भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/७–श्रीचंद्रावली

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७—चन्द्रावली नाटिका

सं॰ १९३३ वि॰ में चन्द्रावली नाटिका की रचना हुई। यह नाटिका अनन्य प्रेम रस से प्लावित है और भारतेन्दु जी की उत्कृष्ट रचनाओं में से है। आरम्भ में एक शुद्ध विष्कम्भक देकर श्री शुकदेव जी तथा नारद जी से परम भक्तों के वार्तालाप द्वारा ब्रजभूमि के अनन्य प्रेम का माहात्म्य दिखलाते हुए नाटिका आरम्भ की गई है। ये दोनों पात्र केवल 'कथाशानां निदर्शकः संक्षेपार्थः' लाए गए हैं और इनसे नाटिका के मुख्य कथा-वस्तु से कोई सम्बंध नहीं है। इसी से कवि ने इन दोनों के आने, जाने आदि का कुछ भी पता नहीं दिया है। इसमें वीणा पर उत्प्रेक्षाओं की एक माला ही पिरो डाली गई है। पहिले अंक में चन्द्रावली जी तथा ललिता सखी के कथोपकथन से उसका श्रीकृष्ण पर प्रेम प्रगट होता है। दूसरे अंक में श्री चन्द्रावली जी अपना विरह वर्णन कर रही हैं और उपवन में कई सखियों से वार्तालाप भी होता है। विरहोन्माद में प्रिय के अन्वेषणार्थ जो [ ७० ]प्रलाप कराया गया है, वह यदि अभिनय की दृष्टि से कुछ अधिक लम्बा कहा जाय तो कह सकते हैं, पर अस्वाभाविक रत्ती भर भी नहीं होने पाया है। कोई भी सहृदय उसे पढ़कर उकता नहीं सकता। तीसरे अंक का अंकावतार गुप्त पत्र भेजने का रहस्य बतलाता है। उसके अनन्तर कई सखियो के साथ चन्द्रावली जी आती हैं और वार्तालाप में कार्य साधन का उपाय निश्चित होता है। इसमें भी विरह-कातरा रमणी का कथन नीरसों के लिए आवश्यकता से अधिक हो गया है पर विरहिणी को आवश्यक अनावश्यक समझने की बुद्धि ही नहीं रह जाती। महाकवि कालिदास ने भी लिखा है कि 'कामार्ताहि प्रकृति कृपणाश्चेतना चेतेनेषु।'

इन अंकों में वर्षा-वर्णन आया है और उसका विरहिणी के हृदय पर जो असर पड़ेगा वह पूर्ण रूप से दिखलाया गया है। वहाँ इन प्राकृतिक दृश्यों को चंद्रावली के मानवी जीवन का अंग बनाकर दिखलाना मूर्खता मात्र होती। चौथे अंक में पहले श्रीकृष्ण जी योगिनी बनकर आते हैं और फिर ललिता तथा चंद्रावली जी आती हैं। अंत में युगल प्रेमियों का मिलन होता है। इसमें यमुना जी की शोभा का नौ छप्पयों में अच्छा वर्णन हुआ है। इसकी एक बात पर एक समालोचक लिखते हैं कि "एक विचित्र आदर्श भी उपस्थित कर दिया गया है। कहाँ तो चंद्रावली की माता उसका बाहर आना जाना बंद कर देती है और कहाँ योगिनी का वेष धारण किए हुए श्रीकृष्णचन्द्रजी के आने तथा अपना वास्तविक रूप प्रकट करने पर ठीक उसी समय माता का यह सन्देशा भी आ जाता है कि 'स्वामिनी ने [ ७१ ]आज्ञा दई है कि, प्यारे सो कही दै चन्द्रावली की कुंज में सुखेन पधारौ'। न जाने किस आदर्श को सामने रखकर इस नाटिका के पात्रों का चरित्र-चित्रण किया गया है।" धन्य है, बलिहारी है, इस समझ की, सत्य ही 'जो अधिकारी नहीं है। उनके समझ में न आवेगा।' हिन्दी-साहित्य की ब्रजभाषा की कविता का साधारण ज्ञाता भी यह जानता होगा कि ब्रजलीला की "स्वामिनी" श्री राधिका जी हैं। वहाँ किसी की माता, दादी या रानी स्वामिनी नहीं कहलाती थीं। ब्रज की गोपियों के लिए श्रीकृष्ण स्वामी तथा श्री राधा ही स्वामिनी थीं। चंद्रावली जी की माता अवश्य वृद्धा रही होगी और श्रीकृष्ण जी को 'प्यारे सों' शब्दो में सम्बोधित करना, जिसे वे स्यात् अपना दामाद बना रही थीं, कहीं अधिक विचित्र बतलाया जा सकता था, परन्तु समालोचक महोदय की दृष्टि उधर नहीं पड़ी, नहीं तो इसे भी अवश्य लिखते। जिसने यह सन्देश कहा था उसी की बात कुछ ही पंक्ति बाद आप पढ़ लेते तो इस शब्द से किससे प्रयोजन है, यह स्पष्ट हो जाता। वह कहती है 'तो मैं और स्वामिनी में कुछ भेद नहीं है, ताहू में तू रस की पोषक ठैरी।' और तीसरे अंक में दोनों को मिलाने का जो उपाय निर्धारित हुआ था उसमें प्रिया जी अर्थात् श्रीराधिका जी से आज्ञा प्राप्त करने की और 'याके घरकेन सों याकी सफाई करावै' की दो बातें तै हुई थीं। वही आज्ञा समय पर मिली, क्योंकि यदि यह आज्ञा पहिले ही मिली होती तो श्रीकृष्ण जी को योगिनी के छद्मवेश में आने की आवश्यकता न पड़ती।

