भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/१. संस्कृत-नाट्य शास्त्र तथा नाटकों का संक्षिप्त इतिहास

भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ भूमिका ]
 

भूमिका
१––संस्कृत नाटय-शास्त्र तथा नाटकों का
संक्षिप्त इतिहास

नाटकों की व्युत्पत्ति के विषय में भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में लिखा है कि त्रेता युग के आरंभ में देवताओं ने ब्रह्मा के पास जाकर उनकी बहुत स्तुति की और प्रार्थना की कि वे मनोरंजन की कुछ ऐसी वस्तु का सृजन कर दें, जिससे नेत्र तथा कर्ण दोनो को साथ साथ आनंद प्राप्त हो। इस पर ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर चारों वेदो से कुछ कुछ अंश लेकर नाट्यवेद की रचना की। यह अब प्राप्त नहीं है और यह अतीव प्राचीन काल के गाथाओं का संग्रह मात्र होता, जिसका केवल उल्लेख नाट्यशास्त्र में हुआ है। ऋग्वेद में दो तथा तीन व्यक्तियों के अनेक कथोपकथन आदि हैं तथा शृंगार किए हुए कुमारियों का नृत्य कर प्रेमियों को आकर्षित करने का उल्लेख है। सामवेद से ज्ञात होता है कि गानविद्या भी उस समय तक पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी और अथर्ववेद में वादन के साथ गायन तथा नृत्य का उल्लेख मिलता है। तात्पर्य यह कि वैदिक युग में नाटक ही के समान कुछ दृश्य दिखलाए जाते थे, जो अवश्य ही धार्मिक रूप में रहे होंगे। पौराणिक-काल की रचनाओं में 'नट-नर्तकाः' आदि शब्द मिलते हैं, तथा हरिवंश पुराण में [ भूमिका ]रामायण के पात्रों को लेकर अभिनय करने का उल्लेख है। पर नट शब्द का अभिनेता अर्थ न लेकर तथा हरिवंश का समय निश्चित न मानकर विद्वान गण नाटक का अस्तित्व उस काल से नहीं लेते। साथ ही यूरोपीय विद्वान पुराणों के कथा बाँचने को नाटक का पूर्व रूप मानते हैं पर इन पुराणों की कथाएँ प्राचीन काल से अब तक होती आ रही है, जिसमें व्यास जी श्लोकों को पढ़ते तथा अर्थ बतलाते हैं और सैकड़ों श्रोता ध्यानपूर्वक बैठकर, जिनमें बगुला भगत अधिक होते हैं, उसे सुनते हैं। नट शब्द से अभिनेता का अर्थ लेते हुए भी साधारणतः अब तक लोग नट से उस जाति के लोगों को समझते हैं, जो नगरों में कभी कभी ढोल बजाकर 'हाय पैसा हाय पैसा' गाते हुए रस्सियों पर नाचते हैं। इस प्रकार पौराणिक काल में भी वैदिक काल से नाटकों की विशेष उन्नति नहीं हुई मानी जाती है।

इस काल के अनंतर वैयाकरणी पाणिनि ने शिलालिन् तथा कृशाश्व के नटसूत्रों का उल्लेख किया है, जिसका समय तीसरी शताब्दि पूर्वेसा काल माना जाता है। इसके अनंतर पतंजलि के महाभाष्य में, जिसका समय पाणिनि के डेढ़ सौ वर्ष बाद माना जाता है, कंसवध किया जाता है या बलि बंधन होता है ऐसे वाक्यो से नाटक के अस्तित्व का कुछ पता लगाया गया है। इसी प्रकार इस ग्रंथ का खूब अन्वेषण कर उक्त विद्वानों ने नाटक के सभी अंग प्रत्यंग का अनुसंधान पाकर निश्चय किया है कि उस समय तक नाटक अपने प्रारंभिक रूप में आ चुका था। [ भूमिका ]

