दिल्ली: इंद्रप्रस्थ पुस्तक भंडार, पृष्ठ ५६ से – ७४ तक

 

चौथा अध्याय

अत्याचार

अन्धविश्वास के साथ क्रोध का खूब दोस्ताना है। क्योंकि जो आदमी अन्धविश्वासी हैं उनके पास युक्तियाँ नहीं। वे अपनी दुर्बलता को क्रोध में छिपाते हैं। उमर जो मुसलमानों का तीसरा खलीफा था एक आदर्श अन्धविश्वासी मुसलमान था। जो कोई भी उससे उसके धर्म में तर्क करता—उसका जवाब वह तलवार से देता था। वह एक भारी डीलडौल का आदमी था। उसका शरीर काला, आँखें लाल, और सिर बिलकुल सफाचट था। वह सदा एक चमड़े का कोड़ा अपने पास रखता था। और उससे बदमाशों और मुसलमानी धर्म की निन्दा करने वाले कवियों की मरम्मत किया करता था। एक बार वह जब युद्ध करने को ईसाइयों के किसी नगर पर गया था तो ईसाइयों ने उससे कुछ धर्म सम्बन्धी प्रश्न पूंछे इस पर उसने तलवार निकाल कर कहा—मेरा उत्तर सिर्फ यह तलवार है।

धार्मिक अत्याचारों को मेरे विचार में ईसाइयों ने सबसे अधिक धैर्य और साहस के सहन किया है। ईसाइयों पर अत्याचार के पहाड़ टूट पड़े थे। सर्वप्रथम तो ईसा की मृत्यु के बाद यहूदियों ने और नीरों बादशाह ने उन्हे बड़े बड़े कष्ट दिये। इसके बाद जब प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदाय चला—तब पोपों ने उन्हे भयानक कष्ट दिये। यहाँ पाठको की जानकारी के लिये हम उन अत्याचारों का संक्षेप में दिग्दर्शन करते हैं।

ईसा मसीह के चरणों में आज आधी दुनिया है। इन के समय में बड़े विद्वत्तापूर्ण तात्त्विक लेखक नहीं थे। मसीह के पास न तलवार थी, न विद्या थी, केवल एक आत्मबल था। उनका उपदेश प्रेम का था। वे कहते थे कि एक परमेश्वर ही सर्वोपरि है। उस ज़माने में मूर्ति पूजा का प्रावल्य था। पर मसीह ने शान्ति पूर्वक प्रचार किया कि ये पत्थर की प्रतिमाएं कदापि ईश्वर नहीं हैं। राजा और प्रजा के विरुद्ध यह आवाज़ थी। हजारों वर्ष के अन्धविश्वास के विरुद्ध यह घोषणा थी। इसके बदले में मसीह को अनेक कष्ट दिये गये, उसे पापी और विधर्मी कह तिरस्कृत किया गया। पर वह शान्ति, धर्म और सत्य की मूर्ति था। उसने अलौकिक धैर्य के साथ अत्याचार का मुकाबला किया। उसे तख्तों पर लटका कर उसके हाथ पावों में लोहे के कीले ठोक दिये गये और वह भगवान् से उन अत्याचारियों के लिये क्षमा माँगता हुआ शान्ति पूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसने केवल ढाई वर्ष उपदेश किया।

मसीह के बाद पावल ने ईसाई मत का प्रचार किया। इसे भी आश्चर्यजनक सङ्कट सहने पढे। पाँच बार यहूदियों की रीति से और तीन बार रोमियों की रीति से उसने कोड़े खाये। एक बार पत्थर वाह किया गया और चार बार उसकी नाव मारी गई। एक रात दिन वह समुद्र में रहा और अन्त में मसीही धर्म पर विश्वास के अपराध पर मारा गया। इस धीरजवान् पुरुष ने मसीही धर्म का प्रचार बड़ी निर्भीकता और अदम्य उत्साह से किया और बड़े धैर्य और सहिष्णुता से सब कष्टों का सामना किया। उसने ऐशिया, यूनान, फिलिप्पी, थिसलिनी, विरिथ, इकिस और मिलित नगरों में प्रचार किया और बहुत से शिष्य बनाये। अन्त में जेरूसलेम में फिर पकड़ा गया और दो वर्ष कैसरिया नगर में कैदी रख कर रोम को भेजा गया।

