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छठा अध्याय

व्यभिचार

ईसा के पूर्व पांचवीं शताब्दि में वाबल के लोगों को देवी माई लिट्टा के मन्दिर में प्रत्येक स्त्री को अपने जीवन मे एक बार आकर अपने आपको उस परदेशी पुरुष को सौंप देना पड़ता था जो देवी की भेंट स्वरूप सबसे पहले उसकी गोद में पैसा फेंकता था। इस धार्मिक व्यभिचार का आधार यूरोप में इस विश्वास पर था कि मानवों की उत्पादक शक्ति प्रकृति की उर्बरता को बढ़ाने में एक रहस्यमय और पवित्र पभाव रखती है। कालान्तर में यह भी समझा जाने लगा कि देवी या देवता के पुजारियों के साथ सम्भोग करने से स्त्री के बाँझ होने का भय नही रहता। भगवत् पूजा में सम्भोग की पवित्रता में किसी को ऐतराज़ न था। [ ९० ]

परदेशी जो पैसा फेक देता था। वह देवी की भेंट चढ़ाया जाता था। और वह स्त्री उस परदेशी के साथ देवी की पूजा का विधान सम्पूर्ण कर उससे सहवास करती और फिर घर लौटकर निर्दोष समझी जाती थी। इसी प्रकार के रिवाज़ पच्छिमी एशिया के दूसरे भाग में, जैसे उत्तरीय अफरीका, साइप्रस, और पूर्वीयमडिटरेनियन के दूसरे टापुओं में, तथा यूनान में भी था। यूनान के प्रसिद्ध नगर 'कोरिन्थ, में किले के ऊपर 'एफरोडाइट' देवी का मन्दिर था, इस मन्दिर में १ हजार से ऊपर देव दासियाँ थीं, ये देवी के सामने नाचती गाती थीं—देश पर विपत्ति आने पर ये ही देवी से उनके दूर करने की प्रार्थनाये किया करती थी, और इस कारण इनका बड़ा मान होता था। ये स्त्रियाँ अन्य पुरुषों से धन लेकर उनकी कामेच्छा भी तृप्त किया करती थीं।

युरुक में इस्तार देवी का एक मन्दिर था। यह उर्बरता की देवी समझी जाती थी। इसकी उपासिकायें वेश्याये ही रखी जाती थी। इन्हे 'कादिस्तू' की उपाधि मिली थी, जो बहुत ही पवित्र उपाधि कहलाती थी।

"होरोडोटस" के पहिले इस प्रकार का व्यभिचार वृक्षों की ओट में होता था और वह धार्मिक समझा जाता था। डा॰ जे॰ जी॰ फ्रेजर ने अपनी 'ऐडोनिस ऐटिस ओसिरिस, नामक पुस्तक में लिया है कि "प्रकृति की उत्पादिका शक्ति की उपासना विविध नामो से होती थी, पर उसका ढंग प्रायः एक ही सा था। उधर महादेवी और देवता का संयोग होता था तो इधर पुजारिनों [ ९१ ]और यात्रियों का जोड़ा बंध जाता था। यूनान के कौरिन्थ नगर में वीनस की मूर्ति की पुजारिने भी वेश्यायें ही थीं। और वे बड़ी श्रद्धा और भक्ति की दृष्टि से देखी जाती थीं।

ईसा की दूसरी शताब्दि तक यूनान में यह प्रथा थी कि देवी सेवा के लिये उच्च घराने की स्त्रियाँ व्यभिचार करतीं थीं। इस प्रथा को बादशाह कान्टेण्टाइन ने बन्द कर दिया था।

