दृश्य-दर्शन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: सुलभ ग्रंथ प्रचारक मंडल, पृष्ठ ६२ से – ७४ तक

 
चरखारी-राज्य।

बुंदेलखण्ड में चरखारी एक प्रसिद्ध राज्य है। उसकी राजधानी चरखारी-नगर हमीरपुर जिले के अन्तर्गत महोबा रेलवे स्टेशन से कोई ९ मील है। वह उत्तरी अक्षांश २४.४१ और २५ के बीच में है। चरखारी समुद्र की सतह से कोई ६३० फुट उँचाई पर है। शहर की लम्बाई २ मील और चौड़ाई उससे कुछ कम है। क्षेत्रफल साढ़े तीन वर्गमोल के करीब है। राज्य का क्षेत्रफल ८८० वर्गमील है और गत मनुष्य-गणना के अनुसार आबादी १,२४,००० है। इस हिसाब से प्रति वर्ग-मील में कोई १६५ आदमी बसते हैं। आमदनी ९ लाख रुपये सालाना है। यह रियासत कई परगनों में बँटी हुई है। रानीपुर-मेरा परगने में हीरे की खानें हैं।

बुंदेलखण्ड में दो तरह की रियासतें हैं—एक वे जिनको गवर्नमेंट ने सनदे दी हैं; दूसरी वे जिनके और गवर्नमेंट के दर्मियान सन्धि-

पत्र लिखे गये हैं। चरखारी पहले प्रकार का राज्य है।
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बहुत पुराने ज़माने में बुंदेलखण्ड गोण्ड-राजों के अधिकार में था। उनके बाद चंदेलों का राज्य हुआ। चंदेलों के अनन्तर बुंदेलों का आधिपत्य हुआ। चरखारी की रियासत में कहीं कहीं अब तक गोंड लोग रहते हैं। बेलखरा परगने में शायद अब भी गोंड राजा हैं;पर वे चरखारी के जागीरदार हैं। चरखारीके वर्तमान नरेश महाराजाधिराज सिपहदारुल्मुल्क सर मलखानसिंहजूदेव बहादुर, के० सी० आई० ई० महाराजा छत्रशाल के वंशज हैं।

चरखारी के पहले राजा का नाम खुमानसिंह था। १७६५ ईसवी के लगभग उन्होंने चरखारी के पास की एक पहाड़ी पर मङ्गलगढ़ नाम का एक किला बनवाया। यह पहाड़ी कोई ३०० फुट जमीन से ऊँची है। इस किले में कई तालाब हैं, उनमें विहारीसागर सब से अधिक प्रसिद्ध है। मन्दिर भी कई हैं। पहाड़ी पर किला बन जाने के बाद लोग उसके नीचे आकर बसने लगे। धीरे धीरे वहाँपर एक छोटा सा कसबा बस गया और नाम उसका पड़ा मडगलनगर । यही वर्तमान चरखारी है। पुरानी चरखारी वहाँसे कुछ दूर है।

राजा खुमानसिंह के बाद चरखारी की गद्दी राजा विजयबहादुर- सिंह को मिली। उनका मुख्य नाम विक्रमादित्यसिंह था, पर सब लोग उन्हें विजयबहादुरसिंह ही कहते थे। चरखारी की प्रसिद्ध कोठी

आप ही की बनवाई है। उसी के नीचे कोठी-ताल नाम का जो एक उत्तम सरोवर है वह भी आप ही के औदार्य का फल है । ये बड़े गुण-ग्राहक थे। कवि भी अच्छे थे। इनकी बनाई हुई कई पुस्तकें अब तक विद्यमान हैं। बुंदेला राजों में राजा विजयबहादुर- सिंह ही पहले
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राजा थे जो अँगरेजों को पहले पहल बुंदेलखण्ड में लाये और अँगरेज़ी गवर्नमेंट की अधीनता स्वीकार करके १८०४ और १८११ ईसवी में उससे सनः प्राप्त की। उनके ७ पुत्र थे–४ औरस ३ अनौरस। पर दैवयोग से चार में से एक भी औरस पुत्र न रहा। इससे उन्होंने अपने पौत्र रत्नसिंह को गोद लिया। राजा रत्नसिंह, विजय बहादुरसिंह के अनौरस पुत्र के पुत्र थे। परन्तु उन्होंने इन्हीं को अपना उत्तराधिकारी चुना;औरस पौत्रों में से किसीको नहीं चुना। गवर्नमेंट ने भी इस बात को मंजूर कर लिया।

