भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/२. हिंदी-नाटक

[ भूमिका ]

२—हिंदी नाटक

संस्कृत नाटकों का जो इतिहास ऊपर लिखा गया है उससे ज्ञात होता है कि यह सिलसिला मुसल्मानी आक्रमणो के आरंभ होने पर प्रायः बंद सा हो गया। यद्यपि मुगल राजत्वकाल के रचित कुछ नाटक मिलते हैं और प्रायः वर्तमानकाल में एकाध अच्छे नाटक लिखे भी गए हैं पर वास्तव में वह शृंखला उसी समय से बंद ही सी है। नाटकों के लिए बोलचाल ही की भाषा अधिक उपयुक्त होती है और यही कारण है कि यह नाटक-शृंखला संस्कृत से ब्रजभाषा, अवधी आदि में होती हुई वर्तमान खड़ी बोली तक नहीं चली आई है। बीच के काल में परंपरा की काव्य भाषा ही का जोर अधिक था और अच्छे साहित्य-सेवी [ हिन्दी-नाटक ]खड़ी बोली की ओर झुके नहीं थे, इसी से नाटकों की रचना नहीं हो सकी।

सं॰ १६८० वि॰ में संस्कृत हनुमन्नाटक का भाषानुवाद कृष्णदास के पुत्र हृदयराम ने समाप्त किया था। हिंदी में नाटक शब्द-संयुक्त यही पुस्तक सबसे प्राचीन ज्ञात होती है। इसके अनंतर सुकवि नेवाज कृत शकुंतला नाटक मिलता है, जो फर्रुखसियर के समय में सं॰ १७८० वि॰ के लगभग तैयार हुआ था। इसके अनंतर सुप्रसिद्ध कवि देवकृत देवमाया प्रपंच नाटक बना। सं॰ १८१६ में ब्रजवासीदास ने प्रबोध चंद्रोदय-नाटक का भाषानुवाद किया। ये सब केवल इसीलिए नाटक कहे जाते हैं कि इनके नाम के साथ नाटक शब्द जुड़ा हुआ है। वास्तव में ये काव्य ही है। वेदांत विषयक भाषा ग्रंथ समयसार नामक एक इसी कोटि के नाटक का भारतेन्दु जी ने उल्लेख किया है। रीवाँ-नरेश महाराज विश्वनाथसिंह कृत आनंद रघुनंदन नाटक, काशिराज की आज्ञा से निर्मित प्रभावती नाटक तथा उसी राजवंश के आश्रित गणेश कवि कृत प्रद्युम्न-विजय नाटक यद्यपि नाटक रीति से बने हैं, पर ये भी छंदमय ग्रंथ हैं। भारतेन्दु जी के पिता महाकवि गिरधरदास जी कृत नहुष नाटक का जो प्रथमांक प्राप्त है; उसको देखने से ज्ञात होता है कि यह नाटक की सम्यक् रीति से बना है तथा गद्य-पद्य मिश्रित है। संस्कृत नाटकों की प्रथा पर इसमें भी कविता की प्रचुरता है और यह ब्रजभाषा ही में लिखा हुआ है। इस कारण यह खड़ी बोली हिंदी का प्रथम नाटक नहीं कहला सकता। इसके आगे ब्रजभाषा में नाटक नहीं लिखे गए और खड़ी बोली ही को इसके लिए उपयुक्त समझा गया। हाँ, नाटकों [ हिन्दी ]में जो कविता दी जाती थी, उसके लिए ब्रजभाषा का प्रयोग कुछ दिनों तक होता रहा था।

