भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/३—नाटककार-परिचय

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३—नाटककार-परिचय

हिंदी के सुप्रसिद्ध महाकवि बाबू गोपालचंद्र, उपनाम बाबू गिरधरदास जी के पुत्र आधुनिक हिंदी के जन्मदाता गोलोकवासी भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने निज 'उत्तरार्ध-भक्तमाल' में अपने वंश का परिचय निम्नलिखित दोहों में दिया है—

पूर्वजगण

वैश्य अग्र-कुल मैं प्रगट बालकृष्ण कुलपाल।
ता सुत गिरधर-चरन-रत वर गिरिधारी लाल॥
अमीचंद तिनके तनय फतेचंद ता नंद।
हरषचंद जिनके भये निज-कुल-सागर चंद॥
तिनके सुत गोपाल ससि, प्रगटित गिरधरदास।
कठिन करम गति मेटि जिन, कीना भक्ति प्रकास॥
पारवती की कोख सों, तिनसो प्रगट अमंद।
गोकुलचंद्राग्रज भयो भक्त-दास हरिचंद॥

पूर्वोक्त उद्धरण से यह ज्ञात हो जाता है कि इनके पूर्वजों में राय बालकृष्ण तक का ही ठीक-ठीक पता चलता है। सेठ बालकृष्ण के पूर्वजों का दिल्ली के मुगल-सम्राट-वंश से विशेष सम्बन्ध था; पर उस शाही घराने के इतिहासो में इस वंश का कोई उल्लेख मुझे अभीतक नहीं मिला। जिस समय शाहजहाँ का द्वितीय पुत्र सुल्तान शुजाअ बंगाल का सूबेदार नियुक्त होकर राजमहल आया था उस समय इनका वंश भी उसी के साथ बंगाल चला आया। जब बंगाल के नवाबों की राजधानी राजमहल से उठ के मुर्शिदाबाद को चली गई तब यह वंश भी [ २३ ]मुर्शिदाबाद में आ बसा। इन दोनों स्थानों में इनके पूर्वजों के विशाल महलों के खण्डहर अब तक वर्तमान हैं।

मुर्शिदाबाद में इस वंश की कई पीढ़ियो ने बड़े सुख से दिन व्यतीत किए थे। सेठ बालकृष्ण के पौत्र तथा गिरधारी लाल के पुत्र सेठ अमीनचंद के समय में बंगाल में अँग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो सेठ अमीनचंदगया था और उस प्रांत में उनका राजत्वकाल प्रारम्भ हो चुका था, यह भी अँग्रेजों के एक प्रधान सहायक थे और लगभग चालीस वर्ष से कलकत्ते में व्यापार कर रहे थे। आरम्भ में निज व्यापार को फैलाने में, अँग्रेजों ने इनसे बहुत सहायता ली थी, पर उसके जमजाने पर उन्होने इन पर दोष लगा कर इन्हें अलग कर दिया। इसी समय बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ते पर चढ़ाई कर उसे लूट लिया और अमीनचंद का भी चार लाख रुपया नकद और सामान लुट गया। इनके घर द्वार जला दिए गए और इनके परिवार की कई स्त्रियाँ और पुरुष जल कर मर गए। अँग्रेजो ने अन्य प्रांतो से सहायता प्राप्त कर पलासी के युद्ध में नवाब को परास्त कर गद्दी से उतार दिया और उनके स्थान पर मीरजाफर को बैठाया। इस षड्यंत्र में अमीनचंद भी सम्मिलित थे पर उसके सफल होने पर पुरस्कार बाँटने के समय इनका नाम तक न लिया गया, जिससे इन्हे इतना क्षोभ हुआ कि इस घटना के डेढ़ ही वर्ष के उपरान्त उनकी मृत्यु हो गई।

सेठ अमीनचंद के पुत्र फतेहचंद जी इस घटना से अत्यंत विरक्त होकर सं॰ १८१६ के लगभग काशी चले आए। काशी [ २४ ]फतेहचंदके प्रसिद्ध नगर सेठ बा॰ गोकुलचंद जी की कन्या से आपका विवाह हुआ। उनके कोई अन्य सन्तान न थी इससे यही उनके उत्तराधिकारी हुए। तत्कालीन सरकार में भी आपका बहुत सम्मान था। 'दवामी बंदोबस्त' के समय इन्होंने डंकन साहब की बहुत सहायता की थी, जिसके लिए उन्होंने इन्हें धन्यवाद दिया था। इनके बड़े भाई राय रत्नचंद बहादुर भी इनके आने के बाद काशी चले आए और राजसी-ठाट के साथ रामकटोरे वाले बाग में रहने लगे। इनके पुत्र रामचंद तथा पौत्र गोपीचंद की मृत्यु इन्हीं के सामने हो गई थी इससे फतेहचंद के पुत्र बाबू हर्षचंद्र ही इनके भी उत्तराधिकारी हुए। फतेहचंद की मृत्यु सम्वत् १८६७ के लगभग हुई।