राजा रत्नसिंह के समय में सिपाही-विद्रोह हुआ। उसमें उन्होंने अंगरेजों का पक्ष लिया। उनकी सब तरह से मदद की। बागियों ने

चरखारी किले को घेर लिया और राजा रत्नसिंह से कहा कि महोबे के जाइन्ट मैजिस्ट्रेट कर्न (Kern) साहब को जिन्हें तुमने छिपा रखा है, फौरन हमारे हवाले कर दो। परन्तु राजा साहब ने उसी पथ का अनुसरण कियो जिसका अनुसरण रणथंभोर के हम्मीर वीर ने किया था। उन्होंने बागियों की इस प्रार्थना को घृणा की दृष्टि से देखा। भला भारतवासी, फिर भी क्षत्रिय, शरणागत को अभयदान देकर कहीं उसे शत्रु के सिपुर्द करते हैं ? रक्षा का वचन दिया सो दिया। किले पर अनवरत अग्निवर्षा होती रहने पर भी राजा साहब ने कर्न साहब को अपनी रक्षा में रक्खा। यही नहीं, उन्होंने एक ऐसा काम किया जिसकी समता संसारभर के इतिहासों में बहुत ही कम पाई जाती है। वे कर्न के बदले अपने प्राणोपम पुत्र जयसिंह को विद्रोहियों के हवाले करने पर राजी हो गये। उन्होंने कहा, हम अपनी
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आत्मा दे डालेंगे हम अपने आत्म-प्रतिबिम्ब से हाथ धो बैठेंगे- पर जब तक शरीर में प्राण हैं, शरणागत को दूर नहीं करेंगे। विद्रोह शान्त होने पर,३ नवम्बर १८५९ को लार्ड केनिंग ने कानपुर में दरबार किया। प्रधान सेनापति लार्ड क्लाइड भी दरबार में पधारे । ग्रदर के समय जिन लोगों ने अँगरेज़-राज की मदद की थी वे सब सादर बुलाये गये। दरबार में लार्ड केनिंग ने प्रधान सेनापति से राजा रत्नसिंह का परिचय कराते हुए जो वचन कहे वे चरखारी की कोठी के सामने सोने के अक्षरों में लिख रखने लायक हैं। उन्हें हम ज्यों का त्यों नीचे पादटीका * में उद्भत करते हैं। अन्त में आपने कहा-

His Execllency enjoined ali British office- rs who might hereafter enter the territory of the Maharaja to remember these services and to render to his Highness the respect ard condsideration which he so eminently deserves.

  • "My lord Clyde,-Allow me to introduce to you a staunch and loyal ally of ours;who when the rebels that beleagured his fort demanded from him the British officer whom he had protected,returned for answer that he would deliver up his own son, but with his life defend his British guest" :-

From:-Bengal Harkara and Indian garette of II th. November 1857, page 458.

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अर्थात भविष्यत् में जितने अँगरेज-अफसर चरखारी की जमीन में क़दम रक्खे उन्हें महाराज रत्न्सिंह की इस उदारता और आत्मत्याग का स्मरण रखना चाहिए। और उनका यथेष्ठ आदर और सम्मान करना चाहिए।

महाराज की इस सहायता के उपलक्ष्य में गवनमेंट ने २० हजार रूपये की खिलत दी। वंश-परम्परा के लिए ११ तोपों की सलामी का अधिकार दिया। फतेहपुर का परगना इनाम में मिला और दत्तक लेने का अधिकार भी गर्वनमेंट से प्राप्त हुआ। रींवा और बनारस के राजों ने भी गदर में गवर्नमेंट की खैरख्वाही की थी। पर उनको जितने की खिलत मिली, चरखारी नरेश को उससे दूने को मिली। चरखारी में रतनसागर नाम का जो बडा़ तालाव है, वह महाराज रत्न्सिंह ही के नाम का स्मरण दिलाता है।

