत दूर रहते हैं। मदिरासक्ति भारतीयों में कितनी है, यह अभी हाल की पिकेटिंग आंदोलन से सब पर विदित है और इसके प्रेमी कितनी प्रकार से तर्क वितर्क कर इसका समर्थन करते है, यह भी विनोदपूर्ण शैली से दिखलाया गया है। इसके अनंतर अज्ञान रूपी अंधकार आता है और भारत भेजा जाता है। भारत अभी तक इतना अविद्या-प्रेमी है कि वह शिक्षा, पठन-पाठन आदि को केवल जीविका का एक साधन मात्र समझता है और इसी से बी० ए०, एम० ए० पास किए हुए युवकगण अपने को विद्वान, आचार्य आदि समझ कर किसी भी व्यवसाय आदि की ओर जाना अपमानजनक मान बैठते हैं।

पाँचवे अंक में एक कमीटी का दृश्य है, जिसमें एक सभापति तथा छ सभ्य हैं। इनमें एक बंगाली, एक महाराष्ट्री, दो देशी, एक कवि तथा एक पत्र-संपादक है। कमीटी का मूल उद्देश्य भारतदुर्दैव की चढ़ाई को रोकना है। 'हुज्जते बंगाला' प्रसिद्ध है, इससे बंगाली सभ्य खूब गोलमाल मचाने की पहिले राय देते हैं पर यह कितना उपहासास्पद है यह उसी सभ्य के दूसरे उपाय से ज्ञात हो जाता है जैसे स्वेज नहर को पिसान से [ १०६ ]पाटना। कवि जी नायिका बनकर तथा अंग्रेजों का स्वाँग बनाकर अपनी रक्षा करना चाहते हैं। संपादक जी अपने आर्टिकिलबाजी की प्रशंसा में लगे हुए हैं। महाराष्ट्री सज्जन स्वदेशी वस्त्र पहिनना, कल आदि व्यवसाय बढ़ाना तथा सार्वजनिक संस्थाएँ स्थापित करना बतलाते हैं। देशी सभ्य कुछ नहीं बतला सकते, केवल अपना चापलूसी-प्रेम दिखलाते दूसरों की खिल्ली उड़ाते हैं पर विद्योन्नति, एकता, कला शिक्षण की ओर भी दृष्टि देते हैं। इसी समय डिसलायल्टी रूपी पुलीस आती है और सबको साथ लिवा जाती है।

छठे अंक में भारत-भाग्य आता है और प्राचीन गौरव तथा वर्तमान दुर्दशा का संक्षेप में परन्तु अत्यंत ओजपूर्ण भाषा में दिग्दर्शन कराता हुआ कहता है कि एक समय था कि यही भारत सारे संसार का केंद्र हो रहा था और इसकी समता करने की संसार के किसी देश में क्षमता नहीं था पर नहीं मालूम कि इसने विधि का क्या कसूर किया कि उसने रुष्ट होकर इसे मिट्टी में मिला दिया। यदि यह देश मिट भी जाता तो भी कुछ ताष होता पर नहीं यह परतंत्रता, ईर्ष्या-द्वेष आदि संसार के यावत् कलंको से लांछित होते हुए अभी मिटा नहीं। ऐसे निर्जीव शक्तिहीन देश का मिट जाना ही श्रेयस्कर है। भारत सागर को संबोधित कर कहता है कि---

घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सकल जल भीतर तुम लय॥
धोवहु भारत अपजस-पंका।
मेटहु भारत भूमि कलंका॥

[ १०७ ]अंत में भारत भाग्य आत्मघात कर लेता है।

'यह दुःखांत कर दिया गया है। इसमें अंत में नैराश्य का भाव उत्पन्न होता है पर होना चाहिए भारतोदय करने की दृढ़ता का भाव।' यह एक प्रसिद्ध विद्वान का कथन है पर नहीं कह सकता कि उन्होने देश-दशा पर कहाँ तक विचार किया है। इस रूपक को लिखे साठ वर्ष के ऊपर हो गए पर देश की दशा उस समय से कितनी ऊँची उठी है या कितने नीचे गिरी है कोई शांत हृदय से बैठकर सोचे तो सिवा नैराश्य के आशा की झलक नहीं दिखाई पड़ती। 'आशावादिहिं हरिअरै सूझै' पर फल कुछ नहीं। अपना दोष, अपनी कमी, अपनी कमजोरी पहिले देखना चाहिए। 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान' में पहिले किसकी रक्षा करनी है? 'शस्त्रेण रक्षितं राष्ट्र शास्त्रविद्याम् प्रयुज्यते' पर शस्त्र से रक्षा करेगा कौन? जब रक्षक हिंदू रह जायँगे तभी हिदी तथा हिन्दुस्थान भी रहेगा, नहीं ता इनमें से एक भी न रहेगा। मूल रहेगा तभी शाखा पल्लवित रहेगी। आज हिंदुत्व का कितना पतन हो रहा है, हिंदू बने रहते तथा अपने को हरिजन कहते हुए हिंदू ही अपने धर्मशास्त्र जला सकते हैं। अन्य धर्म ग्रहण कर लेने पर हिंदू जो न कर डालें वह अकथ्य है। एक मुसलमान या ईसाई अन्य धर्म ग्रहण कर लेने के बाद भी अपने पूर्व धर्म के मान्य ग्रंथों की अप्रतिष्ठा नहीं करेगा। हिंदू ही संसार भर में ऐसे मिलेंगे जो स्वधर्म से साधारण कारण से भी रुष्ट होकर उसके विरुद्ध सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं, हिंदू ही हैं जो हिंदू रहते हुए अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं बत- लाते हुए उस पर गर्व करते हैं और हिंदुओं ही में अभी प्रांतीयता [ १०८ ]की बदबू नहीं मिट पाई है। क्या ये आशावादी बतलाएँगे कि उस समय से अब तक कितने प्रतिशत हिंदू अधिक साक्षर हो गए हैं। हाँ, अवश्य इतने दिन में हिंदुओ ही की संख्या प्रतिशत घट गई है इसलिए कोरे हिसाब ही से साक्षर आप ही बढ़ गए होगे। ईश्वर न करे पर यदि इस दृष्टि-कोण से साक्षर बढ़े तो जहाँ तक न यह प्रतिशत गणना पहुँच जाय।

