प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र
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दो ।

दकार की दुरूहता हमारे पाठकों को भली भांति विदित है और यह शब्द उसी में और एक तुरो लगा के बनाया है। इससे हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह भी दुःख दुर्गणादि का दरिया ही है, क्योंकि सभी जानते हैं कि-'नहि बिष बेलि अमिय फल फरहीं। पर इतना समझ लेने ही से कुछ न होगा। बुद्धिमान को चाहिए कि जिन बातों को बुरा समझे उन्हें यत्नपूर्वक छोड़ दे। किन्तु यतः संसार की रीति है कि जब कोई जानी बूझी बात को भी चित्त से उतार देता है तौ उसके हितैषियों को उचित होता है कि सावधान कर दें। इसी में हम अपना धर्म समझते हैं कि अपने यजमानों को यह दुर्गतिदायक शब्द स्मरण करा दें, क्योंकि ब्राह्मण के उपदेश केवल हँस डालने के लिये नहीं हैं बरंच गांठ बांधने से अपना एवं अपने लोगों का हित साधने में सहारा देने के लिये है।

हम क्यों न कहैं कि-दो-पर ध्यान दो और उसे छोड़ दो। इस वाक्य से कहीं यह न समझ लेना कि बर्ष समाप्त होने में केवल तीन मास रह गये हैं, इससे दक्षिणा के लिये बारबार दो दो (देव देव) करते हैं। हां, इस विषय पर भी ध्यान दो और हमें ऋण हत्या से शीघ्र छुड़ा दो तो तुम्हारी भलमंसी

है। पर हम यद्यपि अपना मांगते हैं, अपने पत्र का मूल्य मांगते
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हैं तो भी पांच वर्ष में अनुभव कर चुके हैं कि देने वाले बिना माँगे ही भेज देते हैं और नादिहंद सहस्र बार मांगने से, सैकड़ों चिट्ठी भेजने पर भी दोनों कान एवं दोनों आँख बन्द ही किए रहते हैं। इससे हमने इस दुष्ट (दो) के अक्षर का बोलना ही व्यर्थ समझ लिया है। हाँ, जो दयावान हमारे इस प्रण के पूर्ण करने में सहायता देते हैं अर्थात् दो दो कहने का अवसर नहीं देते उनको हम भी धन्यवाद देते हैं । पर इस लेख का. तात्पर्य दो शब्द का दुष्ट भाव दिखलाना और यथासाध्य छोड़ देने का अनुरोध करना मात्र है, न कि कुछ मांगना- जांचना। यदि तनिक इस ओर ध्यान दीजिये कि-दो-क्या है तो अवश्य जान जाइयेगा कि इसको हम मन बचन कर्म से त्याग देना ही ठीक है। क्योंकि यह हई ऐसा कि जिससे कहो उसी को बुरा लगे। कैसा ही गहिरा मित्र हो, पर आवश्यकता से पीड़ित होके उससे याचना कर बैठो अर्थात् कहो कि कुछ (धन अथवा अन्य कोई पदार्थ) दो तो उसका मन बिगड़ जायगा। यदि संकोची होगा तो दे देगा, किन्तु हानि सहके. अथवा कुछ दिन पीछे मित्रता का सम्बन्ध तोड़ देने का विचार करके। इसी से अरब के बुद्धिमानों ने कहा है-'अलक़ज़ मिकरा जल मुहब्बत'-जो कपटी वा लोभी वा दुकानदार होगा तो एक २ दो दो लेने के इरादे पर देगा सही, पर यह समझ लेगा कि इनके पास इतनी भी विभूति नहीं है अथवा

बड़े अपव्ययी हैं। यदि ऋण की रीति पर न मांग के योही
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इस शब्द का उच्चारण कर बैठो, तो तुम तो क्या हो भगवान की भी लघुता हो चुकी है-'बलि पै मांगत ही भये बावन तन करतार'। यदि दैवयोग से प्रत्यक्षतया ऐसा न हुआ तौ भी अपनी आत्मा आपही धिक्कारेगी, लज्जा कहेगी-'कोदेहीत बदेत स्वदग्ध जठरस्यार्थे मनस्वी पुमान' । यदि आप कहें हम मांगेंगे नहीं देंगे अर्थात् मुख से दो दो कहेंगे नहीं किन्तु कानों से सुनेंगे तौ भी पास की पूंजी गँवा बैठने का डर है । उपदेश दीजियेगा तो भी अरुचिकर हुआ तो गालियां खाइयेगा। मनोहर होगा तो यथः प्राप्ति के लालच दूसरे काम के न रहिएगा। इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि (दो) का कहना भी बुरा है, सुनना भी अच्छा नहीं।