बाबू हर्षचन्द्र काशी में काले हर्षचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध थे और इनका जनता तथा सरकार में बड़ा मान था। सं॰ १८६८ में पंसेरी के लिए जब गड़बड़ हुई थी तब बनारस के गबिन्स साहब ने इन्हें सरपंच और हर्षचंद्रबाबू जानकीदास तथा बाबू हरीदास को पंच माना था। काशी का बुढ़वा मंगल मेला बहुत प्रसिद्ध है। इसका आरम्भ भी इन्होंने ही किया था। पहले लोग वर्ष के अन्तिम मंगल को नाव से दुर्गा जी का दर्शन करने अस्सी तक जाते थे। बाद को इन नावों पर नाच होने लगा। तब काशीराज ने बा॰ हर्षचन्द के परामर्श से बुढ़वा मंगल को वर्तमान रूप दिया। यह काशी-नरेश के महाजन थे और इनका उस दरबार में बहुत सम्मान था। [ २५ ]बिरादरी में भी इनका इतना मान था कि अनेक धनाढ्यों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियो के रहते हुए भी यह बिरादरी के चौधरी बनाये गए थे। यह स्वामी गिरधर जी के शिष्य थे। जिस समय श्री गिरधरजी मुकंदराय को काशी लाए उस समय बरात आदि का सब प्रबंध इन्हीं ने किया था। इन्होंने अपने घर में भी श्री मदनमोहन जी की सेवा पधराई और इस मनोहर युगल मूर्ति की सेवा इस वंश में बड़े प्रेम से अब तक होती आ रही है। इनके कन्याएँ हुई थीं पर पुत्र एक भी नहीं हुआ। अवस्था भी अधिक हो चली थी। एक दिन यह श्री गिरधर जी के पास उदास मुख बैठे हुए थे। इनकी उदासी का कारण पूछने पर लोगो ने वही कारण बतला दिया। महाराज ने कहा कि—तुम जी छोटा मत करो। इसी वर्ष पुत्र होगा।" उसी वर्ष पौष कृष्ण १५ सं॰ १८९० को महाकवि गोपालचन्द्र का जन्म हुआ। श्री गिरधर जी की कृपा से जन्मलेने के कारण इन्होने कविता में अपना उपनाम गिरधरदास रखा। हर्षचन्द्र जी सं॰ १९०१ में परलोक सिधारे।

पिता की मृत्यु के समय गोपालचंद जी की अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इन्होने दो वर्ष बाद कुल प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। इनका विवाह दिल्ली के शाहजादों के दीवान राय खिरोधर लाल की कन्या पार्वती गोपालचंद उपनाम गिरधरदास देवी से संवत् १९०० में हुआ था। इस विवाह से इनके चार संताने हुई—मुकुंदी बीबी, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, गोकुलचंद और गोविन्दी बीबी। प्रथम स्त्री की मृत्यु हो जाने पर इनका दूसरा विवाह सं॰ १९१४ में बाबू रामनारायण [ २६ ]की कन्या मोहन बीबी से हुआ। यद्यपि इनसे दो संतानें हुई पर दोनो ही बहुत थोड़ी अवस्था में मर गई।

यद्यपि इनकी शिक्षा विशेष रूप से नहीं हुई थी परन्तु प्रतिभा पूर्ण होने से ये संस्कृत तथा हिन्दी के ऐसे कवि तथा विद्वान हुए, कि बड़े बड़े पंडित भी इनका सम्मान करते थे। इनका चरित्र अत्यंत निर्मल था यहाँ तक कि गबिन्स साहब इन्हें 'परकटा फरिश्ता' कहते थे। विद्याध्ययन तथा पुस्तक संचयन की इन्हें बड़ी रुचि थी। इनका बृहत सरस्वती भवन अलभ्य तथा अमूल्य ग्रंथों का भंडार था। कवियों का यह बहुत आदर करते थे। इनके सभासदो में पंडित ईश्वरदास जी ईश्वर कवि, गोस्वामी दीनदयालगिरि, पंडित लक्ष्मीशंकरदास जी व्यास आदि प्रसिद्ध थे। साधु महात्माओ से भी इनको बड़ा प्रेम था। राधिकादास, रामकिंकरदास जी, तुलाराम जी और भगवानदास जी उस समय के प्रसिद्ध महात्मा थे। इनसे वह

भगवत् सम्बन्धी चर्चा किया करते थे। इन्हें बचपन से ही भांग का दुर्व्यसन लग गया था और इतनी गाढ़ी भाँग पीते थे, कि जिसमें सींक खड़ी हो जाती थी। अंत में इसी कारण इन्हें जलोदर रोग हो गया जिससे अनेक प्रकार की चिकित्सा होने पर भी कुछ फल न निकला और अंत में सम्वत् १९१७ की वैशाख सु० ७ को गोलोक सिधारे। पूज्यपाद भारतेन्दु जी के दोहो से इतना पता लगता है कि इन्होने चालीस ग्रंथ लिखे थे परन्तु उन सब के नाम या अस्तित्व का पता नहीं चलता। दोहा यो है--[ २७ ]

जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस।
ता सुत श्री हरिचंद को, को न नवावे सीस॥

इसमें से प्रायः बीस रचनाएँ मिल गई हैं, जिनका विवरण देने के लिए एक अलग लेख की आवश्यकता होगी।

पुण्यतोया भागीरथी के तट पर स्थित पवित्र पुरी काशी में भाद्रपद शुक्ल ऋषि पंचमी सं॰ १९०७ (९ सितम्बर १८५० ई॰)को सोमवार के दिन भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने अवतीर्ण होकर हिन्दी साहित्य के भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्रगगनांगण को द्वितीया के चन्द्र के समान शोभायमान किया था। इनकी माता इन्हे पाँच वर्ष की अवस्था का और पिता दस वर्ष की अवस्था का छोड़कर परलोक सिधारे थे। शिक्षा इनकी बाल्यावस्था ही से प्रारम्भ हो गई थी और पं॰ ईश्वरी दत्त ही शुरू में इन्हे पढ़ाते थे। मौलवी ताज अली से कुछ उर्दू पढ़ी थी और अंग्रेजी की आरम्भिक शिक्षा तो इन्हें पं॰ नंदकिशोर जी से प्राप्त हुई। कुछ दिन इन्होंने ठठेरी बाजार वाले महाजनी स्कूल में तथा कुछ दिन राजा शिवप्रसाद जी से शिक्षा प्राप्त की थी। इसी नाते यह उनको गुरुवर लिखते थे। पिता की मृत्यु पर यह क्वीन्स कालेज में भर्ती किए गए और समय पर वहाँ जाने भी लगे। इन्होने पढ़ने में कभी भी मन नहीं लगाया पर प्रतिभा विलक्षण थी इसलिए पाठ एक बार सुनकर ही याद कर लेते थे और जिन परीक्षाओं में इन्होंने योग दिया उनमें यह उत्तीर्ण भी हो गए। छात्रावस्था में भी इन्हें कविता का शौक था और उस समय की इनकी प्रायः सभी रचनाएँ श्रृंगार रस की थीं। सं॰ १९२० के अगहन महीने मे [ २८ ]भारतेंदु जी का विवाह शिवाले के रईस लाला गुलाबराय की पुत्री श्रीमती मन्नोदेवी से बड़े समारोह के साथ हुआ था। इनके शिक्षा क्रम के टूटने का प्रधान कारण इनकी जगदीश यात्रा है जो घर को स्त्रियों के विशेष आग्रह से हुई थी। जगन्नाथ जी का दर्शन करते समय वहाँ सिंहासन पर भोग लगाने के समय भैरवमूर्ति का बैठाना देख कर भारतेंदु जी ने इसको अप्रमाणिक सिद्ध किया और अंत में वहाँ से भैरवमूर्ति हटवा ही कर छोड़ा। इसी पर किसी ने 'तहकीकात पुरी' लिखा, तब आपने उसके उत्तर में 'तहकीकात पुरी को तहकीकात' लिख डाला। जगदीश-यात्रा से लौटने पर 'संवत् सुभ उनईस सत बहुरि, तेइसा मान' में यह बुलंदशहर गए। इसके बाद यह फिर यात्रा करने निकले और इस बार---

