दृश्य-दर्शन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: सुलभ ग्रंथ प्रचारक मंडल, पृष्ठ ३७ से – ६१ तक

 

बनारस।

बनारस पर अंगरेजी में अनेक पुस्तकें हैं। शेरिंग साहब ने "हिन्दुओं का पवित्र नगर" (Sacred city of the Hindus) नाम की एक बड़ी पुस्तक लिखी है। जो लोग बनारस जाते हैं उनके लिए उन्होंने एक और छोटी सी किताब भी लिखी है। उसका नाम है "Handbook for visitors to Benares"। डाक्टर लाज़रस ने रेवरंड पार्कर-कृत बनारस का एक गाइड भी प्रकाशित किया है। केन साहब की "पिक्चरस्क इण्डिया" और पादड़ी केनड़ी की "बनारस और कमाऊं" नाम की पुस्तकों में भी बनारस का वर्णन है। क्रिश्चियन लिटरेचर सोसाइटी ने भी एक छोटी सी किताब बनारस पर प्रकाशित की है। इनके सिवा बनारस के गज़ेटियर, हण्टर के इम्पीरियल गज़ेटियर, कनिंगहम के आरकियालाजिकल सर्वे की रिपोर्टों में भी बनारस का हाल है। संयुक्तप्रान्त सम्बन्धी पुरानी इमारतों और पुराने शिलालेखों के विषय में फूरर साहब की पुस्तक में भी बनारस की बहुत सी बातें हैं। एक महाराष्ट्र-महाशय ने, मराठी में, एक किताब लिखी है। उसमें भी बनारस का अच्छा वर्णन है। पर हिन्दी में बनारस-वर्णन पर एक भी पुस्तक हमारे देखने में नहीं आई। पुराणों में भी, कहीं कहीं, बनारस का हाल है।

प्राचीन बनारस।

बनारस बहुत पुराना शहर है। उसका संस्कृत नाम काशी या वाराणसी है। पुराने ज़माने में वहां काश नाम का एक राजा हो गया है। उसीके नामानुसार शायद काशी नाम पड़ा है। वरुणा और असी नामक नदियों के सङ्गम पर, या उनके बीच में, होने के कारण इसका दूसरा नाम वाराणसी हुआ। बनारस इसी वाराणसी का अपभ्रंश है। विष्णुपुराण, भागवत और हरिवंश आदि पुराणों में काशी का कई जगह वर्णन है। उनमें काशी के पुराने राजों का भी थोड़ा बहुत हाल है। काश, दिवोदास और अजातशत्रु आदि काशी के मशहूर राजों में से थे। किसी समय काशी के आस पास का देश पुण्ड्र या पुण्ड्रक कहलाता था और उसके राजा पौण्ड्रक। पुण्ड्र गन्ने को कहते हैं। पौंडा पुण्ड्र ही का अपभ्रंश है। पुराने ज़माने में "पुण्ड्रक-शर्करा" बहुत प्रसिद्ध थी। अब भी बनारस की चीनी मशहूर है।

विष्णुपुराण में लिखा है कि काशी को एक दफ़े विष्णु के सुदर्शन-चक्र ने जला कर ख़ाक कर दिया था। बनारस कितना प्राचीन शहर है, ठीक ठीक नहीं मालूम। ईसा के १२०० वर्ष पहले तक उसके अस्तित्व का पता चलता है। शाक्यमुनि ने, ईसा के ६०० वर्ष पहले, जिस समय पहले पहल अपने चेलों को बौद्ध धर्म का उपदेश दिया, उस समय बनारस एक विशाल नगर था। बनारस से तीन मील उत्तर एक जगह सारनाथ है। उसे लोग धमेख कहते। वहीं बुद्ध ने पहले पहल धर्मोपदेश किया था। किसी किसीका मत है कि बनारस पहले वहीं बसा हुआ था। बनारस के आस पास की जमीन को देखने से जान पड़ता है कि उसने कई दफ़े अपना स्थान परिवर्तन किया है। जिस जगह को लोग आजकल सारनाथ कहते हैं, उसका नाम बौद्धों की पुस्तकों में "मृगदाव" है। सम्भव है, किसी समय, वहां जङ्गल रहा हो और उसमें हिरन रहते रहे हों।

होएनसङ्ग के समय में बनारस

सातवें शतक में चीन का प्रसिद्ध बौद्ध संन्यासी होएनसङ्ग हिन्दुस्तान में आया। वह पञ्जाब की तरफ़ से घूमता हुआ बनारस पहुंचा। वह अपने प्रवास-वर्णन में लिखता है कि उस समय बनारस-राज्य का घेरा ८०० मील था। ख़ास शहर चार मील लम्बा और एक मील चौड़ा था। सब लोग ख़ुश थे। अमीरों के यहां अनन्त धनदौलत थी। सब लोग सौम्य स्वभाव के और विद्याव्यसनी थे। हिन्दू बहुत थे, बौद्ध कम। प्रान्तभर में ३० संघाराम थे; उनमें कोई ३००० के क़रीब बौद्ध पुजारी थे। हिन्दुओं के मन्दिरों की संख्या एक सौ थी। उनमें, सब मिला कर, १०,००० पुजारी थे। लोग प्रायः महादेव के उपासक थे। ख़ास बनारस में २० देव-मन्दिर थे। महेश्वर की एक प्रतिमा १०० फुट ऊँची थी! वह ताँबे की थी। वह इतनी अच्छी बनी थी कि जान पड़ता था कि वह सजीव है।

शहर के उत्तर-पूर्व-दिशा में एक स्तूप था। उसके सामने पत्थर का एक स्तम्भ था। वह स्फटिक के समान चमकता था। वरुणा नदी से दो मील के फासले पर "मृग-दाव" का प्रसिद्ध संघाराम था। उसके ८ भाग थे। वह कई मंज़िला था। उसके हाते में २०० फुट ऊँचा एक विहार था। उसकी छत के ऊपर एक आम (फल) सोने का बना हुआ था। विहार में पूरे क़द की एक बुध की मूर्ति थी। उसी जगह शाक्यमुनि ने अपने धर्मोपदेश रूपी चक्र को सब से पहले गति दी थी।

