प्राचीन चिह्न/देवगढ़ की पुरानी इमारतें
ललितपुर पहले संयुक्त-प्रदेश का एक ज़िला था। परन्तु
अब वह ज़िला नही, झॉसी का एक सब-डिवीज़न मात्र
है। झॉसी से ललितपुर ५६ मील है। ललितपुर के आस-
पास देवगढ़, चन्देरी, चाँदपुर, दुधई, मदनपुर, तालबेहट,
बानपुर, खजुराहो और बुधनी इत्यादि मे बहुत सी पुरानी
इमारतें हैं। उनमे से कितनी ही बहुत प्राचीन हैं।
चट्टानो के ऊपर कही-कही ऐसी मूर्तियाँ और चित्र बने हुए
हैं जो ऐतिहासिक समय के भी पहले के हैं। गवर्नमेट
ने एक महकमा खोल रक्खा है, जिसका काम पुरानी इमा-
रतो और शिलालेखो इत्यादि का पता लगाना, उनका इति-
हास लिखना और उनके नकशे तथा फोटोग्राफ़ इत्यादि प्रका-
शित करना है। बाबू पूर्णचन्द्र मुकुर्जी इस महकमे से सम्बन्ध
रखते थे। उनका शरीरान्त हुए कई वर्ष हुए। १८८७
ईसवी में वे झॉसी में थे। उसी समय हम भी पहले-पहल
झॉसी आये थे। ललितपुर के सब डिवीज़न मे देवगढ़ की
पुरानी इमारते बहुत प्रसिद्ध हैं। पूर्ण बाबू से उनकी प्रशंसा
सुनकर हमको उन्हें देखने की इच्छा हुई। अतएव कई मित्रों
के साथ जाकर हमने उनको प्रत्यक्ष देखा। उन्हीं का संक्षिप्त
वृत्तान्त हम यहाँ पर लिखते हैं। पूर्वोक्त बाबू साहब ने
ललितपुर प्रान्त की इन पुरानी इमारतों पर एक रिपोर्ट लिखी
है और उसी के साथ १३ नकरो और ९८ चित्र भी दिये हैं। उनको, कोई दस वर्ष हुए, गवर्नमेट ने प्रकाशित भी
कर दिया है। यह लेख लिखने में हमको उससे बडो सहा-
यता मिली है।
इंडियन मिडलैंड रेलवे की जो शाखा झॉसी होकर
बम्बई को गई है, ललितपुर उसी पर है। वहाँ रेलवे स्टेशन
है। ललितपुर से दक्षिण, १० मील पर, एक स्टेशन जाख-
लौन है। वहीं से देवगढ़ को रास्ता गया है। जाखलौन से
देवगढ़ कोई ५ मील है। हम, अपने मित्रों के साथ, जाख.
लैौन उतरे और स्टेशन-मास्टर तथा पुलस के सब-इन्स्पेकृर
की सहायता से बैलगाड़ियों पर वहाँ से देवगढ़ के लिए रवाना
हुए। देवगढ़ जाने का रास्ता पहाड़ो घाटियों के बीच से है।
इसलिए, यदि कुछ सामान साथ हो तो, बैलगाड़ियों के सिवा
और किसी सवारी से काम नहीं चल सकता। देवगढ़ के
पास पहुँचकर हमने देखा कि उसका पुराना किला एक
पहाड़ी के ऊपर बना था। वह अब नामशेष हो गया है।
किले की बाहरी दीवारे तक गिरकर, पहाड़ी के चारो तरफ़,
ऊँचे-ऊँचे .घुस्स से हो गये हैं। उनको देखने से यह
अनुमान किया जा सकता है कि अपने समय मे यह किला
बहुत बड़ा और बहुत मज़बूत रहा होगा। पहाड़ो के ऊपर, किले के भीतर, गहन जङ्गल है, जिसमे रीछ, भेड़िये,
तेदुवे और जङ्गली कुत्ते घूमा करते हैं। हिन्दुओं और जैनियों
के पुराने मन्दिर इसी गहन वन के भीतर हैं। उनमे से बहुतेरे प्राय: भग्न अवस्था में हैं। किले के नीचे, या यों कहना चाहिए कि पहाड़ी के नीचे, बेतवा नदी की धारा ऊँची-ऊँची चट्टानों के बीच से बहती है। बरसात मे जब यह नदी बढ़ती है तब चट्टानो में कर खाने से भयङ्कर शोर मचाती है। नदी से थोड़ी दूर पर एक छोटा सा गाँव है। उसमे भी दो-एक पुराने मन्दिर हैं। गॉव में