'प्रथम गए चरणाद्रि कान्हपुर को पग धारे।
बहुरि लखनऊ होइ सहारनपूर सिधारे॥
तहँ मनसूरी होइ जाइ हरिद्वार नहाए।
फेर गए लाहौर सुपुनि अम्बरसर आए॥
दिल्ली दै ब्रज बसि आगरा देखत पहुँचे आय घर।
तैतीस दिवस में यातरा यह कीन्ही हरिचंद बर॥

इसके ६ वर्ष बाद सं० १९३४ में यह पहिले पुष्कर यात्रा करने गए और वहाँ से लौटने पर उसी वर्ष हिन्दी बर्द्धिनी सभा द्वारा निमंत्रित होकर फिर प्रयाग गए।

सं० १९३६ में भारतेंदु जी ने सरयूपार की यात्रा की। सं० १९३६ वि० में भारतेंदु जी उदयपुर गए। पत्थर के रोड़े, पहाड़, चुंगी, चौकी तथा ठगी का उस समय के मेवाड़ का आपने [ २९ ]पंच-रत्न बताया है। "श्रीमान् यावदार्य कुल कमल दिवाकर" ने विदा में बाबू साहब को ५०० का खिलअत दिया। उक्त बाबू साहब ता॰ २४ दिसम्बर को उदयपुर से चित्तौड़ को रवाना हुए। सं॰ १८४१ वि॰ (नवम्बर सन् १८८४ ई॰) में यह निमंत्रित होकर व्याख्यान देने के लिए बलिया गए थे। व्याख्यान के विज्ञापन में यह 'शाअर मारूफ बुलबुले हिन्दुस्तान' लिखे गए थे। बलिया इंस्टीट्यूट में ५वीं नवम्बर को वहाँ के तत्कालीन कलक्टर के सभापतित्व में यह व्याख्यान बड़े समारोह से हुआ था। 'सत्यहरिश्चन्द्र' तथा 'नीलदेवी' का अभिनय भी हुआ था। इन स्थानो के सिवा आप डुमराँव, पटना, कलकत्ता, प्रयाग, हरिहरक्षेत्र आदि स्थानो को भी प्रायः जाया करते थे।

भारतेन्दु जी कद के लम्बे थे और शरीर से एकहरे थे, न अत्यंत कृश और न अत्यंत मोटे ही। आँख कुछ छोटी और धँसी हुई सी थी तथा नाक बहुत सुडौल थी। कान कुछ बड़े थे, जिन पर घुँघराले बालों आकृति, स्वभाव तथा शील की लटे लटकती रहती थीं। ऊँचा ललाट इनके भाग्य का द्योतक था। इनका रंग साँवलापन लिए हुए था। शरीर की कुल बनावट सुडौल थी। इनके इस शारीरिक सौंदर्य पूर्ण मूर्ति का इनसे मिलने वालो के हृदय पर उतना ही असर होता था, जितना इनके मानसिक सौंदर्य का। इनके समय के कई वृद्ध जन कहते हैं कि उस समय लोग उनको 'कलियुग का कँधैया' कहा करते थे। भोजन में इनकी रुचि विशेषतः नमकीन वस्तुओं की ओर अधिक थी। मिष्ठान्न में भी सोंधी चीज ही इन्हें प्रिय थी। फलों पर भी इनका विशेष प्रेम था। पान खाने का इन्हें [ ३० ]व्यसन सा था। यह स्वभाव ही से अत्यंत कोमल हृदय के थे। किसी के कष्ट की कथा सुनकर ही उस पर इनकी सहानुभूति हो जाती थी चाहे वह वस्तुतः झूठी मक्कारी ही क्यो न हो। यह दुख सुख दोनों ही में प्रसन्न रहते थे और कभी क्रोध करते ही न थे। क्रोध आता भी था तो उसे शांति से दबा लेते, चाहे वह उस क्रोध के पात्र से भाषण भी न करें। यह स्वभाव से नम्र थे परन्तु किसी के अभिमान दिखलाने पर उसे सहन नहीं कर सकते थे।