मध्यकालीन बनारस

अनेक कारणों से बौद्ध मत का धीरे धीरे ह्रास होता गया। बौद्धों में तान्त्रिक-सम्प्रदाय की शक्ति जैसे जैसे बढ़ती गई, वैसे ही वैसे उनकी नैतिक शक्ति क्षीण होती गई। इस अवस्था में कुमारिल-स्वामी और शङ्कराचार्य आदि हिन्दू-आचार्य्यों के आक्रमण से बौद्ध धर्म के पैर इस देश से उखड़ गये; उनके "बिहार" बन्द हो गये; उनके "संघाराम" उजड़ गये; उनके अनुयायी यहां से भाग खड़े हुए। दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में शायद एक भी बौद्ध बनारस में न रह गया। सारनाथ के आस पास की बौद्ध बस्ती जला दी गई। बौद्धों के पूजास्थान, उनकी मूर्तियां और उनके पुजारी तक जला दिये गये। अबतक सारनाथ में हड्डियाँ, लोहा, लकड़ी, राख, पत्थर जमीन में गड़े हुए मिलते हैं।

बनारस में दो पुराने ताम्र-पत्र मिले हैं। वे संवत् ११८१ और ११८५ के हैं। राजा गोबिन्दचन्द्रदेव के वे दानपत्र हैं। उनसे मालूम होता है कि कान्यकुब्ज के राजों का राज्य बनारस तक था। वे वाराणसी के भी राजा कहलाते थे। परन्तु बनारस का उस समय का इतिहास बहुत ही कम ज्ञात है। ११९३ ईसवी में मुहम्मद गोरी ने जबसे जयचन्द्र को परास्त किया तब से बनारस पर मुसलमानों का अधिकार हुआ और ६०० वर्ष तक बराबर बना रहा। उन्होंने बनारस के बड़े बड़े मन्दिरों को मसजिदों और मकबरों में परिवर्तित कर दिया और छोटों को गिरा कर उनके ईंट-पत्थर से अपने मकान और मसजिदें वग़ैरह बनवाईं। अलाउद्दीन इस बात को बड़े घमण्डसे कहता था कि सिर्फ बनारस में उसने १००० मन्दिर गिरा कर उन्हें ज़मीन के बराबर कर दिया। औरङ्गजेब ने उसका नाम मुहम्मदाबाद रक्खा और उसके नये पुराने मन्दिरों को खोद कर ख़ुदा के सब से बड़े बन्दों की फिहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराया। यही कारण है जो दो तीन सौ वर्ष से अधिक पुरानी एक भी पूरी इमारत बनारस में विद्यमान नहीं।

आधुनिक बनारस

अठारहवें शतक में बनारस-नगर अबध के नव्वाब सफ़दरजंग के कब्जे में आया। १७३८ ईसवी में मनसाराम नामक एक पुरुष ने अपने बेटे बलवन्तसिंह के लिए नवाब से राजा का ख़िताब और बनारस का इलाक़ा प्राप्त किया। १७६३ में बलवन्तसिंह ने शाहआलम और शुजाउद्दौला के साथ बंगाले पर चढ़ाई की। परन्तु बक्सर की लड़ाई में अंगरेजों की जीत होने पर बलवन्तसिंह ने उनसे मेल कर लिया। अंगरेज़ों ने बनारस की ज़मींदारी पर कर लगाकर,अर्थात् मालगुजारी देने के वादे पर, बलवन्तसिंह का क़ब्जा बना रहने दिया,बलवन्तसिंह के बेटे चेतसिंह ने वारन हेस्टिंग्ज़ की मर्ज़ी के मुवाफ़िक काम नहीं किया; उसकी अनुचित आज्ञा को नहीं माना। इससे हेस्टिंग्ज़ ने चेतसिंह को क़ैद कर लिया; क़ैद से निकल कर चेतसिंह ने अँगरेज़ों पर हमला किया; पर कामयाबी न हुई। चेतसिंह की जमींदारी छिन गई। उसका कुछ हिस्सा बलवन्तसिंह के पौत्र महीपनारायणसिंह को मिला। वर्तमान काशी-नरेश, महाराज श्री प्रभुनारायणसिंह, महीपनारायणसिंह के बाद तीसरे महीप हैं।

जब चेतसिंह की जमींदारी छिन गई तब उसके प्रम्वन्ध के लिए बनारस में च्यरी साहब रेज़िडंट नियत किये गये। उस समय लखनऊ का नव्वाब वज़ीरअली बनारस में था वह गद्दी से उतारकर बनारस में रखा गया था। १७९९ ईसवी में वह बिगड़ खड़ा हुआ और च्यरी साहब के साथ दो अँगरेज़ और मारे गये। पीछे से वज़ीरअली पकड़ा गया। और आमरण कलकत्ते में क़ैद रहा।

शकल-सूरत आदि

अनुमान किया जाता है कि सब से पुराना नगर सारनाथ के पास था। पीछे से नगर का मध्य भाग वरुणा नदी के उत्तर, कहीं पर, रहा। वर्तमान नगर के उत्तर की ओर जो जगह ख़ाली पड़ी है उसमें मन्दिरों और मसजिदों आदि के भग्नावशेष अभी तक पाये जाते हैं। इससे हालूम होता है कि मुसल्मानों के समय तक बनारस वरुणा के दक्षिणी किनारे पर था। इस समय बनारस ठीक गङ्गा के तट पर है। उसकी शकल अर्द्धचन्द्राकार अथवा धन्वाकार है। दशाश्वमेध घाट से नाव पर सवार होकर राजघाट के पुल की तरफ़ जाने में, विशेष कर के सुबह, शहर का दृश्य अच्छी तरह देख पड़ता है। गंगा तट पर नगर की धन्वाकार बस्ती उस समय अच्छी तरह आँखों के सामने आ जाती है।

