[ ५३ ]काल बड़ा बली है। जहाँ नदियाँ था वहाँ मरुस्थल हैं, जहाँ लहराते हुए खेत थे वहाँ गगनचुम्बी पर्वत हैं; जहाँ विशाल-शिखर राजप्रासाद थे वहाँ निबिड़ कानन है। यह काल ही की करतूत है। खजुराहो के साथ काल ने कराल कुटिलता का व्यवहार किया है। उसकी सारी समृद्धि का उसने संहार कर डाला; विश्वकर्मा के भी शिल्प कर्म को मात करनेवाली अनेक इमारतों को उसने ख़ाक़ में मिला दिया; बड़े-बड़े पराक्रमी राजों, परमार्थज्ञानी पण्डितों, प्रति-कुबेर धनाढ्यो का नाम तक नसने शेष न रक्खा ! सचमुच काल बड़ा बली है; उसका प्रतिद्वन्द्वी संसार में नही । खजुराहो को उसने क्या से क्या कर डाला। एक वह समय था जब वह, हज़ारों वर्ष तक, एक विस्तृत प्रदेश की राजधानी था। एक यह समय है कि लोग उसका नाम तक नही जानते ।

अबू रैहॉ, इब्न बतूता और हेन-साग के ऐतिहासिक लेखों से मालूम होता है कि बुंदेलखण्ड का प्राचीन नाम जजोती, या जझोती, या जझावती था। यह शब्द यजुर्होता या जेजाक-भुक्ति का अपभ्रंश जान पड़ता है। यहाँ यजुर्होता, अर्थात् जजोतिया, लोग रहते थे। जैसे कान्यकुब्ज-देश के नाम से कान्यकुब्ज, मिथिला के नाम से मैथिल और द्रविड़ के नाम से द्राविड़ लोगों
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ने प्रसिद्धि पाई, वैसे ही जजोती-प्रान्त के रहनेवालों ने जजोतिया नाम पाया। बुंदेलखण्ड में अब भी जजोतिया ब्राह्मण रहते है; ब्राह्मण ही नहीं, बनिये तक जजोतिया कहलाते है । इस प्रान्त को छोडकर इस देश में, जजोतिया प्राय: और कही नही रहते । खजुराहो, इसी जजोतिया प्रान्त की प्राचीन राजधानी था। इसे अब कोई-कोई खजुरो भी कहते है।

खजुराहो का सारा वैभव नाश हो गया है। वह समूल ही उजड़ गया है। परन्तु इस भग्नावस्था में भी वहाँ कोई ३० मन्दिर अब तक विद्यमान है, जो उसकी पुरानी समृद्धि का साक्ष्य दे रहे हैं। इनमे से ६ मन्दिर जैनों के, एक बौद्धो का और शेष २३ हिन्दुओं के है।

हमीरपुर जिले में महोबा एक तहसील है। वह चरखारी से दस-बारह मील है। जो रेलवे-लाइन मानिकपुर से झॉसी को जाती है उसी पर एक स्टेशन महोबा भी है। महोबा से खजुराहो ३४ मील, छत्रपुर से २७ मील और पन्ना से २५ मील है। खजुराहो से केन नदी ८ मील है। १०२२ ईसवी मे महमूद ने कालिजर पर चढ़ाई की थी। उसके साथ अरब का रहनेवाला अबू रैहाँ नामक एक इतिहास-लेखक था। पहले-पहल उसी के लेख में खजु- राहो का नाम पाया जाता है। वह उसे कजुराहह कहता है और जजहुति की राजधानी बतलाता है। इसके अनन्तर इब्न बतूता के ग्रन्थ मे खजुराहो का नाम मिलता है। उसका
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ग्रन्थ अरबी में है। ली साहब ने उसका अनुवाद अँगरेज़ी में किया है। इब्न बतूता १३३५ ईसवी में इस देश मे आया था। वह खजुराहो को कजुरा कहता है। इन लोगों ने अपने ग्रन्थों में जो पता बतलाया है उससे यह निर्धान्त सिद्ध होता है कि उनका मतलब खजुराहो ही से है।

