दृश्य-दर्शन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: सुलभ ग्रंथ प्रचारक मंडल, पृष्ठ १७ से – ३६ तक

 

ग्वालियर।

ग्वालियर बहुत पुराना शहर है। बहुत कम शहर उससे अधिक पुराने होने का दावा इस देश में रखते हैं। वह आगरा से ६५ मील और इलाहाबाद से ८७७ मील है। वहां रेल का स्टेशन है। आगरे से भी ग्वालियर जाने का रास्ता है और झांसी से भी। ग्वालियर २६°१३॔ उत्तरी अक्षांश और ७८°१२॔ पूर्वी देशांश में है। स्वदेशी रियासतों में ग्वालियर का दूसरा नम्बर है; पहला नम्बर निज़ाम का है। ग्रेट ब्रिटन के स्काटलैण्ड और वेल्स, इन दोनों देशों का मिलकर जितना विस्तार है, ग्वालियर राज्य का विस्तार उससे भी अधिक है। योरप में डेनमार्क और हालैण्ड के सदृश जो छोटे छोटे, परन्तु स्वतन्त्र देश हैं, ग्वालियर की रियासत उनसे बड़ी है। इस राज्य का क्षेत्रफल २९,००० वर्गमील है। आबादी कोई ३२,३०,००० है, और मालगुजारी १,२५,००,०० रुपये हैं। ग्वालियर में सिन्धे-शाखा के मराठों के बंशज बहुत दिनों से राज्य कर रहे हैं। विदेशी होने के कारण अंगरेजी राज्य के अधिकारी यहाँ के नामों की बड़ी दुर्दशा करते हैं। जिन्होंने लखनऊ का लकनौ; देहली का डेलही; कानपुर का कानपोर कर डाला उन्हीं ने सिन्धे का सेन्धिया भी कर दिया। पूना के पेशवा बालाजी के खिदमतगार रानोजी वर्तमान वंश के नरेशों में पहले नरेश हुए। रानोजी के पुत्र महादजी सेन्धिया ने बड़ा नाम पैदा किया। वीरता में वे अद्वितीय थे। उन्होंने ग्वालियर-राज्य के विस्तार को बहुत बढ़ाया और अनेक लड़ाइयों में विजय पाया। ग्वालियर के वर्तमान नरेश महाराजा माधवराव सेन्धिया हैं। आप विलायत हो आये हैं; पाश्चात्य सभ्यता में ख़ूब दीक्षित हैं; अंगरेज़ी भाषा के पारगामी हैं; और इस इस समय की राजनीति में विशेष कुशल हैं। आपके पिता का नाम महाराजा जयाजी राव सेन्धिया था। उनका आकार बहुत भव्य था। पढ़ने लिखने में उनकी रुचि कम थी; पर फ़ौजी कामों में उनका दिल ख़ूब लगता था। इनके मरने पर ख़जाने में साढ़े ५ करोड़ रुपया नक़द निकला था।

किसी किसी का मत है कि ईसा के ३१० वर्ष पहले ग्वालियर की नीव पड़ी थी। परन्तु विलफर्ड साहब और जनरल कनिङ्गहाम को पता लगा है कि २७५ ईसवी में उसका निर्माण हुआ था। जिस समय गुप्तवंशी राजों का प्रभुत्व था उस समय उनका एक करद राजा तोरा मन (सूर्यमणि?) नामक था। वह वर्तमान गुप्त-नरेश से बाग़ी हो गया और यमुना-नर्म्मदा के बीच के देश में उसने अलग ही अपनी प्रभुता फैलाई। तोरामन सूर्यवंशी कछवाहा था। उसका पुत्र सूर्यसेन हुआ। २७५ ईसवी में उसीने ग्वालियर बसाया। सूर्यसेन कुष्ठ रोग से पीड़ित था। ग्वालियर के पास एक पर्वत था। उसका नाम था गोपाचल अथवा गोपगिरि। उस पर ग्वालप नाम के एक महात्मा रहते थे। सूर्यसेन शिकार खेलता हुआ गोपाचल पर आया और महात्मा ग्वालप के दर्शन किये। उस महात्मा ने अपने कमण्डलु से एक चुल्ल भर जल सूर्यसेन को पीने के लिए दिया। उसको पीने से सूर्यसेन का कुष्ठ जाता रहा। अतएव उसने वहां पर एक किला बनवाया और उसका नाम ग्वालियावर रक्खा। तब से वह वहीं रहने लगा। यही ग्वालियावर या गोपगिरि धीरे-धीरे ग्वालियर हो गया। पुरानी बातों के ज्ञानी ऐसा ही कहते हैं; झूठ सच की राम जानें। महात्मा ग्वालप ने इस राजा का नाम बदल कर शोभनपाल रक्खा और कहा कि जब तक इस वंश के राजा पाल कहलावेंगे तब तक उनका राज्य बना रहेगा। इस वंश के सब मिला कर ८३ राजे हुए। पर चौरासिवें राजा का नाम तेजकर हुआ; तेजपाल न हुआ। इससे यह वंश राज्य भ्रष्ट हो गया?