महाराज रत्नसिंह की मृत्यु १८६० ईसवी में हुई । उनके बाद उनके पुत्र महाराज जयसिंह को चरखारी का राजासन मिला। उनके समय में लिखने लायक कोई विशेष बात नहीं हुई। १८८० ईसवी तक वे जिवित रहे। उनके मरणान्तर उनकी विधवा महारानी ने वर्तमान चरखारी नरेश महाराज मलखानसिंहजू देव को गोद लिया। उस समय आप की उम्र कोई आठ नौ वर्ष की थी। आप का जन्म १३ नवम्बर १८७० ईसवी का है। इस समय आपकी उम्र कोई ३७ वर्ष की है।

जब तक महाराज साहब वयस्क नहीं हुए,राज्य का काम-काज आप के पिता राव जुझारसिंहजू देव बहादुर चलाते रहे। महाराज
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की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया गया। इंडिया-कौंसिल के मेम्बर थिओडर मारिसन साहब की निगरानी में आपने विद्याध्ययन किया । अंगरेज़ी में आपने यथेष्ट प्रतिपत्ति प्राप्त की। राजाओं को जिन विषयों की राजोचित शिक्षा मिलनी चाहिए, वह आपको अच्छी तरह मिली। वयस्क होने पर आपको, १८९२ में, राजासन प्राप्त हुआ। उसके दो वर्ष बाद आपको गवर्नमेंट से सनद मिली और फौजदारी के पूरे अधिकार भी दिये गये। अब आपको अपने राज्य में फांसी तक देने का अधिकार है। चरखारी-नरेश “सिपहदारु- ल्मुल्क” कहलाते आये हैं। १८७७ ईसवी में गवर्नमेंट ने भो इस पढ़वी का प्रयोग किया जाना स्वीकार किया। वर्तमान महाराजा साहब भी इस पदवी के भोक्ता हैं। गवर्नमेंट अपने कागज-पत्रों में इस पढ़वी का बराबर प्रयोग करती है।

महाराजा चरखारी राज्य-प्रबन्ध में यथेष्ट कुशल हैं। राज का जो धर्म है उसे आप अच्छी तरह पालन करते हैं। जहां निग्रह को

ज़रूरत होती है वहां दया दिखाना आप राजनीति के खिलाफ़ समझते हैं और जहां प्रसाद की जरूरत होती है वहां आप अपनी गुणप्राहकता और प्रजावात्सल्य का प्रमाण दिये विना नहीं रहते। क्योंकि प्रजारञ्जन ही राजा का सब से बड़ा कर्तव्य है। जो राजा कोप और अनुग्रह को यथा समय और यथा स्थान प्रकट करने में सङ्कोच नहीं करते उन्हीं को यथार्थ राजा कहना चाहिए। आपने अपने राज्य में अनेक सुधार किये हैं, जिनके उपलक्ष्य में गवर्नमेंट ने आप को के०सी०आई० ई० की उच्च पदवी से विभूषित किया है। महाराजा बहादुर को
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पहली महारानी नहीं रहीं। इससे आप को दुषारा दारपरिग्रह करना पड़ा। दोनों रानियों से आपको चार सन्तानों का लाभ हुआ। पर दुःख की बात है,उनमें से एक भी जीवित नहीं। वर्तमान महारानी के राजकुमार ४ वर्ष के हो कर जाते रहे । अब-

आशास्यमन्यत्पुनरुक्तभूतं शेयांसि सर्वाण्यधिजग्मुऽषस्ते ।
पुत्रं लभस्वात्मगुणा नुरूपं भवन्तमीड्य भवतः पितेव ।।

कवि कुल चक्रवर्ती कालिदास के शब्दों में हमारी परमेश्वर से यही प्रार्थना है।

महाराजा साहब अपनी प्रजा को शिक्षा दान देने के बड़े ही पक्षपाती हैं। चरखारी में एक हाईस्कूल है, जिसके कारण आपकी