कहां तक कहें यह 'दो' सब को अखरते हैं। चाहै जिस शब्द में दो को जोड़ दो उसमें भी एक न एक बुराई ही निकलेगी। दोख (दोष) कैसी बुरी बात है जिसमें सचमुच हो उसके गुणों में बट्टा लगा दे, जिस पर झूठमूठ आरोपित किया जाय उसकी शान्ति भंग कर दे। दोज़ख़ ( नर्क अथवा पेट) कैसा बुरा स्थान है जिससे सभी मतवादी डरते हैं कैसा वाहियात अङ्ग है जिसकी पूर्ति के लिये सभी कर्तव्याकर्त्तव्य करने पड़ते हैं। दाँत कैसा तुच्छ सम्बोधन है जिसे मनुष्य क्या कुत्ते भी नहीं सुनना चाहते। दो पहर कैसी तीक्ष्ण बेला है कि ग्रीष्म क्या तो ग्रीष्म शीत ऋतु में भी सुख से कोई काम नहीं करने देती।
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दोहर कैसा बेकाम कपड़ा है कि दाम तो दूने लगें, पर जाड़े में जाड़ा न खो सके, गरमी सह्य न हो सके। हां दोहा एक छन्द है जिसे कवि लोग बहुधा आदर देते हैं, सो भी जब उसमें से दो की शक्ति हनन कर लेते हैं।

इससे यह ध्वनि निकलती है कि जहां दो होंगे वहां उनका भाव भङ्ग ही कर डालना श्रेयस्कर होगा। इसी से ईश्वर ने हमारे शरीर में जो जो अवयव दो दो बनाए हैं उनका रूप गुण कार्य एक कर दिया है यदि कभी इस नियम में छुटाई बड़ाई इत्यादि के कारण कुछ भी त्रुटि हो जाती है तो सारी देह दोष पूर्ण हो जाती है, हाथ, पाँव, आँख, कान इत्यादि यदि सब प्रकार एक हों तो भी सुविधा होती है जहाँ कुछ भी भेद हुआ और दो का भाव बना रहा वहीं बुराई होती है इससे सिद्ध है कि नेचर हमें प्रत्यक्ष प्रमाण से उपदेश दे रहा है कि जहां दो हों वहां दोनों को एक करो। तभी सुख पावोगे। ऋषियों ने भी इसी बात की पुष्टि के लिये अनेक शिक्षा दी है। स्त्री का नाम अर्द्धाङ्गी इसी लिये रक्खा है कि स्त्री और पुरुष परस्पर दो भाव रक्खेंगे तो संसार से सुख का अदर्शन हो जायगा। इनकी रुचि और उनकी और उनके विचार और इनके होने से गृहस्थी का खेल ही मट्टी हो जाता है। 'खसम जो पूजै द्यौहरा भूत पूजनी जोय । एकै घर में दो मता कुशल कहां ते होय ।।' इससे इन दोनों को परस्पर यही समझना चाहिए कि हमारा अंग इसके

विना आधा है अर्थात् इसकी अनुमति विना हमें कोई काम [ १०६ ]

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करने के लिये अपने तई अक्षम समझना उचित है। प्रेम सिद्धान्त यह भी सिखाता है कि सीता-राम, राधा-कृष्ण, गौरी-शंकर, माता-पिता आदि पूज्य मूर्तियों को दो समझना, अर्थात यह बिचारना कि यह और हैं वह और हैं इनका महत्व उनसे कुछ न्यूनाधिक है, महापाप है । फारसी में 'दोस्त' का शब्द भी यही द्योतन करता है कि दो को एक हो रहना ही सार्थकता है। नहीं तो दो बहुवचन है उसके साथ (स्त = अस्त ) क्रिया न होनी चाहिए थी। व्याकरण के अनुसार (स्तन्द =अस्तन्द वा हस्तन्द ) होना चाहिए पर वहीं बहुवचन को क्रिया होने से द्वैतभाव प्रकाश होता। इससे यही उचित ठहरा कि शरीर दो हों तो भी मन. बचन कर्म एक होना चाहिए; इसी से कल्याण है। नहीं तो जहां दो हैं वहीं अनर्थ है।