जजोती-प्रान्त का नाम सबसे पहले ह्वेन सांग के ग्रन्थ में मिलता है। यह चीनी परिव्राजक सातवे शतक में यहाँ आया था। वह खजुराहो राजधानी की परिधि २१ मील बतलाता है और कहता है कि साधुओं और संन्यासियों ही की बस्ती उसमे अधिक है। उसमे कई दर्जन बौद्ध-मठ हैं; परन्तु बौद्ध-संन्यासी बहुत कम है। हिन्दुओं के १२ मन्दिर हैं, जिनमे एक हज़ार के लगभग ब्राह्मण, पूजा-पाठ के लिए, रहते हैं। राजा ब्राह्मण है; परन्तु बौद्ध धर्म को वह हृदय से मानता है। ह्वेन सॉग ने जजोती-प्रान्त का जो वर्णन किया है उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि उसका मतलब उसी प्रान्त से है जो, इस समय, बुंदेलखण्ड कहलाता है। इससे यह अर्थ निकला कि प्राचीन समय में बुंदेलखण्ड का नाम, कान्यकुब्ज, गौड़ और द्रविड़ इत्यादि की तरह, जजोती था; और इस जजोती की राजधानी खजुराहो में थी। जजोती- प्रान्त में जजोतियों ही की बस्ती अधिक थी। कान्यकुब्ज इत्यादि की तरह, जजोती-प्रान्त ही के नाम से वहाँ के रहने- वाले जजोतिया कहलाये। उनका यह जजोतिया नाम अब
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तक बना हुआ है; परन्तु, जब से बुंदेलों का प्राधान्य इस प्रदेश में हुआ तब से, उनके नामानुसार, इस प्रान्त का नाम बदलकर बुंदेलखण्ड हो गया। जनरल कनिहाम ने अपनी आरकियालाजिकल रिपोर्ट में, जहाँ से हमको इस लेख की सामग्री मिली है, इस विषय का खूब विचार किया है।

इसका ठीक-ठोक पता नही चलता कि खजुराहो में चॅदेलों के पहले किस-किस वंश के नरेशों ने राज्य किया। परन्तु कनिहाम साहब का अनुमान है कि ह्वेन साग के समय में वहाँ ब्राह्मणो का राज्य था, उसके अनन्तर गुप्त-वंशी राजों का हुआ, और सबसे पीछे चंदेलो का। ब्राह्मण- राजों के समय के दो-एक मठ बहुत ही टूटी-फूटी दशा में अब तक विद्यमान हैं। किसी-किसी मठ के एक-आध पत्थर पर बौद्ध-धर्म का सूचक “ये धर्महेतुप्रभवा:" वाक्य भी खुदा हुआ दिखाई देता है। गुप्त-वंशी राजों के राजत्व का प्रमाण उनके सिक्को और शिलालेखों से मिलता है। परन्तु चॅदेलों के राजत्व के निशान औरों की अपेक्षा बहुत हैं, और बडे-बड़े हैं। ये निशान खजुराहो के विशाल मन्दिर हैं।