दक्षिण भारत में देव मन्दिरों में 'देवदासियाँ' रहती हैं। बचपन में इनके माता पिता इन्हें मन्दिर में चढ़ा जाते हैं—वहीं ये बड़ी होती हैं। इनका मुख्य काम देवप्रतिमा के सन्मुख नाचना है। ये उस देवता के साथ व्याही होती हैं। इनमें से कुछ सुन्दर स्त्रियाँ पंडे पुजारियों के व्यभिचार की सामग्री होती हैं, शेष देव दर्शन को आये हुए यात्रियों की काम वासना को पूरी करके जीवन निर्वाह करती हैं। ये देव दासियाँ जगन्नाथ से लेकर दक्षिण के सभी मन्दिरों में नाचती हैं। बचपन में ही जब इनके माता पिता इन्हे मन्दिरों में दान कर जाते हैं—तब मन्दिर के तत्वावधान में उस्ताद जी लोग इन्हें नाचने गाने की शिक्षा देते हैं। इससे प्रथम एक रस्म अदा की जाती है कि इनका विवाह देवता की तलवार, फूल, या मूर्ति के साथ कर दिया जाता है। ये मन्दिरों में या मन्दिरों के आस पास रहा करती हैं। उनके गुज़ारे के लिये मन्दिर से एक बंधी रक़म मिल जाया करती है

मद्रास के चिगंलपट ज़िले के कोरियों में (कपड़ा बुनने वालो) यह रीति है कि वह अपनी सबसे वेडी, कहीं कहीं [ ९२ ]पांचवीं लड़की को किसी मन्दिर में दान कर देते हैं। इस प्रकार दान की हुई कन्यायें महाराष्ट्र में 'मुरली' कहाती हैं, और तैलंग में 'वसब' कहाती हैं, मद्रास, बम्बई प्रान्तों में उनके भिन्न भिन्न नाम हैं। जैसे योगनी, भावनी, नैकनी, कलावन्ती, देवली, जोगती मातंगीशरणा आदि।

ये स्त्रियाँ मन्दिरों में तो नाचती ही हैं परन्तु विशेष अवसरों पर बुलाने से अमीरों के घरों पर भी नाचने गाने जाती हैं। ये स्त्रियाँ गले में ज़ेवर पहिनती हैं, उनमे उनके देवता की मूर्ति भी चित्रित रहती है। कोई इस मूर्ति को केसरिया धागे में पिरोकर गले में पहिनती हैं और उसे अपने सौभाग्य का चिन्ह समझती हैं।

मालूम होता है कि देव दासियों की प्रथा बहुत पुरानी है, कालीदास ने अपने मेघदूत काव्य में उज्जैन के महाकाल के मन्दिर में इनके नृत्य की चर्चा इस भाँति की है—

पादान्यासै:क्वणितरशनास्तत्रलीलावधूतैः,
रत्नच्छाया खचित बलिभिश्चामरैःक्लान्तहस्ताः।
वेश्यास्त्वत्तोनखपदसुखान्प्राप्यवर्षाग्रविन्दू—
नामोक्ष्यन्ते त्वयिमधुकर श्रोणिदीर्घान्कटाक्षान्॥

बुद्ध भगवान् के सन्मुख भी गया में एक वेश्याओ का झुण्ड नाचता गाता आया था। यह गया के इन्द्रदेव के मन्दिर [ ९३ ]की देवदासिएं थीं, इसका आकर्षक वर्णन अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध पुस्तक "लाइट ऑफ एशिया" में किया गया है

देवदासियों की सम्पत्ति का अधिकार पुत्रों का नहीं, पुत्रियों को मिलता है।

जगन्नाथ जी के मन्दिर में जो देवदासियाँ होती हैं, वे गान्धारी कहाती हैं। वहाँ उनके १०८ घर हैं, जो बारी बारी से दिन में तीन बार मन्दिर में नाचने जाती हैं। ये दासियाँ सिर्फ नाचती हैं, गाती नहीं। इनकी एक जाति बन गई है, और उपयुर्क्त १०८ घरों में ही वे परस्पर शादी सम्बन्ध करती हैं।

