प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

( ७२ )


"हिन्दी-प्रदीप" से ज्ञात हुआ कि दिहाती भाई भी सैयद बाबा पर मधुर बानी की शीरीनी चढ़ाते हैं। हम भी मानते हैं कि कांग्रेस अभी ३ बरस की बच्ची है, उस पर रक्षा का हाथ रखना ही उन्हें योग्य है, क्योंकि यह हिन्दू-मुसलमान दोनों की हितै- षिणी है, ऐसे २ बहुत से दृष्टान्त अनुमान है कि, सभी को मिला करते होंगे जिनसे सिद्ध है कि परीक्षा का नाम बुरा ! राम न करे कि इसकी प्रचंड आंच से किसी की कलई खुले ! एक आय कवि का अनुभूत वाक्य है-

'परत साबिका साबुनहि देत खीस सी काढ़ि'

एक उर्दू कवि का यह वचन कितना हृदयग्राही है-
'इस शर्त पर जो लीजे तो हाज़िर है दिल अभी,

रंजिश न हो, फरेब न हो, इम्तिहां न हो।'

कहांतक कहें, परीक्षा सब को खलती है ! क्या ही अच्छा होता जो सब से सब बातों में सच्चे होते, और जगत् में परीक्षा का काम न पड़ा करता ! वह बड़भागी धन्य है जो अपना भरमाला लिये हुए जीवन-यात्रा को समाप्त कर दे ।


दांत

इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी सी छोटी २ हड्डियोंमें भी उस चतुर कारीगर ने यह कौशल दिखलाया है कि किस

के मुंह में दांत हैं जो पूरा २ वर्णन कर सके। मुख की सारी

( ७३ )


शोभा और यावत् भोज्य पदार्थों का स्वादु इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक, (जुल्फ़) भ्रू (भौं) तथा बरुणी आदि की छबि लिखने में बहुत २ रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हीं की शोभा से सब की शोभा है । जब दांतों के बिना पुपला सा मुंह निकल आता है, और चिबुक (ठोढ़ी) एवं नासिका एक में मिल जाती हैं उस समय सारी सुघराई मट्टी में मिल जाती है। नैन-वाण की तीक्षणता, भ्र-चाप की खिंचावट और अलक-पन्नगी का विष कुछ भी नहीं रहता।

कवियों ने इसकी उपमा हीरा, मोती, माणिक से दी है,. वह बहुत ठीक है, बरंच यह अवयव कथित वस्तुओं से भी अधिक मोल के हैं। यह वह अंग है जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एवं काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है खाने का मजा इन्हीं से है। इस बात का अनुभव यदि आपको न हो तो किसी बुड्ढ़े से पूछ देखिए, सिवाय सतुआ चाटने के और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगोके गले के नीचे उतार देने के दुनियां- भर की चीजों के लिए तरस ही के रह जाता होगा। रहे कविता के नौ रस, सो उनका दिग्दर्शनमात्र हमसे सुन लीजिए :-

शृङ्गार का तो कहना ही क्या है ! ऐसा कवि शायद कोई. ही हो जिसने सुन्दरियों की दन्तावली तथा उनके गोरे गुदगुदे गोल कपोल पर रद-छद (दन्त-दारा) के वर्णन में अपने क़लम की कारीगरी न दिखाई हो! आहा हा ! मिस्सी तथा पान-रङ्ग

रंगे अथवा योंही चमकदार चटकीले दांत जिस समय बातें

( ७४ )


करने तथा हंसने में दृष्टि आते हैं उस समय रसिकों के नयन और मन इतने प्रमुदित हो जाते हैं कि जिनका वर्णन गूंगे को मिठाई है ! हास्य रस का तो पूर्ण रूप ही नहीं जमता जब तक हंसते हंसते दांत न निकल पड़ें। करुणा और रौद्र रस में दुःख तथा क्रोध के मारे दांत अपने होंठ चबाने के काम आते हैं, एवं अपनी दीनता दिखाके दूसरे को करुणा उपजाने में दांत दिखाए जाते हैं । रिस में भी दांत पीसे जाते हैं। सब प्रकार के वीर रस में भी सावधानी से शत्रु की सौन्य अथवा दुःखियों के दैन्य अथवा सत्कीर्ति की चाट पर दांत लगा रहता है। भयानक रस के लिए सिंह-व्याघ्रादि के दांतों का ध्यान कर लीजिए, पर रात को नहीं, नहीं तो सोते से चौंक भागोगे। वीभत्स रस का प्रत्यक्ष दर्शन करना हो तो किसी जैनियों के जैनी महाराज के दांत देख लीजिए, जिनकी छोटी सी स्तुति यह है कि मैल के मारे पैसा चपक जाता है। अद्भुत रस में तो सभी आश्चर्य की बात देख सुनके दांत बाय, मुंह फैलाय के हक्का बक्का रह जाते हैं। शान्त रस के उत्पादनार्थ श्रीशंकराचार्य स्वामी का यह पद महामंत्र है-