उन दिनों रोम नगर संसार के बढ़े चढ़े नगरो में एक था। संसार भर के भाषा भाषी व्यापारी रोम के बाजारों में चलते थे। मानो वह एक स्वयं छोटा सा जगत् था। इसका विस्तार बहुत अधिक था और यह सात पहाड़ों पर बसा हुआ था। उस में ३० लाख आदमी रहते थे। एक हज़ार सात सौ अस्सी सरकारी इमारतें थीं। देवताओं के चार सौ से अधिक मन्दिर थे। जिनमे केपिटोल नामक यूपिटर देवता का मन्दिर जो कपिटोली नामक पहाड़ी पर बना था, बड़ा विशाल था और इसके ऐश्वर्य की बड़ी प्रसिद्धि थी। उसकी लागत एक करोड़ रुपये कूते जाते थे। रोम के बादशाह ने ऐसी इस महानगरी में भयङ्कर आग लगा दी और दोष मसीही प्रचारकों पर लगा दिया, निदान प्रजा ने उनका बड़ी निर्दयता से वध करना शुरू किया इसी धर्म युद्ध में पावल के प्राण गये।

याकूब मसीह का भाई था और जेरूसलम में मसीही धर्म का प्रचारक था। रोम के उपद्रव के समय ही उस पर कोप पड़ा। वह जब न्यायालय में पेश किया गया तो उसने वीरतापूर्वक कहा— 'यीसूखीष्ट परमेश्वर के दाहिने हाथ बैठा है और आकाश के मेघों पर चढ़कर फिर आवेगा।' इस बात पर उसे पत्थरों से हलाल कर डालने का दण्ड दिया गया। पत्थरो की झड़ी जब उस पर पड़ने लगी तब उसने तनिक अवसर पाकर पुकारकर कहा—'हे पिता! इन्हें क्षमाकर, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या करते हैं।' तभी एक सोटे की भारी चोट खाकर वह गिर गया।

शिमियोन जेरूसलम का धर्माध्यक्ष था। जब यह पकड़ा गया तब १२० बरस का बुड्ढा था। उसने कितने ही दिन तक कोड़े खाये पर वह न मरा। अन्त में तंग होकर हत्यारों ने उसे क्रूस पर चढ़ा दिया।

इग्नाट्रिय ट्राजन अन्तैखिया नगर का मण्डलाध्यक्ष था। शिमियोन के ३ वर्ष बाद ईसाई होने के अपराध मे प्राणघात करने को रोम नगर मे पहुँचाया गया। उसने रोम के अधिकारियो को चिट्ठी लिखकर कहलाया—'सूरिया से रोम तक मैं जंगली पशुओ से लड़ता चला आता हूँ। मैं दस योद्धाओ के साथ जंजीर से कसा हुआ चलता हूँ। और मैं जैसे नित्य उनकी भलाई करता हूँ वैसे मेरे विरुद्ध उनका कोप बढ़ता है। वे चाहे तो मुझे सिंहो के आगे फेके, चाहे क्रूस पर चढ़ावे, चाहे मेरे अंग को काटे, यदि मैं प्रभु के नाम पर आनन्दित हूँ तो उन पीड़ाओं से क्या होगा?'

रोम में पहुँचने पर वह लोगो के सामने ही अज़ायबघर के जंगली पशुओं के सामने डाला गया। जब उसने सिंहोको गर्जते हुए सुना तो कहा कि 'मैं प्रभु मसीह का फटका हुआ गेहूँ हूँ, जब तक जंगली पशुओं के दांत से न पीसा जाऊं तक तक रोटी न बनूंगा। सिंह ने झटपट उसे फाड़ डाला। उसके बाद उसकी थोड़ी सी हड्डियाँ जो बच रहीं वे अन्तैखिया मे गाड़ दी गई।

प्लूकार्प स्मूर्ना नगर का सन् १६७ में मण्डलाध्यक्ष था और योहन प्रेरित का शिष्य था। इसे ईसाई होने के अपराध में जीते जलाये जाने की आज्ञा हुई। तब इसकी उम्र ८० वर्ष की थी। लोगों ने दया करके उसे समझाया कि अपना विश्वास त्याग दो। तो उसने कहा कि 'मैंने चार कोड़ी छै वर्ष, प्रभु मसीह की सेवा की है, और उसने कभी मेरा अपराध नहीं किया तो जिसने मोल देकर मुझे निस्तार दिया है मैं क्योंकर उसका विश्वासघाती बनू।' जब वह इंधन के निकट खड़ा हो प्रार्थना कर चुका, तब आग सुलगाई गई। बड़ी २ लपटें उठी पर आश्चर्य था कि वह जला नहीं। पीछे वह तीर से वेधकर मारा गया और उसकी लोथ आग मे फेंक दी गई

