धर्म के नाम पर/5 हत्या
पांचवां अध्याय
हत्या
कुछ दिन पूर्व देशाटन करते हुए मुझे श्री वैधनाथ धाम जाने का अवसर प्राप्त हुआ। उस दिन विजया दशमी थी। मन्दिर में बहुत से बाहर के यात्री आए थे। हम लोग स्नान आदि से निवृत्त होकर पण्डे के साथ मन्दिर को चले। ज्योही हमने मन्दिर के प्राङ्गण में प्रवेश किया कि देखा, एक व्यक्ति कुछ विचित्र सी वस्तु केले के पत्ते में लपेटे बड़ी स्वच्छता से लिये जा रहा है। वह ब्राह्मण था और जनेऊ गले में डाला था। तिलक भी सारे अङ्ग पर लगा था। मेरे पास बालक था उसने पूंछा यह क्या चीज़ है? मैं स्वयं भी उसे कोई अद्भुत फल समझा—पर ज्योंही वह निकट होकर गुज़रा तो मैंने देखा कि वह किसी बकरे की दो टांगें थी।
मैंने चौकन्ना होकर पण्डे से पूंछा कि यह क्या है? उसने कहा—माई का भोग है। मन्दिर के विशाल प्राङ्गण में आकर जो देखा उसे देख कर आँखें खुल गईं। मैंने अपनी आँखों से जीवित पशु का हनन इतने निकट से कभी नहीं देखा था, पर वहाँ सन्मुख मैंने देखा कि यथार्थ नाम खून की नदी बह रही है और सैकड़ो धड़ इधर उधर तड़प रहे हैं। और एक एक तण में खटाखट हो रही है। इतना अधिक रक्त एक बारग़ी ही देखकर और ऐसा भयानक दृश्य देख कर मेरी पत्नी और बालक तो इस तरह भयभीत हुये कि मैंने समझा कि वे बेहोश होजावेंगे। मैं स्वयं भी बहुत ही विचलित हो उठा, पर तुरन्त मैं एक कदम और आगे बढ़ गया और ग़ौर से वह अभूतपूर्व दृश्य देखने लगा।
मन्दिर का प्राङ्गण बहुत विशाल था। उसमे पचास हज़ार मनुष्य खुशी से समा सकते थे। और उस समय पन्द्रह बीस हज़ार में कम स्त्री पुरुष वहाँ न होंगे। हठात वेग से खाण्डा पड़ता और धड़ रक्त का फव्वारा छोड़ता हुआ धरती पर तड़पने लगता सिर को मन्दिर के चबूतरे पर खड़ा हुआ पुजारी रस्सी के सहारे फुर्ती से ऊपर खींच लेता। पाँच आने पैसे, एक नारियल और फुछ पुष्प एक दोने में रखकर सिर के साथ पशु के स्वामी को और देने पड़ते तव यह स्वयं जाकर सिर को देवी की भेंट कर माता था। वहां में उस दौन में प्रसाद मिलता। वह बाहर आ फर अपने पशु का धड़ खींच कर एक ओर ज़रा हट कर बैठ जाता और उसकी खाल उधेड़ना शुरू करता। पण्डे लोग भी जुट जाते और वहीं उसका खण्ड खण्ड करके हिस्से बाँट लिये जाते।
मन्दिर में चारो ओर यही बूचड़खाना फैला हुआ था। मेरे पैरों में मानों लोहे की कीलें जकड़ दी गई थी। मैं लगभग ८ या ८॥ बजे मन्दिर में घुसा और एक बजे तक जब तक कि बधिक अपना काम करता रहा, वहीं खड़ा रहा। मेरी पत्नी और साथी लोग हताश होकर एक तरफ हट कर बैठ गये थे। मैंने हिसाब लगा कर देखा कुल मिला कर लगभग बारह सौ बकरे वहाँ मेरे सन्मुख काटे गये और तीन या चार भैंसे। भैसों के सिर काटने, उनके तड़पने, उनके सिर को यूप में फंसाने का दृश्य अत्यन्त भयानक और राक्षसी था आज भी मैं उस दृश्य को याद करके भयभीत हो जाता हूँ। यह अनिवार्य था कि एक ही प्रहार में सिर कट जाय और वह सिर धरती में न गिरने पावे।