अनुमान है कि गज़नी के महमूद की चढ़ाई के समय से खजुराहो की शोभा क्षीण होने लगी । उस समय खजुराहो में नन्दराय नामक राजा था। खजुराहो मैदान में था, इस- लिए वहाँ के किले में रहने से शत्रु से पराजय पाने का अधिक डर था। इसी लिए नन्दराय खजुराहो से कालिञ्जर के
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पहाड़ी किले मे चला गया। वहाँ से, कुछ काल के अनन्तर, उसने, या उसकी सन्तति ने, महोबा में रहना पसन्द किया । बारहवे शतक के अन्त तक चन्देलवंशी राजों ने अपनी राज-धानी महोबा में रक्खी। वहाँ पर विजयपाल, कीर्तिवर्मा और मदनवर्मा के राजत्व के सूचक विजय-सागर, कीर्ति- सागर और मदन-सागर नाम के तालाब अब तक बने हुए हैं। तेरहवे शतक के आरम्भ मे कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालपी और महोबा को अपने अधिकार मे कर लिया। तव से चन्देल राजे हमेशा के लिए कालिजर मे रहने लगे। जब तक चंदेले महोबा मे रहे तब तक खजुराहो की अवनति धीरे-धीरे होती रही। परन्तु जब उन्होंने महोबा छोड़ दिया और मुसल्मानों ने वहाँ पर अपना कदम जमाया तब से खजुराहो की लक्ष्मी ने उसे छोड़ जान मे बहुत जल्दी की, और शीघ्र ही उसे प्रायः पूरी तौर पर परित्याग कर दिया। १३३५ ईसवी, अर्थात् इब्न बतूता के समय, तक खजुराहो में “दुबले-पतले जटाधारी अनेक योगी-यती विद्यमान थे।" परन्तु अकबर के समय में वे भी न रह गये। क्योकि आईने- अकबरी मे खजुराहो का कही नाम नही । उन्नीसवे शतक के प्रारम्भ, अर्थात् १८१८ ईसवी, मे फ़कलिन नाम के एक साहब ने, वहाँ पर, बिलकुल जङ्गल पाया था। ये साहब बन्दोबस्त के महकमे से सम्बन्ध रखते थे। इन्होने इस प्रान्त के नक्शे मे “कजरौ" लिखकर उसके आगे “उजाड़",
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का शब्द जोड़ दिया है। परन्तु इस “उजाड़ कजरी" में फाल्गुन के महीने में, शिवरात्रि को, अब भी लाखों आदमी इकट्ठे होते हैं। वहाँ उस समय एक बहुत बडा मेला लगता है और दो-तीन कोस तक आदमी ही आदमी नज़र आते हैं ।

खजुराहो. इस समय, एक छोटा सा गाव है। उसमे कोई दो सौ घर है और एक हजार आदमी के लगभग रहते है। जजातिया ब्राह्मण अधिक हैं, चन्देल-राजपूत कम । वहाँ के राजपूत अपने को पृथ्वीराज के प्रतिम्पर्धी परमाल ( परमर्दि देव ) के वंशज बतलाते है। वहाँ खजूर-सागर नाम का एक बड़ा तालाब है। उसी के दक्षिण-पूर्व कोने पर यह गॉव है। गाँव के चारों तरफ की भूमि मन्दिरो और मन्दिरों के भग्नावशिष्ट भागों से घिरी हुई है। ये इमारते तीन जगहों पर अधिक है——पश्चिम की तरफ़, उत्तर की तरफ़ और दक्षिण- पूर्व की तरफ़। कुछ मन्दिर करार नामक नाले के तट पर भी हैं। यह नाला गाँव से कोई मील भर है। ये टूटे और बे-टूटे मन्दिर दूर-दूर तक चले गये हैं। इन इमारतो के फैलाव के देखने से, ह्वेन सांग का लिखा हुआ, खजुराहो का, विस्तार ठीक जान पड़ता है। सातवे शतक मे इस परि- ब्राजक ने खजुराहो को अच्छी दशा मे देखा था। उसके लिखे हुए तत्कालीन इमारतो के वर्णन से यह सिद्ध है कि कम से कम ईसा की पहली सदी मे खजुराहो अस्तित्व मे था। अर्थात् खजुराहो के कोई-कोई खंडहर दो हज़ार वर्ष के पुराने हैं।
[ ५९ ]खजुराहो मे, भग्न और अभग्न, सब ३० मन्दिर और मठ है। उनके नाम हम नीचे देते हैं——