इस नाटिका की कविताएँ विशेष रूप से हृदय-ग्राहिणी हैं। [ ७२ ]मार्मिक बातें ऐसी सरलता-पूर्वक कह दी गई हैं कि हृदय पर चोट करती हैं। भाषा अत्यंत मधुर और प्रौढ़ है। निस्पृह दैवी प्रेम का मनोमुग्धकारी उज्ज्वलतम सुन्दर जीता जागता चित्र खड़ा कर दिया गया है। क्यो न हो, यह सच्चे प्रेमी भक्त के निज हृदय का प्रतिबिम्ब है। इस नाटिका का संस्कृत अनुवाद सं० १९३५ की 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका तथा मोहन चन्द्रिका' में क्रमशः छपा है। यह अनुवाद पं० गोपाल शास्त्री ने किया था जो बहुत अच्छा हुआ है। भरतपूर के राव कृष्णदेवशरण सिंह ने इसका ब्रजभाषा में रूपान्तर किया है। भारतेन्दु जी इसका अभिनय कराया चाहते थे पर उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी।

विरह वर्णन

चन्द्रावली नाटिका का मुख्य रस विप्रलम्भ श्रृंगार है। इसलिए उसका कुछ वर्णन यहाँ दिया जाता है। भारतेन्दु जी का विरह-वर्णन पुरानी रूढ़ि के कवियो के वर्णन से कुछ भिन्न है। इनमें अतिशयोक्ति की कमी और स्वाभाविकता का आधिक्य है। यद्यपि पुराने कवियो ने कल्पनाओं की खूब उड़ान मारी है, बड़े बड़े बॉधनू बाँधे हैं, पर सभी में अनैसर्गिकता पद-पद पर साथ लगी चली आई है। हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही के कवियों ने विरह के ऐसे २ चित्र खींचे है जिन्हें जयपुर के चित्रकारों की बारीक से बारीक कलम की नज़ाकत भी नहीं दिखला सकती। उर्दू के दो उस्तादों की उस्तादी की बातें सुनिए और अॉखें मूँद कर ध्यान कीजिए, कुछ समझ में आता है---

इन्तहाए लागरी से जब नजर आया न मैं।
हँस के वह कहने लगे बिस्तर को झाड़ा चाहिए॥

[ ७३ ]उसके पास जाने वाली सखी झुलसने लगती है, गुलाब का कंटर सूख जाता है, सीसी पिघल जाती है, पिसा अरगजा सूखकर अबीर हो जाता है इत्यादि। अग्नि और बढ़ती है, गाँव का गॉव ही गर्मी से तड़फड़ाने लगता है, जाड़े में ग्रीष्म से बढ़कर तपन हो जाती है। अति हो गई! खसखाने में विरहिणी अपनी ही गर्मी से औटी जाती है! धन्य है, अतिशयोक्ति क्या नहीं कर सकती! चुहलबाज इंशा ने ऐसी ही विरहिणी के आह को भाड़ कहा है--