ग्वालियर का राज्य कछवाहा राजों के हाथ से निकल जाने पर परिहारों का उसपर अधिकार हुआ। इस वंश के ७ राजे हुए। १०३ वर्ष तक इस वंश ने राज्य किया। इस वंश के अन्तिम राजा सारदेव के समय में अल्तमश ने ग्वालियर पर चढ़ाई की और १२३२ ईसवी में उसने परिहारों को वहां से निकाल दिया। इस विजय को वार्ता को अलतमश ने क़िले के एक फाटक पर खुदवा दिया। बाबर ने अपनी दिनचर्या में लिखा है कि विजयवार्ता वाले लेख को उसने खुद देखा और पढ़ा था; परन्तु इस समय उसका कहीं पता नहीं। जब से यह किला देहली के बादशाहों के कब्ज़े में आया तब से उन्होंने उसके भीतर शाही क़ैदखाना बनाया। १३७५ ईसवी में राजा वीरसिंह देवने इसे मुसल्मानों से छीन लिया।

ग्वालियर के ऊपर अनेक विपदें आई और अनेक मुसल्मान-स्वामियों के स्वामित्व में उसे रहना पड़ा। वहांके नरेशों ने कभी देहली के बादशाहों को कर दिया; कभी मालवा के होशङ्गशाह को; और कभी जौनपुर के हुसेन शर्की को। १५०५ ईसवी में सिकन्दर लोधी ने ग्वालियर पर चढ़ाई की; परन्तु वहां के तत्कालीन राजा मानसिंह ने उसे मार भगाया। १५१७ में उसने आगरे आ कर ग्वालियर विजय की बड़ी भारी तैयारी की; परन्तु चढ़ाई करने के पहले ही वह मर गया। ग्वालियर-विजय में इब्राहीम लोधी को कामयाबी हुई। उसने ३०,००० सवार ३०० हाथी और बहुत सी पैदल फ़ौज भेज कर ग्वालियर को घेर लिया। घेरे ही के समय मानसिंह की मृत्यु हुई। मानसिंह के पुत्र विक्रमादित्य ने भी एक वर्ष तक मुसल्मानों की दाल नहीं गलने दी। घेरा बराबर जारी रहा। अन्त को उसने अधीनता स्वीकार कर ली और वह आगरे को भेज दिया गया।

तोमरवंश के ग्वालियर-नरेशों में मानसिंह बड़ा प्रतापी हुआ। उसने बहुत अच्छी अच्छी इमारतें बनवाईं। ग्वालियर के उत्तर-पश्चिम जो मोती झील है वह उसीकी खुदाई हुई है। कला-कौशल की उसने बड़ी उन्नति की। उसने पत्थर का एक हाथी बनवाया था; उस पर पत्थर ही के दो आदमी हौदे में सवार थे;हाथी की मूर्ति बहुत ही अच्छी बनी थी। बाबर और अबुल्फ़ज्ल ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है।

बीच में ग्वालियर फिर स्वतन्त्र हो गया; इसलिए बाबर ने एक बहुत बड़ी फ़ौज भेज कर उसे पुनर्वार जीता। जब शेरशाह का प्रभुत्व बढ़ा तब, १५४२ ईसवी में, ग्वालियर के मुसल्मान-गवर्नर अबुल् क़ासिम ने उसे शेरशाह को दे दिया। विक्रमादित्य के बेटे ने बहुत चाहा कि वह मुसल्मानों से ग्वालियर छीन ले। बड़ी वीरता से उसने ग्वालियर पर धावा किया। कई दिनों तक लड़ाई हुई। पर उसकी हार हुई और वह चित्तौर को भाग गया। १७६१ में गोहद के जाट राना भीमसिंह ने ग्वालियर को मुसल्मानों की डाढ़ से निकाला। कुछ काल में मराठों ने उसे छीन लिया। १७७९ में मेजर पोफम ने मराठों को वहां से निकाल कर उसे फिर गोहद के राना को दे दिया। १७८४ में महादजी सेन्धिया ने फिर उसे अपने कब्ज़े में कर लिया और १८०३ ईसवी में जनरल ह्वाइट ने फिर उसे छीना। पर १८०५ में अंग्रेजों ने उसे पुनर्वार मराठों ही के अधिकार में जाने दिया। १८४४ में, महाराजपुर और पनिहर की लड़ाइयों के बाद, फिर ग्वालियर पर अंगरेज़ों का दखल हो गया। इस तरह इस प्राचीन नगर की अनेक बार छीन छान हुई। उसके छीनने वालों में अनेक ऐसे होंगे जिनका नाम तक इस समय कोई नहीं जानता; नाम-शेषता भी जिनकी शेष नहीं रह गई। पर ग्वालियर अभी तक बना है; उसका किला भी यथास्थित है। जिस समय १७९४-१८०५ में दौलतराव सेन्धिया का अधिकार ग्वालियर पर हुआ उस समय उसने अपना लश्कर (पड़ाव) किले के दक्षिण तरफ़ डाला। कुछ दिनों में सेना के तम्बू तो उखड़ गये पर पड़ाव वहाँ पर वैसे ही पड़ा रहा। धीरे धीरे वहां पर एक शहर बस गया। उसीका नाम लश्कर पड़ा। महाराष्ट्र लोग ग्वालियर को लश्कर ही कहते हैं। लश्कर ही इस समय सेन्धिया की राजधानी है। इस शहर का सराफ़ा बाज़ार देखने लायक है। उसकी सड़क बहुत चौड़ी है और दूर तक चली गई है। उसके दोनों ओर पत्थर के ऊंचे ऊंचे मकान हैं। फूलबाग नामक एक बहुत ही सुन्दर उद्यान में महाराजा सेन्धिया का नया महल है। वह शहर से बिलकुल मिला हुआ है। लश्कर के बीच में बड़ा यानी पुराना महल है। बड़े बड़े सरदारों और राजकर्मचारियों के मकान भी वहीं आस पास, हैं।