यद्यपि बौद्ध तथा जैन धार्मिक ग्रंथो से नाटक तथा अभिनय का पता चला है पर उन ग्रंथों का भी समय निश्चित नहीं है, ऐसा कहकर नाट्य कला को पूर्वोक्त समय से प्राचीनतर नहीं कहना निश्चित हो गया है। अस्तु, इस काल-निर्णय से एक बात निश्चित रूप से कही जाने लगी कि ग्रीक नाट्यकला का प्रभाव भारत की नाट्यकला पर अवश्य पड़ा है। यह प्रभाव कहाँ तक पड़ा है इसपर यूरोपीय विद्वानों में विशेष तर्क वितर्क हुआ है और अंत में निश्चय हुआ कि दोनो में साम्य अधिक है तथा भारतीयों में यह गुण भी है कि दूसरों की वस्तु वे इस प्रकार ले लेते हैं कि पता नहीं चलता। अस्तु, भरतमुनि का नाट्यशास्त्र प्रथम ग्रंथ है, जिसमें नाट्यकला के विषय का पूरा ज्ञान भरा हुआ है। रंगस्थल के निर्माण, दृश्य-पटी तथा अभिनेताओं के वेश भूषा, मंगल-पूजन तथा गान, गायन-वादन तथा भावप्रदर्शन आदि सबका पूर्ण रूप से विवेचन किया गया है। रूपकों के भेद आदि इतने विवरण से लिखे गए हैं कि यह ज्ञात होता है कि लेखकों के सामने अच्छा नाटकीय-साहित्य मौजूद था, जो अब लुप्त हो गया है। इस ग्रंथ का निर्माण-काल भी संदिग्ध है पर यह ग्रंथ अवश्य ही कालिदास के पूर्व भास के समय में तैयार हुआ होगा। अग्निपुराण में भी नाट्यकला पर कई स्कंध लिखा मिलता है पर उसका भी समय निश्चित नहीं है।

नाट्य-शास्त्र के अनंतर धनंजय कृत दशरूप और धनिक कृत उसी ग्रंथ की व्याख्या अवलोक का समय आता है, जो दशवीं शताब्दी की कृतियाँ हैं। इसमें रूपक के दश भेदों का वर्णन है, इसलिए इसका इस प्रकार नामकरण हुआ है। यह नाट्य[ भूमिका ]शास्त्र के आधार ही पर लिखा गया है पर बहुत कुछ संक्षेप कर बोधगम्य कर दिया गया है। इसके अनंतर चौदहवीं शताब्दि विक्रमाब्द के मध्य में विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रीय तथा विद्याधर ने एकावली लिखा। प्रतापरुद्रीय में नाटक तथा काव्य दोनों पर संक्षेप में लिखा गया है और वह विशेष महत्व का नहीं है। एकावली इससे अधिक महत्व की तथा उपयोगी बनी। इसी शताब्दी में शिंग भूपाल ने रसार्णवसुधाकर की रचना की थी। इस शताब्दि के प्रायः अंत में विश्वनाथ कविराज हुए, जिन्होंने साहित्य दर्पण की रचना की है। यह ग्रंथ समग्र काव्य शास्त्र पर है और इससे कई परिच्छेदो में नाट्य-शास्त्र के नियम आदि भी दिए गए हैं। यह ग्रंथ बहुत उपयोगी हुआ है और इसी से इसका प्रचार भी काफी है। इसके बाद रूप गोस्वामी की नाटक चंद्रिका, सुंदर मिश्र का काव्य प्रदीप आदि कई ग्रंथ लिखे गए, पर वे विशेष महत्व के नहीं हुए।