विशेष करके जङ्गली आदमी रहते हैं। उनका नाम सहरिया है। वे बहुधा शिकार पर, अथवा जङ्गल में पैदा होने-वाले गोंद, शहद और वन-फलो पर अपना निर्वाह करते हैं । कोई-कोई खेती भी करते हैं और कत्था बनाकर देहाती बनियों के हाथ बेचते है। ये लोग बहुत असभ्य है। देखने में बिलकुल काले, अतएव डरावने, मालूम होते हैं। इनके सिर के बाल बढ़कर चेहरे के इधर-उधर बेतरह लटका करते हैं। इनकी कमर में एक छोटा सा चीथड़ा लिपटा रहता है। उसी में ये लोग एक हँसुवा खांसे रहते है।
सहरिया लोग हिन्दरतान के पुराने जड़ली आदमियों में
से हैं। इनका नाम संस्कृत मे शबर है। इस नाम का
उल्लंख वेदों तक में पाया जाता है। महाभारत मे लिखा
है कि ये लोग बड़े भयानक थे; पर 'पाण्डवो ने इनको भी
परारत किया। वराहमिहिर ने शबरी के दो भेद लिखे हैं——
नग्न शवर और पर्ण-शबर। उस समय जो बिलकुल ही नङ्ग
रहते थे वे नग्न और जो अपनी कमर मे पत्ते लपेटे रहते थे वे
पर्ण-शबर कहलाते थे। हजारों वर्ष हो गये, परन्तु इन लोगों
की दशा में विशेष अन्तर नहीं हुआ। अब तक ये प्रायः
दिगम्बर बने हुए जङ्गलों में घूमा करते हैं और कन्द, मूल,
फल तथा मांस से किसी प्रकार अपना पेट पालते हैं। अब
ये लोग धनुर्बाण और भाला नहीं बाँधते। इनके शस्त्र अब
कुल्हाड़ी और हॅसुवा ही हैं।
देवगढ़ प्रान्त में पहले सहरियों ही का आधिपत्य था।
उन पर गौड़ लोगों ने विजय पाया। गोंड़ों के अनन्तर देवगढ़
गुप्तवंशी राजों के अधिकार में आया। स्कन्दगुप्त आदि इस
वंश के राजों के कई शिलालेख अब तक देवगढ़ में विद्यमान
हैं। गुप्तवंश के अनन्तर कन्नौज के भोजवंशी राजों ने इस
प्रान्त को जीता। देवगढ़ मे जैनियों का एक बहुत बड़ा
मन्दिर है। उसके तोरण में, ८८३ ईसवी का एक लेख,
राजा भोजदेव के नाम से खुदा हुआ है। भोज-वंशी राजों
का प्रतापसूर्य निस्तेज होने पर, ८३१ से १५६६ ईसवी तक,
चन्देलवंशी अनेक नरेशों ने इस प्रान्त को अपने अधिकार में
रक्खा । ललितपुर के आस-पास इस वंश के राजों के अनेक
शिलालेख पाये जाते हैं। इस वंश की राजधानी महोबा
थी। इस घराने के वंशज ललितपुर के पास खजुराहो में
अब तक विद्यमान हैं। चन्देलो के अनन्तर मुसलमानों का
बल बढ़ा। उनकी बलवृद्धि के साथ ही साथ प्राचीन महलों,
मकानों और मन्दिरों की बरबादी की भी वृद्धि हुई। १६००
ईसवी मे यह प्रदेश पुनर्वार हिन्दुनो की अधीनता मे आया।
बुंदेलों ने मुसलमानों से इसे छीनकर अपने अधिकार मे कर
लिया। आज तक इस प्रान्त मे किसका कब तक प्रभुत्व
रहा, इसका विवरण नीचे दिया जाता है——
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यह समय-विभाग आनुमानिक है। पूर्ण बाबू ने इस अनुमान के प्रमाण भी अपनी रिपोर्ट मे दिये हैं; परन्तु विस्तार कम करने की इच्छा से हम उनको यहाँ पर नहीं लिखते।
