प्राचीन चिह्न/प्रयाग-प्रान्त के प्राचीन ऐतिहासिक नगर

प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ४५ से – ५२ तक

 


पूर्वकाल में इलाहाबाद के आस पास के प्रसिद्ध ऐतिहा- सिक स्थानों मे कालनगर, अलर्कपुरी, शृङ्गिवीरपुर, कौशाम्बी, भारहट और प्रतिष्ठानपुर मुख्य थे। मगध देश के चक्रवर्ती राजा अशोक ने अपनी प्रजा के सुभीते के लिए कितनी ही सड़कें बनवाई थी। पत्थर के ऊँचे-ऊँचे स्तम्भों और पहा- ड़ियों की चटानों पर उसने अपनी आज्ञाये और प्रतिज्ञाये खुदवा दी थीं। प्रजा के हित के लिए जो-जो काम उसने किये थे उनका भी उल्लेख उसके इन आदेशो में पाया जाता है। उसके दो उत्कीर्ण शिलालेखों मे लिखा है——“मैंने सड़के बनवा दी हैं; उनके किनारे बड़े-बड़े बरगद और आम के पेड़ लगवा दिये हैं; एक-एक मील पर कुवे खुदवाये हैं; धर्मशालायें भी जगह-जगह पर बनवाई है। मनुष्यों ही के नही, पशुओं और पक्षियों तक के आराम का प्रबन्ध मैंने कर दिया है।"

अशोक की बनवाई कई सडको का पता पुरातत्त्ववेत्ताओं ने लगाया है। उज्जैन उस समय मगध-राज्य का एक सूबा था। वहाँ से एक सड़क भिलसा, रूपनगर, भारहट, कौशाम्बी और प्रयाग होती हुई राज-गृह को जाती थी। अशोक के शासनकाल में ये नगर बड़े ही समृद्धिशाली थे। साँची के स्तूप भिलसा के बिलकुल पास हैं। पूर्व काल मे भिलसा

की बस्ती साँचो तक थी। रूपनगर मे अशोक के खुदे हुए शिलालेख मिले हैं। यह नगर भी उस समय बहुत ही अच्छी दशा मे था। भारहट और कौशाम्बी का क्या कहना है। इन नगरों की तो बड़ी ही अजितावस्था थी। कालनगर और शृङ्गिवीरपुर भी खूब वैभवसम्पन्न थे।

कौशाम्बी

कौशाम्बी के आस-पास का प्रान्त पहले वत्स देश कहलाता था। कौशाम्बी उसकी राजधानी थी। उसका वर्तमान नाम कोसम है। यह जगह इलाहावाद से कोई तीस मील दूर, यमुना के तट पर, है। वारह सौ वर्ष हुए जब चीनी परिव्राजक हेन-साग भारत मे आया था। उसने लिखा है कि उस समय तक कौशाम्बी नगरी अच्छी दशा मे थी। वहाँ के राजा के राज्य का विस्तार बारह सौ मील के इर्द-गिर्द में था। गौतम-बुद्ध ने इस नगरी मे दो दफ़े करके दो वर्ष तक धर्मोपदेश किया था। इस कारण बौद्ध लोग बड़े भक्ति भाव से इस स्थान की यात्रा करने आते थे। हेन-सांग ने, और उसके कुछ काल पहले ही फ़ा-हियान नामक चीनी यात्री ने भी, कौशाम्बी के दर्शन किये थे। उस समय वहाँ कितने ही स्तूप, विहार और सङ्घाराम थे।

बौद्ध धर्म के आविर्भाव के बहुत पहले ही कौशाम्बी बस चुकी थी। गङ्गा की धारा मे हस्तिनापुर के बह जाने के बाद, सुनते हैं, पाण्डववंशी कुशाम्ब नामक राजा ने उसे बसाया था।

पर इसकी विशेप उन्नति राजा चक्र के समय से हुई। आज से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व परन्तप का पुत्र उदयन यहाँ राज्य करता था। राजा उदयन-सम्बन्धिनी कथा पुराणों मे भी है, पुराने काव्यों और नाटकों में भी है और कथा-सरित्सागर मे भी है। कालिदास ने अपने मेघदूत मे इसी उदयन का उल्लेख किया है। बौद्धो के धम्मपद नामक ग्रन्थ में अवन्ति- नरेश की कन्या वासवदत्ता और कौशाम्बी के अधीश्वर उदयन के विवाह की वार्ता बड़े विस्तार से लिखी गई है। बौद्धो के महावंश और ललितविस्तर नामक ग्रन्थों मे भी कौशाम्बी के वैभव का बड़ा ही महत्त्वदर्शक वर्णन है। उनमे लिखा है कि प्राचीन समय मे कौशाम्बी की गिनती भारत के १६ प्रधान नगरों मे थी। राजा उदयन ने बुद्ध की एक मूर्ति चन्दन की बनवाई थी। हेन-सांग के समय तक वह कौशाम्बी के राज- महलों में विद्यमान थी। उसके दर्शन के लिए हज़ारो कोस दूर के देशी और विदेशी बौद्ध वहाँ आते थे। कौशाम्बी मे किसी समय बड़ा व्यापार होता था। यमुना के किनारे होने के कारण करोड़ों रुपये का माल वहाँ नावों से आता और वहाँ से श्रावस्ती, साकेत, प्रतिष्ठान और पाटलिपुत्र को जाता था।