कुछ दिन हुए, बड़ी व्यवस्थापिका सभा में देवदासियों के सम्बन्ध में एक बिल पेश हुआ था—परन्तु बहुत लोगो ने इसे धर्म में हस्ताक्षेप करना बता कर इस का विरोध किया और यह बिल पास न हुआ। सुना है कि महाराज बड़ौदे ने अपने राज्य के मन्दिरों में देवदासियों को बनाना भविष्य के लिये बन्द कर दिया है।

शाक्त सम्प्रदाय का भैरवी चक्र, पञ्चमकार आदि, जिनका मध्यकाल में बहुत ज़ोर हो गया था—और उत्तर भारत, नेपाल आदि में जो अब भी एक बिखरी रीति के स्वरूप में देखने को मिलते हैं, गम्भीरता से धार्मिक व्यभिचार की दृष्टि से मनन करने योग्य विषय हैं। नेपाल में, सुना गया है कि भैरवी चक्र और नैशोत्सव अब भी होते हैं और बहुत लोग उसी के मानने वाले हैं। वहां जाति पांति का और गम्य अगम्य का कोई भेद [ ९४ ]भाव नहीं है। तन्त्र ग्रन्थो में इस सम्बन्ध में बहुत ही कुत्सित बातो का वर्णन किया गया है। 'शिव उवाच' 'पार्वत्युवाच' 'भैरव उवाच' इत्यादि नाम लिख कर सर्वथा नीति, धर्म और सभ्यता से हीन बातें लिखी गई है। कालीतन्त्र में लिखा है :—

मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
एते पंच मकारा स्युर्मोक्षदाहि युगे युगे॥

अर्थात्—मद्य, मांस, मछली, मुद्रा (पूरी कचौरी बड़े) और मैथुन ये पांच मकार युग युग में मोक्ष देने वाले हैं। कुलार्णव तन्त्र में लिखा है :—

प्रवृत्ते भैरवी चक्रे 'सर्वे वर्णा द्विजातयः।
निवृत्त भैरवी चके सर्वे वर्णा पृथक् पृथक्॥

अर्थात्—भैरवी चक्र में प्रवेश होने पर सब वर्ण द्विजाति हैं। भैरवी चक्र से बाहर सब पृथक् पृथक् हैं। ज्ञानसंकलनी तन्त्र में लिखा है:—

"मातृयोनिं परित्यज्य, विहरेत सर्वे योनिषु।
वेदशास्त्र पुराणानि, सामान्यगणिका इव॥"
"एकैव शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव।
अहं भैरवस्त्वं भैरवी ह्यावयोरस्तु संगमः।

अर्थात्मा—माता की योनि को छोड़ कर सब योनियों में विहार करे, वेदशास्त्र मामूली वेश्या के समान है। सिर्फ अकेली शम्भु मुद्रा ही कुलवधू की तरह गुप्त है। [ ९५ ]

केवल इस उटपटांग वाक्य को बोलकर "भैरवी चक्र" में कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से समागम कर सकता है। इस वाक्य का यह अर्थ होता है कि "मैं भैरव हूँ और तू भैरवी है, आओ हमारा तुम्हारा सङ्गम हो।" साधारणतया जिन स्त्रियों को अपवित्र, अस्पर्श माना है—उन रजरवलाओं से भी व्यभिचार करने को इन तन्त्र ग्रन्थों में पवित्र कर्म माना गया है। 'रुद्रयामल तन्त्र' में लिखा है:—

"रजस्वला पुष्करं तीर्थ, चाण्डाली तु स्वयं काशी,
चर्मकारी प्रयागः स्यात् रजकी मथुरा मता।
अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता. . ... ....... . ...