भारतेन्दु जो सत्यप्रिय थे। वे स्वयम् जानते थे कि 'सत्यधर्म पालन हँसी खेल नहीं है' और सत्य पथ पर चलने वाले कितना कष्ट उठाते हैं? इन्होने इस व्रत को यथाशक्ति आजन्म निबाहा। यह स्वभावतः विनोदी थे। उर्दू शायरों की जिंदादिलो ( सजीवता ) इनके नस नस में समाई थी। यह गम्भीर मुहर्रमी सूरत वाले नहीं थे और धन तथा घर के लोगों के कारण इन्हें जो कष्ट था वह इनके मुख पर नहीं झलकता था। यह सदा प्रसन्न चित्त और प्रेम में मग्न रहते थे। गुणग्राहकता के भारतेन्दु जी स्वरूप ही थे। केवल कवियों के ही आश्रयदाता या कविता ही के गुणग्राहक नहीं थे प्रत्युत प्रत्येक गुण या उत्तम वस्तु के ग्राहक थे। इनके पास कोई भी किसी प्रकार की उत्तम वस्तु लेकर आता तो वह विमुख होकर नहीं लौटता था। हिन्दी मातृमंदिर के साधारण से साधारण पुजारी का भी यह सम्मान करते थे, किसी अन्य विद्या या कौशल के पंडित का पूरा सत्कार करते थे, यहाँ तक कि अपव्ययी या फिजूलखर्ची [ ३१ ]कहला कर भी अच्छे वस्तु के विक्रेता को कोरा नहीं लौटाते थे। इसलिए लोगो ने कहा है—

सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचन्द।

भारतेन्दु जी हिंदू-समाज के अंतर्गत् अग्रवाल वैश्य जाति के थे और इनका धर्म श्री वल्लभीय वैष्णव समाज सुधार, देश सेवासम्प्रदाय था। पुराने विचारों की जड़ अँग्रेजी साम्राज्य के जम जाने तथा यूरोपीय सभ्यता के फैलने से वहाँ की विचार धारा के संघर्ष से हिल चली थी। पुराने तथा नवीन विचार वाले दोनो पक्ष अपने-अपने हठ पर अड़े थे। एक पक्ष दूसरे को 'नस्तिक, किरिस्तान, भ्रष्ट, कह रहे थे तो दूसरे उन्हें 'कूपमण्डूक अंध विश्वासी' आदि की पदवी दे रहे थे। दोनों ही पक्ष वाले इनसे अपने-अपने पक्ष के समर्थन होने की आशा कर रहे थे पर ये सत्य के सच्चे भक्त थे और जो कुछ इन्होंने देश तथा समाज के लिए उचित समझा उसे निःसंकोच होकर कह डाला। यह वर्ण व्यवस्था मानते थे और वैष्णव धर्म के पक्के अनुगामी थे। साथ ही समाज के दोषों का निराकरण भी उचित समझते थे।

मातृ-भाषा भक्त भारतेन्दु जी के हृदय में देश-सेवा करने का उत्साह कम नहीं था और इन्होंने प्रायः साथ ही साथ दोनों कार्यों में हाथ लगा दिया था। जगन्नाथपुरी से लौटने हर देशोपकारक बाबू हरिश्चन्द्र ने पाश्चात्य शिक्षा का अभाव तथा उसकी आवश्यकता देखकर अपने गृह पर ही एक अंग्रेजी तथा हिन्दी की पाठशाला खोली। इस पाठशाला का पहिला नाम [ ३२ ]'चौखम्भा स्कूल' था और इसका कुल व्यय भारतेन्दु जी स्वयम् चलाते थे। सन् १८८५ ई० में भारतेन्दु जी की मृत्यु के अनन्तर राजा शिव प्रसाद जी के प्रस्ताव तथा सभापति मि० एडम्स कलेक्टर साहब के अनुमोदन पर इसका नाम 'हरिश्चन्द्र स्कूल' रखा गया। अब यह स्कूल हरिश्चन्द्र हाई स्कूल कहलाता है। 'निजभाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल' मंत्र-को मानने वाले भारतेन्दु जी स्कूल खोलने के बाद ही से मातृभाषा की सेवा की ओर झुक पड़े। हिन्दी समाचार पत्रों की कमी देखकर 'कवि-वचन-सुधा,' 'हरिश्चन्द्र मैगजीन,' 'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' तथा 'बाला-बोधिनी' आदि पत्र आपने अपने व्यय से निकाले और दूसरो को सहायता देकर अनेक पत्र प्रकाशित कराए। इन पत्रों से बराबर धन की हानि होती रही। हिन्दी में पुस्तको का अभाव देखकर समयानुकूल पुस्तकों की रचना आरम्भ की और हिन्दुओ में हिन्दी के प्रति प्रेम कम देखकर उन्हें स्वयम् प्रकाशित कर बिना मूल्य वितरण करना आरम्भ कर दिया। अन्य लोगों को भी हिन्दी ग्रन्थ-रचना का उत्साह दिलाकर बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित कराई।

सं० १९२७ में भारतेन्दु जी ने 'कविता-वर्द्धिनी-सभा' स्थापित की जो इनके घर पर या रामकटोरा बाग में हुआ करती थी। सरदार, सेवक, दीनदयालगिरि, मन्नालाल 'द्विज', दुर्गादत्त गौड़ 'दत्त', नारायण, हनुमान आदि अनेक प्रतिष्ठित कवि गण उस सभा में पाते थे। व्यास गणेशराम को इसी सभा ने प्रशंसा पत्र दिया था। साहित्याचार्य पं० अम्बिकादत्त व्यास [ ३३ ]को सुकवि की पदवी तथा प्रशंसापत्र इसी में दिया गया था। कवि-समाज भी होता रहता था और मुशायरा भी। सं॰ १९३० वि॰ में 'पेनीरीडिंग' क्लब स्थापित हुआ जिसमें अच्छे-अच्छे लेखकों के लेख पढ़े जाते थे। 'तदीय समाज' सं॰ १९३० वि॰ में स्थापित हुआ था जिसका उद्देश्य ही धर्म तथा ईश्वर-प्रेम था। गोवध रोकने के लिए इस समाज के उद्योग से साठ सहस्र हस्ताक्षर सहित एक प्रार्थना-पत्र दिल्ली दरबार के अवसर पर भेजा गया था। गोमहिमा आदि लेख लिख कर भी ये यह बराबर आन्दोलन मचाते रहे।