यहाँ तक नाट्य-शास्त्र पर विचार किया गया, अब नाटकों पर दृष्टि देना चाहिए क्योंकि इतने छोटे निबंध में विशेष विवरण नहीं दिया जा सकता। अभी कुछ ही दिन हुए कि कालिदास के पहिले के नाटककारों का पता नहीं था पर अब अश्वघोष, भास आदि का पता चला है। सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष के एक नाटक शारद्वती-पुत्र प्रकरण का कुछ अंश दो अन्य नाटकों के अंशों के साथ तालपत्रों पर लिखे गए प्राप्त हुए हैं, जो सभी बौद्ध कृतियाँ है। बुद्ध-चरित्रकार अश्वघोष सौभाग्य से बौद्ध था, इसलिए उसकी प्राचीनता में विशेष संदेह की गुंजाइश नहीं रह सकी। इसने कई अन्य ग्रंथ भी [ भूमिका ]लिखे हैं और इसके नाटक इतने शास्त्र-सम्मत तथा पूर्ण हैं कि यह निश्चय-पूर्वक कहा जा सकता है कि इसके समय के पहिले अवश्य ही बहुत से नाटक रहे होंगे, जिन्हें आदर्श रूप रखकर ही ये तैयार हो सके हैं। शारीपुत्र प्रकरण के साथ जो दो नाटकों के अंश मिले हैं, उनके रचेता के नाम नहीं ज्ञात हुए हैं पर अधिकतर संभव है कि वे अश्वघोष की ही रचनाएँ हों।

अश्वघोष के अनंतर भास का नाम आता है, जिसके तेरह नाटक बीसवीं शताब्दि ईसवी के आरंभ में मिले हैं। दूत-घटोत्कच, उरु-भंग, कर्णभार, दूतवाक्य, मध्यम व्यायोग, बाल चरित, पंचरात्रि, प्रतिमा नाटक, अभिषेक, अविमारक, प्रतिज्ञा-यौगंधरायण, स्वप्नवासवदत्ता और चारुदत्त ये तेरह नाटक हैं। इनमें प्रथम सात का महाभारत, दो का रामायण तथा अन्य का कथा-वस्तु कथा-सरित्सागर से लिया गया है। भास का समय ईसवी तृतीय शताब्दि माना जाता है। भास का चारुदत्त नाटक अपूर्ण है और इसके केवल चार अंक प्राप्त है। शूद्रक के मृच्छकटिक के प्रथम चार अंक इससे बहुत मिलते है। आगे का अंश मिलता नहीं। शूद्रक ने राजनीति तथा प्रेम के षड्‌यंत्रो का सफलतापूर्वक सम्मिलन करा दिया है और यही उसकी विशेषता है। इसका समय भास और कालिदास के बीच में है। शूद्रक नाम वास्तविक है या नहीं इसमें संदेह ही है।

महाकवि कालिदास का समय तृतीय गुप्त-सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का समय माना जाता है, जिसने सन् ४१३ [ भूमिका ]ई॰ तक राज्य किया था। इन्होंने मालाविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुंतल तीन नाटक लिखे हैं। इनके तथा इन नाटकों और मुख्यतः शाकुंतल के विषय में इतना ही कहना अलम् है कि संस्कृत साहित्य के इतिहास में ये अद्वितीय हैं। कालिदास के बाद श्रीहर्ष का समय आता है, जिन्होंने तीन नाटक रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद लिखा है। श्रीहर्ष स्थाणीश्वर का राजा था और इसका राज्यकाल सन् ६०६ ई॰ से ६४८ ई॰ तक है। इसी के दरबार में सुप्रसिद्ध साहित्यकार वाणभट्ट रहते थे। इन्हीं श्रीहर्ष के समय के आसपास या समकालीन ही चंद्रक तथा महेन्द्र विक्रमवर्मा दो अन्य नाटककार हुए हैं। महेन्द्र विक्रम कांची का राजा था और इसका प्रहसन मत्तविलास प्राप्त है। मुद्राराक्षस के रचेता विशाख दत्त का समय विशिष्ट रूप से चंद्रगुप्त द्वितीय का ही माना जाना चाहिए पर अभी यूरोपीय विद्वान नवीं शताब्दि तक उन्हे खींच लाने में नहीं हिचकते। इनके एक अन्य नाटक देवी चंद्रगुप्तम् का भी पता लगा है, जो गुप्त-सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय के चरित्र पर निर्मित है।