अंगंगलितं पलितं मुंडं, दशन-विहीनं जातं तुडं।

कर धृत कंपित शोभित दंडं भूदपि मुंचस्याशापिंडं ।
भज गोविदं भज गोविंदं गोविंदं भज मूढमते। सच
है, जब किसी काम के न रहे तब पूछे कौन ?

"दांत खियाने खुर घिसे पीठ बोझ नहिं लेइ ।"

( ७५ )

जिस समय मृत्यु की दाढ़ के बीच बैठे हैं, जल के कछुए; मछली, स्थल के कौआ, कुत्ता आदि दांत पैने कर रहे हैं, उस समय में भी यदि सत चित्त से भगवान का भजन न किया तो क्या किया ? आपकी हड्डियां हाथी के दांत तो हई नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आबैंगी। जीते जी संसार में कुछ परमार्थ बना लीजिए, यही बुद्धिमानी है। देखिए, आपके दांत ही यह शिक्षा दे रहे हैं कि जबतक हम अपने स्थान, अपनी जाति (दंतावली) और अपने काम में दृढ़ हैं तभी तक हमारी प्रतिष्ठा है। यहां तक कि बड़े २ कवि हमारी प्रशंसा करते हैं, बड़े २ सुन्दर मुखारबिन्दों पर हमारी मोहर 'छाप' रहती है । पर मुख से बाहर होते ही हम एक अपावन, घृणित, और फेंकने योग्य हड्डी हो जाते हैं-

"मुख में मानिक सम दशन बाहर निकसत हाड़"

हम जानते हैं कि नित्य यह देखके भी आप अपने मुख्य देश भारत और अपने मुख्य सजातीय हिन्दू-मुसलमानों का साथ तन-मन-धन और प्रान-पन से क्यों नहीं देते ? याद रखिए-

'स्थान भ्रष्टा न शोभंते, दंता केशा नखा नराः' ।

हां, यदि आप इसका यह अर्थ समझे कि कभी किसी दशा में हिन्दुस्तान छोड़के विलायत जाना स्थान-भ्रष्टता है तो यह आपकी भूल है। हंसने के समय मुंह से दांतों का निकल

पड़ना नहीं कहलाता, बरंच एक प्रकार की शोभा होती है।

( ७६ )


ऐसे ही आप स्वदेश-चिन्ता के लिए कुछ काल देशान्तर में रह आएं तो आपकी बड़ाई है। पर हां यदि वहां जाके यहाँ की ममता ही छोड़ दीजिए तो आपका जीवन उन दांतों के समान है जो होठ या गाल कट जाने से अथवा किसी कारण-विशेष से मुंह के बाहर रह जाते हैं, और सारी शोभा खोके भेड़िए कैसे दांत दिखाई देते हैं। क्यों नहीं, गाल और होंठ दांतों का परदा है, जिसके परदा न रहा, अर्थात् स्वजातित्व की रौरतदारी न रही, उसकी निरलज्ज जिंदगी व्यर्थ है। कभी आपको दाढ़ की पीड़ा हुई होगी तो अवश्य यह जी चाहा होगा कि इसे उखड़वा डालें तो अच्छा है। ऐसे ही हम उन स्वार्थ के अंधों के हक में मानते हैं जो रहें हमारे साथ, बनें हमारे ही देश-भाई, पर सदा हमारे देश-जाति के अहित ही में तत्पर रहते हैं ! परमेश्वर उन्हें या तो सुमति दे या सत्यानाश करे। उनके होने का हमें कौन सुख ? हम तो उनकी जैजैकार मनावेंगे जो अपने देशवासियों से दांतकाटी रोटी का बर्ताव (सच्ची गहरी प्रीति) रखते हैं । परमात्मा करे कि हर हिन्दू-मुसलमान का देशाहित के लिए चाव के साथ दांतों पसीना आता रहे। हमसे बहुत कुछ नहीं हो सकता तो यही सिद्धान्त कर रक्खा है कि-