राजधानी में शिक्षा खूब सुलभ हो रही है। स्त्री-शिक्षा की तरफ़ भी आपका पूरा ध्यान है। उसका भी आपने अच्छा प्रबन्ध कर दिया है। चरखारी में इतनी लड़कियां पढ़ती हैं जितनी शायद ही बुंदेलखण्ड की अन्यान्य रियासतों में कहीं पढ़ती हों। चरखारी की एक स्त्री ने तो स्त्री-धर्म विषयक एक पुस्तक तक लिख डाली है। वह प्रकाशित भी हो गई है। महाराजा बहादुर ने अपनी राजधानी में कलाकौशल सिखलाने के लिए एक "स्कूल आव आर्ट्स” भी खोल रक्खा है । यह स्कूल बहुत अच्छी दशा में है। यहाँ अनेक प्रकार के सूती, रेशमी और ऊनी कपड़े तैयार होते हैं। यहां के कालीन बहुत अच्छे होते हैं। महाराजा साहब ने देहात में भी शिक्षा-प्रचार का अच्छा प्रबन्ध किया है। इससे सिद्ध है कि आप शिक्षा और कलाकौशल की उन्नति और प्रचार के कितने पक्षपाती हैं।
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महाराजा साहब को देशाटन और तीर्थयात्रा का भी शौक है। जब आपकी उम्र केवल १४ वर्ष की थी तभी एक दफे आप कलकत्ते गये थे। राह में आपने वैद्यनाथ,गया,काशी,विन्ध्याचल और प्रयाग की यात्रा की। उस साल लार्ड कर्जन के देहली-दरबार में भी आप पधारे थे। और भी आपने कई बार देशाटन और यात्रायें की हैं ।

धार्मिक विषयों में भी महाराजा की बड़ी रुचि है। आप नित्य सायङ्काल विहारीजी के मन्दिर में देव-दर्शन करने जाते हैं। इसमें कभी त्रुटि नहीं होती। मन्दिर में आप बड़े ही भक्ति भाव से देव- दर्शन करते हैं। कुछ समय हुआ, हम अपने एक मित्र से मिलने चरखारी गये। उस समय वहाँ विधिपूर्वक रामलीला हो रही थी। महाराजा साहब खुद ही लीला-प्रबन्ध कराते हैं और बड़े प्रेम से उसमें योग देते हैं। आपको कविता से भी शौक है। आपने अनेक पद लिखे हैं और यदा कदा लिखा ही करते हैं। आपके कितने ही पद लीलाओं और कीर्तनों में गाये जाते हैं।

१८८३ ईसवी से चरखारी में, दिवाली के दिनों में गोवर्द्धनधारी श्रीकृष्णजी के उपलक्ष्य में गोवर्द्धन-मेला होता है। यह मेला बहुत

प्रसिद्ध है। दूर दूर से लोग यहां आते हैं। सैकड़ों कोस से बड़े बड़े दुकानदार यहां अपनी दूकानें लाते हैं। हजारों साधु और महात्मा भी आते हैं। कितने ही देवताओं को विमानों में सज्जित करके लाते हैं;महाराजा साहब का गोवर्द्धन-मन्दिर बड़ी ही मनोहरता से सजाया जाता है। मेले का प्रबन्ध बहुत उत्तम होता है। साग शहर
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चरखारी छोड़कर मेले के स्थान में जा रहता है। यह स्थान चरखारी से मिला हुआ है। स्वयं महाराजा साहब मेले में जाकर अपने खेमे लगवाते हैं और वहीं रहते हैं। यह मेला कोई एक महीना रहता है । जङ्गल में मङ्गल हो जाता है । इस मेले में इतनी चौकसी रक्खी जाती है कि आज तक कभी किसी की एक सुई तक नहीं गई। जो लोग बाहर से मेले में जाते हैं उनका महाराजा साहब की तरफ से यथेष्ट आतिथ्य किया जाता है। सुनते हैं,महाराजा साहब के पिता,राव बहादुर जुझारसिंह जू-देव, सी० आई० ई०,दीवान बहादुर,ने पहले पहल इस मेले की नीव डाली थी।

महाराजा साहब के पिता बड़े ही योग्य दीवान हैं । आपका जन्म १८८४ ईसवी का है। राजनीति में आप इतने प्रवीण हैं कि