मैंने मन्दिर की मूर्ति नहीं देखी। मैंने लौट कर स्नान किया और धर्मशाला से सामान उठा स्टेशन की राह ली। उस पाप पुरी में हम लोग अन्न जल ग्रहण न कर सके।
वहाँ मैने मछलियों के खुले बाज़ार देखे। आंगन की एक ओर शिवाजी का मन्दिर था और दूसरी ओर देवी का। दोनों मन्दिरों की कलशों पर बहुत सी लाल रंग की कत्तरे बंधी थीं। जिनका एक सिरा इस मन्दिर के कलश में और दूसरा दूसरे के कलश में था। देवी के मन्दिर का चबूतरा इतना ऊंचा था कि खड़े मनुष्य के गर्दन तक आता था। उसी के सामने एक काष्ट का यूप गढ़ा था जिसमें एक गढ़ा इस भाँति किया गया था कि उसमे पशुकी गर्दन आसानी से आ सके। गर्दन फंसाकर एक छिद्र द्वारा लोहे के एक सींखचे से उसे अटका दिया जाता था।चबूतरे पर एक आदमी हाथ में एक छींका जैसी वस्तु रस्सी के सहारे पकड़े खड़ा था। बधिक ब्राह्मण था, और वह स्नान कर तिलक छाप लगाये स्वच्छ जनेऊ पहिने हाथ में खांडा लिए खड़ा था। प्रत्येक जीव की हत्या करने की उसकी फीस एक आना थी। इकन्नियों की उस पर वर्षा हो रही थी, उसने अपनी धोती में एक पोटली बाँध रक्खी थी जिसमे वह उन इकन्नियों को डाल रहा था। लोग अपने अपने पशुओं को कोई धकेल कर, कोई कन्धे पर, कोई रस्सी द्वारा खींचकर और कोई मारता हुआ ला रहा था। मैंने भली भाँति से देखा—कि प्रत्येक पशु अपनी असल मृत्यु को समझ रहा था और वह भय से कम्पित और अश्रुपूरित था। सब पशु, आर्तनाद कर रहे थे। कटे हुये सिरो के ढेर और फड़कती हुई लाशों को देख के मूर्छित से होकर गिरे पड़ते थे। प्रत्येक आदमी की इच्छा पहिले अपना पशु कटाने की थी और प्रत्येक व्यक्ति आगे बढ़कर अपनी इकन्नी बधिक के हाथ में थंभा देना चाहता था। वधिक इकन्नी टेट मे रखता और पशु के स्वामी पशु को यूप के पास धकेलते, बधिक का सहायक फुर्ती से उसकी गर्दन यूप में फंसाकर यूप के छेद में लोहे का सरिया डालता और छींका उसके मुख पर लगा देता।
मन्दिर के एक स्थान पर स्त्रियाँ दोनों में कुछ अद्भुत घिनौली वस्तु लिये बैठी थीं। सड़ी हुई लीची को छील कर रखने से जैसी आकृति होती है, वैसी वह चीज़ थी, पूंछा तो कहा—'आँखें हैं' अर्थात् मरे हुये पशुओं की की आँखें निकाल कर एकत्र की गई हैं। पूंछा कि इनका क्या होता है? कहा—खाते हैं।
मैंने इस घटना से दस वर्ष पूर्व जयपुर आमेर की शिलादेवी के आंगन में बध हुये बकरे को देखा था, और विन्ध्याचल के मन्दिर में साधारण दृश्य देखा था—पर ऐसा भयानक रोमांचकारी बूचड़खाना, और खुले आम पशुओं का बध इतनी अधिक संख्या में मैने नहीं देखा। मेरी इतनी अभिरुचि देखकर पण्डे ने मुझे भी एक बकरा माई की भेंट करने को प्रोत्साहित किया। और कहाँ से वह सस्ता बकरा ले आवेगा यह भी उसने बताया।
वहाँ से मैं कलकत्ते गया। वहाँ कालीजी के मन्दिर में भी मैंने अल्प संख्या में यही दृश्य देखा, और इसी भाँति का मांस विक्रय का बाज़ार भी देखा। अन्य काली, दुर्गा आदि के मन्दिरों में इसी प्रकार से पशु वध होते ही हैं। और मेरे लिये यह अनोखी घटना थी—पर हिन्दू जाति के धर्म तत्व को जो भाग्यवान् लोग समझते हैं—वे जानते हैं कि इसमे अनोखा कुछ भी नहीं है। सब स्वाभाविक ही है