ब्लादीना दासी बड़ी सुकुमार और दुर्बल थी। ईसाइयो को भय था कि वह कष्ट पाकर अवश्य विचलित हो जायगी। पर जब उस पर प्रातः काल से लेकर संध्या तक मार पड़ी—यहाँ तक कि उसकी चमड़ी के धुर्रे उड़ गये, शरीर ऐंठकर कमान हो गया और जगह जगह से ऐसा क्षत विक्षत हो गया कि हत्यारों को उसके जीते रहने पर आश्चर्य होता था। पर वह अन्तिम सांस तक कहती गई कि 'मैं ईसाई हूँ।' अन्त में उसे हाथ फैलाकर एक खंबे से बांध दिया और पशु छोड़ दिये कि फाड़ डालें, पर पशु उसे सूंधकर चले गये। कदाचित् उन्हे दया आ गई हो। तब उसे अगले दिन के लिये रख छोड़ा। दूसरे दिन जब वह फिर मरने के लिये बुलाई गई तो आनन्द से कदम बढ़ाकर वध स्थान पर गई। आख़िर एक जाल में लपेट कर उसे सांड़ के आगे डाला गया और इस तरह उसका अन्त हुआ।

परपिटु एक २२ वर्ष की विवाहिता स्त्री थी। उसकी गोद में एक छोटा बच्चा था। जब उसे ईसाई होने के अपराध में बध की आज्ञा दी तो प्रथम उसका बालक छीनकर क्रूरता से मार डाला गया। फिर उसे बध स्थान पर ले चले। उसने निर्भय होकर मृत्यु का सामना किया। उसके वृद्ध पिता ने स्नेह वश उसे विचलित करना चाहा परन्तु उसने बड़ी वीरता पूर्वक कहा—'पिता, शान्त हो, यह धर्म युद्ध क्या पीछे हटने का समय है। आत्मा में बल आने दो—ईश्वर के लिये इसमें विघ्न मत करो।' इतना कह कर वह बध स्थान पर आ खड़ी हुई और पशुओं से फाड़ डाली गई। लिकस्त सन् २६० में रोम की ईसाइयों की मण्डली का अध्यक्ष लिकस्त नाम का मारा गया। जब नगर के अधिकारी ने सुना कि मण्डली के पास बड़ी भारी धन सम्पति है तो लौरिन्तिय नामक प्रधान सेवक को बुलवाकर उसने आज्ञा दी कि सब धन हाज़िर करें। उसने कहा—सब धन सम्पति को संभालने और उसका बीजक बनाने के लिये मुझे तीन दिन का अवकाश दीजिये।

तीसरे दिन वह समस्त रोम के कंगालों को इकट्ठा कर प्रधान के महल में आ हाज़िर हुआ, और प्रधान से कहा—कि हमारे प्रभु की सम्पत्ति को संभालियेगा। आपका सारा आंगन सुनहरे पात्रों से भरा पड़ा है। प्रधान ने बाहर आकर जब कंगालों का झुण्ड देखा तो आपे से बाहर होगया। और उसने ज्वालामय नेत्रों से उसकी ओर देखा—लौरिन्तिय ने कहा—आप क्रोधित क्यो होते हैं आप जिस सोने को चाहते हैं वह धरती की एक साधारण धातु है जो मनुष्यों को समस्त पापो में फंसाती है। वास्तविक ईश्वर का धन तो यही है। देखिये, कितने मणि, रत्न, स्वर्ण मुद्रा जगमगा रहे हैं। ये कुमारिकाये और विधवाये बड़े बड़े रत्न हैं। प्रधान ने डपट कर कहा—मुझसे ठट्ठा करता है, ठहर! तूने शायद मरने पर कमर कसली है। उतार कपड़े। उसे नंगा करके लोहे की बड़ी झझरी पर लिटाकर धीमी आंच से भूनना शुरू किया। वह धैर्य पूर्वक एक करवट भुनता रहा—तब उसने प्रधान को पुकार कर कहा—'यह पंजर तो पक चुका, अब दूसरी कर्वट भुनवाइये। दूसरी कर्वट लेने पर जब उसका जीवन थकित हुआ तो उसने रोम के निवासियों के लिये सुख और आरोग्य का आशीर्वाद मांगा और सदा के लिये मृत्यु की गोद में सो गया।