'कायर कपूत कहाय, दांत दिखाय भारत तम हरौ',

कोई हमारे लेख देख दांतों तले उंगली दबाके सूझबूझ की तारीफ करे, अथवा दांत बाय के रह जाय, या अरसिकता-

वश यह कह दे कि कहां की दांताकिलकिल लगाई है तो इन

( ७७ )


बातों की हमें परवा नहीं है। हमारा दांत जिस ओर लगा है, वह लगा रहेगा, औरों की दंतकटाकट से हमको क्या ?

यदि दांतों के सम्बन्ध का वर्णन किया चाहें तो बड़े बड़े ग्रन्थ रंग डालें, और पूरा न पड़े। आदि देव श्री एकदंत गणेश जी को प्रणाम करके श्री पुष्पदंताचार्य ने महिम्न में जिनकी स्तुति की है, उन शिवजी की महिमा, दंतवक्त्र शिशुपालादि के संहा- रक श्रीकृष्ण की लीला ही गा चलें तो कोटि जन्म पार न पावें ! नाली में गिरी हुई कौड़ी को दांत से उठानेवाले मक्खीचूसों की हिजो किया चाहें तो भी लिखते २ थक जायं। हाथी दांत से क्या २ वस्तु बन सकती है ? कलों के पहियों में कितने दांत होते हैं ? और क्या क्या काम देते हैं ? गणित में कौड़ी २ के एक २ दांत तक का हिसाब कैसे लग जाता है ? वैद्यक और धर्मशास्त्र में दंतधावन की क्या विधि है, क्या फल है, क्या निषेध है, क्या हानि है ? पद्धतिकारों ने दीर्घ दंताकचिन्मूर्खा' आदि क्यों लिखा ? किस २ जानवर के दांत किस २ प्रयोजन से किस २ रूप, गुण से विशिष्ट बनाए गए हैं ? मनुष्यों के दांत उजले, पीले, नीले, छोटे, मोटे, लम्बे, चौड़े, घने, खुड़हे कै रीति के होते हैं ? इत्यादि, अनेक बातें हैं, जिनका विचार करने में बड़ा विस्तार चाहिए । बरंच यह भी कहना ठीक है कि यह बड़ी २ विद्याओं के बड़े २ विषय लोहे के चने हैं, हर किसी के दांतों फूटने के नहीं ! तिसपर भी अकेला आदमी क्या २ लिखे ?

अतः इस दंतकथा को केवल इतने उपदेश पर समाप्त करते

( ७८ )


हैं कि आज हमारे देश के दिन गिरे हुए हैं, अतः हमें योग्य है कि जैसे बत्तिस दांतों के बीच जीभ रहती है वैसे रहें, और अपने देश की भलाई के लिए किसी के आगे दांतों में तिनका दबाने तक में लज्जित न हों, तथा यह भी ध्यान रक्खें कि हर दुनियादार की बातें विश्वास-योग्य नहीं है। हाथी के दांत खाने के और होते हैं, दिखाने के और ।


'द'।

हमारी और फारसवालों की वर्णमालाभर में इससे अधिक अप्रिय, कर्णकटु और अस्निग्ध अक्षर, हम तो जानते हैं, और न होगा। हमारे नीति-विदाम्बर अंग्रेज़ बहादुरों ने अपनी वर्ण- माला में, बहुत अच्छा किया, जो इसे नहीं रक्खा। नहीं उस देश के लोग भी देना सीख जाते तो हमारी तरह निष्कंचन हो बैठते । वहां के चतुर लोगों ने बड़ी दूरदर्शिता करके इस अक्षर के ठौर पर 'डकार' अर्थात् 'डी' रक्खी है, जिसका अर्थ ही डकार जाना, अर्थात् यावत् संसार की लक्ष्मी, जैसे बने वैसे, हजम कर लेना। जिस भारत-लक्ष्मी को मुसलमान सातसै वर्ष में अनेक उत्पात करके भी न ले सके उसे उन्होंने सौ वर्ष में धीरे धीरे ऐसे मजे के साथ उड़ा लिया कि हंसते खेलते विलायत जा पहुंची!

इधर हमारे यहां इस 'दकार' का प्रचार देखिए तो नाम के

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।