इस बात का ऐतिहासिक पता नहीं चलता कि कब, किसने, देवगढ़ को बसाया और कब, किस तरह, वह उजड़ा। लोगों का कथन है कि देवपति और खेव (क्षेव ) पति नाम के दो जैन-धर्मावलम्बी भाई थे। उन्होंने देवगढ़ का किला बनवाया और शहर बसाया। जैन मन्दिर भी, जो
वहाँ पर इस समय भी विद्यमान हैं, उन्हीने निर्माण कराये।
परन्तु इन बातों का कोई अच्छा प्रमाण नहीं मिलता।
पुरानी इमारतों के लिए देवगढ़ बहुत मशहूर है। दूर-
दूर तक उसके खेडहर चले गये हैं। इस समय वहाँ पर
जो एक छोटा सा गॉव है वह पहाड़ी के नीचे है। वहीं पर
गुप्तवंशी राजों का एक, और बुंदेलो का एक-ऐसे दो-
मन्दिर हैं। एक तालाब भी वहाँ है। प्राचीन किला और
शहर के भग्नावशेष पहाड़ी के ऊपर हैं। उसके दक्षिण-पश्चिम
भाग में वेत्रवती (बेतवा ) बड़े वेग से बहती है। जब
हम लोग पहाड़ो के नीचे के अवलोकनीय स्थान देख चुके
तब, ऊपर, पहाड़ी पर चढ़ने का इरादा हुआ। इसलिए
पाँच-सात सहरिया पहले से ऊपर भेज दिये गये। उन्होने
बढ़ी हुई झाड़ियों को काट-छाँटकर, किसी तरह, चलने लायक
रास्ता बनाया। फिर उन्होंने “हॉका," किया, जिसमे
मन्दिरों के भीतर छिपे हुए जङ्गली जानवर यदि हो तो निकल
जायें। इसके बाद हम लोगों ने पहाड़ो पर चढ़ना शुरू
किया। मार्ग बड़ा बीहड़ था। कॉटेदार झाड़ियों इतनी
धनी थी कि बड़े कष्ट से हम लोग भीतर पहुँच सके। जङ्गल
के भीतर हम लोगों ने अनेक प्राचीन मन्दिरों और मूर्तियों
को देखा और जिस बली काल ने उन सबको उजाडकर इस
दशा को पहुंचाया उसे बार बार धिक्कारा। हमारे सामने
ही कई खरगोश और भेड़िये आहट पाकर उनके भीतर से
निकल भागे। एक जैन मन्दिर के भीतर रीछ के बाल मिले
और ऐसे चिह्न दिखलाई दिये जिससे सूचित होता था कि वहाँ
पर कुछ ही देर पहले एक रीछ था जो “हॉका" की आवाज़
से निकल गया था।
गुप्त-वंशी राजो के समय का यहाँ पर एक प्राचीन मन्दिर
है। वह कोई एक हजार वर्ष का पुराना है। उसका नाम
दशावतार-मन्दिर है। उसके चारों तरफ़ विष्णु के दश
अवतारो की मूर्तियाँ थी। इसी लिए उसका नाम दशावतार
पड़ा। वह लाल पत्थर का बना है। उसके चारों तरफ़ पहले
बरामदा था, परन्तु वह अब गिर पड़ा है। मन्दिर के द्वार
पर जो काम है वह बहुत अनमोल है। उसके ऊपर गड्ढा
और यमुना की मूर्तियाँ हैं; मध्य में विष्णु की मूर्ति है, जिसके
ऊपर शेष अपने फनों की छाया किये हुए हैं। इसके सिवा
स्त्री-पुरुषो और खर्वाकार बौनों की कई सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ
हैं। यह सामने की बात हुई। शेष तीन तरफ़ विष्णु के
तीन अवतारो की मूर्तियाँ हैं। एक जगह शेष पर नारायण
सो रहे हैं, लक्ष्मी उनकी पाद-सेवा कर रही हैं; पञ्च पाण्डव
और द्रौपदी नीचे खड़े हैं; ब्रह्मा, शिव और इन्द्र आदि देवता