इसी वर्ष कैसरिया नगर में कूरिल नामक एक छोटा-सा बालक रहता था। वह ईसा का नाम नित्य लेता था। इस के लिये उसके साथी लड़कों ने मारा, बाप ने घर से निकाल दिया, अन्त में वह रोम के न्यायाधीश के पास पहुँचाया गया। न्यायाधीश ने उसे समझा कर कहा—"बच्चे, तू बड़ा सुकुमार है, तू यह कैसा पाप करता है कि मसीह का नाम लेता है? उसे छोड़ दे मैं तुझे तेरे बाप के पास भेज दूंगा और समय पर तू उसकी अतुल सम्पत्ति का अधिकारी बनेगा।"

परन्तु बालक ने तेज-पूर्ण स्वर में कहा—"आपकी इस कृपा के लिये धन्यवाद! पर मैं परमेश्वर के नाम पर कष्ट भोगने में सुखी हूँ, प्रभु मसीह ने भी कष्ट भोगे हैं, मुझे घर से मोह नहीं है, क्योंकि मेरे प्रभु का घर इससे उत्तम है और न मुझे मरने का डर है, क्योंकि प्रभु का उपदेश है कि मृत्यु ही उत्तम जीवन देता है।"

न्यायाधीश उसके उत्तर से दङ्ग हो गया। उसने डराने के लिये उसे वध-स्थल पर ले जाने की आज्ञा दी। न्यायाधीश को आशा थी कि बालक भयङ्कर आग को देख कर डर जायगा। पर जब वह लौट कर भी वैसा ही सतेज और निर्भीक चना रहा तो न्यायाधीश बड़े विचार में पड़ा। वह दया-वश उसे मारना न चाहता था। उसने फिर उसे समझाया। बालक ने कहा—"शीघ्र अपनी तलवार का काम ख़तम कीजिये, मैं प्रभु के पास जाऊं। यह द्विविधा का जीवन मुझ से एक क्षण भी नहीं सहा जाता।"

जो लोग आस पास खड़े थे, रोने लगे। उसने सब से उत्साह-पूर्ण वाक्यों में कहा—"खेद है कि तुम नहीं जानते कि मैं कैसे सुन्दर नगर को जाता हूँ। इस बात को तुम जानते तो निश्चय आनन्द मानते।" इतना कह वह बड़े आनन्द से वधस्थल की ओर गया।

सन् १६४१ ईस्वी में आयरलैंड में जब ईसाई लोग पोप के धर्म को छोड़कर प्रोटेस्टेन्ट होने लगे तब पोप ने फतवा दे दिया था कि "तमाम आदमी जो प्रोटेस्टेन्ट हो गये हैं, मार डाले जावें।" उस घोषणा के आधार पर लगभग दो लाख ईसाई बड़ी निर्दयता से मार डाले गये थे। इस महावध की ख़बर सुनकर पोप ने आयरलैंड में एक बड़ा भारी उत्सव किया था।

ड्यूक आफ आलवा (Duke of Alwa) जो कि उस समय नैदरलैण्ड (Netherland) का गवर्नर था, उसने सहस्रों जल्लाद नौकर रख छोड़े थे जो प्रोटेस्टेन्टों को कत्ल किया करते थे। दो वर्ष के अन्दर उन्होंने ३६ हज़ार ईसाइयों को मार डाला था। जो गाँवों और वस्तियों में बच रहे थे उनपर अतिरिक्त टैक्स लगाकर यह अत्याचारी चार करोड़ रुपया प्रति वर्ष वसूल किया करता था। इसका पोप के दरबार में बड़ा आदर था। पोपों ने एक गुप्त समाज पहले पहल स्पेन देश में बनाया, फिर इटली में और पीछे अन्य देशों में भी। इसका नाम इनक्विजिशन (Inguisition) अर्थात् कसने का समाज था। इसमें अनेक प्रकार के भयानक शिकंजे मनुष्यों को कसने या उनके अंगों को काटने के लिये रक्खे गये। कोई स्त्री, पुरुष या बालक यदि इस अपराध में पकड़ा गया कि वह पोप का विरोधी है—प्रोटेस्टेन्ट है—तो उसे उसमें कसते थे—कष्ट देकर सब भेद पूंछते थे। इसके मेम्बर रात को लोगो के घर में घुस जाते और उन्हें सोते हुये उठा लाते तथा इसमें कस देते थे। इसके सिवा जो लोग इन शिकंजों में दबने से कई दिन तक भी न मरते थे और न पोप के धर्म को स्वीकार करते थे उन्हें जीता जला दिया जाता था। एक टोलेडो (Toledo) नामका विशप था जो प्रोटेस्टेन्ट हो गया था। उसने यह उपदेश दिया था कि पोप में क्षमा कराने की शक्ति नहीं है। तुम्हारे प्रभु मसीह का प्रायश्चित ही काफी है। इस अपराध में उसे इस सभा ने १८ वर्ष तक जेल मे रक्खा था। यह हत्यारी सभा सन् १४८१ से सन् १८०८ तक ३२७ वर्ष तक अखण्ड रूप से चलती रही और इस बीच में इसने ३ लाख ४१ हज़ार २१ (३४१०२१) प्राणियों को वध किया जिनमें ३२ हज़ार के लगभग जीते जलाये गये, २ लाख ९१ हज़ार ४५६ अर्थात् कुछ कम ३ लाख ऐसे महा दुःख और कष्ट में डाले गये जो बयान से बाहर हैं १७॥ हज़ार ऐसे थे जो या तो क़ैद में मरे या निकल भागे—उनके चित्र बनाकर जला दिये गये कि लोग डरें।