बनारस में मकान सब पत्थर के हैं। कोई कोई मकान पांच पांच छः छः खण्ड के हैं। गलियां बहुत तंग हैं; बस्ती बेहद घनी है। यात्रियों की हमेशा आमद रफ़्त रहती है। ग्रहण, मेले-ठेले, उत्सव और पर्व आदि में बाहर से आने वाले आदमियों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। बस्तो घनी और गन्दी होने और काशीवास करने के इरादे से अनेक लूले, लंगड़े, अन्धे और बीमार आदमियों से भर जाने के कारण, बनारस की आबोहवा बिगड़ी रहती है। मन्दिर, गली-गली में हैं। बंगाली, नैपाली, महाराष्ट्र आदि हिन्दुस्तान के प्रायः सब प्रान्तों के लोग यहां रहते हैं। उनके महल्ले अक्सर अलग अलग हैं। शहर से पश्चिम और गंगा से कोई तीन मील की दूरी पर एक जगह का नाम सिकरौल है। वहीं बनारस की छावनी और सिविल-लाइन्स वगैरह है। बनारस में कमिश्नर और जिले के मामूली हाकिम रहते हैं। अवध-रुहेलखण्ड और बंगाल-नार्थ-वेस्टर्न रेलवे के कई स्टेशन हैं। पिछली रेलवे ने सारनाथ के पास भी एक स्टेशन खोला है। अवध-रुहेलखण्ड रेलवे का राजघाट में, गंगा पर, पुल है। इस रेलवे की गाड़ियां मुगलसराय से, बनारस और लखनऊ होकर, बराबर सहरानपुर तक चली जाती हैं।

बनारस में जलकल है, पानी गंगा से आता है। गन्दगी निकालने के लिए मोरियां भी हैं।

व्यापार

किसी ज़माने में बनारस रेशमी और ज़री के कपड़े के काम में अपना सानी नहीं रखता था। पर विलायती व्यवसायियों ने इस रोजगार को बरबाद कर दिया। अब भी बनारस में इसका व्यवसाय होता है। कुछ दिन से "काशी सिल्क" नामक रेशमी कपड़े का प्रचार हुआ है। उसपर लोगों की प्रीति होने लगी है। देहली-दर्बार के समय जो प्रदर्शनी हुई थी उसमें बनारस के बहुमूल्य वस्त्रों की बड़ी तारीफ़ हुई थी। तिलकोत्सव के समय महारानी अलेग्ज़ांडरा के पहनने के लिए जो पोशाक बनी थी वह बनारस ही के कपड़े की थी।

बनारस में शकर का रोज़गार पहले बहुत होता था। अब भी कुछ कुछ है।

पीतल और जर्मन-सिल्वर के नक़्काशीदार और सादे बर्तन, सोने-चांदी के जेवर, देवताओं की मूर्त्तियाँ, लकड़ी के खिलौने और तम्बाकू के लिए भी बनारस मशहूर है।

घाट

बनारस में सब मिला कर कोई ५० घाट हैं। उनमें से कुछ के नाम ये हैं—असीघाट, शिवालयघाट, केदारघाट, मुंशीघाट, दशाश्वमेधघाट, मानमन्दिरघाट, मणिकर्णिकाघाट, सेन्धिायाघाट, पञ्चगंगाघाट, त्रिलोचनघाट, हनुमानघाट, राजघाट, और वरुणा-संगमघाट।

असीघाट सबसे दक्षिण है। वहां से रामनगरघाट करीब १ मील दक्षिण है। वहीं से रामनगर जाने वाले गंगा पार करते हैं। रामनगर महाराजा बनारस की राजधानी है। यह घाट यद्यपि बहुत प्रसिद्ध है और काशी के पांच प्रसिद्ध घाटोंमें से है तथापि दशा इसकी अच्छी नहीं। यहीं पर असी नाम का नाला गंगा में गिरता है। बरसात को छोड़कर और मौसमों में वह सूखा पड़ा रहता है।

शिवालयघाट बहुत सुन्दर घाट है। उसीके ऊपर चेतसिंह का महल है। महल अभीतक अच्छी हालत में है। वह गवर्नमेंट के कब्ज़े में है। उसकी उत्तर तरफ़ की दीवार में पांच खिड़कियां हैं। उन्हींमें से एक से होकर चेतसिंह हेस्टिंग्ज़ के डरसे, १७८१ ईसवी में, भागे थे। अब लोग इस मकान को "खाली-महल" कहते हैं।

केदारघाट बनारस के मशहूर घाटोंमें से है। वहां बंगाली और तैलंगी लोगों की अधिक भीड़ रहती है। उसी के ऊपर केदारनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है। मन्दिर बड़ा है। घाट के नीचे "गौरीकुण्ड" नाम का एक जलाशय है। उसके जल की बड़ी महिमा है।

मुंशीघाट बनारस के प्रायः सब घाटों से अधिक अच्छा है। वह नागपुर के राजा के दीवान मुंशी श्रीधर का बनवाया हुआ है। इस घाट के ऊपर की इमारत देखने लायक है।

दशाश्वमेधघाट बनारस के पांच पवित्र घाटोंमें से है। ग्रहण के समय वहां पर बड़ी भीड़ होती है। कहते हैं, वहां ब्रह्मा ने दस दफ़े अश्वमेध यज्ञ किया था। इसी लिए उसका नाम दशाश्वमेध हुआ। इसकी महिमा प्रयाग के बराबर समझी जाती है।