बुंदेलखण्ड भर में शायद ही और कोई इस विषय में आपकी बराबरी कर सकता हो। आप के पुत्ररत्न, वर्तमान महाराजा चरखारी,जबतक नाबालिग थे, आप दरबार के सीनियर मेम्बर थे। राज्य का सूत्र आप ही के हाथ में था। आपने सब काम इस योग्यता से चलाया कि गवर्नमेंट ने खुश होकर आपको दोवान बहादुर की पदवी दी। यह बात १८८७ की है। इसके आठ वर्ष बाद, अर्थात् १८९५ में, आपको सी० आई० ई० का खिताब मिला। गद्दी मिलने पर-सारे राजाधिकार प्राप्त होने पर-महाराज साहब ने राव साहब को अपना मदारुलमुहाम अर्थात् प्रधान दीवान बनाया। इसी पद पर आप तब से अधिष्ठित हैं और राज्य में उपयोगी सुधार करने और प्रजा को सुखी रखने के लिये हमेशा यत्नवान रहते हैं।
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चरखारी में महागजा साहब के फ्रीलखाने में एक हाथी बहुत ही स्थूलकाय है। उसका पेट प्रायः ज़मीन को छूता है। इतना मोटा हाथी हमने और कहीं नहीं देखा। देहली दरबार में सैकड़ों हाथी गये थे। यह भी गया था लोग इसे बड़े चाव से देखते थे।

चरखारी से लगी हुई एक नई बस्ती है। राव साहब ही के प्रबन्ध से वह आबाद हुई है। वहां बाज़ार लगता है और गल्ले वगैरह का बड़ा व्यापार होता है। वहां एक बहुत अच्छे तालाब के सामने विहारीजी का एक आलीशान मन्दिर है। महाराजा साहब प्रतिदिन शाम को वहां देव-दर्शन करने जाते हैं। हमारे मित्र पण्डित युगलकिशोर वाजपेयी हमें भी एक दिन दर्शन कराने ले गये। वहीं राव बहादुर दीवान जुझारसिंहजूदेव पहले ही से उपस्थित थे। मन्दिर में कीर्तन हो रहा था, राव साहब ही के बनाये हुए पद गाये जा रहे थे। इस भक्ति-भाव से, इस प्रेम-प्रवणता से, इस तालस्वर से कीर्तन हो रहा था कि हमारी सारी इन्द्रियां कर्णेन्द्रिय में इकट्ठी हो गई और हम सहसा भक्ति रसार्णव में निमग्न हो गये। कुछ देर बाद महाराजा साहब पधारे और दर्शन, प्रदक्षिणा आदि करके चले गये । अन्त में दस बारह लड़के, मन्दिर के नीचे सीढ़ियों के पास, ठाकुरजी के सम्मुख एक कतार में खड़े हो गये। उन्होंने बड़े ही मीठे स्वर में “जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे"-गाना आरम्भ किया। उसे सुनकर, सच मानिए, हमें आत्मविस्मृति-सी हो गई। शरीर में रोमञ्च और आँखों में अश्रु-

सञ्चार हो आया। भक्ति के उन्मेष में उस दिन हमें जितना आनन्द
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आया उसका वर्णन हमसे नहीं हो सकता। हमने कितने ही मन्दिरों में झाकियां देखीं और कितने ही कीर्तन सुने, परन्तु भक्ति-भाव का जैसा उद्रेक वहां हमारे अन्तःकरण में हुआ वैसा और कहीं नहीं हुआ था। मनुष्य कैसा ही नास्तिक क्यों न हो--नास्तिक क्या चाहे वह मूर्तिमान चार्वाक ही क्यों न हो ऐसा भक्ति-भाव और कोमल कीर्तन सुनकर उसका भी हृदय द्रवीभूत हुए बिना नहीं रह सकता। जिन लड़कों ने पूर्वोक्त संस्कृत-पद्य गाया था उन्हें उसकी यथा-रीति शिक्षा दो गई थी। यही लड़के महाराजा साहब की रामलीला में शरीक होते थे और अपने पात्रगत क्रिया-कलापों से दर्शकों और श्रोताओं को मनोमुग्ध करते थे।