कौशाम्बी मे कितने ही विहार और स्तूप थे। महाराज उदयन के महल की उँचाई ६० फुट थी। इस नगर के इर्द-गिर्द, दो-दो चार-चार मील की दूरी पर, बौद्धों के चार प्रसिद्ध विहार थे। इस स्थान की प्रसिद्धि और समृद्धि को देखकर ही अशोक

ने यहाँ पर एक ऊँचा स्तम्भ बनवाया था और उस पर अपने आदेश खुदाये थे। प्राचीन इतिहास और इमारतों की खोज करनेवाले विद्वानो का अनुमान है कि इलाहाबाद के किले में जो स्तम्भ इस समय है वह पहले कौशाम्बो ही में था।

इस समय कौशाम्बी के प्राचीन वैभव की गवाही देने- वाला वहाँ के किले का धुस्स मात्र रह गया है। उसका घेरा चार मील से भी कुछ अधिक है। भग्नावशिष्ट दीवार की उँचाई अब भी ३५ फुट है। पर बुर्जे ५० फुट तक ऊँची हैं । ये सब मिट्टी की हैं। इस नष्ट-विनष्ट गढ के भीतर एक और पुराना चिह्न अब तक विद्यमान है। यह पत्थर का एक ऊँचा स्तम्भ है। इसकी वर्तमान उँचाई केवल १४ फुट है। पर, उसके पास उसके कई टूटे हुए टुकड़े भी पड़े हैं। जनरल कनिहम ने उसके आस-पास सात-आठ फुट तक खोदा, पर उसकी जड़ न मिली। टूटे हुए टुकड़ों की उँचाई और आठ फुट नीचे की खुदाई को जोड़ने से इस स्तम्भ की उंचाई २८ फुट होती है। परन्तु इस तरह के अन्यान्य स्तम्भों की उँचाई को देखते यह भी ३६ फुट से कम ऊँचा न रहा होगा। यह स्तम्भ भी बौद्धों के समय का जान पड़ता है। इस पर अशोक का तो कोई लेख नहीं, पर और कितने ही लेख उत्कीर्ण हैं। उनमे से कई बहुत पुराने हैं। एक गुप्त-वंशी नरेशों के समय का है। एक और उससे भी पुराना है। इस स्तम्भ को लोग अब “राम की छड़ी" कहते हैं।
इस कौशाम्बी नगरी में न अब कोई विहार है, न स्तूप है, और न अभ्रकष प्रासाद ही है। है अब मिट्टी के धुस्स और एक टूटा-फूटा स्तम्भ । कौशाम्बी का नाम और उसके प्राचीन वैभव का उल्लेख-मात्र प्राचीन ग्रन्थों और शिलालेखों में है। उसकी प्राचीन समृद्धि का सबसे अधिक स्मरण दिलानेवाला पूर्वोक्त स्तम्भ है। काल बड़ा बली है। उसके प्रभाव से अनन्त-वैभव-सम्पन्न नगर मिट्टी मे मिल गये और जहाँ अखण्ड जगल थे वहाँ बड़े-बड़े किले और महल खड़े हो गये।

शृङ्गिवीरपुर

इस नगर का वर्तमान नाम सिगरौर है। यह जगह इला- हाबाद से १८ मील दूर, गङ्गा के किनारे, है। यहीं शृङ्गो ऋषि का स्थान है। किसी समय यह बहुत बड़ा नगर था। पर गङ्गाजी के गर्भ मे चला गया। प्राचीन समय की यहाँ केवल अब ईटें मात्र कही-कही देख पड़ती हैं। वर्तमान चबूतरे, स्थान और मन्दिर सब नये हैं। महम्मद मदारी नामक एक मुसलमान की कत्र भी यहाँ है।

कोड़ा

कोड़ा भी एक बहुत पुरानी बस्ती है। उसका प्राचीन नाम कर्कोटक-नगर है। पुराणों में लिखा है कि वहाँ पर अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ मे मरनेवाली सती का एक हाथ गिरा था। वहाँ पर कालेश्वर का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। उसके नामानुसार उसे कालनगर भी कहते हैं। गङ्गा

के किनारे वहाँ पहले एक बहुत मज़बूत किला था। उसका चिह्न-मात्र अब रह गया है। किसी समय यह नगर कन्नोज-्राज जयचन्द के अधिकार में था। यहाँ पर बहुत पुराने समय के कितने ही सिक्के मिले हैं, जो कलकत्ते के अजायबघर में रक्खे हैं। १०३५ ईसवी का खुदा हुआ राजा यशःपाल का एक शिलालेख भी यहाँ मिला है।