मन्दिरों में देवताओं के सामने पशु का वध करना यह केवल भारतवर्ष ही में नहीं प्रत्युत किसी जमाने में सारे संसार की पुरानी जातियों में प्रचलित था। रोम, ग्रीस, मिश्र और दूसरी उन्नत जातियाँ भी देवताओ के सामने पशु हत्या करती थीं और इसे वे पवित्र कर्म मानती थी।
यदि विचार कर देखा जाय तो यह विधि यज्ञ भी हिंसाओं से चली।
यज्ञ में पशु बध की परिपाटी कब से चली—इस सम्बन्ध में ठीक ठीक प्रकाश नहीं पड़ता। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि भारत के साथ मध्य एशिया की जातियों का जो समय समय पर संघर्ष होता रहा था भारत की अनार्य जातियों का जो आर्यों से संपर्क रहा, उनसे ब्राह्मणो के यज्ञ में पशु वध प्रचलित हुआ। क्योंकि वे सभी चातियाँ बलिदान को पवित्र कार्य समझती थीं। यज्ञ में बलिदान देने के विषय मे शत पथ ब्राह्मण (१।२।३।७।८) में यह लिखा है—
"पहिले देवताओं ने मनुष्य को बलि दिया जब वह बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने घोड़े में प्रवेश किया, तब उन्होंने घोड़े को बलि दिया, जब घोड़ा बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने बैल में प्रवेश किया—तब उन्होंने बैल को बलि दिया—जब बैल बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमे से निकल गया और उसने भेड़ में प्रवेश किया। जब भेड़ को बलि दी गई तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया, और उसने बकरे में प्रवेश। किया। तब उन्होंने बकरे को बलि दिया, तो यज्ञ का तत्त्व उसमें से भी निकल गया और तब उसने पृथ्वी में प्रवेश किया। तब उन्होंने पृथ्वी को खोदा और उसे चाबल और जौ के रूप में पाया"
ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद सूत्रकाल में ब्राह्मणों के विस्तृत वर्णनों को स्रोत सूत्रों में वर्णन किया गया है। ये स्मोत सूत्र बौद्ध काल तक बनते रहे और इनमें मांस का यज्ञों में खूब उपयोग होता रहा है।
बलिदान की संख्या यज्ञ के अनुसार होती थीं। अश्वमेध यज्ञ में सब प्रकार के पालतू और जंगली जानवर थलचर, जलचर, उड़ने वाले, रेंगने वाले और तैरने वाले मिलाकर ६०९ से कम नहीं होते थे।
कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण में यह व्यौरा लिखा है कि छोटे छोटे यज्ञों में विशेष देवताओं को प्रसन्न रखने के लिये किस प्रकार का पशु मारना चाहिये। गोपथ ब्राह्मण में बताया गया है कि उसका क्या क्या भाग किसे मिलना चाहिये। पुरोहित लोग जीभ, गला, कन्धा, नितम्ब, टांग इत्यादि पाते थे। यजमान पीठ का भाग लेता था, और उसकी स्त्री को पेड़ के भाग से सन्तोष करना पड़ता था[१] शतपथ ब्राह्मण में इस विषय में एक मनोहर विवाद है कि पुरोहित को बैल का मांस खाना चाहिये या गाय का। अन्त परिणाम निकाला गया है कि दोनों ही मांस न खाने चाहिए। परन्तु याज्ञवल्क्य हठ पूर्वक कहते हैं! 'यदि वह नर्म हो तो हम उसे खा सकते हैं[२]।"