१ चैंसठ जोगिनी का मन्दिर
२ गणेश का मन्दिर
३ कण्डारिया (१) महादेव
४ महादेव का मन्दिर
५ देवी जगदम्बा का मन्दिर
६ चित्रगुप्त का"
७ विश्वनाथ का"
८ नन्दिगण का"
६ पार्वती का "
१० चतुर्भुज का"
११ वराह का"
१२ देवी का"
१३ मृतङ्ग (मृत्युञ्जय) महादेव का मन्दिर (उजाड़)
१४ ( उजाड़)
१५ सत्यधरा ( उजाड़)
१६ वत्सी की टोरिया ( उजाड़)
१७ वामन का मन्दिर
१८ लक्ष्मण"
१६ हनूमान"
२० ब्रह्मा "

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२१ गन्थाई (वैौद्ध लोगों का )
२२ पार्श्वनाथ
२३ आदिनाथ
२४ पार्श्वनाथ


२५ जिननाथ

जैनों के मन्दिर


२६ श्वेतनाथ
२७ आदिनाथ
२८ ऊँचा टीला
२६ नीलकण्ठ महादेव
३० कुवर मठ

इनमे से दो-चार प्रसिद्ध-प्रसिद्ध मन्दिरो का वर्णन, हम, यहाँ पर, थोड़े मे, करते हैं——

पश्चिमी समूह मे जितने मन्दिर हैं वे प्रायः दसवी और ग्यारहवी शताब्दी के मालूम होते हैं। पर उनमे से चौसठ जोगिनी का मन्दिर सबसे पुराना है। वह आठवी शताब्दी के इधर का नही जान पडता। चौसठ जोगिनी के बीच का मन्दिर नष्ट हो गया है। उसके चारों तरफ़ दीवार मे छोटी- छोटी ६४ कोठरियाँ हैं। उन्ही मे योगिनियों की मूर्तियाँ स्थापित थीं। मन्दिर का प्राङ्गण १०२ फुट लम्बा और ६० फुट चौडा है। दीवारों की मुटाई ५१ फुट है। प्रत्येक योगिनी की कोठरी ३३ .फुद ऊँची है। कोठरियों का दर-
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वाज़ा बहुत छोटा है। सब कोठरियॉ मन्दिर के आकार की हैं, उन पर कलश भी हैं। पर मूर्तियाँ उनमे अब एक भी नही।

कण्डारिया महादेव का मन्दिर, खजुराहो में, सबसे बड़ा है। वह १०६ फुट लम्बा, ६० फुट चौडा और ११६ फुट ऊँचा है। उसमे मन्दिर के सब लक्षण हैं। अर्द्धमण्डप, मण्डप, महामण्डप, अन्तराल और गर्भगृह ये सब उसमें हैं। परन्तु यह समझ में नहीं आता कि “कण्डारिया" का मतलब क्या है ? इस मन्दिर की छत में बहुत अच्छा काम है। इस का कोई भाग ऐसा नहीं है जिसमे पत्थर को काटकर मूर्तियाँ न बनाई गई हों। जगह-जगह पर ताक है; उन पर मूर्तियाँ बैठी हुई हैं। भीतर, बाहर, ऊपर, नीचे——यह मन्दिर मूर्तिमय हो रहा है। मन्दिर के भीतर २२६ और बाहर ६४६ मूर्तियाँ कनिहाम साहब ने गिनी थीं। एक मन्दिर में ८७२ मूर्तियाँ! बहुत हुई। मूर्तियाँ छोटी भी नहीं। कोई-कोई मूर्ति तीन-तीन फुट ऊँची है ! इन मूर्तियों का अधिक समूह गर्भ-गृह और महामण्डप के बीचवाले खम्भों पर है। इनमे से अनेक मूर्तियाँ अश्लीलता-व्यजक हैं। सुनते हैं, कुछ तो ऐसी हैं जिनकी तरफ़ देखा नही जाता। परन्तु बहुत सी मूर्तियाँ अच्छी भी हैं। अच्छी अधिक हैं; अश्लील कम। देवी-देवताओं की जितनी मूर्तियाँ हैं वे सब बहुत अच्छी हैं। इस मन्दिर मे ४३ फुट मोटा शिवलिङ्ग है।
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जान पड़ता है कि यह लिङ्ग पहले ही का है। जिस समय मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई थी उसी समय उसकी भी स्थापना हुई थी। इस मन्दिर के बनानेवाले कारीगरों ने “कुटिल," अक्षरो में अपने नाम खोद दिये हैं। उनसे अनुमान होता है कि यह मन्दिर दसवी शताब्दी का है।