ऊपर हैं। दूसरी जगह राम-लक्ष्मण की मूर्तियाँ हैं; वे जङ्गल में
हिरन और सिंह आदि हिंस्र जीवो के बीच में बैठे हैं। तीसरी
जगह गज को ग्राह की पकड से छुड़ाने के लिए गरुड पर
सवार होकर विष्णु भगवान् आ रहे हैं। जितनी मूर्तियाँ
हैं सब अच्छी हैं। नीचे, चबूतरे की दीवारों पर भी, रामा-
वतार से सम्बन्ध रखनेवाली कथानो की सूचक कितनी ही
मूर्तियाँ हैं। पहले बहुत थीं; परन्तु बिगड़ते-बिगड़ते अब कम
रह गई हैं। बरामदे के चार खम्भे अभी तक बने हुए हैं।
उन पर ऐसा साफ़, सुथरा और बारीक काम है कि देखकर
आश्चर्य होता है। मन्दिर के शिखर का कुछ भाग गिर
पडा है; कुछ वाक़ी है। मन्दिर के भीतर विष्णु की मूर्ति का
पता नही; परन्तु उसकी जगह पर शिव का एक लिङ्ग रक्खा
हुआ है। विष्णु की मूर्ति का आवरण मात्र शेष है। यह
पुराना और प्रसिद्ध मन्दिर बुरी हालत में है। शिखर की
दशा बहुत बुरी है। बरामदे का निशान तक नहीं रहा।
खम्भे गिर गये हैं।
इसके पास ही बहुत पुराने जैन-मन्दिरों के कुछ चिह्न हैं। वे मन्दिर, इस समय, प्रायः बिलकुल ही नष्ट हो गये है।
दशावतार-मन्दिर से कुछ दूर पर एक गुफा है। उसका नाम
है सिद्ध की गुफा। पहाड़ी के ऊपर, किले से गुफा तक, चट्टान
को काटकर सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। वे अब तक बनी हुई हैं।
गुफा पहाड़ी को काटकर बनाई गई है। उसमे तीन दरवाजे
हैं। गुफा के बाहर, पहाडी पर, महिषासुरमर्दिनी देवी की एक
मूर्ति है। यहाँ पर एक शिलालेख भी छोटा सा है। यह
गुफा अधदनी ही छोड़ दी गई है। यहाँ से जो सीढ़ियाँ
बेतवा की तरफ़ काटी गई हैं वे भी नदी तक नहीं पहुंची।
इस पहाडी पर एक जगह है जिसे नाहर-घाटी कहते हैं।
बरसात में यहाँ पहाड़ से पानी गिरा करता है। यहाँ से भी
बेतवा तक पत्थर काटकर सीहियों बनाई गई हैं। वे टूट-फूट
गई हैं। यहाँ कई ताक हैं, जिनमे एक सूर्य की मूर्ति, एक
शङ्कर का लिङ्ग और सप्तमातृकाओ की मूर्तियों के कुछ चिह्न हैं।
गुप्त-वंशी राजो के समय का एक शिला-लेख यहाँ पर है,
उसमें कई पंक्तियाँ है, परन्तु राजा का नाम उड़ गया है।
गुप्त-काल के पीछे बना हुआ एक वराह-मन्दिर यहाँ पर था। परन्तु इस समय वह बिलकुल ही भग्न हो गया है। तथापि वराह की विशाल मूर्ति अब तक अपने स्थान पर है।
गुप्त-वंशी राजो के बाद के बने हुए मन्दिरो में एक जैन-
मन्दिर, इस पहाड़ो के ऊपर, बहुत बड़ा है। उसके पास छोटे-
मोटे कोई ३० मन्दिर और हैं; परन्तु उनमे एक प्रमुख है।
ये सब मन्दिर अत्यन्त गहन वन के भीतर हैं। बड़े मन्दिर
के चारो तरफ़ बरामदा था, परन्तु अब केवल एक ही तरफ़
रह गया है। भीतर एक बहुत बड़ा शिला-मूर्ति जैन-तीर्थङ्कर
की है। छोटी-छोटी मूर्तियाँ तो कई हैं। मन्दिर के भीतरी
भाग के दो खण्ड हैं। पिछले खण्ड मे बहुत अँधेरा रहता
है। मन्दिर के चारो ओर प्रदक्षिणा है। उसमे जगह-जगह
पर पत्थर की जालियाँ हैं, जिनसे प्रकाश आया करता है।