जो दानेहाय अंजुमे गुर्दां को डाले भून।
उस आह सोलाख़ेज़ को 'इंशा' तू भाड़ बॉध॥

विरहाग्नि से गॉव की नदी ऐसी खौल उठी कि समुद्र तक पहुँचकर उसने उसे गरम कर डाला और बड़वाग्नि को जलाने लगी। जायसी ने भी ऐसी ही विरह-विषयक अंट-संट बातें कही हैं। बिरही के लिखे पत्र के अक्षर अंगारे हो रहे थे, जिससे काग़ज़ के न जलते हुए भी उसे कोई छूता न था, तब सुग्गा उसे ले चला। अन्य स्थान पर कहते हैं कि विरह-कथा जिस पक्षी से वह कहता था उसके पक्ष सुनते ही जल जाते थे। मालूम होता है कि वह सुग्गा भी काग़ज़ की तरह किसी विरह-साबर मंत्र से सुरक्षित किया गया था।

इस प्रकार के ऊहात्मक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन में सत्य का लेश भी न होने से वे सार-हीन हो गए हैं, जिन्हें सुनने से विरही- विरहिणी के असीम दुःखो के अतिशयाधिक्य का अन्दाज़ा शायद कुछ लोगों को लगता हो पर श्रोतागण उससे समवेदना करने के बदले इन बातों की करामात में फँस जाते हैं और उनकी [ ७४ ]तीव्र वेदना से उत्पन्न तपन की जो नाप बतलायी जा रही है, उसी के गोरखधंधे में उलझ जाते हैं। तात्पर्य इतना ही है कि ऐसे वर्णन से श्रोता या पाठक की दृष्टि, विरही या विरहिणी पर न रहकर कवि की अत्युक्ति-पूर्ण असम्भाव्य बातों के घटाटोप में बन्द हो जाती है। यदि यही अत्युक्तियाँ सम्भाव्य हों, ऐसे वर्णनों का आधार सत्य और स्वाभाधिक हो तो पाठकों के हृदय में उनके चित्र तुरन्त खचित हो जायेंगे और विरही-विरहिणी के प्रति उनकी समवेदना तुरन्त आकृष्ट हो जायगी। आह रूपी नागिन ने उड़कर आकाश को काट लिया जिससे वह नीला हो गया, ऐसे वर्णन में आधार आकाश का नीला होना सत्य है, पर उसका जो कारण बतलाया गया है वह असत्य है। इस प्रकार के वर्णन में सत्य आधारों का विरह के कारण वैसा होना दिखलाने के लिए ऐसे हेतु का आरोपण किया जाता है, जिससे वैसा होना सम्भव हो। सर्प के दंशन से विष फैलने पर मनुष्य नीला हो जाता है, इसलिए आहरूपी सर्प के दंशन से अाकाश का नीला होना कहना अनौचित्य की सीमा तक नहीं पहुँचा। कल्पना की उड़ान इसमें भी ऊँची उड़ी है परन्तु फिर भी कुछ गाम्भीर्य है, कोरा मजाक नहीं।