इस पवित्र मांस भक्षण का प्रभाव उपनिषदो तक में हो गया। बृहदारण्यक उपनिषद् मे लिखा है कि जो कोई यह चाहे कि मेरा पुत्र विद्वान् , विजयी और सर्व वेदों का ज्ञाता हो-वह बैल का मांस चावल के साथ पकाकर घी डालकर खाया[३]।
रथ्यास्त्री ब्रह्मणो वस्स कथ्य, ब्रह्माच्छासित उरु पोतुः सव्या श्रोणिहोंतुर-परसक्थं मैत्रावरुणस्योऊरच्छ्वाकस्य, दक्षिणादौनेष्ट. सव्यान्सदस्यस्य सदंचानक च गृहपतेर्जाघी पत्नायस्तासां ब्राह्मणे न प्रति ग्राहयति, वतिष्टुहृर्दयं वृक्कौ चांगुल्यानि दक्षिणो बाहुरर्गिनधस्य सव्य आत्रेयस्य दक्षिणी पादौ। गृहपतेवृंतपदस्य, सन्यौपादौ गृहपत्न्या वृतप्रदायाः (गोपथ बा॰ ३॥ १८॥)
ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की घृणास्पद हत्यायें लोगों को अप्रिय प्रतीत होने लगी थीं। और लोगो ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया था। 'महाभारत में लिखा है' वेद में जो 'अज' से यज्ञ करने को लिखा है उसका अर्थ बीज है बकरा नहीं।
'गायें अवध्य हैं इन्हें न मारना चाहिये।'
"हिन्सा धर्म नहीं है।"
चार्वाक सम्प्रदाय वालों ने उपहास से कहा था—
'यदि पशु को मारने ही से स्वर्ग मिलता है तो यजमान अपने माता पिता को ही क्यों नहीं मारकर हवन कर देते।'
मत्स्यपुराण अध्याय १४३ में यज्ञ के विषय में एक मनोरंजक उपाख्यान है। "ऋषि पूछने लगे—स्वयंभुव मनु के समय त्रेतायुग के प्रारम्भ में यज्ञ का प्रचार कैसे हुआ?...
सूत जी ने कहा—वेद मन्त्रों का विनियोग यज्ञ कर्म में, करके इन्द्र ने यज्ञ का प्रचार किया ..जब सामगान होने लगा और पशुओं का आलंभन चलने लगा—तब महर्षि गणों ने उठ कर इन्द्र से पूंछा—तुम्हारी यज्ञ विधि क्या है? ..यह पशु हवन की विधि तो अनुचित है ..यह धर्म नहीं अधर्म है। तुम धान्य से यज्ञ करो।
पर इन्द्र ने नहीं माना। तब ऋषि सम्राट् बसु के पास गये और कहा—हे उत्तानपाद के बंशवर! तूने कैसी यज्ञ विधि देखी है सो कहः—
वसु ने कहा—द्विजों के मध्य पशुओं से तथा फल मूलों से यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ का स्वभाव ही हिंसा है।
यह सुनकर ऋषियों ने उसे श्राप दिया जिस से उसका अधःपतन हो गया।
यही कथा कुछ फर्क से वायुपुराण में भी है। महाभारत में भी यह मजेदार घटना है।
"इन्द्र ने भूमि पर आकर यज्ञ किया। जब पशु की जरूरत हुई तब वृहस्पति ने कहा—पशु के स्थान आटे का पशु बनाओ। यह सुन देवता चिल्ला उठे कि बकरे के मांस से हवन करो।
तब ऋषियों ने कहा—नहीं धान्यो से यज्ञ करना चाहिये। बकरा मारना भले आदमियों को उचित नही। तब वे सम्राट आदि वसु के पास गये ओर पूंछा कि यज्ञ बकरे के मांस से करे या वनम्पतियों से।
तब राजा ने कहा—पहिले यह कहो किस का क्या मत है। तब ऋषियों ने कहा—
धान्य हमारा मत और पशु हनन देवों का।