कनिहाम साहब एक मन्दिर का नाम “छत्रकीपत्र" बत- लाते हैं और कहते हैं कि उनको इसका मतलब समझ नही पड़ा । शायद यह चित्रगुप्त का मन्दिर हो। परन्तु और बातों से मालूम होता है कि यह सूर्य का मन्दिर है । गर्भ- गृह के द्वार पर इसमें सूर्य की तीन प्रतिमाये हैं और भीतर ५ फुट ऊँची सूर्य की एक बहुत ही बड़ी प्रतिमा है। उसके दोनों हाथो में कमल के फूल हैं। मूर्ति के नीचे. आधार में, सूर्य के सात घोड़े भी बने हुए हैं। इसके अर्द्ध-मण्डप और महामण्डप का बहुत कुछ भाग गिर पड़ा है। इसके खम्भों वगैरह में, कही-कही पर, काम पूरा नही हुआ । इससे जान पड़ता है कि बनवानेवाले के इच्छानुसार काम होने के पहले ही उसे, किसी कारण से, छोड़ देना पड़ा। ' इससे भी मन्दिर की बाहरी तरफ अश्लील मूर्तियों की तीन पॉते हैं। परन्तु अश्लीलता की मात्रा इनमे कम है। ब्रह्मा, सर- स्वती, शिव, पार्वती, विष्णु, लक्ष्मी और वराह आदि की जो मूर्तियाँ इस मन्दिर मे हैं वे बिलकुल अश्लीलता-रहित हैं और देखने लायक हैं। इसमे कोई शिलालेख नही। परन्तु
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दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी के कुटिल अक्षरों मे भीम, सुवच और नाहिल आदि अनेक कारीगरो के नाम खुदे हुए है।

पश्चिमी-समूह के मन्दिरों मे विश्वनाथ का मन्दिर ठेठ उत्तर की तरफ है। उसका आकार-प्रकार वैसा ही है जैसा कण्डारिया मन्दिर का है। परन्तु उससे यह कुछ छोटा है। इसकी लम्बाई ८७ फुट और चौड़ाई ४६ .फुट है । कण्डारिया से यह छोटा है सही; परन्तु उससे कही अच्छी हालत में है। इसके चारों कोनों मे एक-एक छोटा मन्दिर है और एक सामने भी है। इन छोटे मन्दिरों में से कोई-कोई अभी तक पूरा बना हुआ है; कोई-कोई गिर पड़ा है। गर्भ-गृह के द्वार के ऊपर नन्दी पर सवार शिव की मूर्ति है। उसके दाहिनी तरफ़ हंस पर ब्रह्मा हैं और बाई तरफ़ गरुड़ पर विष्णु। मन्दिर के भीतर शिव का एक लिङ्ग है। इस मन्दिर के भी बाहर अश्लील मूर्तियों के झुण्ड है। जगह- जगह पर स्त्रियों की मूर्तियाँ हैं, जिनमे यह दिखलाया गया है कि वे अपने वस्त्रों को गिराकर नग्न होना चाहती हैं। सब मिलाकर ६०२ मूर्तियाँ इस विशाल मन्दिर के बाहर बनी हुई है। उनकी उँचाई दो से ढाई फुट तक है। मन्दिर के भीतर का काम बहुत अच्छा है, अनेक प्रकार का है; और बहुत है। महामण्डप और गर्भ-गृह की छत में दस कोने हैं और प्रत्येक कोने मे आधे कद के एक-एक हाथी की मूर्ति है। ये मूर्तियाँ बाहर की तरफ निकली हुई है और बहुत बड़ी होने के कारण
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मन्दिर की शोभा को कुछ कम कर देती हैं। उनके कारण मन्दिर का मनोहर दृश्य किसी कदर छिप जाता है।