आरविन साहब (Arvina) नामक एक विद्वान् ने हिसाब लगाया है कि—

१—पोप जूलियस (Julius) के राज्य-काल में ७ वर्ष के भीतर दो लाख क्रिस्तान मारे गये।

२—फ्रांस में पोपों ने ३ मारा में २ लाख ईसाई मारे।

३—फिर उन्होंने वालदेन्सी और आलबीगेन्सी (Waldenses and Albagenses) क्रिस्तानियों में १० लाख आदमी कत्ल किये।

येसुवीत समाजियों (The Teswits) के तीन वर्ष के बीच नौ लाख ईसाई मारे गये थे। ड्यूक ऑफ आलावा की आज्ञा से ३६ हजार ईसाई मारे गये। इस प्रकार धार्मिक अत्याचार की भेंट निरपराध ५ करोड़ ईसाई स्त्री बच्चे बूढ़े जवान मार डाले गये।

हज़रत मुहम्मद ने इस्लाम धर्म की नींव डाली। प्रारम्भ में उन्हें सफलता न मिली। उन्होंने तलवार को धर्म का माध्यम बनाया। उन्होंने घोषणा की—

मेरे धर्म के प्रचारकों की तर्क के झगड़े में न पड़कर तलवार पर ही भरोसा करना चाहिये जो आदमी मेरा धर्म स्वीकार न करे या उस पर सन्देह करे उसका सिर काट लेना चाहिये। मेर धर्म में तलवार ही सब कुछ है। जो कोई धर्म युद्ध में मरे मारेगा बहिश्त पावैगा, जहाँ शराब की नदियाँ, उत्तम मांस के पकवान और स्त्रियां तथा गुलाम मिलेंगे।

मुहम्मद साहेब ने तलवार के जोर पर बहुत शक्ति पदा करली और मृत्यु के समय १ लाख के लगभग उनके अनुयायी थे। सारे अरब में इस्लाम धर्म फैल गया था, मुहम्मद साहेब की कड़ी आज्ञा थी कि सारे अरब जो मेरे धर्म को अस्वीकार करें उसे क़त्ल करदो, भाइयों, मित्रों और सम्बन्धियों का भी लिहाज़ न करो। मन्दिरों तक में किसी को शरण पाने पर भी लिहाज न करो। उसने अपने जीवन में भी यमन और शाम देशों पर सेनायें भेजी।

उनकी मृत्यु के बाद खलीफा अख्तर ने तुरन्त सारे अरब से सैन्य संग्रह की और उसके चार भाग करके दमिश्क, शाम, फिलस्तीन और ईरान पर चढ़ाई कर दी। इन सेनाओ मे लगभग ८० हजार मुसलमान सिपाही एकत्र किये गये और उन्होने शाम दमिश्म को ईंट से ईंट बजा दी। ऐसे अत्याचार और निर्दयता से मार काट की कि देश का देश कुचल दिया गया। शाम का बादशाह २ लाख सेना सहित नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। इस मुहिन के दौरान में एक बार ऐसा हुआ कि खलीद सेनापति ४००० सवार लिये धावा मार रहा था। मार्ग में उसने कुछ राहगीरों को जा पकड़ा जो नदी किनारे खाना बना रहे थे। स्त्रियाँ भोजन बना रहीं थीं, बच्चे इधर उधर खेल रहे थे, पुरुष कपड़े सुखा रहे थे। खलीद ने उन्हें लूट कर क्रूरता पूर्वक काट डाला। सुन्दरी स्त्रियों को कैद कर लिया। शाम के बादशाह की बेटी भी उन में कैद कर ली गई। जब उसका परिचय प्राप्त हुआ तो खलीद ने घमण्ड से कहा—जाकर अपने बाप से कह कि इस्लाम धर्म स्वीकार करले वरना मैं उसका सिर काटने आ रहा हूँ और उसे छोड़ दिया।

