प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

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रहेगी! हमें अति उचित है कि इसी घटिका से अपनी टूटी फुटी दशा सुधारने में जुट जायं। विराट भगवान के सच्चे भक्त बनें, जैसे संसार का सब कुछ उनके पेट में है वैसे ही हमें भी चाहिए कि जहां से जिस प्रकार जितनी अच्छी बातें मिलें सब अपने पेट के पिटारे में भर लें, और देशभर को उनसे पाट दें, भारतवासीमात्र को एक बाप के बेटे की तरह प्यार करें, अपने २ नगर में नेशनल कांग्रेस की सहायक कमेटी कायम करें, ऐंटी कांग्रेसवालों की टांय २ पर ध्यान न दें। बस नागर नट की दया से सारे अभाव झट पट हट जायंगे, और हम सब बातों में टंच हो जायंगे। यह 'टकार' निरस सी होती है, इससे इसके सम्बन्धी आरटिकिल में किसी नटखट सुन्दरी की चटक मटक भरी चाल और गालों पर लटकती हुई लट, मटकती हुई आंखों के साथ हट ! अरे हट ! की बोलचाल का सा मज़ा तो ला न सकते थे, केवल टटोल टटाल के थोड़ी सी एडीटरी की टेंक निभा दी है। आशा है कि इसमें की कोई बात टेंट में खोंस राखिएगा तो टका पैसाभर गुण ही करेगी। बोलो टेढ़ी टांगवाले की जै।


स्त्री ।

संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसमें केवल गुण ही

गुण अथवा दोष ही दोष हों। घी और दूध स्वादु (?) और

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पुष्टि के लिए अमृत के समान हैं, पर ज्वर-ग्रस्त व्यक्ति के लिये महादुखदायक हैं। संखिया प्रत्यक्ष विष है, पर अनेक रोगों के लिए अति उपयोगी है। इस विचार से जब देखिये तो जान जाइयेगा कि साधारण लोगों के लिये स्त्री मानो आधा शरीर है। यावत् सुख दुःखादि की संगिनी है, संसार-पथ में एकमात्र सहायकारिणी है।

पर जो लोग सचमुच परोपकारी हैं, स्वतंत्र हैं, महोदार- चरित हैं, असामान्य हैं, जगद्वन्धु, उन्नतिशील हैं उनके हक में मायाजाल की मूर्ति, कठिन परतंत्रता का कारण और घोर का मूल स्त्री ही है । आपने शायद देखा हो कि धोबियों का एक लौह यंत्र होता है जिसके भीतर आग भरी रहती है । जब कपड़ों को धोके कलप कर चुकते हैं तब उसी से दबाते हैं। इस यंत्र का नाम भी इस्तरी है। यह क्यों ? इसी से कि धोये कपड़े के समान जिनका चित्त जगत-चिन्तारूपी मल से शुद्ध है उनके दबाने के लिये उनकी आर्द्रता ( तरी व सहज सरलता ) दूर करने के लिये लोहे के सरिस कठोर अग्निपूर्ण पात्र सदृश उष्ण- परमेश्वर की माया अर्थात् दुनियां भर का बखेड़ा फैलानेवाली शक्ति स्त्री कहलाती है।

अरबी में नार कहते हैं अग्नि को, विशेषतः नरक की अग्नि को और तत्संबन्धी शब्द है नारी । जैसे हिन्दू से हिन्दु- रतान बनता है, वैसे ही नार से नारी होता है, जिसका भावार्थ