इस मन्दिर में दो शिलालेख हैं। एक ६६६ ईसवी का, दूसरा १००१ ईसवी का। यह मन्दिर चन्देल राजा धङ्ग का बनवाया हुआ है। आदि में जो शिवलिङ्ग इस मन्दिर में स्थापित किया गया था वह मरकतमय था; परन्तु उस मार- कतीय लिङ्ग का कुछ पता नहीं। यात्रियो और कारीगरों के अनेक नाम इस मन्दिर के पत्थरों पर उत्कीर्ण हैं। उनमे से दो-चार नाम ये हैं——श्रीजस, रान, श्रीदेवनन्द, श्रीदेवादित्य, ओमहानाग, और श्रीजगदेव ।

खजुराहो में इतने प्राचीन मन्दिरो को देखकर आश्चर्य होता है। जान पडता है कि मुसलमानों के आवागमन मार्ग से दूर होने के कारण उनके हथौडे, गोलियाँ और फावड़े इन तक नहीं पहुँच सके। ऐसे-ऐसे मन्दिरों को समृल खोद डालने से, जब इन लोगों के लिए स्वर्ग और मर्त्य, दोनों लोकों में, ऊँचे-ऊँचे महल और मस्जिदें बिना प्रयास तैयार हो सकती हैं तब यदि वे वहाँ तक पहुँच सकते तो थोडा-बहुत पुण्य-सञ्चय किये बिना कभी न रहते।

चतुर्भुज का मन्दिर भी, यहाँ पर, बड़े मन्दिरों में से है। इसे कोई-कोई रामचन्द्र का मन्दिर कहते है और कोई-कोई लक्ष्मण का। परन्तु तीनों नाम विष्णु ही के वाचक हैं। इसमें जो प्रधान मूर्ति है वह चतुर्बाहु है। इसलिए
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इस मन्दिर का नाम चतुर्भुज अधिक सार्थक है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई लगभग उतनी ही है जितनी विश्वनाथ के मन्दिर की है। और बातो में भी यह उसी के अनुरूप है। इसमे भी सामने और चारों कोनों में एक-एक छोटा मन्दिर है। काम भी इसका प्रायः उसी मन्दिर का जैसा है। हॉ, एक बात की इसमे कमी है। इसमें मूर्तियों की प्रचुरता नहीं है। सिर्फ १७० मूर्तियाँ भीतर और २३० बाहर हैं। इसके चबूतरे की दीवारों पर नक्काशी का काम बहुत अच्छा है। कही पर बनैले सुअरों का शिकार किया जा रहा है; कहीं पर सजे हुए हाथियों और घोड़ों की पातें खड़ी हैं; कही पर अनेक प्रकार के शस्त्रों से सजिव सिपाही चले जा रहे हैं। इस मन्दिर में भी एक लेख है। वह ६५४ ईसवी का खुदा हुआ है। उसमें चन्देलवंशी राजों के नाम, यशोवर्मा और उसके पुत्र धङ्ग तक, हैं। खजुराहो के मन्दिर छत्रपुर की रियासत में हैं। जिस समय महाराजा छत्रपुर ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई उस समय यह शिलालेख इस मन्दिर के नीचे एक जगह गड़ा हुआ मिला। यह बात १८४३ ईसवी के बाद की है; क्योंकि उस समय तक इस लेख का कोई पता न था। इस लेख के अनुसार यह मन्दिर राजा यशोवर्मा ने बनवाना आरम्भ किया; पर उसकी मृत्यु के अनन्तर, उसके पुत्र धङ्ग के राजत्वकाल मे, यह समाप्ति को पहुंचा।
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मृतङ्ग महादेव अथवा मृत्युजय का मन्दिर सम-चतुष्कोण है। भीतर से वह २४ वर्ग फुट है और बाहर से ३५ । उसके भीतर शिव का जो लिङ्ग है वह ८ फुट ऊँचा है। मुटाई उसकी ३ .फुट ८ इञ्च है। इसमे न तो कोई शिलालेख ही है और न किसी मिस्त्री या यात्रो का कोई नाम ही है। मरम्मत करने में बाहर से इस पर इतना गाढ़ा चूना पोत दिया गया है कि उसका भीतरी दृश्य बिलकुल छिप गया है। इससे यह नही विदित होता कि चूने के नीचे कुछ काम था या नहीं और था तो कैसा था। इसके शिखर पर एक चमकीला कलश है, जिसे महाराजा छत्रपुर ने लगवाया है।