ख्वाजा करक नामक एक आलिया की यहाँ प्रसिद्ध कब्र है। १३०९ ईसवी मे उसकी मृत्यु हुई थी। अलाउद्दीन मुहम्मद खिलजी ने जिस समय अपने चचा जलालुद्दीन मुहम्मद खिलजी को मारा था उस समय ख्वाजा करक जीते थे। एक और भी कब्र यहाँ पर है। वह कमाल खॉ की है।

कड़े के भग्नावशेष गङ्गा के किनारे-किनारे कोई दो मील तक देख पड़ते हैं। पहले यह बहुत बड़ा शहर था। अनेक कब्रो, मसजिदें और ईदगाहे यहाँ अब तक है। मुग़ल-बाद-शाहों के सूबेदार पहले यही रहते थे। जब से अकबर ने इलाहाबाद में किला बनवाया तब से सूबेदारी वहाँ उठ गई और कड़े की अवनति प्रारम्भ हुई। इस समय वहाँ पृथ्वी के पेट में जितने मुर्दे गड़े हुए हैं उससे बहुत कम मनुष्य जीवित अवस्था में पृथ्वी के ऊपर है।

अरैल

इलाहाबाद से चार मील दूर एक जगह अरैल है। उसका प्राचीन नाम अलर्कपुरी है । पर उसका पूर्वेतिहास बिलकुल ही
अज्ञात है। सोमेश्वर और वेनीमाधव के प्रसिद्ध मन्दिर यहीं पर हैं। इन मन्दिरों की कोई-कोई मूर्तियाँ महत्त्व की हैं।

प्रतिष्ठानपुर

प्रतिष्ठानपुर के प्राचीनत्व के बोधक अब केवल मिट्टी के पुराने बर्तनों के टूटे-फूटे टुकड़े, मिट्टी और ईटों के ऊँचे-ऊँचे धुस्स, और गुप्तवंशी नरेश समुद्रगुप्त और हंसगुप्त के किलों के टीले मात्र हैं। जिस जगह पर प्राचीन प्रतिष्ठानपुर था वहाँ अब नई और पुरानी झूसी नाम के दो गाँव हैं। झुँसी गङ्गा के उत्तरी तट पर है और इलाहाबाद से केवल तीन मील है। प्रतिष्ठानपुर चन्द्रवंशी राजों की बहुत दिन तक राज- धानी था। प्रसिद्ध राजा पुरूरवा यहीं हुआ है। कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नाटक में जिस प्रतिष्ठानपुर का उल्लेख किया है वह स्थान यही है। कोई ४५ वर्ष हुए, राजा कुमारगुप्त के समय की २४ सुवर्ण-मुद्राये यहाँ मिली थीं। जैसे सारनाथ प्रादि स्थानों मे खोदने पर सैकड़ों चीजें पुराने समय की मिली हैं, वैसे ही, यदि यहाँ पर भी खुदाई हो तो, बहुत सी चीज़ों के मिलने की सम्भावना है। राजा त्रिलोचनपाल का एक दानपत्र, जिस पर विक्रम संवत् १०८४ खुदा हुआ है, यहाँ मिल भी चुका है। इस संवत् तक प्रति- ष्ठानपुर का वैभव विशेष क्षोण नहीं हुआ था। पर इसके बाद ही इसकी उतरती कला आरम्भ हुई। धीरे-धीरे काल ने इसकी वह गति कर डाली जिसमें यह इस समय वर्तमान

है। उधर प्रतिष्ठान की अवनति हुई, इधर प्रयाग की उन्नति । किसी-किसी का अनुमान है कि प्रतिष्ठान की अवनति के कारण मुसलमान हैं। यह भी किवदन्ती है कि हरवांग नाम का एक मूर्ख राजा यहाँ हुआ। उसके सब कामों में——

टका सेर भाजी टका सेर खाजा

वाली कहावत चरितार्थ होती थी। उसी के समय से प्रतिष्ठान की अधोगति का सूत्रपात हुआ। परन्तु इस विपय का कोई विश्वसनीय ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। नही मालूम, सच बात क्या है।

झूॅसी में समुद्रगुप्त और हंसगुप्त के किलों का अब कोई चिह्न नही। पर समुद्रगुप्त का समुद्र-कूप अब तक बना हुआ है। इसी कूप के पास, थोड़ी दूर पर, हंस-कूप अथवा हंस-तीर्थ नाम का एक और पुराना कुवॉ है। वह महाराज हंसगुप्त का बनवाया हुआ है। वह बिगड़ा पडा है। उस पर एक लेख खुदा है जिसमे लिखा है कि इसमे स्नान करने से पापो का क्षालन होता है। इसी के पास एक नया मकान बन गया है। लोग अब उसे ही हंसतीर्थ समझते हैं। पुराने और सच्चे हंसतीर्थ को वे भूल सा गये हैं।

पूँसी के नये स्थानों में से तिवारी का मन्दिर देखने योग्य है।

[ फरवरी १९११


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