इसके बाद खलीफा उमर ने अपने शासन काल की ग्यारह वर्ष की अवधि में शाम, मिश्र और बैलस्टाइन तथा ईरान को पूर्णतया फतह कर लिया था। इस खलीफा ने ३६ हजार नगर और क़िले काफिरों से छीने, ४० हज़ार गिर्जे और मन्दिर ढहाये और लगभग ८ लाख स्त्री बच्चे और पुरुष क़त्ल किये। इन में एक लाख पारसी थे। फारिस के बादशाह का एक डब्बा जवाहरात का सेना के हाथ लगा था जिसे खलीफा के हुक्म से बेच कर फौज में वांट दिया गया। यह डब्बा ३ लाख बीस करोड़ रुपये में बिका। उस समय ४० हज़ार सेना वहाँ थी, सब को अस्सी अस्सी हज़ार रुपये बाँट दिया गया। इसी खलीफा ने पृथ्वी का महान् नगर सिकन्दरिया और संसार का अद्भुत पुस्तकालय नष्ट किया। सिकन्दरिया की नीव बादशाह सिकन्दर ने डाली थी—वह नगर एशिया और योरोप के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था।

इसके बाद उस्मान ख़लीफा हुये। उसने फारिस के मुल्क पर चढ़ाई बोल दी। वहाँ के बादशाह यज्दगुर्द की बावत खलीफ़ा उमर कह गये थे कि उसे ज़िन्दा न छोड़ना। इस ख़लीफा अनायास ही चार हज़ार वर्ष पुराने उस राज्यवंश और देश को सदा के लिये विध्वंस कर दिया। यह ११ वर्ष तक ख़लीफा रहा।

यह नगर यूनानी इञ्जिनियरों ने बड़ी सावधानी से बनाया था और उस में चार हज़ार महल, पाँच हज़ार स्नान घर, चार सौ नाट्यशालाएं, बारह हज़ार बाग़ और अन्यों के अलावा चालीस हज़ार यहूदी करोड़ पति थे। इस में एक महान् पुस्तकालय था जो अज़ायबघर के नाम से मशहूर था। इसमें पृथ्वी भर की दश लाख पुस्तके संग्रहीत थीं जिन मे ऐसे ग्रन्थ भी थे जिनका एक एक का मूल्य पैतालीस हजार रुपये तक था।

जब यह नगर मुसलमानों ने विजय किया तो खलीफा से पूछा गया—कि इस पुस्तकालय को क्या किया जाय? तो उसने उत्तर दिया—अगर ये किताबें कुरआन के अनुकूल हैं तो इनकी आवश्यकता नहीं—क्योंकि कुरआन ही काफी है। और यदि उसके विपरीत है तो भी उनकी ज़रूरत नहीं। अतः सब पुस्तकों को नष्ट कर दो। मुसलमान सेनापति ने पाँच हज़ार हमामों को वे पुस्तकें बांट दो जहाँ वे इन्धन के स्थान पर जलाई गईं और इस प्रकार ६ मास तक उनसे हमाम गर्म किये गये।

भारतवर्ष में मुस्लिम आक्रमण कारियों के अत्याचार भी कम रोमाञ्चकारी नहीं। गुलाम वंश के कुतुबुद्दीन रावक ने हांसी, दिल्ली, मेरठ, अलीगढ़, रणथम्बोर, अजमेर, ग्वालियर, कालिंजर और गुजरात में हाहाकार मचा दिया था। हज़ारों मन्दिर जमीदोज़ कर दिये गये, और लाखो स्त्री पुरुषों को गाजर मूली की भांति काट डाला गया। इसके गुलाम—मुहम्मद ने काशी के हज़ारों मन्दिरो को ढहा दिया और विहार, बङ्गाल में पाल और सेन वंशीय राजाओं के राज्योको विध्वंस कर दिया। बारह हज़ार बौद्ध साधुओ के सिर काट लिये और उनका अप्रतिम ग्रन्थागार भस्म कर दिया। उन्होंने अलतमश, के प्रसिद्ध मन्दिर को ढहा दिया और करोड़ो रुपये की सम्पदा लूट ली।

