प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

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हैं कि आज हमारे देश के दिन गिरे हुए हैं, अतः हमें योग्य है कि जैसे बत्तिस दांतों के बीच जीभ रहती है वैसे रहें, और अपने देश की भलाई के लिए किसी के आगे दांतों में तिनका दबाने तक में लज्जित न हों, तथा यह भी ध्यान रक्खें कि हर दुनियादार की बातें विश्वास-योग्य नहीं है। हाथी के दांत खाने के और होते हैं, दिखाने के और ।


'द'।

हमारी और फारसवालों की वर्णमालाभर में इससे अधिक अप्रिय, कर्णकटु और अस्निग्ध अक्षर, हम तो जानते हैं, और न होगा। हमारे नीति-विदाम्बर अंग्रेज़ बहादुरों ने अपनी वर्ण- माला में, बहुत अच्छा किया, जो इसे नहीं रक्खा। नहीं उस देश के लोग भी देना सीख जाते तो हमारी तरह निष्कंचन हो बैठते । वहां के चतुर लोगों ने बड़ी दूरदर्शिता करके इस अक्षर के ठौर पर 'डकार' अर्थात् 'डी' रक्खी है, जिसका अर्थ ही डकार जाना, अर्थात् यावत् संसार की लक्ष्मी, जैसे बने वैसे, हजम कर लेना। जिस भारत-लक्ष्मी को मुसलमान सातसै वर्ष में अनेक उत्पात करके भी न ले सके उसे उन्होंने सौ वर्ष में धीरे धीरे ऐसे मजे के साथ उड़ा लिया कि हंसते खेलते विलायत जा पहुंची!

इधर हमारे यहां इस 'दकार' का प्रचार देखिए तो नाम के

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लिए देओ' यश के लिए देओ, देवताओं के निमित्त देओ, पितरों के निमित्त देओ, राजा के हेतु देओ, कन्या के हेतु देओ, मजे के वास्ते देओ, अदालत के खातिर देशो, कहां तक कहिए, हमारे बनवासी ऋषियों ने दया और दान को धर्म का अंग ही लिख मारा है ! सब बातों में देव, और उसके बदले लेव क्या ? झूठी नामवरी, कोरी वाह वाह, मरणानन्तर स्वर्ग, पुरोहितजी का आशीर्वाद, रुजगार करने की आज्ञा वा खिताब, क्षणिक सुख इत्यादि, भला क्यों न देश दरिद्र हो जाय ! जहां देना तो सात समुद्र पारवालों तथा सात स्वर्गवालों तक को तन, मन, धन और लेना मनमोदकमात्र ! बलिहारी इस दकार के अक्षर की ! जितने शब्द इससे पाइएगा, सभी या तो प्रत्यक्ष ही विषबत् या परम्परा-द्वारा कुछ न कुछ नाश कर देनेवाले-

दुष्ट, दुःख, दुर्दशा, दास्य, दौर्बल्य, दण्ड, दम्भ, दर्प, द्वेष, दानव, दर्द, दाग़, दगा़, देव, (फारसी में राक्षस) दोज़ख, दम का आरजा, दरिन्दा, (हिंसक जीव) दुश्मनदार, (सूली) दिक्कत इत्यादि, सैकड़ों शब्द आपको ऐसे मिलेंगे जिनका स्मरण करते ही रोंगटे खड़े होते हैं ! क्यों नहीं, हिन्दी-फारसी दोनों में इस अक्षर का आकार हंसिया का सा होता है, और बालक भी जानता है कि उससे सिवा काटने चीरने के और काम नहीं निकलता । सर्वदा बन्धन-रहित होने पर भी भगवान का नाम दामोदर क्यों पड़ा कि आप भी रस्सी से बंधे और समस्त