सं॰ १९२७ वि॰ में भारतेन्दु जी तथा इनके छोटे भाई में बँटवारा हो चुका था और ये अपने गृह के लोगों द्वारा "अपव्ययी" समझ लिए गए थे। भारतेन्दु जी सांसारिक झंझटों से दूर होकर मातृभाषा की और देश चिंता तथा मृत्युकी सेवा में निरत रहते थे। हिन्दी तथा देश के लिए तो इनका हृदय चिन्ता-दग्ध था ही, उस पर अपने ही लोगों की—जिनके लिए यह अपना तन-मन-धन अर्पण कर रहे थे उनकी उदासीनता भी इनका हृदय जर्जर कर रही थी। इसी आत्मक्षोभ का उद्गार सं— १७३२ वि॰ में निर्मित "सत्यहरिश्चंद्र" तथा "प्रेमयोगिनी" की भूमिका में अधिक प्रगट हुआ है। परन्तु ऐसे प्रसन्न चित्त विनोद प्रिय कवि के हृदय में यह आत्मक्षोभ अधिक नहीं टिका। हाँ, इसका प्रभाव अवश्य बना रहा। धीरे धीरे भारतेन्दु जी का अर्थ-संकोच इतना बढ़ा कि जमा गायब हो गई और ऋण-बोझ ऊपर पड़ गया। एक-एक के दो लिखवाने वालों ने जल्दी कर डिगरियाँ प्राप्त कर ली और

भा॰ ना॰ भू॰—३ [ ३४ ]इनसे रुपये वसूल करने का उपाय करने लगे। इस प्रकार देश, समाज, तथा मातृभाषा आदि की उन्नति और अपनी कौटुम्बिक तथा ऋण आदि की चिन्ताओं से ग्रस्त होने के कारण इनका शरीर जर्जर हो रहा था। इसी समय मेवाड़पति महाराणा सज्जनसिंह के आग्रह तथा श्रीनाथ जी के दर्शन की लालसा से सन् १८८२ ई० में यह उदयपुर गए। इतनी लम्बी यात्रा के प्रयास को इनका जीर्ण-शीर्ण शरीर न सह सका। यह बीमार पड़ गए और श्वास, खाँसी तथा ज्वर तीनो प्रबल हो उठे। यो ही प्राणभय उपस्थित था, उसपर एकाएक एक दिन हैजा का इनपर कड़ा अाक्रमण हुआ। यहाँ तक कि कुल शरीर ऐंठने लगा पर अभी आयुष्य थी, इससे बच गए।

अभी यह पूर्णतया स्वस्थ नहीं हुए थे कि शरीर की चिता छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने आदि के कार्यों में लग गए। दवा भी कौन करता है? जब रोग प्रबल थे तब सभी को चिंता थी। रोग निर्बल होते ही अन्य सांसारिक विचारादि प्रबल हो गए। अस्तु, रोग इस प्रकार दब गए थे, पर जड़मूल से नष्ट नहीं हुए थे। रोग दिन-दिन अधिक होता गया, महीनों में शरीर अच्छा हुआ। लोगों ने ईश्वर को धन्यवाद दिया। यद्यपि देखने मेन कुछ दिन तक रोग मालूम न पड़ा पर भीतर रोग बना रहा और जड़ से नहीं गया। बीच में दो एक बार उभड़ आया था पर शांत हो गया था। इधर दो महीने से फिर श्वास चलता था, कभी-कभी ज्वर का आवेश भी हो जाता था। औषधि होती रही, शरीर कृषित तो हो चला था पर ऐसा नहीं था कि जिससे किसी काम में हानि होती, श्वास अधिक हो चला, क्षयी के चिन्ह पैदा [ ३५ ]हुए। एकाएक दूसरी जनवरी से बीमारी बढ़ने लगी। दवा इलाज सब कुछ होता था पर रोग बढ़ता ही जाता था। माघ कृष्ण ६ सं॰ १९४१ वि॰ (६ जनवरी सन् १८८५ ई॰) को आपका देहावसान हो गया। आपकी अवस्था उस समय चौंतीस वर्ष ३ महीने २७ दिन की थी।

भारतेन्दु जी के एक पुत्री और दो पुत्र हुए परन्तु दोनों पुत्र शैशवावस्था में ही जाते रहे। पुत्री का विवाह सं॰ १९३७ वि॰ के वैशाख मास (सन् १८८० की मई) में गोलोकवासी बुलाकीदास जी सोने वाले के भाई संतानेंबा॰ देवीप्रसाद जी के पुत्र स्वर्गीय बाबू बलदेवदास जी से भारतेन्दु जी ने स्वयम् किया था। इनका नाम श्रीमती विद्यावती जी था। इनके पाँच पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ हुई थीं। एक पुत्री विवाह योग्य होकर तथा दो शैशवावस्था ही में काल कवलित हो गई। पुत्र पाँचों वर्तमान हैं।