भारतेन्दु जी ने देश-काल-समाज के अनुसार साहित्य को प्राचीन रूढिगत विषयों में संकुचित न रखकर, नए नए क्षेत्र जोड़कर अधिक विस्तृत किया था। इन सभी नए पुराने क्षेत्रों में देश भक्ति के रंग ही का प्राधान्य था। राजभक्ति, लोक-हित, समाज-सेवा सभी में देशभक्ति व्याप्त थी वा यों कहा जाय कि इनकी देशभक्ति मूल थी तथा राजभक्ति, लोक-हित, मातृभाषा-हितचिंतन आदि उसी की शाखाएँ थीं। यही कारण है कि उनकी समग्र कृति में देश के प्रति उनका जो प्रेम था वह किसी न किसी रूप में स्पष्ट होता रहता है। भारत की कथा के तीन स्पष्ट विभाग है और इन तीनों की भारतेन्दु जी ने जो मार्मिक व्यंजना की है उसे पढकर सहृदयों के हृदय में अतीत के प्रति गर्व, वर्तमान के लिए क्षोभ और भविष्य के लिए मंगल-कामना एक के बाद दूसरी उठकर उन्हे उद्वेलित कर देती है।

किसी स्थान विशेष की दुर्दशा का वर्णन तभी किया जाता है जब वह पहिले बहुत ही समुन्नत अवस्था में रहा हो। भारत पहिले कितनी उन्नत अवस्था में था, इसका कवि ने बहुत उदात्त पूर्ण वर्णन किया है पर साथ ही ध्यान रहे कि वह सब कविता भारत की दुर्दशा देखकर कवि के दग्ध हृदय से निकली है। [ १०९ ]देखिए---'ये कृष्ण-वरन जब मधुर तान' इस पंक्ति का 'कृष्ण बरन' कितने अर्थों से गर्भित है और कैसा क्षोभ-पूर्ण है। ये काले हैं, ऐसा कहकर आज हमें घृणा की दृष्टि से देखते हो। पर इन्हीं कृष्णकाय पुरुषों के दिग्विजय से पृथ्वी किसी समय थर्रा उठती थी, कपिलदेव, बुद्ध आदि इसी वर्ण के थे और भास, कालिदास, माघ आदि कवि गण भी काले कलूटे थे। इन लोगों के विजय-यात्रा-वर्णन, उपदेश तथा काव्यामृत काले ही अक्षरों में लिखे जाते हैं, पर फल क्या? अाज---

हाय वहै भारत भुव भारी। सब ही विधि सों भयो दुखारी॥

भारत का स्वातंत्र्य-सूर्य पृथ्वीराज चौहान के साथ साथ अस्त हो गया और यह देश दूर देश से आए हुए यवनों से पादाक्रांत होकर परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ गया। जाति का वैरही जाति बन बैठा और कई शताब्दियों तक उनका प्रभुत्व जमा रहा। हिंदुओं ने स्वातंत्र्य के लिए घोर प्रयत्न किया और स्यात् वे उसमें सफल भी होते पर नई वाह्य शक्तियों ने आकर उनके उस प्रयास को विफल कर दिया और उसकी वही दशा ज्यो की त्यों बनी रह गई। स्वभावतः समान दुःख के साथी मिलने से दुःखी हृदय को कुछ धैर्य मिल जाता है। भारत ही के समान ग्रीस और रोम भी पहिले बहुत उन्नत थे, पर बाद को अर्वाचीनकाल में इनकी अवस्था बहुत खराब हो गई थी। इन दोनों ने पुनः उन्नति कर ली है पर भारत वैसा ही बना रह गया, जिससे उसे---

रोम ग्रीस पुनि निज बल पायो। सब बिधि भारत दुखी बनायो॥