प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

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महान होने पर भी कैसे भयानक हैं। यह दद्दा ही का प्रभाव है। कनवजियों के हक़ में दमाद और दहेज, खरीदारों के हक में दुकानदार और दलाल, चिड़ियों के हक में दाम ( जाल) और दाना आदि कैसे दुःखदायी हैं ! दमड़ी कैसी तुच्छ संज्ञा है, दाद कैसा बुरा रोग हैं, दरिद्र कैसी कुदशा है, दारू कैसी कडुवाहट, बदबू, बदनामी और बदफैली की जननी है, दोग़ला कैसी खराब गाली है, दंगा-बखेड़ा कैसी बुरी आदत है, दंश (मच्छड़ या डास ) कैसे हैरान करनेवाले जंतु हैं, दमामा कैसा कान फोड़नेवाला बाजा है, देशी लोग कैसे घृणित हो रहे हैं, दलीपसिंह कैसे दीवानापान में फंस रहे हैं। कहां तक गिनावें, दुनियाभरे की दन्त-कटाकट 'दकार' में भरी है, इससे हम अपने प्रिय पाठकों का दिमाग चाटना नहीं पसन्द करते, और इस दुस्सह अक्षर की दास्तान को दूर करते हैं।


'ट'।

इस अक्षर में न तो 'लकार' का सा लालित्य है, न 'दकार' का सा दुरूहत्व, न 'मकार' का सा ममत्व-बोधक गुण है, पर विचार कर के देखिए तो शुद्ध स्वार्थपरता से भरा हुवा है ! सूक्ष्म विचारके देखो तो फारस और अरब की ओर के लोग निरे छल के रूप, कपट की मूरत नहीं होते, अप्रसन्न होके मरना मारना जानते हैं, जबरदस्त होने पर निर्बलों को मनमानी

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रीति पर सताना जानते हैं, बड़े प्रसन्न हों तो तन, मन, धन से सहाय करना जानते हैं, जहां और कोई युक्ति न चले वहां निरी खुशामद करना जानते हैं, पर अपने रूप में किसी तरह का बट्टा न लगने देना और रसाइन के साथ धीरे धीरे हंसा खिलाके अपना मतलब गांठना, जो नीति का जीव है, उसे बिलकुल नहीं जानते ।

इतिहास लेके सब बादशाहों का चरित्र देख डालिए। ऐसा कोई न मिलेगा जिसकी भली या बुरी मनोगति बहुत दिन तक छिपी रह सकी हो । यही कारण है कि उनकी वर्णमाला में टवर्ग हई नहीं। किसी फारसी से टट्टी कहलाइए तो मुंह बीस कोने का बनावेगा, पर कहेगा तत्ती। टट्टी की ओट में शिकार करना जानते ही नहीं, उन विचारों के यहां 'टट्टा' का अक्षर कहां से आवे । इधर हमारे गौरांगदेव को देखिए । शिरपर हैट, तन पर कोट, पावों में प्येंट, और बूट, ईश्वर का नाम आल्मा- इटी, (सर्वशक्तिमान) गुरू का नाम ट्यू टर, मास्टर (स्वामी को भी कहते हैं) या टीचर, जिससे प्रीप्ति हो उसकी पदवी मिस्ट्रस, रोजगार का नाम ट्रेड, नफा का नाम बेनीफिट, कवि का नाम पोयट, मूर्ख का नाम स्टुपिड, खाने में टेबिल, कमाने में टेक्स। कहां तक इस टिटिल-टेटिल (बकवाद) को बढ़ावें, कोई बड़ी डिक्शनरी (शब्द-कोष) को लेके ऐसे शब्द ढूंढ़िए, जिनमें 'टकार' न हो तो बहुत ही कम पाइएगा ! उनके यहां

'ट' इतना प्रविष्ट है कि तोता कहाइए तो टोटा कहेंगे । इसी

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‘टकार' के प्रभाव से नीति में सारे जगत् के मुकुट-मणि हो रहे हैं। उनकी पालिसी समझना तो दरकिनार, किसी साधारण पढ़े लिखे से पालिसी के माने पूछो तो एक शब्द ठीक ठीक न समझा सकेगा।

इससे बढ़के नीतिनिपुणता क्या होगी कि रुज़गार में, व्यवहार में, कचहरी में, दरबार में, जीत में, हार में, बैर में, प्यार में, लल्ला के सिवा दद्दा जानते ही नहीं ! रीझेंगे तो भी ज़ियाफ़त लेंगे, नजर लेंगे, तुहफा लेंगे, सौगात लेंगे, और इन सैकड़ों हजारों के बदले देंगे क्या, 'श्रीईसाई' (सी० एस० आई०) की पदवी, या एक काग़ज़ के टुकड़े पर सार्टिफिकेट, अथवा कोरी थैंक, (धन्यवाद) जिसे उर्दू में लिखो तो ठेंग अर्थात् हाथ का अंगूठा पढ़ा जाय ! धन्य री स्वार्थसाधकता! तभी तो सौदागरी करने आए, राजाधिराज बन गए । क्यों न हो, जिनके यहां बात २ पर 'टकार' भरी है उनका सर्वदा सर्वभावेन सब किसी का सब कुछ डकार जाना क्या आश्चर्य है ! नीति इसी का नाम है, 'टकार' का यही गुण है कि जब सारी लक्ष्मी विलायत ढो ले गए तब भारतीय लोगों की कुछ कुछ आखें खुली हैं। पर अभी बहुत कुछ करना है। पहिले अच्छी तरह आखें खोल के देखना चाहिए कि यह अक्षर जैसे अंगरेजों के यहां है वैसे ही हमारे यहां भी है, पर भेद इतना है कि उनकी "टी” की सूरत ठीक एक ऐसे कांटे की सी है कि नीचे से पकड़ के किसी