राजा लक्ष्मणसिंह का शकुंतला का गद्यानुवाद सन् १८६३ ई॰ में पहिली बार छपा, जिसके प्रायः पच्चीस वर्ष बाद उसका गद्य-पद्य-मय संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ था। यह अनुवाद बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। इसके अनंतर भारतेन्दु जी के नाटकों ही से खड़ी बोली हिंदी में नाटक-रचना का आरंभ होता है। इन्होने मौलिक नाटकों के सिवा कई नाटकों का अनुवाद भी किया था और कुछ दूसरे नाटकों के आधार पर लिखे थे। चंद्रावली, अंधेरनगरी, प्रेमयोगिनी (अधूरा), विषस्य विषमौधम्, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, भारतदुर्दशा, नीलदेवी और सती प्रताप (अपूर्ण) इनके मौलिक नाटक हैं। विद्यासुंदर तथा सत्यहरिश्चन्द्र अनुवाद नहीं है पर वे अन्य नाटकों के आधार पर लिखे गए हैं। मुद्राराक्षस, कर्पूरमंजरी, धनंजय विजय तथा पाखंड विडंबन संस्कृत से अनूदित हुए हैं और दुर्लभबंधु अंग्रेजी से। ये सभी नाटक भाषा, भाव, नाट्यकला आदि सभी दृष्टि से अच्छे बन पड़े हैं। इनमें कई सफलतापूर्वक खेले भी जा चुके हैं। भारत-जननी इनका एक अनूदित नाटक है। इनके नाटकों के विषय में अलग विस्तार से लिखा गया है।

भारतेन्दुजी की इस नाटक-रचना में उनके कई मित्रों तथा समकालीन सज्जनों ने सहयोग किया है। लाला श्री निवासदास ने प्रह्लाद, रणधीर-प्रेममोहिनी, संयोगता स्वयंवर तथा तप्ता संवरण, पं॰ बद्री नारायण चौधरी 'प्रेमधन' ने भारत सौभाग्य, वारांगना रहस्य, प्रयाग रामागमन तथा वृद्ध विलाप; पं॰ [ हिन्दी-नाटक ]मथुराप्रसाद चौधरी ने साहसेंद्र-साहस (मैकबेथ का अनुवाद); पं॰ प्रतापनारायण मिश्र ने कलिकौतुक रूपक, कलिप्रभाव, हठी हमीर तथा जुवारी खुवारी; राव कृष्णदेव शरणसिंह 'गोप' ने माधुरी; बा॰ तोताराम ने केटाकृतांत; पं॰ केशवराम भट्ट ने उर्दू मिश्रित शमशाद सौसन तथा सज्जाद सुंबुल; पं॰ अम्बिकादत्त व्यास ने ललिता नाटिका, गोसंकट, देवपुरुष-दृश्य, मरहट्ठा तथा भारत सौभाग्य; अमनसिंह गोटिया ने मदनमंजरी और बा॰ राधाकृष्णदास ने दुःखिनी बाला, पद्मावती तथा प्रताप नाटक लिखे। पं॰ बालकृष्ण भट्ट ने पद्मावती, शर्मिष्ठा तथा चंद्रसेन लिखा। पं॰ देवकी नंदन त्रिपाठी ने जयनारसिंह की, होली खगेश, चक्षुदान, कलियुगी विवाह, जनेऊ आदि प्रहसन लिखे। शीतलाप्रसाद त्रिपाठी ने जानकी मंगल तथा बा॰ बालेश्वर प्रसाद ने वेनिस का सौदागर लिखा।