चरखारी बहुत ही रमणीक स्थान है। वहां की आबोहवा तन्दुरुस्ती के लिए बहुत लाभदायक है। शहर छोटा,परन्तु खूब साफ सुथरा है। बड़े बड़े कई एक तालाब हैं। सब पक्के बँधे हुए हैं। उनमें कमल बहुत होता है। खिले हुए अनन्त कमल-पुष्पों से तालाबों का अधिकांश जल बिलकुल ढक जाता है। कमलों की ऋतु में इन तालाबों का दृश्य बहुत ही भला मालूम होता है। चरखारी के चारों तरफ छोटी छोटी पहाड़ियां हैं। शहर उनके बीच में बसा हुआ है। उन्हीं में से एक पहाड़ी के ऊपर चरखारी का प्रसिद्ध किला है।

महागजा के महलों के बाद देखने लायक इमारत चरखारी की कोठी है। यह कोठो तालाब के ठोक किनारे बनी हुई है। तालाब का पानी कोठी की दीवारों से टकराया करता है। इस कोठी
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को अतिथिशाला कहना चाहिए। ऐजंट गवर्नर जनरल और पोलि- टिकल एजंट आदि बड़े बड़े लोग यहीं ठहराये जाते हैं। कोठी खूब सजी हुई है; उसको छत से शहर का दृश्य बहुत अच्छी तरह दिखाई देता है। बरसात में जब सब पहाड़ियाँ हरित वर्ण हो जाती हैं तब इस कोठो के ऊपर से उनकी तरफ़ देखने से आँखों को अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।

चरखारी से मिला हुआ एक उपवन है। उसमें शिकार खेलने की सख्त मुमानियत है। उसमें सैकड़ों हिरन निःशङ्क, निडर और निश्चिन्त घूमा करते हैं। बड़े बड़े सींगोंवाले किसी किसी कृष्णसार मृग का रूप, रङ्ग और विशाल आकार देखकर कौतुक मालूम होता है। उपवन के बीच से एक सड़क गई है। उस में भी हिरनों के मुण्ड के झुण्ड बैठे हुए पागुर किया करते हैं। सड़क से आने जाने वाले आदमियों की वे बहुत ही कम परवा करते हैं। आप बन्दूक ताने चले जाइए-नङ्गी तलवार चमकाने में कसर न कीजिए वे आप की तरफ देखेंगे भी नहीं। महाराजा साहब के अभय वचन के विश्वास पर, आने जाने वालों के बाहुबल को-उनके शस्त्रास्त्र को-वे तुच्छ समझते हैं, घृणा की दृष्टि से देखते हैं,बड़ी बड़ी आंखें दिखा कर उनका उपहास सा करते हैं। इस उपवन के बीच में एक छोटा सा मकान है। उसमें,समय समय पर,बाजा बजता है, जिसे बड़े बड़े हरिण-नायक अपने बन्धु-बान्धवों समेत चड़े चाव से सुना करते हैं।

इस उपवन को देखकर हमें कालिदास द्वारा अभिज्ञान शाकुन्तल
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में वर्णन किये गये तपोवन का तत्काल स्मरण हा आया। वहां कण्व के आश्रम के समीप इरिणों को लक्ष्य कर के महाराज दुष्यन्त को बाण सन्धान करते देख, आश्रम के तपस्वियों ने कैसे कोमल वचनों से राजा को रोका है:-

न खलु न खलु बाणः सन्निपात्योऽयमस्मिन्-
 
मृदुनि मृगशरीरे तूलगशाविवाग्निः ।।
क बत हरिणकानां जीवितं चाति लोलं ।
 
क्व च निशितनिपाता वभ्रसाराः शरास्ते ।।

परन्तु यहां इस उपवन में हरिणों को लक्ष्य बनाना तो दूर रहा,. कन्धे पर रक्खी हुई बन्दूक भी शायद उन्हें देखने को न मिलती हो। इसीसे यहां के हिरन इतने निडर हो गये हैं कि प्रायः शहर के भीतर तक चले आते हैं और स्वछन्द घूमा करते हैं।

[अप्रेल १९०८]