वस्तु में डाल दें तो जाते समय कुछ न जान पड़ेगा, पर निक-

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लते समय उस वस्तु को दोनों हाथों अपनी ओर खींच लावेगा। प्रत्यक्ष देख लो कि यह जिसका स्वत्व हरण किया चाहते हैं उसे पहले कुछ भी नहीं ज्ञान होता, पीछे से जो है सो इन्हीं का ! और हमारे वर्णमाला का "ट' एक ऐसे आंकड़े के समान है, जिसे ऊपर से पकड़ सकते हैं, और हर पदार्थ में प्रविष्ट कर सकते हैं। पर उस वस्तु को यदि सावधानी से अपनी ओर खींचें तौ तो कुशल है नहीं तो कोरी मिहनत होती है ! इसी से हम जिन बातों को अपनी ओर खींचना आरम्भ करते हैं उनमें 'टकार' के नीकेवाली नोक की भांति पहिले तो हमारी गति खूब होती है, पर पीछे से जहां हड़ता में चूके वहीं संठ के संठ रह जाते हैं।

दूसरा अन्तर यह है कि अगरेजों के यहां "टी” सार्थक है और हमारे यहां एक रूप से निरर्थक । अंगरेज़ी में "टी" के माने चाह के हैं, जो उनके पीने की चीज़ है, अर्थात् वे अपना पेट भरना ख़ब जानते हैं । पर हमारे यहां "ट" का कुछ अर्थ नहीं है। यदि टट्टा कहो तो भी एक हानिकारक ही अर्थ निकलता है, घर में टट्टा लगा हो तो न हम बाहर जा सकते हैं, अर्थात् अन्य देश में जाते ही धर्म और विरादरी में बदनाम होते हैं, और बाहर की विद्या, गुण आदि हमारे हृदय-मंदिर के भीतर नहीं आ सकते। आवै भी तो हमारे भाई चोर २ कहके चिल्लाय !


नीचे से पकड़ना अर्थात् उसके मूल को ढूंढ़ के काम में लाना और ऊपर से पकड़ना अर्थात् दैवाधीन समझ कर कर उठाना ।

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यह अनर्थ ही तो है।

तीसरा फ़र्क लीजिए, जितना उनके यहां "ट' का खर्च है उतना हमारे यहां है नहीं। तिस पर भी हम अपने यहां के "ट" का बर्ताव बहुत अच्छी रीति से नहीं करते । फिर कहां से पूरा पड़े। 'टकार' का अक्षर नीतिमय है, उस नीतिमय अक्षर को बुरी रीति से काम में लाना बुरा ही फल देता है। हम ब्राह्मण हैं तो टीका (तिलक) और चोटी सुधारने में घंटों बिता देते हैं, यह काम स्त्रियों के लिए उपयोगी था, हमें चाहिए था, वास्त- विक धर्म पर अधिक जोर देते । यदि हम क्षत्री हैं तो टंटा- बखेड़ा में पड़े रहते हैं ! यह काम चाहिए था शत्रुओं के साथ करना, नकि आपस में। यदि हम वैश्य हैं तो केवल अपना ही टोटा (घटी) या नफा विचारेंगे, इससे सौदागरी का सच्चा फल नहीं मिलता। यदि हम अमीर हैं तो सैकड़ों रुपया केवल अपना दिमाक बनाने में लगा देंगे, टेसू बने बैठे रहेंगे, इससे तो यह रुपया किसी देश-हितकारी काम में लगाते तो अच्छा था। पढ़े लिखे हैं तो मतवाद में टिलटिलाया करेंगे, कोई काम करेंगे तो अंटसंट रीति से, सरतारे होंगे तो टालमटोला किया करेंगे।

इस ऊटपटांग कहानी को कहां तक कहिए, बुद्धिमान विचार सकते हैं कि जब तक हमारी यह टेंव न सुधरेगी, जब तक हमारे देश में ऐसी ही टिचर्र फैली रहेगी तब तक

हमारे दुःख-दरिद्र भी न टलेंगे। दुर्दशा योंही टेंटुआ दबाए

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रहेगी! हमें अति उचित है कि इसी घटिका से अपनी टूटी फुटी दशा सुधारने में जुट जायं। विराट भगवान के सच्चे भक्त बनें, जैसे संसार का सब कुछ उनके पेट में है वैसे ही हमें भी चाहिए कि जहां से जिस प्रकार जितनी अच्छी बातें मिलें सब अपने पेट के पिटारे में भर लें, और देशभर को उनसे पाट दें, भारतवासीमात्र को एक बाप के बेटे की तरह प्यार करें, अपने २ नगर में नेशनल कांग्रेस की सहायक कमेटी कायम करें, ऐंटी कांग्रेसवालों की टांय २ पर ध्यान न दें। बस नागर नट की दया से सारे अभाव झट पट हट जायंगे, और हम सब बातों में टंच हो जायंगे। यह 'टकार' निरस सी होती है, इससे इसके सम्बन्धी आरटिकिल में किसी नटखट सुन्दरी की चटक मटक भरी चाल और गालों पर लटकती हुई लट, मटकती हुई आंखों के साथ हट ! अरे हट ! की बोलचाल का सा मज़ा तो ला न सकते थे, केवल टटोल टटाल के थोड़ी सी एडीटरी की टेंक निभा दी है। आशा है कि इसमें की कोई बात टेंट में खोंस राखिएगा तो टका पैसाभर गुण ही करेगी। बोलो टेढ़ी टांगवाले की जै।


स्त्री ।

संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसमें केवल गुण ही गुण अथवा दोष ही दोष हों। घी और दूध स्वादु (?) और

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