विप्रलम्भ श्रृंगार के चार भेद होते हैं, पूर्वानुराग, मान, और करुण। समागम होने के पहिले केवल दर्शन, गुण-श्रवण आदि से प्रेम अंकुरित होने पर मिलन तक का विरह पूर्वानुराग के अंतर्गत है। प्रेमियों के एक दूसरे से कारणवश रुष्ट होने पर उत्पन्न वियोग मान कहलायेगा। जब दो में से एक कहीं विदेश चले जायँ तब प्रवास-विप्रलम्भ होता है। प्राचीन [ ७५ ]आचार्यों ने प्रेमियों में कितना अंतर पड़ने पर ऐसे वियोग को प्रवास विप्रलम्भ कहना चाहिए, इस पर विचार नहीं किया है, परन्तु एक आधुनिक आचार्य एक स्थान पर लिखते हैं कि 'वन में सीता का वियोग चारपाई पर करवटें बदलवाने वाला प्रेम नहीं है--चार कदम पर मथुरा गए हुए गोपाल के लिए गोपियों को बैठे बैठे रुलाने वाला वियोग नहीं है, झाड़ियों में थोड़ी देर के लिए छिपे हुए कृष्ण के निमित्त राधा की आँखों से आँसुओं की नदी बहाने वाला वियोग नहीं है, यह राम को निर्जन बनो और पहाड़ों में घुमानेवाला, सेना एकत्र कराने वाला, पृथ्वी का भार उतरवाने वाला वियोग है इस वियोग की गम्भीरता के सामने सूरदास द्वारा अंकित वियोग अतिशयोक्ति-पूर्ण होने पर भी बालक्रीड़ा सा लगता है।' इस उद्धरण में पहिले यही नहीं पता लगता कि श्रीरामचन्द्र से सबल पुरुष को राधा-गोपी आदि अबलाओ से समता क्यों की गई है! क्या ये अबलाएँ रणचंडी बनकर मथुरा या लाखो 'चार कदम' दूर द्वारिका पर चढ़ जातीं और कृष्ण को पकड़ लातीं! मान-विरह तो चार कदम क्या एक कदम की दूरी न रहने पर भी हो सकता है। जब रावण के समान कोई नृशंस पुरुष किसी की प्रणयिनी उड़ा ले जाय तभी तो वह विरही होते हुए भी वीर पुरुष के समान उससे अपने प्रणयिनी को छीन लाने का प्रयत्न करेगा। परन्तु जब दोनों प्रेमी वन्य प्रदेश में घूमते-फिरते किसी प्रकार एक दूसरे से कुछ मान होने के कारण छूट गए उस समय, प्रेमी चाहे झाड़ी में छिपा हुअा तमाशा ही देख रहा हो, प्रणयिनी अबला अवश्य ही मान, रोष, विरह दुःख आदि के कारण रो [ ७६ ]बैठेगी। इसमें रत्ती भर भी अस्वाभाविकता नहीं है। कुछ समालोचक जब एक कवि की आलोचना करते रहते हैं तो अन्य कवियो पर कुछ फबतियाँ कसते जाते हैं। यह एक प्रथा-सी हो गई है।

करुण-विप्रलम्भ नायक तथा नायिका दो में से एक के मरण- पश्चात् दूसरे के शोक को कहा जा सकता है परन्तु उसी अवस्था तक जब तक इस बात की आशा होती है कि वह पुनः जीवित हो उठेंगे। सत्यवान की मृत्यु पर सावित्री का रुदन इसी प्रकार का है क्योकि उसे दृढ़ आशा थी कि उसका पति पुनः जी उठेगा। यदि जी उठने की आशा ही न रहे तो करुण-विप्रलम्भ न रहकर करुण रस हो जायगा।

श्री 'चन्द्रावली नाटिका' हिन्दी-साहित्य की एक अमूल्य निधि है और इसकी सभी विशेषता एक मात्र 'प्रेम' शब्द में भरी पड़ी है। इसका विरह-वर्णन इतना स्वाभाधिक, इतना हृदय ग्राही और समवेदना-उत्पादक है कि इसको पाठक या श्रोता-गण पढ़-सुनकर तन्मय हो जाते हैं। समस्त नाटिका में श्रृंगार-रस का वियोग पक्ष ही प्रधान है, केवल अंत में मिलन होता है। 'प्रेमियो के मंडल को पवित्र करने वाली' चन्द्रावली में श्रीकृष्ण की बाल सुलभ चपलता, सौंदर्य तथा गुण सुनने से पूर्वानुराग उत्पन्न होता है। आस-पास के गाँव में रहने से देखा-देखी भी होती है और यह सब व्यापार प्रेम रूप में परिणत हो जाता है। 'वह सुन्दर रूप विलोकि सखी मन हाथ ते मेरे भग्यो सो भग्यो।' इस प्रकार प्रेम का आधिक्य हो जाने पर उसे छिपाना कठिन हो जाता है। सखियाँ प्रश्न करती हैं; हठ [ ७७ ]करती हैं, तब बतलाना पड़ता है। विरह-कष्ट विशेष रूप से प्रकट न होने से जब शंका होती है तब उत्तर मिलता है---