मानमन्दिरघाट। यह घाट महाराजा मानसिंह के मानमन्दिर के नीचे ही है।

मणिकर्णिकाघाट काशी के सब घाटों से अधिक प्रसिद्ध और पवित्र माना जाता है। यह घाट सब घाटों के बीच में है। यहीं पर तारकेश्वर और सिद्धविनायक के मन्दिर हैं। यहां पर जो कुण्ड है उसमें शङ्कर के कान की मणि गिर पड़ी थी। इसी से इसका नाम मणिकर्णिका हुआ। कहते हैं, विष्णु ने इसे अपने चक्र से खोदा था और अपने पसीने से भरा था। इसी के पास वह जगह है जहाँ मुर्दे जलाये जाते हैं।

सेंधियाघाट वायजाबाई सेंधिया का बनवाया हुआ है। वायजाबाई दौलतराव सेंधिया की रानी थी। बन चुकने के पहले ही यह घाट-जमीन में फँस गया। इसके दक्षिण जो मन्दिर है उसमें ऊपर से नीचे तक एक दरार हो गई है।

पञ्चगंगाघाट में पांच नदियां मिलती हैं। गंगा देख पड़ती हैं; बाकी, धूत, पापा इत्यादि चार, सुनते हैं, पृथ्वी के नीचे हैं! इससे वे देख नहीं पड़तीं। हनुमानघाट भी काशी का एक प्रसिद्ध घाट है। त्रिलोचनघाट भी पांच प्रसिद्ध घाटों में से है। इसके आगे राजघाट है और राजघाट के आगे वरुणासङ्गम। वरुणासङ्गम में वरुणा नदी गंगा में गिरती हैं।

मन्दिर

बनारस में सैकड़ों मन्दिर हैं। उनमें से दो चार प्रसिद्ध प्रसिद्ध मन्दिरों का ज़िक्र, बहुत थोड़े में, हम नीचे करते हैं।

विश्वनाथ या विश्वेश्वर। यह बनारस का सब से प्रसिद्ध मन्दिर है। पुराना मन्दिर औरङ्गजेब ने तोड़कर बरबाद कर दिया था। यह नया मन्दिर अहल्याबाई का बनावाया हुआ है। इसकी उँचाई ५१ फुट है। इसके ऊपरी हिस्से में ताम्रपत्र पिटा हुआ है। उसपर सोने का मुलम्मा या पत्र है। सुवर्ण खचित करने का काम महाराजा रणजीतसिंह के प्रबन्ध से हुआ था। इसी के पास एक और मन्दिर महादेव का है। यहीं पर अन्नपूर्णा का भी मन्दिर है। यह बाजीराव पेशवा का बनवाया हुआ है। यह, पिछला मन्दिर भी, बहुत सुन्दर है। विश्वनाथ के मन्दिर के हाते में नन्देश्वर की एक विशाल मूर्ति है। यहीं कुछ दूर पर ज्ञानवापी नाम का प्रसिद्ध कुंवा है। सूर्य, ढुंढिराजगणेश, गौरीशङ्कर और हनूमान् के भी मन्दिर यहीं पर हैं। कुछ दूर पर साक्षी विनायक नामक गणेश की मूर्ति है। आप काशी के यात्रियों को यात्रा के पूरे होने की गवाही या सारटीफ़िकेट देते हैं।

आदि विश्वेश्वर का मन्दिर औरंगजेब की मसजिद के पास है। लोगों का कथन है कि यह मन्दिर सबसे अधिक पुराना है और विश्वे
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श्वर का आदि मन्दिर यही है । पर फूरर साहब कहते हैं कि शकल-सूरत से यह पुराना नहीं मालूम होता। विश्वेश्वर का पहला मन्दिर यहीं रहा होगा और मुसलमानों के द्वारा उसके तोड़े जाने पर हिन्दुओं ने वर्तमान मन्दिर बनाया होगा।

दुर्गा । यह मन्दिर असी-संगम के पास है। इसे रानीभवानी ने बनवाया था। मन्दिर पत्थर का है, बड़ा है और उसमें अच्छा काम किया हुआ है। इसका मध्यभाग बारह खम्भों के आधार पर स्थित है। यहां बन्दर बहुत रहते हैं। हर मंगलवार को यहां दर्शकों की भीड़ होती है।

भैरवनाथ टाउनहाल के पास हैं। इनके हाथ में दो ढाई हाथ का एक डण्डा है। इसलिए ये दण्डपाणि कहलाते हैं। रविवार और मंगल को यहां अधिक भीड़ रहती है। यही शहर के देवी-देवताओं और मनुष्यों के कोतवाल या मैजिस्ट्रेट हैं। इस मन्दिर को पूना के पेशवा बाजीराव ने,१८२५ ईसवी में,बनवाया था।

अमेठी का मन्दिर । यह मन्दिर मणिकर्णिका पर है। यह लाल पत्थर का है और बहुत अच्छा बना हुआ है। यह अमेठी के राजा का बनवाया हुआ है।

इनके सिवा गोपालमन्दिर,वृद्धकाल,केदारनाथ,कामेश्वर,सोमेश्वर, शुकेश्वर,तारकेश्वर,शीतला,संकटा,नवग्रह और शनैश्चर आदि के अनेक मन्दिर हैं । यहां नैपालियों का भी एक प्रसिद्ध मन्दिर है।

इसकी बनावट कुछ कुछ चीन के मन्दिरों की सी है।
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मसजिदें

बनारस में जैसे मन्दिरों की अधिकता है, वैसे ही मसजिदों की भी। वहां के निवासियों में कोई एक चौथाई मुसलमान हैं।

औरङ्गजेब की मसजिद गंगा के किनारे है । सुनते हैं, विश्वेश्वर का प्रसिद्ध मन्दिर पहले यहीं पर था। उसीको तोड़ कर उसके और दूसरे मन्दिरों के माल-मसाले से यह मसजिद तैयार की गई है। मसजिद की बनावट सादी है। उसके दो मीनार १४७ फुट ऊँचे हैं। उसको लोग माधवराव का धवरहरा भी कहते हैं । मीनारों के ऊपर से सारे शहर ही का नहीं, किन्तु और भी दूर दूर तक का दृश्य देख पड़ता है। यहां पर पहले बौद्ध लोगों का एक चैत्य था। जब वह हिन्दुओं के कब्जे में आया तब उन्होंने उसे अपने ढंग का बना लियो । मुसलमानों ने उसे तोड़ कर इस मसजिद में लगा दिया। इसकी इमारत में बौद्ध, हिन्दू और मुसलमान तीनों का तर्ज़ देख पड़ता है।

