धर्म के नाम पर  (1933) 
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: इंद्रप्रस्थ पुस्तक भंडार, पृष्ठ मुखपृष्ठ से – क तक

 

धर्म के नाम पर !!!

 

हत्या, अपराध, व्यभिचार, पाप, पाखण्ड, अनाचार,
झूठ, ठगी, धूर्तता, छल, बेवकूफ़ी।

 

[धर्म-क्रान्ति की सर्वथा नवीन और ज़ोरावर पुस्तक]

 

लेखक—
आचार्य श्रीचतुरसेन शास्त्री

 

 

प्रकाशक—
इन्द्रप्रस्थ पुस्तक भण्डार
दरीबा कलां, देहली।

 

 
प्रथमवार }
{ मूल्य १)
सम्वत् १९९० वि॰
 
प्रकाशक—

इन्द्रप्रस्थ पुस्तक भण्डार,

दरीबा कलां, देहली।
 

मुद्रक—

बा॰ बृजलाल बालूजा मैनेजर,

लाहौर प्रिण्टिङ्ग वर्क्स, चांदनी चौक, देहली।

 

ग्रन्थकार का निवेदन

इस पुस्तक को पढ़कर मेरे बहुत से मित्र और बुजुर्ग मुझ पर हद दर्जे तक नाराज होंगे। सम्भव है मुझे उनकी मित्रता से भी हाथ धोना पड़े, क्योंकि उनमें से बहुतों की आजीविका पीढ़ियों से इस पुस्तक में वर्णित पाखण्डों के द्वारा ही चल रही है। मैं यह सत्य कहता हूँ कि पुस्तक न तो किसी व्यक्ति को लक्ष्य करके लिखी गई है और न इसे लिखकर मैं किसी भी मित्र या अमित्र का अमङ्गल किया चाहता हूँ। इस पुस्तक को लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यही है, कि मेरे देश के नवयुवकों के दिमाग़ इस पाखण्ड पूर्ण धर्म से आजाद हो जायँ, और वे स्वतन्त्रता पूर्वक जैसे अपने सुसंस्कृत और सुशिक्षित मस्तिष्क से अपने भले बुरे की और बहुत सी बातें सोचते हैं इस विषय पर भी सोचें। क्योकि मेरी राय में हिन्दुओं की भविष्य नस्ल को—जो इन नवयुवकों की सन्तति होगी, मर्द बच्चा बनाने का एक मात्र यही उपाय है। और मैंने यह राय संसार की महा जातियों के नाश के इतिहासों का गम्भीरता पूर्वक मनन करके ही क़ायम की है।

इस लिये जिन मेरे भाइयों का दिल इस पुस्तक को पढ़कर दुखे; उनके चरणों में सीस नवाकर मैं प्रथम ही क्षमा मांगे लेता हूँ। क्योंकि इन पाखण्डों के बीच में जीवित रहकर मुझे उनसे कहीं अति अधिक दुःख हो रहा है।

पुस्तक बहुत जल्दी में केवल १ सप्ताह में लिखी गई है, क्योंकि उत्साही प्रकाशक महाशय इसे महात्मा गांधी के जगत प्रसिद्ध उपवास के पवित्र सप्ताह में ही प्रकाशित करने के इच्छुक थे। इस लिये इसमें जो भी त्रुटियाँ रह गई हों, उनके लिये भी सहृदय पाठक क्षमा करे।

 
दिल्ली
श्रीचतुरसेन वैद्य
२१|५|३३

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