भारतेन्दुजी की मृत्यु पर यह नाटक-रचना की परंपरा कुछ रुक रुक कर चलती रही। बंगला से अनुवाद करने की प्रथा निकली। बा॰ राम कृष्ण वर्मा ने कृष्ण कुमारी, पद्मावती तथा वीर नारी नाटको का; बा॰ उदितनारायण लाल वकील ने सती नाटक तथा अश्रुमती का और पं॰ ब्रजनाथ ने 'एई की सभ्यता' का अनुवाद प्रकाशित कराया। पं॰ रविदत्त शुक्ल ने देवाक्षर चरित, पं॰ कमलाचरण मिश्र ने अद्भुत नाटक, कामभस्म नाटक आदि, देवीप्रसाद शर्मा ने बालविवाह, पं॰ अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने रुक्मिणी-परिणय नाटक, बा॰ ठाकुरदयाल सिंह ने मृच्छकटिक तथा मर्चेंट आव वेनिस के अनुवाद किए। मझौली नरेश खड्ग बहादुर मल्ल ने रसकुसुमायुध, [ हिन्दी-नाटक ]कल्पवृत्त, महारास, भारत आरत, भारत ललना तथा हरितालिका नाटक लिखा था। पं॰ गदाधर भट्ट मालवीय ने मृच्छकटिक तथा वेणी संहार का अनुवाद किया। इन्होने मुद्राराक्षस का भी अनुवाद किया था पर भारतेन्दु जी के अनुवाद को सुनकर उसे यह कह कर प्रकाशित नहीं कराया कि अब इसकी आवश्यकता नहीं है। पं॰ राधाचरण गोस्वामी ने सती चंद्रावली तथा श्रीदामा छोटे छोटे नाटक लिखे। पं॰ दामोदर शास्त्री ने रामलीला सातोकांड, बालखेल या ध्रुवचरित, राधामाधव तथा वेणी संहार लिखे। बा॰ कार्तिक प्रसाद ने ऊषाहरण नाटक लिखा था। बा॰ गोपालराम गहमरी ने बभ्रुवाहन देश दशा, विद्याविनोद और चित्रांगदा का अनुवाद प्रकाशित किया। पं॰ किशोरी लाल गोस्वामी ने चौपट चपेट, नाट्यसम्भव, वर्षा की बहार तथा मयंकमंजरी महानाटक लिख डाला। पुरोहित गोपीनाथ ने शेक्सपिअर के तीन नाटको का अनुवाद प्रेमलीला, वेनिस का व्यापारी और मनभावन नाम से छपवाया। किसी 'आर्या' नाम्नी लेखिका ने भी मर्चेंट आव वेनिस का अनुवाद किया था। सन् १९०० ई॰ के पहिले ही से लाला सीताराम बी॰ ए॰ 'भूप' ने संस्कृत के नाटकों तथा काव्यों के अनुवाद में हाथ लगा दिया था और अब तक नागानंद, मृच्छकटिक, महावीर चरित, उत्तर रामचरित, मालती माधव, मालविकाग्निमित्र आदि का अनुवाद कर चुके हैं। रायदेवीप्रसाद पूर्ण का चंद्रकलाभानुकुमार मौलिक नाटक है पर अभिनय की दृष्टि से बहुत बड़ा है।

बीसवीं शताब्दि के साथ साथ द्विजेन्द्रलालराय के बंगभाषा [ हिन्दी-नाटक ]नाटकों का अनुवाद आरंभ हुआ है, जिससे केवल गद्य-मय नाटक लिखने की प्रथा चल निकली। पद्य के लिए दो चार गाने इतस्ततः दे दिए जाते थे। सामाजिक चित्रण अधिक होने लगा। बा॰ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटक भी अनूदित हुए। बा॰ गिरीशचंद्र घोष, क्षीरोदबाबू, बा॰ शिशिर कुमार घोष आदि अन्य प्रसिद्ध नाटककारों के भी कुछ नाटको का अनुवाद हुआ। ऐसे अनुवादकों में पं॰ रूपनारायण पाण्डेय का नाम उल्लेखनीय है। सं॰ १९७० वि॰ में उत्तररामचरित का अनुवाद पं॰ सत्यनारायण कविरत्न ने प्रकाशित कराया और उसके तीन वर्ष बाद बा॰ कृष्णचंद्र जी का इसी का अनुवाद प्रकाशित हुआ। कविरत्न जी का मालतीमाधव का अनुवाद भी इसी समय निकला। ये अनुवाद बहुत अच्छे हुए हैं। सुप्रसिद्ध संस्कृत नाटककार भास के तेरह नाटक हाल ही में प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एकाध के कई अनुवाद निकल चुके हैं। बा॰ ब्रजजीवनदास इन समग्र नाटको का गद्य-पद्य मय अनुवाद कर रहे हैं, जिनमें तीन पंचरात्रि, मध्यम व्यायोग तथा प्रतिज्ञा यौगंधरायण के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।

वर्तमान मौलिक नाटककारों में बा॰ जयशंकर प्रसाद जी का नाम पहिले लिया जाता है। अजातशत्रु, जन्मेजय का नाग यज्ञ, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि ऐतिहासिक नाटक उल्लेखनीय हैं। इनमें तत्कालीन समाज के चित्र देने का अच्छा प्रयास है। इन नाटकों की भाषा कुछ अधिक गंभीर तथा क्लिष्ट हो गई है। पं॰ गोविंदवल्लभपंत की वरमाला, पं॰ बद्रीनाथ भट्ट की दुर्गावती आदि अच्छे नाटक हैं।