वमु ने कहा—तब बकरेके मांससे ही यज्ञ करना चाहिये। तब ऋषियों ने उसे श्राप दिया।
महाभारत में (शान्तिपर्व अ॰ ३४०) में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि यज्ञों में पशुवध वैदिक काल से बहुत पीछे चला है।
श्रीमद्भागवत् में (४।२५।७।८ में) एक यज्ञ के विषय में लिखा है कि हे राजन्! तेरे यज्ञ में जो हज़ारों पशु मारे गये हैं तेरी उस क्रूरता का स्मरण करते हुए क्रोधित होकर तीक्ष्ण हथियारों से तुझे काटने को बैठे हैं
एक बार मुझे कालिका जी के मेले में कुछ मित्रों के साथ जाने का अवसर हुआ। एक ने कुछ मिठाई मन्दिर में चढ़ाई थी। वहां से वे प्रसाद लाकर जब बाँटने लगे तब दौने में से बकरे का एक कटा हुआ कान निकला। तब उन्होंने दौना फेंक अपनी राह ली।
सुअर मुर्गे का बलिदान हिन्दू समाज की नीच जातियों में होली दिवाली को अत्यन्त आवश्यक चीज़ समझी जाती रही है। देखा देखी उच्च जाति के हिन्दू भी यह काम करते हैं।
दया मानवीय स्वभाव का सब से भारी गुण है। मूक और असहाय पशु पक्षियों पर निर्दय होना मनुष्य के लिये सर्वाधिक कलङ्क की बात है। ज्यों २ सभ्यता बढ़ती जाती है मनुष्य की क्रूरता कम होनी चाहिये। शृङ्गार के लिये योरोप की स्त्रिये जिन सुन्दर पक्षियों के पर टोपी में रखती थीं उन की नसल का अन्त हो गया—वे सुन्दर पक्षी अब फ्रांस में हैं ही नहीं। लन्दन में एक व्यापारी ने १ वर्ष में ३२ लाख उड़ने वाले, ८० हज़ार पानी के और ८० हज़ार अन्य पक्षियों का केवल परो के लिये वध करवाया था। विलायत के एक शहर से ३ दिन में चौबीस लाख लावा मार कर एक बार लन्दन भेजे गये थे।
जब तक मनुष्य के हृदय में पशुओं के प्रति प्रेम नहीं होता, मनुष्य का हृदय परिवर्तन न होगा और घृणास्पद हत्याएं बराबर ही होती रहेगी।
कुछ दिन पूर्व पूने के मराठी-पत्र केसरी में एक यज्ञ का हाल छपा था। जिसे किसी ब्राह्मण ढुंढ़िराज गणेश वापट दीक्षित सोमपा जी ने लिखा था। उसका वर्णन इस प्रकार है।
"गत फरवरी' मास में मैंने ओंध में अग्निष्टोम नामक सोम यज्ञ किया था। और उसमें पशु हनन करके उसके अंगों की आहुतियाँ दी थीं। उस पशु हनन के सम्बन्ध में वैदिक धर्म की आज्ञा न जानने वालों (?) ने बहुत कुछ लेख अख़बारों में लिखे थे।
ब्राह्मणादि त्रैवर्णियों के वर्णाश्रम विहित् कर्तव्यों में यज्ञ कर्म मुख्य है। यज्ञ में हवन मुख्य है। और हवन में अनेक देवताओं के उद्देश्य से मंत्र पठन पूर्वक विविध पदार्थों की आहुतियाँ दी जाती हैं। जेसै आज्य, चरु, पुरोडाश, सोमरस ये द्रव्य हैं। तथा अज, मेष आदि पशुओं के अवयवों का मांस भी है।
"भारतीय युद्ध के पश्चात् जैन और बौद्धों ने वैदिक धर्म पर बड़ाभारी हमला किया—जिससे वैदिक यज्ञ संस्था को बड़ा भारी धका लगा। तथापि तत्पश्चात् गुप्त वंशीय राजा लोग, शात कर्णी, चालुकर पुलकेशी आदि राजाओं ने अश्वमेध जैसे यन्त्र (कि जिनमें ३०० पशुओं का हवन विहित है) किये और वैदिक परम्परा को स्थिर किया। राजा जयसिंह ने भी अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञीयहिंसा हिंसा नहीं है। छाँदोग्य उपनिषद में कहा है कि—