अर्थात्—रजस्वला से सङ्गम करने से पुष्कर स्नान फल, चाण्डाली के समागम से काशी यात्रा, चमारी के समागम से प्रयाग स्नान, धोबिन के समागम से मथुरा यात्रा और कञ्जरी के साथ समागम करने से अयोध्या तीर्थ करने का फल मिलता है। ये लोग मद्य को 'तीर्थ' मांस को 'शुद्धि' और 'पुष्प' मछली को 'जलतुम्विका' मुद्रा को 'चतुर्थी' और मैथुन को 'पंचमी' के नाम से पुकारते हैं। ये लोग अन्य धर्म वालों को आपस मे 'कंटक, विमुख, भ्रष्टपथ नाम से पुकारते हैं।

भैरवी चक्र में पहुँच कर ये लोग धरती वा काठ के पटड़े पर कुछ सतिया जैसा पूर कर उस पर शराब का घड़ा रख कर पूजा करते हैं। और "ब्रह्मशापं विमोचय" मन्त्र पढ़ कर उसे पवित्र बनाते हैं—फिर एक भीतरी कोठरी में एक स्त्री और एक [ ९६ ] पुरुष को नङ्गा करके स्त्री का नाम देबी, पुरुष का नाम महादेव धरते हैं। उनके हाथ में तलवार देते हैं—फिर उनकी गुप्तेन्द्रिय की पूजा की जाती है। तदन्तर उन दोनों को एक एक प्याला शराब दी जाती है—फिर उन्हीं के जूंठे पात्रो में सब पीते हैं। फिर प्रधान आचार्य 'भैरवोऽहं, शिवोऽहं' कह कर एक पात्र पीता है—उसके बाद फिर सब पीते हैं। इसके अनन्तर मांस, बड़े आदि एक बड़े वर्तन में रख कर सब एक साथ खाते पीते हैं और शराब पीते रहते हैं। उसके बाद पंचमी चलती है। सब मतवाले होकर चाहे जिसकी बहन, कन्या, स्त्री, माता से व्यभिचार करते हैं। यहाँ तक कि स्वपुत्री का भी परहेज़ नहीं होता। कभी कभी बहुत मतवाले होने पर मारपीट जूतम पैजार भी हो जाती है। किसी किसी को उल्टी हो जाती है—जो बमन को खा लेता है वह सिद्ध माना जाता है। लिखा है :—

'हलां पिवति दीक्षितस्य मन्दिरे सुप्तो निशायांगणिकागृहेषु।
. . . .. .. . . .. विराजते कौलव चक्रवर्ती॥'

अर्थात् जो कलाल के घर बोतल पर बोतल शराब गटक जाय और रात को वेश्या के घर जा सोवे। वह कौलव चक्रवर्ती है।

ज्ञान संकलनी तन्त्र में लिखा है—

"पाश बद्धो भवेज्जीवः पाशुमुक्तः सदाशिवः"

इसका वे यह अर्थ करते हैं—कि जो लोकलाज, शास्त्रलाज, कुल लाज और देश लाज की पाशो में बंधा है वह जीव है। [ ९७ ]निरद्वन्द है, वह सदा शिव है। इन लोगो में दश महा विद्यायें प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक 'मातङ्गी' विद्या है—उसका अभिप्राय है "मातरमपि न त्यजेत"।

गुप्त साधन तन्त्र में लिखा है :—
नटी कापालिका वेश्या रजकी नापितांगना।
ब्राह्मणी शूद्रकन्या च तथा गोपाल कन्यका॥
मालाकारस्य कन्या च नव कन्याः प्रकीर्तिता।

अर्थात्—नटनी, कपालिकी, वेश्या, धोबिन, नायन, ब्राह्मणी, शूद्र की लड़की, ग्वालिन की बेटी, मालिन की बेटी ये नौ कन्याएं साधना में काम आनी चाहिये।

इसके सिवा यह श्लोक भी है।

"स्वशक्तया अयुतं पुण्यं परशक्तिप्रपूजने।'
'ततो वेश्याधिका ज्ञेया...... ......
"श्रुंणु देवी विशेषेण उत्तराम्नाय हेतवे' (ताराभक्तिसुधार्णव)।
'वेश्यागारेश्मशानेवा"...........(पुरश्चरण चन्द्रिका)॥'