विश्वनाथ के पास की मसजिद भी औरङ्गजेब की खुदापरस्ती का चिन्ह है। अनेक मन्दिरों को तोड़ कर वह बनी है। उसके सामने बौद्धों या हिन्दुओं के मन्दिरों के खम्भों की एक कतार है। मसजिद की पश्चिमी दीवार में लगे हुए मन्दिरों के भग्न भाग अच्छी तरह पहचाने जा सकते हैं।

ढाई कँगूरे की मसजिद इसी नाम के महल्ले में है। यह बड़ी

खूबसूरत मसजिद है। इसमें लगे हुए चौकोन खम्भे, और कहीं
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दृश्य-दर्शन

कहीं की जाली,बौद्ध लोगों के समय की है ।जान पड़ता है,जहां से यह सामग्री लाई गई थी वहां पहले बौद्धों का विहार था। बौद्धों के बाद हिन्दुओं ने उसे अपना मठ बनाया था। जब मुसल्मानों का प्रभुत्व हुआ तब उन्होंने उसे तोड़ तोड़ कर यह मसजिद तैयार की। इस मसजिद के दूसरे खण्ड में एक पत्थर के ऊपर खुदा हुआ ११९० ईसवी का एक लेख मिला है। उसमें बनारस और उसके आसपास के कई एक तालाब, मन्दिर और मठों के बनवाये जाने का जिक्र है।

चौखम्भा की मसजिद भी बनारस की प्रसिद्ध मसजिदों में से है। इसका सिर्फ कुछ ही हिस्सा मुसल्मानी ढंग का है। इसके प्रायः सारे खम्भे किसी बौद्ध इमारत से निकाल कर लगाये गये हैं।

दूली मशहूर इमारतें

मानमन्दिर । जयपुर के महाराज जयसिंह ने हिन्दुस्तान में पांच वेध-शालायें-जयपुर, देहली, मथुरा, उज्जैन और बनारस में-बन- वाई थीं। बनारस में जो वेध-शाला या यन्त्रशाला है उसीका नाम मान-मन्दिर है। उसमें जयसिंह के निर्माण किये हुए ज्योतिष विद्या सम्बन्धी दिगंश-यन्त्र, मितियन्त्र, चक्रयन्त्र और यन्त्र-राज आदि यन्त्र हैं। परलोक-वासी पण्डित बापूदेव शास्त्री ने इन यन्त्रों के विषय में एक पुस्तक लिखी है। बनारस में मानमन्दिर देखने की चीज है;परन्तु यन्त्रों का उपयोग समझाने वाला कोई साथ चाहिए। यन्त्र अच्छी हालत में नहीं हैं।

माधवदास का बाग शहर के पश्चिम तरफ़ है। उसके भीतर कई
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मकान हैं;पर वे अब बुरी दशा में हैं। १७८१ ईसवी में वारन हेस्टिंग्ज़ इसी बाग में ठहरे थे और यहीं से चेतसिंह को कैद करने का हुक्म आपने दिया था। च्यरी साहब के घातक नव्वाब वज़ीर- अली को भी गवर्नमेंट ने यहीं रहने को जगह दी थी।

महाराज विजयनगरम् की कोठी और बाग भेलूपुरा में हैं। यह भी बनारस में देखने की जगह हैं। कोठी के ऊपर से औरङ्गजेब की मसजिद की तरफ़ गङ्गाजी का अच्छा दृश्य देख पड़ता है।।

नदेश्वर की कोठी महाराजा बनारस के अधिकार में है। जनवरी १७९९ में बनारस के जज मैजिस्ट्रेट डेविस साहव इसीमें रहते थे। जब वज़ीर-अली के आदमियों ने (च्यरी साहब को मारने के वाद) उनपर हमला किया था तब डेविस साहब ने अपनी मेम और बच्चों को छत पर भेज दिया था। आप एक भाला लेकर जीने पर खड़े हो गये और ऐसी बहादुरी से बागियों का मुकाबला किया कि उन लोगों की हिम्मत डेविल साहब के पास तक जाने की न हुई। इतने में एक रिसाला आ गया और डेविस साहब मारे जाने से बच गये। वजीरअली डेविस साहब की कोठी में आग लगाने जाता था; पर उसका इरादा पूरा न होने पाया।

रामनगर महाराजा बनारस की राजधानी है। रामनगर-घाट से गङ्गा पार करके रामनगर जाना पड़ता है। काशिराज का महल

देखने के लिए अनुमति की जरूरत है। महल से एक मील के फासले पर एक सुन्दर तालाव है। तालाब के पूर्व दुर्गाजी का एक मन्दिर है। उसपर रामायण और महाभारत के ऐतिहासिक चित्र खुदे हुए हैं।
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टाउन हाल और प्रिंस आफ वेल्स का अस्पताल आदि भी बना- रसकी मशहूर इमारतों में से हैं।

पुरानी इमारतें

बनारस के उत्तर तरफ़ बौद्धों के जमाने की इमारतों के भग्नावशेष कहीं कहीं पर अब तक विद्यमान हैं। जो चैत्य या विहार कुछ अच्छी दशा में हैं वे भी अब अपने पुराने रूप में नहीं हैं। उनको कहीं हिन्दुओं ने अपने ढंग का बना लिया है, कहीं मुसल्मानों ने अपने ढंग का। मकानों और मसजिदों में कहीं बौद्ध इमारतों के खम्भे लगे हैं;कहीं कुछ,कहीं कुछ। पुरानो बनावट और कारीगरों के चिन्हों से ये चीजें पहचानी जाती हैं। किसी किसी पत्थर पर कारीगरों ने गुप्त राजों के समय के अक्षरों में अपने नाम या निशान बनाये थे। वे अब तक बने हुए हैं। उनको देख कर इन चीजों की प्राचीनता का प्रमाण मिलता है।