संस्कृत साहित्य के अद्वितीय नहीं तो द्वितीय नाटककार भवभूति का समय अब आता है, जिनके तीन नाटक मालती-माधव, उत्तररामचरित तथा महावीरचरित प्राप्त और प्रसिद्ध है। भवभूति सातवीं शताब्दि ईसवी के अंत में हुए थे। भट्ट-नारायण का समय सातवीं शताब्दि अनुमान किया जाता है और इन्होंने वेणीसंहार नाटक लिखा है। आठवीं शताब्दि के कुछ नाटककारों के नाम मिलते हैं, जिनकी रचनाओ के कुछ [ भूमिका ]अंश लक्षण ग्रंथों में मिल जाते हैं। कान्यकुब्जेश्वर यशोवर्मा के एक नाटक रामाभ्युदय का पता चलता है पर वह अप्राप्त है और शिव स्वामी के कई नाटको का पता चलता है पर मिले एक भी नहीं है। तापस वत्सराज के लेखक अनंगहर्ष मात्रराज का समय भी निश्चित नहीं है। मायुराज का उदात्तराघव अप्राप्त है। इस काल के अन्य दो नाटक पार्वती-परिणय और मल्लिकामारुत, वाणभट्ट तथा दंडी कृत माने जाते थे पर वे वास्तव में क्रमशः वामनभट्ट वाण तथा उद्दंडिन् कृत हैं। धनिक ने दशरूप की कारिका में रामाभ्युदय के सिवा छलितराम, पांडवानंद तथा दो तीन प्रकरण आदि का उल्लेख किया है। मुरारि के अनर्घराघव का समय नवीं शताब्दि माना जाता है। यही काल राजशेखर का है, जिसने कर्पूरमंजरी, बालरामायण, विद्धशालभंजिका और बालभारत चार नाटक लिखे हैं। राजशेखर ने अपने समकालीन नाटककार भीमट के पाँच नाटको का उल्लेख किया है। इसी काल में क्षेमीश्वर हुए जिनका चंड-कौशिक प्रसिद्ध है। इनका दूसरा नाटक नैषधानंद है। इसके अनंतर ग्यारहवीं शताब्दि से अबतक के जो नाटक मिलते हैं, उनमें कृष्णमिश्र का प्रबोध चंद्रोदय, जयदेव का प्रसन्न राघव, रविवर्मा का प्रद्युम्नाभ्युदय, रूप गोस्वामी का विदग्धमाधव तथा ललित माधव, शेष कृष्ण का कंसवध, रामवर्मा का रुक्मिणी-परिणय आदि उल्लेखनीय है। इनके सिवा प्रकरण, व्यायोग आदि छोटे छोटे रूपक बहुत से लिखे गए पर उन सबका नाम भी उल्लेख करने का यहाँ स्थानाभाव है।

प्राचीन-परंपरा-भीरु भारत ने अनेक शताब्दियो से प्रचलित [ भूमिका ]भाषाओं में नाटक न लिखकर संस्कृत ही में लिखने का जो अप्राकृतिक प्रयास किया था उसी कारण नाटक का प्रायः ह्रास सा रहा। मुसल्मानी राज्य होने पर उनसे संस्कृत को सहायता मिली ही नहीं, क्योंकि वह जनसाधारण की भाषा न होकर धर्म की भाषा समझी जाती थी। संस्कृत ग्रंथो के फारसी अनुवाद किए जाने का प्रयास कुछ कुछ हुआ था पर संस्कृत के ग्रंथ-प्रणयन की ओर दृष्टि नहीं देना ही सहज स्वाभाविक था इसलिए संस्कृत नाट्य-रचना-काल प्रायः सोलहवीं शताब्दि के अंत तक समझना चाहिए और हिंदी में नाटक रचना का आरंभ नाम मात्र के लिए उसी समय हो गया था पर वास्तव में इसका आरंभ भारतेंदुकाल से ही होता है।