उत्तरी-समूह में जितने मन्दिर हैं उनमे से वामनजी का मन्दिर सबसे बड़ा है। उसकी लम्बाई ६० फुट और चौड़ाई ३८ फुट है। मन्दिरों के बाहर की तरफ़ इसमे दो पॉते मूर्तियों की हैं। गिनती में वे कोई ३०० के लगभग होंगी। इसके भीतर वामन की भी मूर्ति है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भी मूर्तियाँ हैं। इस मन्दिर मे यह विशेषता है कि इसमें जो काम है वह कई प्रकार का है; एक नमूने का नहीं है, अनेक नमूने का है और उत्तम है। यह मन्दिर भी दसवी या ग्यारहवी शताब्दी का जान पड़ता है।

दक्षिण-पूर्वी समूह में एक मन्दिर बौद्धो का और ६ जैनों । के हैं। उनमें से एक जैन मन्दिर बहुत बड़ा है। वह जिन. नाथ के नाम से प्रसिद्ध है। उसके द्वार के एक ओर एक
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छोटा सा लेख, है जिसमें लिखा है कि राजा धन के राज्यकाल में भव्य पाहिल ने,९५४ ईसवी में, इस मन्दिर के लिए कई वाग सङ्कल्प कर दिये। उसी लेख में, इस मन्दिर का नाम जिन-नाथ का मन्दिर भी लिखा है। इसकी लम्बाई ६० फुट और चौड़ाई ३० फुट है। एक धनी जैन ने इसकी मरम्मत करा दी है। इससे यह अब बिलकुल नया मालूम होता है। देखने में यह मन्दिर बहुत सुन्दर, सुडौल और दर्शनीय है। इसके भी बाहर बहुत सी मूर्तियाँ हैं। जैन मूर्तियो के बीच में हिन्दू- देव और देवियों को भी स्थान मिला है। यात्रियों ने इस मन्दिर पर लम्बे-लम्बे लेख खोद डाले हैं। इन यात्रियो में दो एक राजपुत्र भी थे।

आदिनाथ और पार्श्वनाथ के मन्दिर यद्यपि छोटे हैं; परन्तु औरों की अपेक्षा कुछ अधिक पुराने हैं।

इन मन्दिरों के सिवा, खजुराहो में, छोटी-बड़ी सैकड़ों मूर्तियाँ हैं। उनमे से कुछ खेडहरों में पड़ी हैं, कुछ मन्दिरों के आस-पास रक्खी हैं; और कुछ तालाबो के किनारे रख दी गई हैं। यहाँ तक कि बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे भी वे विराज रही हैं। इन मूर्तियों में से एक मूर्ति हनूमान की है। उसके पीठक पर एक छोटा सा लेख, ८६८ ईसवी का, है। चन्देल- वंशी राजों के समय के शिलालेखों में यह सबसे पुराना है।

[ मई १९०७

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