बकरियाकुण्ड । शहर के उत्तर-पश्चिम एक महल्ला है। उसका नाम है अलीपुरा । वहां बकरिया-कुण्ड नाम का एक तालाब है।

उसके किनारे पुराने जमाने की इमारतों के बहुत से निशान हैं। वहां कई एक टीले हैं जिनसे जान पड़ता है कि वहां वौद्ध लोगों की इमारतें ज़रूर रही होंगी। कहीं टूटे फूटे खम्भे पड़े हैं;कहीं कलश पड़े हैं;कहीं मूर्तियों के भग्नावशेष पड़े हैं। कहीं कहीं पर दीवारें अब तक खड़ी हैं। छतें भी कहीं कहीं पर बनी हुई हैं। वहीं,कुछ दूर पर,एक मसजिद है। उसमें एक शिलालेख फ़ारसी में है। वह फ़ीरो
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जशाह के समय का है। ज़ियाअहमद ने उसे १६७५ ईसवी में बनवाया था। इस मसजिद का प्रायः सभी माल-मसाला हिन्दुओं और बौद्धों के मन्दिर तोड़ कर लाया गया है। यहाँपर वौद्धों के एक चैत्य का भग्नावशेष अभी तक बना हुआ है। इस चैत्य से कोई दो सौ गज़ के फासले पर एक बौद्ध-मन्दिर भी है। वह कुछ अच्छी हालत में है। उसमें ४२ खम्भे हैं। मुसलमानों ने कृपा कर के उस में कुछ जोड़ जाड़ कर उसका मकबरा बना डाला है।

तिलियानाला और राजघाट के किले में भी बौद्धों के प्राचीन विहारों और चैत्यों के चिन्ह अभी तक बने हुए हैं।

लाटभैरव राजघाट के किले से कोई एक मील है। वहांपर एक बड़ा सा तालाव है । उसके किनारे एक लाट या खम्भा है।उसीको लोग लाट-भैरव कहते हैं। उस पर ताँबा मढ़ा हुआ है। उँचाई उसकी बहुत थोड़ी है । पर जिस पत्थर के खम्भे का यह टुकड़ा है वह कोई ४० फुट ऊंचा रहा होगा। पुरानो इमारतों के विषय में जानकारी रखने बालों का यही अनुमान है । मुसल्मानों ने उसे तोड़ फोड़ कर छोटा कर दिया है। यह स्तम्भ पहले एक मन्दिर के प्राङ्गण में था। मन्दिर को औरङ्गजेब ने तुड़वा डाला और वहीं पर एक मसजिद बनवाई। यह स्तम्भ उत्त मसजिद के हाटे में था। सम्भव है,वह अशोक का कीर्ति-स्तम्भ हो और इसपर उसके अनुशासन खुदे रहे हों।

सारनाथ में किसी समय बौद्धों का बड़ा दोरदौरा था। यह जगह बनारस से कोई तीन मील उत्तर है। उसके पास बंगाल-नार्थ-वेस्टर्न

रेलवे (गोरवर लाइन) काटेशन भी है। बनारस में लोग इसे
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धमेख कहते हैं।जनरल कनिंगहम के मत में सारनाथ नाम सारंग- नाथ का अपभ्रंश है। सारंगनाथ का अर्थ “हिरनों का मालिक” अथवा बुद्ध भी हो सकता है और महादेव भी हो सकता है। कहते हैं, किसी समय, यहां पर मृगदाव नाम का जंगल था आर बुद्ध, अपने किसी पूर्व-जन्म में, हिरनों के राजा के रूप में, यहां घूमे फिरे थे। गया में वोधिसत्वता को प्राप्त होकर शाक्य मुनि ने इसी जगह, सब से पहले, बाद्ध मत प्रचलित करने का यत्न किया था।

चीन के बौद्ध परिव्राजक फाहियान (३९९ ईसवी में ) और हुएनसङ्ग ( ६२९-६४५ ईसवी में), दोनों ने, सारनाथ का वर्णन किया है। पिछला इसके विषय में इस प्रकार लिखता है—“बनारस के उत्तर-पश्चिम अशोक का एक स्तूप है। वह १०० फुट ऊँचा है। वहां एक बहुत बड़ा संघाराम है। वह आठ हिस्सों में बँटा हुआ हैं। उसके चारों तरफ़ दीवार है । उसके भीतर दो-मंज़िले कई महल हैं और एक विहार भी २०० फुट ऊँचा है। स्तूप के चारों तरफ छोटी-छोटी १०० कोठरियों की एक लाइन है। हर कोठरी में एक एक मूर्ति बुद्ध की है। मूर्तियां सुवर्ण-खचित हैं। विहार के पास अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप है। उसके सामने ७० फुट ऊंचा एक स्तम्भ है। जहां स्तम्भ है वहीं बुद्ध ने पहले पहल धर्मोपदेश किया था। यहां पर तीन तालाब हैं। मठ से थोड़ी दूर पर एक और स्तूप है। वह ३०० फुट ऊँचा है। उसमें अनेक रत्न लगे हुए हैं।

इस समय सारनाथ में दो स्तूपों के अवशिष्ट अंश हैं। एक धमेख (धर्मोपदेशक ?) जो पत्थर का है, दूसरा चौखण्डी, जो ईटों
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का है। दोनों में कोई आध मोल का अन्तर है। बीच की जगह टीले के आकार में खाली पड़ी है। उसमें ईंट, रोड़े, पत्थर और पुरानी मूर्तियों के टुकड़े इधर उधर पड़े हुए हैं। उसके पूर्व,नरोकर या सारङ्गताल नाम का एक बहुत बड़ा तालाब है। धमेख से दक्षिण-पश्चिम की तरफ जैनियों ने पार्श्वनाथ का एक मन्दिर बनवा या है।