शंकराचार्य से पहले इस मत का भारत में बहुत जोर रहा था। और यह बात मैंने किसी प्रामाणिक लेख मे पढ़ी थी कि पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथजी का मन्दिर पूर्व मे भैरवी चक्र था। कृष्ण बलदेव के बीच में पत्नी या माता के स्थान में बहन सुभद्रा की स्थापना, ब्राह्मण अंत्यजों का एक पंक्ति मे भात भोजन, उछिष्ट का विचार न करना, और मन्दिर पर के अश्लील-गन्दे चित्र इस बात का प्रमाण हैं। [ ९८ ]

वल्लभ सम्प्रदाय, जिसे पुष्टि सम्प्रदाय भी कहते हैं, उसके आचार्य गोस्वामियों के व्यभिचार भी बुरी दृष्टि से नहीं देखे जाते। और यह बात तो स्पष्ट रूप से होती ही है कि शिष्य लोग अपनी प्रत्येक भोग वस्तु गोस्वामी को समर्पण करते हैं। इस पद्धति का बहुत ही सभ्यता-पूर्वक पालन किया जाता है। फिर भी इस सम्प्रदाय में धर्म व्यभिचार बहुत ही बदनाम होगया है। और लोग उसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखते।

पुष्टि मार्ग के १० भाव प्रसिद्ध हैं। वे निम्न प्रकार हैं—

१—सब तरह केवल गुरु का आसरा पकड़ना।

२—श्रीकृष्ण की भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है।

३—लोकलाज तथा वेदशास्त्र की आज्ञा तजकर गुरुकी शरण आना।

४—देव और गुरु के सामने नम्र रहना।

५—मैं पुरुष नही हूँ, किन्तु वृन्दावन की गोपी हूँ, ऐसा मनमें समझता।

६—नित्य गुसाईंजी के गुण गाना।

७—गुसाईं के नाम का महत्त्व बढ़ाना।

८—गुरुकी आज्ञा पालन करना।

९—गुसाईं जो करे अथवा कहे उसी पर विश्वास रखना।

१०—वैष्णवों का समागम और सेवा करनी। [ ९९ ]

अब इस सम्प्रदाय की धार्मिक पुस्तको के विचार और बाते सुनिए। सिद्धान्त रहस्य में लिखा है—

"गुरु को तन, मन, धन अर्पण करना। ये वस्तु समर्पण करने से ब्रह्मरूप हो जाती है। और उन वस्तुओं के उपभोग से फिर ५ प्रकार का दोष नहीं लगता।"

"सढ़सठ अपराध" नाम की पुस्तक में लिखा है—

१—वैष्णव होकर जो अवैष्णव को सम्मान करे, तो तीन जन्म तक चमार बने।

२—जो कोई गुरु और भगवान् में भेद रखे, वह पक्षी हो।

३—जो गुरु की आज्ञा उल्लंघन करे। वह असिपात्र नर्क में जाय, और उसकी समस्त सेवा नष्ट हो।

४—जो अपने गुरुकी गुप्त बात ज़ाहिर करे, वह तीन जन्म तक कुत्ता हो।

अष्टाक्षर टीका में लिखा है—देखो श्री गोसाईं जी कैसे हैं। उन्हें किसी वस्तु की इच्छा नहीं। उन्हें कुछ गर्ज नहीं। उनकी सर्व इच्छा पूर्ण हुई है। वे सब गुणों से भरपूर हैं। वे स्वयं ईश्वर हैं। सब अवतारो में मुख्य हैं। करोड़ो कामदेवो के समान सुन्दर हैं। सद्गुणों से परिपूर्ण और रसिकशिरोमणि हैं। भक्तों की मनोकामना पूर्ण करनेवाले हैं। करोड़ो जगत में उनकी कीर्ति व्याप्त है।.... .ब्रह्मा, शिव, इन्द्र उनकी स्तुति करते हैं।

'गुरु सेवा' पुस्तक मे लिखा है— [ १०० ]