मन मोहन 'तें बिछुरी जब सों,
तन आँसुन सों सदा धोवती हैं।
'हरिचंद जू' प्रेम के फंद परीं,
कुल की कुल लाजहिं खोवती हैं॥
दुख के दिन को कोऊ भाँति बितै,
विरहागम रैन सँजोवती हैं।
हमही अपुनी दशा जानै सखी,
निसि सोवति हैं किधौं रोवती हैं॥

सत्य ही दूसरे का दुख कौन समझ सकता है। कष्ट के दिन तो किसी प्रकार बीत भी जाते हैं पर रात्रि कैसे व्यतीत होती है, यह दुखिया ही समझ सकता है। इस पद का पूर्वानुराग नीली राग ही कहलायेगा, यद्यपि आगे चलकर चंद्रावली जी का यह अनुराग मंजिष्ठा राग में परिवर्तित हो गया है। किस प्रकार यह अनुराग बढ़ा है, इसके कथन के साथ साथ निम्नलिखित पद में विरह की तीन दशाएँ---अभिलाषा, चिंता तथा स्मृति भी लक्षित हो रही हैं।

पहिले मुसुकाइ लजाइ कछु,
क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो।
पुनि नैन लगाइ बढ़ाइ कै प्रीति,
निबाहन को क्यौं कलाम कियो॥
'हरिचंद' भए निरमोही इते,
निज नेह को यों परिनाम कियो।

[ ७८ ]

मन मॉहि जो तोरन ही की हुती,
अपनाइ के क्यो बदनाम कियो॥

विरह से उद्वेग बढ़ा, उन्माद के लक्षण दिखलाई पड़ने लगे और जड़ तथा चेतन का भेद न रह गया। 'राजा चन्द्रभानु की बेटी चंद्रावली' पक्षियों पर बिगड़ उठती है, कहती है---"क्यों रे मोर! इस समय नहीं बोलते? नहीं तो रात को बोल-बोल के प्राण खाए जाते थे। कहो वह कहाँ छिपा है?

अहो अहो बन के रूख कहूँ देख्यौ पिय प्यारो।
मेरो हाथ छुड़ाइ कहौ वह कितै सिधारो॥
अहो कदंब अहो अंब-निंब अहो बकुल तमाला।
तुम देख्यौ कहुँ मनमोहन सुंदर नँदलाला॥
अहो कुंज-बनलता बिरछ तृन पूछत तोसों।
तुम देखे कहुँ श्याम मनोहर कहहु न मोसों॥
अहो जमुन अहो खग मृग हो अहो गोबरधनगिरि।
तुम देखे कहुँ प्रान-पियारे मनमोहन हरि॥

कैसी उन्मत्त दशा है, ये पेड़ पक्षी भी अपने साथ सहानुभूति दिखलाते हुए ज्ञात होते हैं पर बेचारो का कुछ वश चलता नहीं। विरहिणी उनसे बड़े दुलार के साथ, आदर के साथ पूछती है पर वे निरुत्तर है। उन्मादिनी के कान में किसी ने वर्षा का शब्द पहुँचा दिया। बस, वह अपने घनस्याम आनंदघन का स्वप्न देखने लगी। वह कहती है---

बलि सॉवरी सूरत मोहिनी मूरत,
आँखिन को कबौं आइ दिखाइये।

[ ७९ ]

चातक सी मरै प्यासी परी,
इन्हें पानिप रूप-सुधा कबौं प्याइये॥
पीत परै बिजुरी से कबौं,
'हरिचंद जू' धाइ इतै चमकाइये।
इतहू कबौं आइकै अानंद के घन,
नेह को मेह पिया बरसाइये॥

सच्चे प्रेमी चातक-स्वरूप हैं, उनकी प्यास, हृदय-तृष्णा, उन्हीं के प्रेम-पात्र के मिलने से तृप्त होती है, उससे हज़ार गुना बढ़कर सौंदर्यादि गुणों से युक्ता पात्र को देखने से नहीं होती। ऐसी विरहिणी को दिन होता है तो शोक, संध्या होती है तब भी शोक। चन्द्र की सुधामयी किरणो तथा सूर्य की उत्तप्त रश्मियाँ उनके लिए समान हैं। चन्द्रोदय होने पर पहले उसमें वह अपने प्रिय 'गोप-कुल-कुमुद-निसाकर उदैभयो' मानती हैं और जब वह भ्रांति मिटती है, तब उसे सूर्य समझ कहती हैं---