धमेख को जिस समय जनरल कनिंगहम ने नापा था उस समय वह ११० फुट ऊँचा था। उसका घेरा, नीचे, ९३ फुट था। ४३ फुट की उँचाई तक यह स्तूप पत्थर का है ; उसके ऊपर ईट का। स्तूप के चारों तरफ़ जो मूर्तियों के रखने की जगह हैं वे सब खाली हैं। उनमें पूरे कद की बुद्ध की मूर्तियां किसी समय रही होंगी। पत्थरों में फूल-पत्ती और मनुष्यों के चित्र कहीं कहीं पर, खुदे हुए अभी तक बने हैं।

१७९४ ईसवी में राजा चेतसिंह के दीवान जगतसिंह ने, धमेख से १४० गज़ के फासले पर, एक जगह खुदवाई । उसले जो ईट-पत्थर निकला, वह जगतगज बनाने के काम में आया। जो जगह खोदी गई वहां पर, ज़मीन के भीतर, एक दालान निकली। उसमें, खोदने पर, दो बक्स निकले। एक पत्थर का था, दूसरा सङ्गमरमर का। उनमें मनुष्य को कुछ हड्डियां और कुछ गले हुए मोती और सोने के वर्क वगैरह मिले। बुद्ध की एक मूर्ति भी निकली। उसपर १०८३ संवत् का एक लेख था। वह गौड़-नरेश महिपाल के समय का था।

चौखण्डी का दूसरा नाम लोरी को कुदान है। यह एक ऊँचा
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टोला है। इसपर एक अठकोनी मण्डपी या मढ़ी है। उसके एक दरवाजे पर फ़ारसी में एक लेख खुदा हुआ है। उसमें लिखा है कि हुमायं बादशाह एक बार इस टीले पर चढ़ा था। उसी की यादगार में यह मण्डपी बनाई गई है। कनिंगहम साहब की राय में यहींपर वह स्तुप रहा होगा जिसकी उँचाई होएनसंग ने ३०० फुट बतलाई है।

सारनाथ के टीलों को खोदने पर जो चीजें पुराने जमाने की मिली हैं वे साबित करती हैं कि किसी समय यहां पर बौद्धों का बहुत बड़ा संघाराम था। दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में,जब बौद्ध यहां से निकाले गये,इन इमारतों में आग लगा दी गई थी। स्वाक, बाल,हड्डियां,छिपाई हुई मूर्तियां,खाने की चीजें,गड़े हुए बर्तन ,इत्यादि जो यहां पर निकले हैं वे सिद्ध करते हैं कि अक्क- स्मात् आग नहीं लगी;किन्तु किसी ने जान-बूझ कर सारनाथ की बस्ती को अच्छी तरह जलाया था!

सारनाथ एक बहुत ही प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान बनारस में है। गवर्नमेंट ने वहांपर एक जगह बनवा कर, जो जो चीजें वहां जमीन से निकली हैं, सब रखवा दी हैं। पहले यहांकी बहुत सी ऐतिहासिक चीज़े कीन्स-कालेज के हाते में रक्खी थीं। शायद वे भी सब अब यहीं आ गई हैं। इससे दर्शक उन्हें यहीं देख सकते हैं। अभी, कुछ दिन हुए , वहां और भी बहुत सी चीज़े ज़मीन से निकली हैं। स्तूपों की मरम्मत करने, उनको रक्षित रखने और

नई नई जगहों पर खोद कर पुरानी चीज़ों को ढूंढ़ने का प्रबन्ध
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अभी तक गवर्नमेंट की तरफ से जारी है। इस विषय में युक्तप्रान्त की गवर्नमेंट के अण्डर-सेक्रेटरी ने अपनी २८ अगस्त की चिट्ठी के साथ जो रिपोर्ट, मांगने पर, हमारे पास भेजी है उसकी नकल हम, नीचे, * पाद-टीका में देते हैं।

  • Copy of report in connection with the excavation of ancient ruins at Sarnath near Benares.
Sarnath stone Stupa (Damekh)

The jungle round the Stupa has been cleared and the grounds levelled and unsightly dit- ches filled up. An estimate for repairing the stone portion of the Stupa is under preparation.

A new stone-shed called the "Museum" was also constructed on a design furnished by Mr. F. O. Oertel, Executive Engineer in purely Hindu style. The construction of the shed was commenced in the previous year and was completed during the year under review. The old Buddhist sculptures are now kept in this Museum.

Excavations of the ancient ruins at Sarnath were carried out under the instructions of Mr. Oertel. A number of Budhist stupas, a large Vihara, and traces of many Budhist shrines, were uncovered, together with a large unmber of sculptures of stone, terra- cotta, and plaster of great archaeological interest. The most interesting of these lat -ter are (1) a magnificently well finished column;with an inscription which fixes it to the period of Asoka ;
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कालेज, पाठशाला, छापेखाने आदि

क्वीन्स-कालेज बनारस का प्रसिद्ध कालेज है। इसकी इमारत देखने लायक है। १७९२ ईस्वी में यह जारी हुआ था। इसकी वर्तमान इमारत १८५३ ईसवी में, १,२७,००० रुपये की लागत से,बनी। पहले यह संस्कृत-कालेज कहलाता था। इसमें संस्कृत और अँगरेज़ी दोनों भाषाओं में ऊँचे दरजे तक की शिक्षा दी जाती है। इसका संस्कृत-विभाग अलग है। कालेज के हाते में ३१॥ फुट ऊँचा एक स्तम्भ है। उसपर एक लेख गुप्त-वंशीय राजों के समय के अक्षरों में है। इस कालेज के पुस्तकालय में अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ हैं;विशेष कर के पुरातत्व-विषयक।

हिन्दू-कालेज। बनारस में एक नया कालेज, एनी ब्यजंट के प्रयत्न से बना है। सुनते हैं, इसमें हिन्दुओं की पुरानी पद्धति के (2) a huge umbrelia, 10 feet in diameter, the inside of which is elaborately carved with serolls and symbols; (3) several colossal statues (4) a stone railing chara -cteristic of the Budhist period;and (5) several sculptures with inscriptions.