"...इस लिये ईश्वर और गुरु की सेवा ज़रूर करनी चाहिए। जो मनुष्य ईश्वर की सेवा करे तो 'व्यापी' वैकुण्ठ में जाय—पर वही—जो गुरु की सेवा भी ईश्वर की तरह करे। .....पराई वस्तु भोगने का दोष तो इस सृष्टि को लगता है। ईश्वर के लिये तो कुछ पराया है ही नहीं। इस लिये व्यभिचार का दोष ईश्वर ने सृष्टि को हो दिया है। अज्ञानी (?) कहते हैं 'कि जो कोई पुत्री पिता से कहे कि मैं तुम्हारी स्त्री हूँ' इसमे कितनी अनीति है। इस लिये ईश्वर के साथ जार भाव की प्रीति रहने वाले कितने अधर्मी है। इसमे यह बात सोचने योग्य है कि गोपियों ने श्रीकृष्ण के साथ जार भाव की प्रीति की थी, क्या उन्होंने अवर्माचरण किया? तथा सृष्टि के साथ सृष्टि की स्त्रियाँ पार्वती, सीता आदि को महादेव और रामचन्द्र ने विवाह, तथा श्रीकृष्ण ने १६ हज़ार गोपियों को व्याहा (?) यह भी क्या अधर्म था? यह बात भी उन मूरखो (?) के कहने से सिद्ध होगी। जो केवल पिता पुत्र का भाव ही ईश्वर से हो तो श्रीकृष्ण इन कन्याओं को क्यों व्याहते (?) पर ईश्वर में तो सबभाव हैं।.....वह अपनी आत्मा (?) के साथ ही रमण करता है—उसे कुछ दोष नहीं। अज्ञानी (?) लोगों को शास्त्र विरुद्ध बात समझा कर लोग भ्रम में डालते है, जो जार भाव की प्रीति ईश्वर के साथ रखने में अधर्म होता हो तो, पूर्ण पुरुषोत्तम वेद को जार भाव रखने (?) का वरदान ही नहीं देते।"

कुछ दिन पूर्व बम्बई में इस सम्प्रदाय के विरुद्ध बड़ा भारी [ १०१ ]आन्दोलन मचा था, और वहां के प्रमुख पत्रों में इस समुदाय, व्यभिचार की भारी निन्दा की गई थी। जिस पर वहाँ के, मन्दिर के महन्त ने ५० हज़ार रु॰ का मान हानि का दावा वहां के कुछ पत्र वालों पर कर दिया था, इस मुकदमें की ख़ूब धूम रही थी और गुसांईजी की खूब छीछा लेदर हुई थी। सन् १९१८ मे हमने जब व्यभिचार, नामक पुस्तक लिखा और उसमे हम ने धार्मिक व्यभिचारों की उन सब बातों का उल्लेख किया जिनका वर्णन इस अध्याय में किया गया है—साथ ही उस मुकदमें की कार्यवाही के उस समय के पत्रों के उद्धरण हम ने दिये थे, जिस पर बम्बई मन्दिर के महन्त ने प्रथम तो हमें मुकदमा चलाने की धमकी दी थी, पीछे उक्त पुस्तक का कापी राइट ख़रीद कर नष्ट कर देने की चेष्टा की थी।

कुछ दिन हुए स्वामी ब्लाकटानन्द ने जो प्रथम इसी सम्प्रदाय के थे—इस सम्प्रदाय को पोल ख़ोलते हुए ३ नाटक लिखे थे। जो लगभग २० वर्ष पूर्व हमने देखे थे, उस में भी बहुत सी बातों का भण्डा फोड़ किया गया था।