नाटकों के सिवा उनकी अन्य रचनाओं के विषय में स्थानाभाव से यहाँ विशेष नहीं लिखा जा सकता; पर संक्षेप में काव्य, भाषा, पद्य आदि को लेकर सम्यक् रूप से दो-चार बातें लिखी जाती हैं। प्राचीन तथा आलोचनानवीन हिंदी-साहित्य के संघर्ष-काल में ऐसा सर्वतोमुखी प्रतिभावान साहित्यिक अपेक्षित था कि वह केवल प्राचीनता की खिल्लियाँ न उड़ाते हुए उसकी सार्थकता का नवीनता के साथ सामंजस्य करावे। ठीक ऐसे समय वैसे ही प्रतिभाशाली साहित्यिक के रूप में भारतेन्दु जी ने उदित होकर यह कार्य ऐसे सुचारु रूप से किया कि नए-पुराने का यह संघर्ष किसी को [ ३६ ]कष्ट कर प्रतीत नहीं हुआ। कभी वे भक्ति तथा रीति काल के सुकवियों से हाड़ लेते थे, तो कभी वे नए काल के मिल्टन, शेक्सपियर आदि से प्रभावान्वित बंग-कवियों की श्रेणी में जा बैठते थे। कभी राजभक्ति-पूर्ण पुष्पांजलि अर्पण करते थे तो कभी देश के लिए आठ-आठ आँसू रोते थे। कभी टीकाधारी भंड साधुओ की हँसी उड़ाते थे, तो कभी सच्चे भक्तों की माला पिरोते थे। यही कारण है कि इन गुणो से आकृष्ट होकर प्राचीन तथा नवीन दोनो विचार वालो का एक अच्छा मंडल इनके चारों ओर घिर गया था, जिसने हिन्दी के उन्नयन में इनका खूब हाथ बँटाया।

भारतेन्दु जी की गद्य-शैली के विषय में इतना ही कहना अलम् है कि उनकी भाषा सुस्पष्ट होती थी, जटिल नहीं। वे वाक् चातुरी में भाव को फँसाया नहीं चाहते थे। भावों के अनुसार भाषा में भेद् अवश्य होता था। आवेश में स्वभावतः छोटे-छोटे वाक्यों में जो बाते लिख गई हैं, वही जब कुछ समझ बूझकर किसी स्थायी भाव के स्पष्ट करने को कही गई हैं, तब वहाँ अधिक संयत भाषा, कुछ बड़े वाक्यों में, लिखी गई हैं। जहाँ विनोद तथा मनोरंजन की बातें हैं, वहाँ भाषा में भी चपलता आ गई है। कहीं कहीं अधिक गम्भीर विषय संस्कृत-पदावली-युक्त भी हैं। तात्पर्य यह कि भारतेन्दु जी का भाषा पर पूरा अधिकार था और वह उनकी अनुवर्तिनी थी।

विक्रमी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के आरम्भ में खड़ी बोली हिन्दी-गद्य की जो प्रतिष्ठा हुई थी, उसकी परम्परा पूर्ण रूपेण नहीं चली और वह प्रायः पचीस वर्ष तक बीसवीं शताब्दी [ ३७ ]के आरम्भ की अपेक्षा करती रही। विक्रमी बीसवीं शताब्दी के साथ भारत-नक्षत्र राजा शिवप्रसाद का उदय हुआ। इनके प्रयत्न से सं० १९०२ में "बनारस अखबार" काशी से निकलने लगा, जिसकी भाषा नागरी लिपि में उर्दू होती थी। उस समय के पढ़े लिखे लोगो में उर्दू-फारसी का रिवाज अधिक था, हिन्दी का बहुत कम। संस्कृत के पडितो को तो अखबार से कुछ मतलब ही न था। हाँ, कहीं कहीं दो-चार शब्द हिन्दी के भी शपथ लेने के लिए रख दिए जाते थे। सं० १९१३ में राजा साहब स्कूलो के इंस्पेक्टर हुए और शिक्षा-विभाग में मुसल्मानों का प्राबल्य तथा उनका हिन्दी-विरोध देखकर उन्होने हिन्दी का पक्ष लिया। बाद को शिक्षा विभाग के उर्दू-ज्ञाता सदस्यों के जोर देने पर यह उर्दू-मिश्रित हिन्दुस्तानी की ओर झुक पड़े। इस प्रकार राजा शिवप्रसाद 'आमफहम' हिन्दुस्तानी के हामी हुए। प्रायः इसी समय राजा लक्ष्मणसिंह ने शुद्ध हिन्दी में 'प्रजाहितैषी' पत्र निकाला और स॰ १९१८ में शकुन्तला का अनुवाद किया। उन्होंने शुद्ध संस्कृत-मिश्रित हिन्दी का पक्ष लिया और इस मत का रघुवंश के अनुवाद के प्राक्कथन में समर्थन भी किया। पंजाब प्रांत में बा० नवीनचन्द्र राय ने हिन्दी के प्राचारार्थ बहुत सी पुस्तके बंगला की सहायता से तैयार कीं और लिखवाई; पत्र-पत्रिका भी प्रकाशित कराई और सबकी भाषा शुद्ध हिन्दी रखी। पं० गौरीदत्त ने भी शुद्ध हिन्दी में पुस्तकें लिखीं। स्वामी दयानंद ने भी हिन्दी ही में उपदेश देकर तथा अपने ग्रंथ तैयार कर शुद्ध हिन्दी का प्रचार किया। इसी प्रकार पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी के व्याख्यान, कथा, उपदेश [ ३८ ]आदि शुद्ध हिन्दी में होते थे। उनका उस समय पंजाब में ऐसा, प्रभाव था कि वे सनातन धर्म के स्तम्भ समझे जाते थे। मृत्यु के समय उन्होने कहा था कि भारत में भाषा के दो लेखक हैं-- एक काशी में और दूसरा पंजाब में; परन्तु आज एक ही रह जायगा।' काशी के लेखक से उनका अभिप्राय भारतेन्दु जी से था। इस प्रकार हिंदी के दो रूप प्रस्ताव की भॉति हिंदी संसार के सन्मुख उपस्थित होकर रह गए थे।