जलालुद्दीन फिरोज़शाह खिलजीने जैसलमेर पर आक्रमण किया। वहाँ का राजा मारा गया, नगर विध्वंस कर दिया गया और रानी को चौबीस हज़ार राजपूतानियों के साथ जल कर लाज बचानी पड़ी। उसका भतीजा अलाउद्दीन दक्षिण तक बढ़ गया और देवगढ़ के राजारामदेव यादव से विश्वासघात करके उसे मार डाला, राजभवन लूट दिया मन्दिर ढहा दिये और करोड़ों रुपये की सम्पदाएं छीन ली। इस के बाद जैसलमेर चित्तौर और गुजरात पर जिहाद की चढ़ाई की। जैसलमेर में सोलह हज़ार और चित्तौर में तेरह हजार स्त्रियां भस्म हो गईं। गुजरात के राजा की रानी और राजकुमारी अलाउद्दीन के हाथ लगी और उन्हे बलपूर्वक अपनी स्त्री बना लिया गया।

इस बादशाह ने हिन्दुओं की यह दुर्दशा कर रखी थी कि कोई हिन्दू सवारी के लिये घोड़ा न रख सकता था, न शस्त्र धारण कर सकता था, न बढ़िया कपड़े पहन सकता था, एक बार उमने काज़ी से पूंछा कि हिन्दुओ के लिये क्या कानूनी अधिकार हैं तो उस ने कहा:—

"हिन्दुओं का नाम खिराज़गुजार है, जब मुसलमान हाकिम उसमें चांदी मांगे तो उसे वे उन हाथ जोड़ कर हाकिम को चांदी की जगह सोना भेंट करना चाहिए। यदि मुसलमान उसके मुंह में थूकना चाहे या मैला डालना चाहे तो उन्हें अपना मुंह खोल देना चाहिये कि मुसलमान को तकलीफ न हो। क्योंकि खुदा ने हिन्दुओं को महा नीच और घृणित बनाया है।

इसके बाद उसने वादशाह से कहा—"आपके राज्य मे काफिरों की यह दुर्दशा हो गई है कि उनके स्त्री बच्चे मुसलमानों के द्वार पर रोते और भीख मांगते फिरते हैं। इस शुभ काम के लिये खुदा आपको जन्नत न भेजे तो मैं ज़िम्मेदार हूँ।

पाठक इस धर्म गुरू की भयानक वृत्तियो से आप अनुमान लगा सकते हैं कितनी भयानक है।

मुहम्मद तुग़लक ने जिहाद में इतना रक्तपात किया कि लाखों आदमियों को गाजर मूली की भाँति कटवा डाला। नाक कान कटवाना, आँखें निकलवाना, सिर में लोहे की कील ठुकवाना, आग में ज़िन्दा जलवाना, आरे से चिरवाना, खाल खिंचवाना, हाथी से कुचलवाना, सिंह से फड़वाना, सांप से डसवाना, यह इस व्यक्ति की मनोरंजक सजाये थी।

फीरोज़शाह तुग़लक ने नगर कोट को विजय करके गौ मांस के टुकड़े तोवड़ों मे भरकर हिन्दुओ के गले में लटकवा दिये थे। और उन्हें बाज़ार में फिरा फिराकर खाने की आज्ञा दी थी। जिसने इंकार किया उसका सिर काट लिया गया था। फीरोज़शाह जव जम्बू गया और वहाँ का राजा उससे मिलने आया तो उसके मुंह में उसने गौ मांस ठुसवा दिया। तमूर लंगड़ा जहाद का झण्डा ले ९२ हज़ार सवार लेकर लूटमार और कतल करता आया और भटनेर में १ घण्टे में १० हज़ार स्त्री पुरुषों को काट डाला। यहाँ से यह दिल्ली पहुँचा और १ लाख हिन्दुओ के सिर काटकर इसने ईद की नमाज़ पढ़ी। तुजुक तैमूरी में लिखा है कि इसके प्रत्येक सिपाही ने १५।१५ हज़ार हिन्दू मारे यहाँ से वह मेरठ पहुँचा और हज़ारों स्त्री पुरुषों को क़त्ल किया और हज़ारों को कैद किया। प्रत्येक सिपाही के हिस्से में बीस से सौ कैदी तक आये। वहाँ से वह हरिद्वार गया, जहाँ गंगा का पर्व था। वहाँ लाखो यात्रियो को कत्ल कर उनके खून से गंगा जल को लाल कर दिया।