इसी प्रदक्षिणा में भालु-भूप के रहने के चिह्न हमको मिले थे।
यहाँ पर एक खम्भा है जिस पर, ऊपर से नीचे तक, सब
तरफ, गुप्त समय के अक्षरों में अनेक लेख हैं। मन्दिर के
सामने बडे-बड़े दो खम्भों के ऊपर एक तोरण था। अनुमान
किया जाता है कि वह महाराज भोजदेव के समय, अर्थात्
८५३ ईसवी के लगभग, बना था। पीछे से किसी ने इस
तारण में दो की जगह चार खम्भे कर दिये और उसे पेशगाह
अर्थात उसारे की शकल का कर दिया। प्रदक्षिणा के भीतर,
सब कहीं, पत्थर का काम बहुत अच्छा है। शिल्प कौशल
का यह एक अद्भुत नमूना है। जगह-जगह पर इसमे ताक
बने हुए हैं। उनमे देवी की मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक देवी का
नाम पुराने नागरी अक्षरों मे उसके नीचे खुदा हुआ है।
चन्देल-राजों में एक राजा कीर्तिवर्मा हुआ है। उसका समय १८४९ से ११०० ईसवी तक है। उसके मन्त्री वत्सराज ने देवगढ़ मे राज-घाटी नामक सीढ़ियों का एक समूह, किले से बेतवा तक, बनवाया था। राज-घाटी मे कीर्तिवर्मा के समय, अर्थान् संवत् ११५६, काएक लम्बा शिला-लेख है। उससे सूचित होता है कि वत्सराज ने देवगढ़ के किले की मरम्मत कराकर उसका नाम कीर्तिगिरि-दुर्ग रक्खा था। किले की दीवार १५ फुट मोटी है। उसमे जगह-जगह पर बुजें बनी हुई हैं और तीरों की वर्षा के लिए दीवारो मे छेद हैं। राजघाटी की दाहिनी तरफ़ सप्त-मातृका, महादेव और सूर्य की मूर्तियाँ है।
इन सब इमारतों में दशावतार के मन्दिर का काम विशेष प्रशंसा के योग्य है। उसके प्रवेश-द्वार पर कला-कौशल,
के ऐसे अनेक नमूने हैं जिनको देखकर देखनेवाले की बुद्धि
चक्कर खाने लगती है। उनका यथार्थ वर्णन नहीं किया जा
सकता; न उनके नकशों और चित्रो से उनकी सुन्दरता का पूरा-
पूरा अनुमान हो सकता है। उनको प्रत्यक्ष ही देखना चाहिए।
पशु, पक्षी, फूल, पत्ती, देव, देवी और मनुष्य की मूर्तियाँ
इस कौशल से बनाई गई हैं कि उनको देखकर उनके बनानेवालों
की सहस्र मुख से प्रशंसा करने को जी चाहता है।
पहाड़ी के ऊपर, किले मे, अनेक टूटी-फूटी मूर्तियो और मन्दिरो इत्यादि के अंश इधर-उधर पड़े हैं। वे इस बात को सूचित करते हैं कि किसी समय अनन्त मन्दिर, मकान और राज-प्रासाद इस शहर की शोभा बढ़ाते थे। परन्तु, अफसोस है, वही आज जगली जानवरो का वास है और जङ्गल इतना धना हो गया है कि मनुष्य का प्रवेश मुशकिल से होता है।
देवगढ़ में कई शिला-लेख हैं। सिद्ध की गुफा, नाहर-घाटी,
राज-घाटी और जैन-मन्दिर के लेखों का उल्लेख ऊपर हो चुका
है। उनके सिवा और भी छोटे-बड़े कई शिला-लेख हैं। पूर्ण
बाबू ने उन सबकी नकल ले ली थी। उनको उन्होने अपनी
एक दूसरी रिपोर्ट में शामिल करके गवर्नमेन्ट को भेजा था।
मालूम नही, गवर्नमेन्ट ने उनको प्रकाशित किया या नहीं।
[अप्रेल १९०९
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