ब्रजभक्तों को दइया २ करनी पड़ी ! स्वर्ग-विहारी देवताओं को

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सब सामर्थ्य होने पर भी पुराणों के अनुसार सदा दनुज-कुल से क्यों भागना पड़ा ? आज भी नये मतवालों के मारे अस्तित्व तक में सन्देह है। ईसाइयों की नित्य गाली खाते हैं। इसका क्या कारण है ? पंचपांडव समान वीर-शिरोमणि तथा भगवान कृष्णचन्द्र सरीखे रक्षक होते हुए द्र पदतनया को केशाकर्षण एवं वनवास आदि का दुःख सहना पड़ा, इसका क्या हेतु ? देश-हितैषिता ऐसे उत्तम गुण का भारतवासी मात्र नाम तक नहीं लेते, यदि थोड़े से लोग उसके चाहनेवाले हैं भी तो निर्बल, निर्धन, बदनाम ! यह क्यों ? दम्पति, अर्थात् स्त्री-पुरुष, वेद, शास्त्र, पुराण, बायबिल, कुरान सब में लिखा है कि एक हैं, परस्पर सुखकारक हैं, पर हम ऋषिवंशीब कान्यकुब्जों में एक दूसरे के बैरी होते हैं ! ऐसा क्यों है ? दूध दही कैसे उत्तम, स्वादिष्ट, बलकारक पदार्थ हैं कि अमृत कहने योग्य, पर वर्तमान राजा उसकी जड़ ही काटे डालते हैं ! हम प्रजागण कुछ उपाय ही नहीं करते, इसका क्या हेतु है ? इन सब बातों का यही कारण है कि इन सब नामों के आदि में यह दुरूह 'दकार' है!

हमारे श्रेष्ठ सहयोगी "हिन्दी-प्रदीप” सिद्ध कर चुके हैं कि 'लकार' बड़ी ललित और रसीली होती है। हमारी समझ में उसी का साथ पाने से दीनदयाल, दिलासा, दिलदार, दाल- भात इत्यादि दस पांच शब्द कुछ पसंदीदा हो गये हैं, नहीं

तो देवताओं में दुर्गाजी, ऋषियों में दुर्वासा, राजाओं में दुर्योधन

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महान होने पर भी कैसे भयानक हैं। यह दद्दा ही का प्रभाव है। कनवजियों के हक़ में दमाद और दहेज, खरीदारों के हक में दुकानदार और दलाल, चिड़ियों के हक में दाम ( जाल) और दाना आदि कैसे दुःखदायी हैं ! दमड़ी कैसी तुच्छ संज्ञा है, दाद कैसा बुरा रोग हैं, दरिद्र कैसी कुदशा है, दारू कैसी कडुवाहट, बदबू, बदनामी और बदफैली की जननी है, दोग़ला कैसी खराब गाली है, दंगा-बखेड़ा कैसी बुरी आदत है, दंश (मच्छड़ या डास ) कैसे हैरान करनेवाले जंतु हैं, दमामा कैसा कान फोड़नेवाला बाजा है, देशी लोग कैसे घृणित हो रहे हैं, दलीपसिंह कैसे दीवानापान में फंस रहे हैं। कहां तक गिनावें, दुनियाभरे की दन्त-कटाकट 'दकार' में भरी है, इससे हम अपने प्रिय पाठकों का दिमाग चाटना नहीं पसन्द करते, और इस दुस्सह अक्षर की दास्तान को दूर करते हैं।


'ट'।

इस अक्षर में न तो 'लकार' का सा लालित्य है, न 'दकार' का सा दुरूहत्व, न 'मकार' का सा ममत्व-बोधक गुण है, पर विचार कर के देखिए तो शुद्ध स्वार्थपरता से भरा हुवा है ! सूक्ष्म विचारके देखो तो फारस और अरब की ओर के लोग निरे छल के रूप, कपट की मूरत नहीं होते, अप्रसन्न होके मरना मारना जानते हैं, जबरदस्त होने पर निर्बलों को मनमानी

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