नाथद्वारा इस सम्प्रदाय का बड़ा भारी अड्डा है। और इस की सम्पत्ति भी करोड़ों रु॰ की है। हाल ही में वहां के भावी अधि कारी महन्त दामोदर लाल ने एक वेश्या से विवाह करके देश में काफी हलचल मचा दी है, महन्त दामोदर लाल ने इस कुकर्म को धर्म क्रान्ति के विचार से किया हुआ प्रमाणित करने की चेष्टा की थी—पर हमने स्वयं नाथद्वारे जाकर उसके सैनीक व्यभिचारीयों [ १०२ ] की अनगिनत कहानियां और उनके कुत्सित जीवन की घृणास्पद बातें सब स्वयं सुनी। और जब उनसे कहा कि आप इन आरोपो का क्या उत्तर देते हैं तो उन्होंने निर्लज्जता पूर्वक कहा—इस में हमारा क्या दोष है, यह तो हमारे सम्प्रदाय में होता ही है, आप सम्प्रदाय में संशोधन कीजिए तब ये बुराइयां दूर होंगी।

पुराणों में देवता और ऋषियों के व्यभिचारों को पवित्र और र्निदोष रूप दिया गया है, विष्णु ने वृन्दा के साथ उसके पति का रूप धरके व्यभिचार किया, इन्द्र ने चन्द्रमा की सहायता से गौतम की पत्नी अहल्या के साथ व्यभिचार किया, अनेक देवताओं ने कुमारी अवस्था में कुन्ती से व्यभिचार किया इसी प्रकार विश्वामित्र ने मेनका से, पराशर ने सत्यवती से, यहां तक कि पशुओं तक से व्यभिचार करने के घृणास्पद उदाहरण हमे देखने को मिलते हैं। श्री कृष्ण को एक आदर्श व्यभिचारी के रूपमें हिन्दुओं ने उपस्थित किया है। इन सब बातों से हिन्दू समाज की भावना इस कदर गन्दी होगई है कि कोई कवि, लेखक या नाट्यकार चाहे भी जितनी अश्लील रचना करे, या चेष्टा करे यदि उस में राधा या कृष्ण का नाम आ जाता है तो वह प्रायः क्षमा के काबिल मानी जाती है। और निर्दोष तो वह है ही।

कैसे शर्म की बात है कि मनुष्य अपनी पाप वृत्तियों और कुत्सित भावनाओं को धर्म की आड़ लेकर पूरी करने में अपना बड़ा भारी कौशल समझता है। कभी किसी ने यह नहीं विचार [ १०३ ]किया कि राधा वास्तव में श्री कृष्ण की पत्नी भी न थी, वह पर स्त्री थी, इसके सिवा श्री कृष्ण के अपनी पत्नियां भी थीं। महाभारत में हमें इसका कुछ भी उदाहरण नहीं मिलता। परन्तु हिन्दुओं की मनोवृत्तियां इतनी गन्दी हो गई हैं कि वे कृष्ण के व्यभिचार की लीलाऐं बड़े मनोयोग से अभी अभिनय करते हैं।

कुछ दिन पूर्व कलकत्ते के गोबिन्द भवन नामक मारवाड़ियों के एक भक्ति आश्रम के एक पहुँचे हुए भक्त हीरालाल के पाप का घड़ा बीच बाज़ार फूटा था। और यह प्रमाणित होगया था कि इस नराधम ने सैकड़ो ही भले घर की बहू बेटियों से उस मन्दिर में व्यभिचार किया है। यह उस जाति की बेग़ैरती का नमूना था कि उस भयानक अपमान को वे लोग चुपचाप पी गए। पर इस व्यभिचार की जड़ में वह कुत्सित भावना है जो धर्म व्यभिचार सम्बन्धी साहित्य के मनन से स्त्री पुरुषों के मन पर होती है। यह व्यक्ति अपने को कृष्ण और स्त्रियों को गोपी कह कर उनकी वृत्तियों को अवरार पाते ही चलित करता था और उन्हें पतित करता था। स्त्रियां स्वभाव ही से चलित चित्त तो होती ही हैं। शीघ्र ही बहक जातीं। फिर इस पापिष्ट ने कुटनियां भी बहुत सी लगा रखीं थीं। जब चांद के मारवाड़ी अंक का हम ने सम्पादन किया तो इस धर्म सांड के चित्र को प्राप्त करने में हमें बड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा—अन्त में एक एक उच्च कुल की महिला के गले में पड़े हुए लाकेट से वह चित्र हमें बड़ी कठिनाई से मिला—और उस महिला ने उसका नाम न प्रकाशित कर [ १०४ ] ने की हमें शपथ वद्ध किया। यदि पाठक आज्ञा दें तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह पतित आदमी अब भी ब्रह्म निष्ट समझा जाता है, और अब भी कुछ स्त्रियों की उसके प्रति कृष्ण भावना और जार सम्बन्ध है, यह मारवाड़ी समाज की पतित नैतिक स्थिति के कारण ही हैं।