यह है कि महादुःख रूपी नर्क का रूप, गृहस्थी की सारी चिन्ता

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सारे जहान का पचड़ा केवल स्त्री ही के कारण ढोना पड़ता है। फारसी में जन (स्त्री) कहते हैं मारने वाले को 'राहजन', 'नक-बज़न' इत्यादि भला अष्टप्रहार मारनेवाले का संसर्ग रख के कौन सुखी रहा है । एक फारस के कवि फरमाते हैं 'अगर नेक बूदे सरं-जामे जन्, भजन नाम न जन् नामें जन्' अर्थात् स्त्रियों (स्त्रीसम्बन्ध) का फल अच्छा होता तो इनका नाम मजन होता (मा.मारय)। अंगरेजी में वी म्येन (स्त्री) शब्द मेंय दि एक ई(E अक्षर)और बढ़ा दें तो Woe (वो)शब्द का अर्थ है शोक और म्येन कहते हैं मनुष्य को । जिसका भावार्थ हुआ कि मनुष्य के हक में शोक का रूप। दुष्टा कटुभाषिणी कुरूपा स्त्रियों की कथा जाने दीजिये। उनके साथ तो प्रतिक्षण नर्क जातना हुई है यदि परम साध्वी महा मृदु भाषिणी अत्यन्त सुन्दरी हों तो भी बंधन ही है। हम चाहते हैं कि अपना तन, मन, धन, सर्वस्व परमेश्वर के भजन में, राजा के सहाय में, संसार के उपकार में निछावर कर दें। पर क्या हम कर सकते हैं ? कभी नहीं । क्यों ? गृह स्वामिनी किस को देख के जिएँगी वे खाएँगी क्या ? हमारा जी चाहता है कि एक बार अपनी राज राजेश्वरी का दर्शन करें, देश देशान्तर की सैर करें। घर में रुपया न सही। सब बेंच खोंच के राह भर का खर्च निकाल लेंगे। पर मन की तरंग मन ही में रह जाती हैं, क्योंकि घर के लोग दुःख पावेंगे, हम पढ़े लिखे लोग हैं। प्रतिष्ठित कुल के भये उपजे हैं; एक तुच्छ व्यक्ति की नौकरी करके बातें कुबातें न सुनेंगे । स्थानांतर में चले जायंगे, दो चार रुपये की मजदूरी

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कर खायँगे । गुलामी तो न करनी पड़ेगी। पर खटला लिये लिये कहाँ फिरेंगे; घर वाली को किसके माथे छोड़ जायेंगे। यही सोच साच के जो पड़ती है सहते हैं। इन सब तुच्छताओं का कारण स्त्री है। जिसके कारण हम गिरस्त कहाते हैं अर्थात् गिरते गिरते अस्त हो जाने वाला। भला हम अपने आत्मा की, अपने समाज की उन्नति क्या करेंगे।

एक रामायण में लिखा है कि जिस समय रावण मृत्यु के मुख में पड़े थे, 'अब मरते हैं', 'तब मरते हैं' की लग रही थी उस समय भगवान रामचन्द्र जी ने कहा-लक्ष्मण जी से कि रावण ने बहुत दिन तक राज्य किया है, बहुत विद्या पढ़ी है उनके पास जाओ। यदि वे नीति की दो बातें भी बतला देंगे तो हमारा बड़ा हित होगा। हमें अभी अयोध्या चल के राज्य करना है। लक्ष्मण जी भ्रातृ चरण की आज्ञानुसार गये और अभीष्ट प्रकाश किया। रावण ने उत्तर दिया कि अब हम पर लोक के लिये वद्धपरिकर हैं । अधिक शिक्षा तो नहीं दे सकते पर इतना स्मरण रखना-कि तुम्हारे पिता दशरथ महाराज बड़े विद्वान और बहुद्रष्टा थे। पर उन्होंने कैकेई देवी का बचन मानने कारण पुत्र- वियोग और प्राण-हानि सही । और हम भी बड़े भारी राजा थे, पर मन्दोदरी रानी की बात कभी न मानते थे। उसका प्रत्यक्ष फल तुम देख ही रहे हो । सारांश यह है कि स्त्री को मुँह लगाना भी हानिजनक है और तुच्छ समझना भी मंगलकारक नहीं है।


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