All the important scluptures have been kept in the Museum.

Chaukhandi at Sarnath
In the brick stupa known as Chaukhandi, a well shaft was dug by Mr. Cunningham and left open. To avoid
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अनुसार धर्म-शिक्षा भी दी जाती है। पर इसके कार्य-कर्ताओं में थियासफ़िस्ट ही अधि हैं। कालेज का प्रबन्ध, लोग कहते हैं, अच्छा है। इसका एक बोडिंग हाउस भी है। काश्मीर-नरेश की संस्कृत-पाठशाला भी इसी कालेज में है। उसका भी प्रबन्ध इसी कालेज के अधिकारियों के हाथ में है।

इनके सिवा बनारस में और भी कई स्कूल हैं। बनारस संस्कृत का घर है। वहां संस्कृत की कई एक पाठशालायें हैं। बनारस के प्रसिद्ध पण्डित शिवकुमार-शास्त्री महाराजा-दरभंगा की पाठशाला

बनारस में सिर्फ एक ही पुस्तकालय नाम लेने लायक है। वह ज्ञानवापी के पास है। उसका नाम है कारमाइकल लाइब्ररी। उसमें पुस्तकों का अच्छा संग्रह है।

बनारस में कई छापेखाने हैं। उनमें से मेडिकल हाल प्रेस,

accidents, a stone railing was erected around this. A zigzag path was also made around the brick ruins, providing an easy way up to the brick stupa.

The ground near the stupa also contains traces of ancient ruins ; so it was cons- idered desirable to acquire it.Moreover with a view to ascertain the nature of the foun. dation and superstructure of the ancient Buddhist ruins on which the brick stupa stands, some excavations were carried out, and plans of the traces of wells dis- covered made under instructions of Mr .Oertel.
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तारा प्रेस, चन्द्रप्रभा प्रेस, यज्ञेश्वर प्रेस और भारतजीवन प्रेस मुख्य हैं। मेडिकल हाल प्रेस से पण्डित नामक संस्कृत की प्रसिद्ध सामयिक पुस्तक निकलती है। हिन्दू-कालेज की मैगेज़ीन तारा प्रेस में छपती है। मित्र-गोष्ठी-पत्रिका नामक संस्कृत-मासिक-पुस्तक यज्ञेश्वर प्रेस में छपती है। भारत-जीवन नामक हिन्दी का साप्ता- हिक अखबार अपने नाम के छापेखाने से निकलता है। कई एक उपन्यासमय मासिक-पत्र भी, हिन्दी में, बनारस से निकलते हैं। बनारस से “चौखम्भा-संस्कृत-सीरीज़” नामक एक सामयिक पुस्तक संस्कृत में निकलती है। उसमें अच्छे अच्छे ग्रन्थ छपते हैं। इस प्रान्त में हिन्दी लिखने-पढ़ने की चर्चा सबसे अधिक बनारस में है। वहां से प्रायः हर महीने हिन्दी की एक-आध नई पुस्तक निकलती है। पर इन पुस्तकों में से, बँगला के आधार पर लिखी गई, किस्से-कहानी की पुस्तकों ही की संख्या अधिक होती है।

नागरी-प्रचारिणी सभा

कोई १२ वर्ष हुए स्कूल के कुछ लड़कों ने मिलकर एक सभा बनाई और उसका नाम नागरी-प्रचारिणी रक्खा। नागरी अक्षर और हिन्दी भाषा दोनों का प्रचार करना इसका उद्देश है। पर इसके नाम से इसके दोनों उद्देश नहीं सूचित होते। इसने, इतने दिनों में, अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली है। पांच छः सौ सभासद भी इसके हो गये हैं। इसने अपना एक अलग मकान भी बनवा

लिया है। यह हिन्दी की पुरानी पुस्तकों की खोज करती है;
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अच्छी अच्छी पुस्तकें प्रकाशित करती है;हिन्दी में व्याख्यान दिलवाती है;और अन्य भी बहुत सी बातें करती है। इस सभा का एक उसूल-सिद्धान्त-बिलकुल ही नया है। वह यह कि,दूसरों के विषय में यह जो कुछ कहती है, उसे यह समालोचना समझती है;पर इसके विषय में और कोई जो कुछ कहता है उसे यह अपवाद, या व्यर्थ निन्दा समझती है। उदाहरण-यदि सभा कहे कि हिन्दी-अखबारों के सम्पादकों ने यूनीवरसिटी,अर्थात विश्वविद्यालय, के बरामदे में कदम नहीं रक्खा;अथवा उनमें सभा की खोज की रिपोर्ट पढ़ कर समझने की लियाकत नहीं;अथवा उनकी दृष्टि संकीर्ण है,वे उपकारी उद्योगों का विरोध करते हैं;वे तुच्छ समा- चारों पर लम्बे लम्बे लेख लिखते हैं,तो यह कहना विशुद्ध समालो -चना है। पर यदि अखबारों के सम्पादक या और कोई कहे कि सभा हिन्दी-पुस्तकों की खोज का काम अच्छी तरह नहीं करती; अथवा जो बात वह कहती है उसपर स्थिर नहीं रहती;अथवा, किसी किसी काम के लिए वह एक की जगह दो आदमी व्यर्थ रखती है, तो वह विशुद्ध अपवाद, अर्थात् व्यर्थ निन्दा, है !

[दिसम्बर १९०५]