प्रायः ब्राह्मण लोग पूजा पाठ का ढोंग करने नित्य ही सद्गृहस्थो में जाते रहते हैं। खास कर मारवाड़ी परिवारों में। स्त्रियां इन से पर्दा भी नहीं करतीं। ये लोग खूब चुस्त, चालाक, चंट, लुच्चे होते हैं। हंस २ कर स्त्रियों से बात करते, उनका हाथ देखते, भविष्य बताते और इस बहाने उनके गुप्त भावो को जान अपना उल्लू साधते हैं। ऐसे जनेऊधारी अनेक सांडों को हम जानते हैं। पीछे वही पाजी इस काम की दलाली भी करने लगते हैं। और दूसरो के सन्देश और संकेत पहुंचाया करते हैं।

मन्दिर व्यभिचार की प्रवृत्ति के बड़े भारी केन्द्र हैं। कुछ दिन पूर्व दिल्ली के एक मन्दिर का रहस्योद्घाटन हुआ था। मन्दिर में प्रवेश करने के द्वार के पास एक स्थान नियत है जहां जाने वालो के जूते उतार कर रख लिये जाते हैं। इस काम पर स्वेच्छा से एक युवक ने अपने आपको पेश किया। वह प्रत्येक आगन्तुक के जूते लेकर रखता, और चलती बार देता था। बहुत सी युवतियां भी मन्दिर में आती थीं। जब से असहयोग आन्दोलन चला और पंजाबी संस्कृति दिल्ली में मिली, दिल्ली में निर्भय विचरने वाली युवतियों की काफी भीड़ होगई हैं। सायंकाल को चांदनी [ १०५ ]चौक में जिसका जी हो आकर देखले। प्रायः युवतियां बेधड़क खोंमचे वाले की दुकानों के सामने स्टूलों पर बैठ कर पत्ते चाटा करती हैं। या 'हर माल साढ़े तीन आने' की दुकानों पर घन्टों खड़ी सौदा पटाया करती हैं। इन में बहुत सी उच्च कुल की लड़- कियां होती हैं। अस्तु! वह युवक यह चालाकी करता कि जिस युवती को वह पसन्द करता उसके जूते में ५) का नोट रख देता जब वह स्वीकार हो जाता तो सौदा पट जाता—नहीं तो अकस्मात् की बात कह दी जाती।

एक महा पुरुष अपना नया तजुर्बा सुनाने लगे—कि मैं तो यमुना जी के रास्ते पर जहां.. .बगीची है जा डटता हूँ। वहां से नित्य ही हजारों स्त्रियां गुजरती हैं। जिसे पसन्द किया ५) का नोट गिरा दिया, यदि उसने उठा कर चुप चाप रख लिया तो संकेत करके ज़रा अलग किया और सब बातें तै करलीं—नहीं तो अपना नोट उठाया और दूसरा शिकार देखा।

मन्दिरों से स्त्रियों का उड़ाया जाना, उन पर बलात्कार करना नई बात नहीं। नित्य के काम हैं। और इनके मूल में भी वही धर्म व्यभिचार की छाप है, जो ऐसे कर्मों की ओर विचार करने को मनुष्य को खींचता है।