संसार को हमारे पूर्वजों ने दुःखमय माना है-'संसारे रे मनुष्या बदत यदि सुखं स्वल्प मप्यस्ति किंचित ।' इसका कारण यही लिखा है कि इसका अस्तित्व द्वन्द पर निर्भर है अर्थात् मरना और जन्म लेना जब तक रहता है तब तक शांति नहीं होने पाती इससे यत्नपूर्वक इन दोनों (जन्म मरण) से छुट जाय तभी सदा सुखी और मुक्त होता है। हमारे प्रेम शास्त्र में भी यही उपदेश हैं कि इस द्वन्द (मरण जीवन ) में से एक का दृढ़ निश्चय करले वही निर्द्वन्द अर्थात् जीवन मुक्त होता है । या तो प्रेम समुद्र के डूब के मर जाय, अर्थात दुःख-सुख, लाभ-हानि,निन्दा-स्तुति, स्वर्ग-नर्कादि की इच्छा चिन्ता भय इत्यादि से मृतक

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की नाईं सरोकार न रक्खे या प्रेमामृत पान करके अमर हो रहे । अर्थात् दुख शोक मरण नर्कादि को समझ ले कि हमारा कुछ कर ही नहीं सकते । बस इसी से सब लोक-परलोक के झगड़े खतम हैं । यदि इन शास्त्रों के बड़े बड़े सिद्धान्तों में बुद्धि न दौड़े,तो दुनियां में देख लीजिये कि जितनी बातें दो हैं अर्थात् एक दूसरी में सर्वथा असम्बद्ध है, उन में से एक रह जाय तो कभी किसी को दुःख न हो । या तो सदा सुख ही सुख हो तो जी न ऊबै या सदा दुख ही दुख बना रहे तो न अखरे । 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।' सदा लाभ ही लाभ होता रहे तो क्या ही कहना है नोचेत् सदा हानि ही हानि हो तो भी चिन्ता नहीं आखिर कहां तक होंगी? इसी प्रकार संयोग-वियोग, स्तुति-निन्दा, स्वतंत्रता-परतंत्रता इत्यादि सब में समझ लीजिए तौ समझ जाइएगा कि दो होना ही कष्ट का मूल है। उनमें से एक का अभाव हो तो आनन्द है अथवा जैसे बने वैसे दोनों को एक कर डालने में आनन्द है। भारत का इतिहास भी यही सिखलाता है कि कौरव पांडव दो हो गए अर्थात् एक दूसरे के विरुद्ध हो गये इसो से यहां की विद्या-वीरता, धन-बल सब में धुन लग गया। यदि एक हो रहते तो सारा महाभारत इतिश्री था। अन्त में पृथिवीराज जयचन्द दो होगये। इससे रहा सहा सभी कुछ स्वाहा हो गया। यदि अब भी जहां जहां दो देखिये वहां वहां सच्चे जी से एक बनाने का प्रयत्न करते रहिए

तो दो के साथ ही सारे दोष दुर्भाव दुख दूर हो जायंगे, नहीं दो
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तौ जो कुछ है सो हम दिखला ही चुके। इनसे जो कुछ होता है सो यदि समझ में आगया हो तो आज ही से अपने कर्तव्य पर ध्यान दो नहीं तौ इस दांत-किटाकिट को जाने दो।


खड़ी बोली का पद्य ।

इस नाम की बाबू अयोध्या प्रसाद जी खत्री मुजफ्फर- वासी कृत पुरतक के दो भाग हमें हमारे सुहृद्वर श्रीधर पाठक द्वारा प्राप्त हुए हैं। लेखक महाशय की मनोगति तो सराहना-योग्य है, पर साथ ही असम्भव भी है। सिवाय फारसी छंद और दो तीन चाल की लावनियों के और कोई छंद उस में बनाया भी है तो ऐसा है जैसे किसी कोमलाँगी सुन्दरी को कोट बूट पहिनाना। हम आधुनिक कवियों के शिरोमणि भारतेन्दुजी से बढ़के हिन्दी-भाषा का आग्रही दूसरा न होगा। जब उन्हीं से यह न हो सका तो दूसरों का यत्न निष्फल है। बांस के चूसने में यदि रस का स्वाद मिल सके तो ईख बनाने का परमेश्वर को क्या काम था। हां उरदू शब्द अधिक न भरके उरदू के ढंग का सा मजा हम पा सकते हैं, और उरदू कविताभिमानियों से हम साहंकार कह सकते हैं कि हमारे यहां का काव्य भी कुछ कम नहीं है। यद्यपि कविता के लिए उरदू बुरी नहीं है, कवित्व-रसिकों को वह भी वारललना के हावभाव का मजा दे जाती है, पर कवि होते हैं निरंकुश,

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।