सिकन्दर लोदी के अत्याचार प्रसिद्ध हैं बावर ने जब फतहपुर सीकरी को विजय किया तब इतने हिन्दुओं को कत्ल कराया था कि उसके तम्बू के सामने खून की नदी बह निकली थी। औरंगज़ेब के अन्ध धर्म के अत्याचार जगत प्रसिद्ध हैं। इसने असंख्य मन्दिर ढहाये, कुरुक्षेत्र में लाखों मनुष्यों को मार कर खून की नदी वहाई, गुरू तेगबहादुर के एक शिष्य को आरे से चिरवाया, दूसरे को खौलते तेल में डालकर औटाया, स्वयं गुरू का सिर कटवाया। सत नामधारी साधुओं को कत्ल करा दिया।

अंग्रेजी अमलदारी में यद्यपि इस प्रकार के अत्याचारों के मौके नहीं मिलते परन्तु धार्मिक अन्ध विश्वास के कारण ही मुसलमानों ने मुलतान, मलावार, अजमेर, सहारनपुर, दिल्ली, गोंडा, कोहाट आदि स्थानों में हिन्दुओं पर अत्याचार किये हैं।

जहाद की युद्ध यात्रायें करनी इस्लाम धर्म की धार्मिक आज्ञाये हैं। सूरावकर में लिखा है—"जो मुसलमान जहाद में मारा जाय उसे मुर्दा न समझना चाहिये, सूरानिसा में लिखा है—"काफिरों को मित्र मत बनाओ और यदि वे मुसलमान न हो जायं तो उन्हें मार डालो।" सूरावकर में एक स्थान पर लिखा है—"जिस जगह काफिर को देखो मार डालो और उसे घर से निकाल दो।"

प्राचीन भारत के धर्म संघर्ष पर भी एक दृष्टि डालिये। बुद्ध की मृत्यु के ढाई सौ वर्ष के अन्दर उस समय के हिन्दू धर्म को भारत से निकालकर वौद्धों ने अपना एकाधिकार कर लिया था। परन्तु पुरोहितों की ओर से बराबर उनके विपरीत विद्रोह की आग सुलगती ही रही। धीरे धीरे प्रतिमा पूजन हिन्दू और बौद्ध दोनों में प्रचलित हुआ, फिर वैष्णव, शैव, शाक्त सम्प्रदाय बढ़े और सबने मिलकर बौद्ध धर्म को निकाल बाहर किया। अपने काल में बौद्धों ने बड़े बड़े भयानक अत्याचार किये थे। बल पूर्वक नागरिकों की सम्पदा वे हरण करते, उनके उत्तराधिकारियों को भिक्षु बनाते और न जाने क्या क्या अन्धेर करते थे। अन्त में हिन्दुओं ने बौद्धों को नगर से बाहर मरघटो में रहने को विवश किया। और पुरोहितों और पण्डो के अत्याचार पूर्ण जीव फिर उत्पन्न होगये।

आज भी धर्म सम्बन्धी अत्याचार वैसे ही बने हुये हैं धार्मिक अत्याचारों का एक प्रमाण तो यह है कि आज छः करोड़ अछूतों को हिन्दुओं ने पैरों में बल पूर्वक कुचल रक्खा है। उनकी स्त्रियां, बच्चे, बुजुर्ग किसी को भी उन्नत होने देना अपराध समझा जा रहा है। यह धार्मिक अत्याचार ही है कि निकम्मे मूर्ख, ठग, भिखारी ब्राह्मण-सिर्फ ब्राह्मण जाति में जन्म लेने के कारण श्रेष्ठसमझे जाते और अन्य जाति के श्रेष्ठ पुरुप नगण्य समझ जाते हैं। यह धार्मिक अत्याचार ही है कि करोड़ों विधवाएं बचपन से वृद्धावस्था तक में ही मृतपति के नाम को रोती हैं जिसे उन्होंने कभी देखा तक भी नहीं।

भविष्य में ये धार्मिक अत्याचार नहीं जिन्दा रहने पावेगे। इन धर्म ढकोसलों को नष्ट करके प्रत्येक मनुष्य को आजाद होना होगा। अछूतों, विधवाओं, गरीबों, ब्राह्मणों और शूद्रों को मनुष्य के सच्चे अधिकार मिलने चाहिये। और उन्हें हर तरह उन्नत होने का अवसर प्राप्त होना चाहिये।