एक ऐसे यात्री की भाँति जो मार्ग न जानने के कारण किसी दो राहे पर पहुँचकर खड़ा हो जाय और यह निश्चित न कर सके कि कौन-सा मार्ग ग्रहण करना उचित है, उसी भाँति हिंदी की प्रगति भी उस समय प्रायः एक दम बन्द-सी हो रही थी। ऐसे ही अवसर पर भारतेन्दु जी ने लेखनी उठाई और भाषा को अत्यंत परिमार्जित तथा मधुर रूप देते हुए उसके साहित्य में समयानुकूल नए विषयो की पुस्तकों का निर्माण कर उसको प्रगतिशील बनाया। यही कारण है कि हिन्दी प्रेमियों ने उन्हें वर्तमान हिन्दी का जन्मदाता तक कहा है। उनकी भाषा में पुरानापन, उर्दूपन आदि नहीं रहने पाया और उसे बहुत ही संयत तथा स्वच्छ रूप मिला। यह भाषा-संस्कार केवल गद्य ही में नहीं हुआ, प्रत्युतू कविता में भी हुआ। नई सभ्यता के संघर्ष से शिक्षित सम्प्रदाय में जो नई विचार-धारा प्रवाहित हुई और जिनकी मानसिक बुभुक्षा हिन्दी की प्राचीन चली आती हुई साहित्य-परम्परा से तृप्त नहीं हो रही थी, उनके उपयुक्त साहित्य की रचना हिन्दी में तब तक नहीं हुई थी। भारतेन्दु जी ने नए-नए विषयों पर रचनाकर इस वैषम्य को मिटाने का प्रयत्न [ ३९ ]किया और हिन्दी-साहित्य के प्रवाह को मोड़कर जनता की नवीन विचार-धारा के साथ ला मिलाया।

अब तक वीरगाथा, प्रेमाख्यान, भक्ति तथा रीति पर ही कविताएँ लिखी जाती थीं। अन्तिम रीति काल में अलंकारादि काव्यांग का विवरण देने के लिए ही कविता लिखने की प्रथा खूब चल निकली थी और वह भी थोड़े दिन नहीं, प्रत्युत् दो शताब्दी से ऊपर तक चलती रही। इस कारण जनता इस प्रथा से ऊब गई थी। भारतेन्दु जी ने उक्त प्रथा के विरुद्ध, देश काल की मॉग के अनुसार, कविता को भी नए-नए विषयों की ओर झुकाया। देश प्रेम, मातृ-भाषा-भक्ति, समाज-सुधार आदि लोक-हितकर विषयों को लेकर कविता करने और नाटक, निबन्धादि लिखने का मार्ग उन्होंने दिखाया। उपदेशमय मनोरंजन तथा विनोदपूर्ण छोटी कविताएँ भी लिखी जाने लगीं। हास्यरस को नए फैशन के आलम्बन दिए गए और वीररस के लिए आलम्बनों का अन्वेषण पौराणिक तथा ऐतिहासिक ग्रंथो में किया जाने लगा। मुक्तक या प्रबंध-काव्य के सिवा जिस प्रकार पहले दान-लीला, मृगया आदि विषयों पर दस दस बीस-बीस पदों के छोटे छोटे काव्य लिखने की प्रथा थी, वह अपनाई गई।

इस नवीन परम्परा के उत्थान का एक कारण भारत में अँगरेजों का आगमन कहा जाता है, विदेशियों का आगमन नहीं, क्योंकि विदेशी तो भारत पर प्रायः अज्ञात काल से टपकते चले आ रहे हैं। अँगरेजों के आगमन के ठीक पहले मुसल्मानो का भारत में आगमन हुआ था; पर आज सात शताब्दी व्यतीत हो जाने पर भी वे मातृभूमि तथा मातृ-भाषा-प्रेम को मज़हबी जोश में [ ४० ]भूले हुए हैं। उन्हें भारत के प्राकृतिक दृश्यों से अरब के बालुका- मय दृश्य तथा गांधी-कैप से टर्किश कैप ही अधिक पसन्द है। उनके काव्य में भी वही इश्क, हिज्र, वसाले-सनम के सिवा अधिक कुछ न था। उनके यहाँ भी अँगरेजो के आगमन के बाद कुछ नवीन परम्परा उत्थित हुई; पर वह भी धार्मिक रंग में रँगी हुई। अतः हिंदी में जो कुछ नवीनता आरम्भ हुई, वह अँगरेजो के आगमन तथा उनके सम्पर्क के बाद। ऐसा क्यों हुआ? एक बात और ध्यान देने योग्य है कि बँगला-साहित्य में हिन्दी से पहले ही नवीनता आ चुकी थी पर क्या उसका भी प्रधान कारण यही है कि बगालियो का अँगरेजों से सम्पर्क इस प्रांत में उनके आने से पहले का है।

कुछ सज्जन अँगरेजो के आगमन को इस उत्थान का कारण न मानकर उनकी कूट नीति को इसका कारण मानते हैं। भारत कभी कृतघ्न नहीं हुआ। भारत के इतिहास, पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, लिपि, प्राचीन संस्कृत-साहित्य, वर्तमान भाषाओं के नवीन उत्थान आदि सभी विषयो पर दृष्टि दौड़ाइए, तो सब में आपको भारत-सरकार तथा अँगरेज-युरोपियन साहित्य-प्रेमियों का सहयोग ही नहीं, वरन् उनके द्वारा मार्ग-प्रदर्शन भी दिखलाई पड़ेगा। न्याय-पूर्वक हमें इस सत्य को स्वीकार करना ही चाहिए।