निसि आजहूँ की गई हाय बिहाय
पिया-बिनु कैसे न जीव गयो।
हतभागिनि आँखिन कों नित के,
दुख देखिबे कों फिर भोर भयो॥

जब चंद्रमा बादल के आ-जाने से छिप जाता है, तब एकाएक उसे रात्रि का पता चलता है। वह घबराकर कहती है---"प्यारे देखो, जो जो तुम्हारे मिलने में सुहावने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गए। हा! जो बन आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था, वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है। देखो सब कुछ है एक तुम्ही नहीं हो। प्यारे! छोड़ के कहाँ [ ८० ]चले गए? नाथ! आँखें बहुत प्यासी हो रही हैं, इनको रूप-सुधा कब पिलाओगे?"

विरह-दशा में यदि सहायक मिल जाय तो अवश्य ही विरह-कष्ट कुछ कम हो जाता है, आशा बड़ी बलवती होती है, पर इस दशा में निरवलम्बता ही अधिक मालूम होती है और इसी से यह कष्टकर होती है। विरहिणी कहती है---"अरे मेरे नित के साथियो, कुछ तो सहाय करो।"

अरे पौन सुख-भौन सबै थल गौन तुम्हारो।
क्यौं न कहौ राधिका-रौन सों मौन निवारो॥
अरे भँवर तुम श्याम रंग मोहन-व्रत-धारी।
क्यों न कहौ वा निठुर श्याम सों दसा हमारी॥
अरे हंस तुम राजवंश सरवर की शोभा।
क्यो न कहो मेरे मानस सों या दुख के गोभा॥

विरह में सुखद वस्तु भी दुःखद प्रतीत होती है। श्यामघन को देख घनश्याम की, इन्द्रधनुष तथा बगमाल देखकर श्रीकृष्ण के बनमाला और मोतीमाला की, मोर पिक आदि के शब्द सुनकर वंशीनाद करने वाले की छबि की और---

देखि देखि दामिनि की दुगुन दमक,
पीतपट छोर मेरे हिय फहरि-फहरि उठै।

यह दुःख अनुपम है। और सब दुःख दवा करने, सांत्वना देने, धैर्य धरने से कुछ कम ज्ञात होते है पर यह इन सबसे और बढ़ता है। एक ऐसी ही विरहिणी का वर्णन कितना स्वाभाविक


भा० ना० भू०---६
[ ८१ ]हुआ है कि सुनने वाले का मन बरबस उससे सहानुभूति-पूर्ण

होकर उमड़ पड़ता है---

छरी सी छकी सी जड़ भई सी जकी सी घर,
हारी सी बिकी सी सो तो सबही घरी रहै।
बोले ते न बोले दूग खोलै ना हिंडोलै बैठि,
एक टक देखै सो खिलोना-सी धरी रहै॥
'हरीचंद' औरौ घबरात समुझाएँ हाय,
हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै।
याद आए सखिन रोवावै दुख कहि-कहि,
तौ लौं सुख पावै जौ लौं मुरछि परी रहै॥

वह तभी तक कुछ अाराम पाती है जब तक अपने होश में नहीं रहती। यही जड़ता नवीं काम दशा है। विरही-विरहिणी प्रायः अपना दुःख दूसरे स्त्री पुरुष से नहीं कहते और कहते भी हैं तो जड़ पदार्थों से कहकर अपने जी का बोझ हलका करते हैं। वे ऐसा क्यों करते है, यह कवि ने एक पद में इस प्रकार कहलाया है---

मन की कासों परि सुनाऊँ।
बकनो वृथा और पत खोनी सबै चबाई गाऊँ॥
कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै धरिहै उलटो नाऊँ,
यह तो जो जानै सोइ जानै क्यो करि प्रकट जनाऊँ॥
रोम-रोम प्रति नैन श्रवण मन केहि धुनि रूप लखाऊँ।
बिना सुजान-शिरोमनि री केहि हियरोकादि दिखाऊँ।
मरमिन सखिन वियोग दुखिन क्यों कहि निज दसा राआऊँ।
हरीचंद पिय मिले तो पग परि गहि पटुका समझाऊँ॥