'माहिंस्यात्सर्वाणि भूतनि अन्यत्र तीर्थेभ्यः।'
तीर्थनाय शास्त्रानुज्ञा विषय, ततोऽन्यत्रेत्यर्यः।
(शांकर भाष्य)
शास्त्र की आज्ञानुसार जो कर्म किया जाता है—वही तीर्थ है। इस प्रकार के कर्मों को छोड़कर अन्य कर्म में हिंसा करना नहीं चाहिये। तात्पर्य श्रीशंकराचार्य भी यज्ञीय हिन्सा के विरोधी नहीं थे।
"देवताओं के उद्देश्य से यज्ञ प्रसङ्ग में वेदोक्त विधि से जो पशु हनन होता है—उसका नाम हिंसा नहीं है। अपना पेट भरने के लिये मांस खाने की इच्छा से जो पशु हनन होता है वही हिंसा है। वेदोक्त पशु हिंसा में देवताओं के लिये मांसाहुतियाँ समर्पित करना ही मुख्य उद्दिष्ट होता है। हुत शेष मांस का भक्षण करना भी विधि विहित है। अतः शास्त्रज्ञा रक्षण करने की इच्छा से ही (?) इस हुत शेष का मांस भक्षण किया जाता है।
"वर्णाश्रम विहित होने ही से यज्ञीय पशु हिंसा की जाती है। सोम याग में पशु हिंसा के बिना कर्म पूर्ण ही नहीं हो सकता। जो निंदक अविचार से तथा वेद शास्त्र की मर्यादा का उल्लङ्घन करके इस प्रकार के सोम यागादि वैदिक कर्मों का उप- हास करते हैं, उनसे यज्ञ कर्ता लोग कम अहिंसावादी हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। अहिंसा परम धर्म अवश्य है, पर उसमें भी अपवाद है। क्षत्रिय जिस प्रकार मृगया और युद्ध में हिंसा करते हैं, उसी प्रकार यज्ञ कर्ता यज्ञ विधि के कारण पशु हनन करते हैं।
यज्ञ में जिस रीति से पशु हनन होता है—वह शस्त्र वध की अपेक्षा कम दुखःदाई हैं।
उत्तर दिशा की ओर पैर करके पशु को भूमि पर लिटाना चाहिये, पश्चात् श्वासादि प्राण वायु बन्द करके नाक मुख आदि बन्द करे। इत्यादि सूचनाएं शास्त्रों में कही हैं।
उदीचीनां अस्यपदो निदधात्।
अन्तरे वोष्मांण वारयतात्॥ [ ऐ॰ ब्रा॰ ६।७]
तथा—
अमायु कृण्वन्तं संज्ञय यतात्॥ [तै॰ ब्रा॰ ३।६।६]
अर्थात्प—पशु का हनन उसे न्यून से न्यून दुःख देते हुए करना चाहिये।
पाठक स्वयं ही इस धर्म के पाप रूप को समझ सकते हैं।
- ↑ अथातः सवनीयस्य पशोर्विभागं व्याख्यास्यामः; उद्धृत्यावदानि हनू सजिह्वे प्रस्तोतुः कण्ठः स ककुदः प्रतिहर्तुः। श्येर्नं पक्ष उद्गातुर्दक्षिणं पाशर्वं सांस मध्वयों:, सत्यमुपगात्रीणां सव्योंस: प्रति प्रस्थातुर्दविणा श्रेणी
- ↑ सधेन्वै चानहुहुश्नाश्नीयाद्वे नवनडुहौ वह इद सर्व विश्नतस्ते देवा अबवन् देश वनडुहौ वा इद सर्व विभ्रतो हन्त यदन्वेषां वयासावीर्य तद्धेन वनडुहयोर्दधोमेति तद्रहो वाच याज्ञ वल्क्य। श्नाम्येवाहमा सलचेन्द्रवतीति। (श॰ ३। २। २। २१)
- ↑ अथ य इच्छते् पुत्रों में पण्डितो विजिगीत समितिगम: सुश्रुवितावाचं भाषित जायते सर्वान्वेदाननुव्रवीत सर्वमायुग्यिदिति मां सौदनीं पाश्चयित्वा सर्पिष्मन्त मश्नियातमीश्वरो जनयीत वा औषणन वा विष्भेण वा (वृह॰ उ॰ ८। ४। १८)।