हृदय में देश-प्रेम के अंकुरित होते ही तीन प्रकार के दृश्य---भूत, वर्तमान और भविष्य---आँखो के सामने आते हैं। पहले अपने पूर्व गौरव पर दृष्टि जाती है, फिर वर्तमान अवस्था का दृश्य सामने आता है। हृदय सोचता है, हम क्या थे और अब [ ४१ ]क्या हैं। यदि वर्तमान अवस्था पहिले से उन्नत हुई, तो हृदय आशा से भरकर और भी आगे बढ़ने की पुकार करता है; यदि वह ज्यो की त्यों हुई, तो मन 'सम्पदा सुस्थिरं मन्ये न वर्धयति तत्र ताम्' समझकर प्रगति शील होने को अपना स्वर ऊँचा करता है और यदि वर्तमान अवस्था में देश पहले से गिरा हुआ दींखता है, तो देशभक्त का हृदय अपने देश-भाइयों को जाग्रत करने के लिए उनके पूर्व गौरव का वर्णन कर और उनकी वर्तमान दशा दिखाकर, आत्म-क्षोभ पैदाकर, उनको देशभक्ति की दीक्षा देता है। कभी-कभी देशभक्त कवि जब अपने भाइयों को अधिक गिरी दशा में पाता है और उनको जाग्रत करने में असफल होता ज्ञात होता है, तब वह सर्व आशामयी मूर्ति का बड़े विषाद के साथ अाह्वान करता है। भारतेन्दु जी ने भारत के इतिहास में अन्तिम दृश्य ही देखा था, इसलिए इस प्रकार की उनकी कविता में ये तीनो भाव भरे हैं। नीलदेवी के इस नैराश्यपूर्ण कथन पर कि 'अब तजहु वीरवर भारत की सब आशा' कुछ सज्जनों ने कटाक्ष किए है; पर 'भारत दुर्दशा' में हिन्दुस्तानी कपड़ा पहिनना' आदि जो उन्नति के उपाय भारतेन्दु जी ने बतलाए थे, उनको करने के लिए वाध्य करने को साठ वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो जाने पर भी आज तक पिकेटिंग आदि की आवश्यकता है।

भारतेन्दु जी ने कविता देवी की उस अनुपम, नित्य, अविनश्वर वीणा पर, जिससे वीरोल्लास मयी, भक्तिभाव-पूर्ण तथा श्रृंगार रसाप्लुत स्वर-लहरियाँ तरंगित हो चुकी थीं, नवीन देश-प्रेम पूर्ण ऐसा स्वर निकाला, जिसे उस काल के तथा बाद के [ ४२ ]प्रायः सभी सुकवियों ने अपनाया। पुरानी परिपाटी पर ही कविता करते हुए तथा पुरानी प्रथा को निबाहते हुए भी साहित्य-संसार की नवीन प्रगति के प्रवर्तन तथा उन्नयन में योग देने वाले सुकवियों का आरम्भ भारतेन्दु जी से होता है। उन्होंने प्राचीन परम्परा की कविता करते हुए भी जराजीर्ण सड़े-गले शब्दों का निराकरण किया और बोलचाल में कामं आने वाले शब्दों ही का प्रयोग किया। शब्दों के तोड़ने मरोड़ने तथा भरती के शब्द व्यवहृत करने के वे बराबर विरुद्ध रहे और उन्होंने अपनी कविता में ऐसे दोषो को नहीं आने दिया। श्रृंगार-रस के उनके सवैये तथा कवित्त ऐसे सरस, हृदय ग्राही और आकर्षक होते थे कि वे उनके सामने ही सर्वजन प्रिय हो उठे थे। प्रेम-माधुरी आदि में तथा नाटकों में उनके भक्ति-प्रेम से लबालब सवैये आदि मिलेंगे। उनके संस्थापित कवि-समाज की समस्यापूर्ति में तत्कालीन सभी सुकविगण सहयोग देते थे।

हिन्दी में कहानी कहने का आरम्भ भी कविता ही में हुआ था। कुछ कहानियाँ भारतेन्दु जी के समय तक लिखी जा चुकी थीं। भारतेन्दु जी का ध्यान हिन्दी-साहित्य के इस विभाग की कमी की ओर भी आकृष्ट हुआ था; पर वे इस ओर अधिक समय नहीं दे सके। उन्होंने 'मदालसोपाख्यान' लिखा और 'राजसिंह' का अपूर्ण अनुवाद किया। यद्यपि वे स्वयं इस ओर विशेष कुछ न कर सके; पर उनके प्रोत्साहन से उनके मित्रवर्ग में कई सुलेखकों ने इस कमी की पूर्ति का बीड़ा उठाया।

भारतेन्दु-उदय के साथ-साथ हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रचार प्रचुरता से बढ़ने लगा। सं० १९२४ के भाद्रपद में भारतेन्दु [ ४३ ]बाबू हरिश्चन्द्र ने पहिली साहित्यिक मासिक पत्रिका 'कवि-वचन- सुधा' प्रकाशित की, जो बाद को साप्ताहिक तथा बड़े आकार की हो गईं। इसमें गद्य-पद्य दोनों रहते थे और राजनीति, समाज, धर्म आदि सभी विषयों पर लेख दिए जाते थे तथा कुछ समाचार भी संकलित रहते थे। इस पत्रिका को भारतेन्दु जी ने कुछ वर्षों के बाद एक महाराष्ट्र सज्जन को, उनके आग्रह पर, दे दिया था; परन्तु वह किसी प्रकार कुछ दिन चलकर जन्मदाता के साथ-साथ चल बसी। सं० १९३० में भारतेन्दु जी ने 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' मासिक पत्र निकाला, जो आठ संख्याओं के बाद हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका, नाम से प्रसिद्ध हुई। इसमें कुछ पृष्ठ अँगरेजी के भी रहते थे। इसमें साहित्यिक लेखों के साथ कुछ अलभ्य काव्य-ग्रंथ आदि भी प्रकाशित हुए थे। आठ वर्ष हिन्दी-प्रेमियो का मनोरंजन कर यह पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के आग्रह से उनके हाथ जाकर सं० १९३७ में 'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका' हो गई और सं० १९३८ में काशी से श्रीनाथ जी जाकर उन्हीं के श्री चरणों में लीन हो गई। सन् १८८४ 'नवोदिता हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' नाम से छोटे आकार में यह पुनः प्रकाशित की गई; पर स्वयं भारतेन्दु जी दो ही संख्या निकाल कर चल बसे। इसका तीसरा अंक उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हो कर रह गया। 'बालाबोधिनी' नामक स्त्रियोपयोगी मासिक पत्रिका को जनवरी सन् १८७४ से भारतेन्दु जी ने निकालना आरम्भ किया था। यह पत्रिका भी चार वर्ष चलकर बन्द हो गई।