नई इमारतों में विक्टोरिया-कालेज, डफ़रिन-सराय, मेहमान-घर (Guest House), महाराजा सेन्धिया का महल और जयेन्द्रभवन नामक प्रासाद देखने को चीजें हैं।

ग्वालियर के पास एक जगह मुरार है। वहां पर पहले अंगरेज़ी छावनी थी। पर गवर्नमेंट ने उसके बदले झाँसी लेकर, मुरार सेन्धिया को दे दिया। मुरार एक बहुत छोटी, पर बहुत साफ़ और स्वास्थ्यकर, जगह है।

ग्वालियर का नाम लेने से जुदे जुदे तीन शहरों का बोध होता है। मुरार, लश्कर और पुराना ग्वालियर। इनमें से लश्कर की दैनन्दिन उन्नति हो रही है और ग्वालियर की अवनति। पुरानी चीज़ की क़दर अवश्य ही कम हो जाया करती है। फिर भी ग्वालियर में कई ऐसी चीजें विद्यमान हैं जिनकी अब तक क़दर होती है।

ग्वालियर में एक बहुत ही सुन्दर पुरानी जुमा-मसजिद है। गिलट किये हुए उसके गगनभेदी मीनार और गुम्बज़ अभी तक देखने लायक हैं। उसकी मिहराबों पर क़ुरान की आयतें बड़ी सुघराई से खुदी हुई हैं। स्लीमन साहब ने अपनी रैम्बल्स (Rambles) नामक किताब में उसकी ख़ूब तारीफ की है। शहर के बाहर महम्मद ग़ौस नामक एक महात्मा की क़ब्र है। बाबर और अकबर के समय में महम्मद ग़ौस की बड़ी महिमा थी। यह इमारत बिलकुल पत्थर की है और मुसल्मानी ज़माने की पहली इमारतों में यह बहुत अच्छी समझी जाती है। यह क़ब्र अकबर के समय में बनी थी। इसका क्षेत्रफल १०० वर्गफुट है। इसके चारों तरफ चार मीनार हैं। इसका पत्थर कुछ कुछ पीलापन लिये हुए है। इसका प्राङ्गण ४३ वर्गफुट है और दीवारें साढ़े ५ फुट ऊँची हैं। इसका मण्डप भी खूब ऊँचा है। इसमें जाली का जो काम है वह कहीं कहीं पर बहुत ही खूबसूरत है।

पुराने ग्वालियर में विख्यात गायक तानसेन की समाधि है। वह बिलकुल खुली हुई है और छोटी है। उसका क्षेत्रफल सिर्फ २२ वर्गफुट है। इस समाधि के पास इमली का एक पेड़ है। गायक लोग उसका बड़ा मान करते हैं; उसकी पूजा तक करते हैं। उसकी पत्तियों को वेश्यायें बड़े आदर से चाबती हैं। पत्तियां न मिलने पर वे उसकी छाल तक खा जाती हैं। उनका ख़याल है कि ऐसा करने से उनकी आवाज़ बहुत ही मीठी और सुरीली हो जायगी। मालूम नहीं, इस समय यह इमली बनी हुई है या कि छाल डाल समेत नर्त्तकियां उसे हजम कर गईं।

ग्वालियर में सबसे अधिक दर्शनीय इमारत वहांका पुराना क़िला है। वह इतना मज़बूत है कि कोई कोई उसे हिन्दुस्तान का जिबराल्टर कहते हैं। जिबराल्टर का वर्णन ठाकुर गदाधर सिंह ने अपनी "यडवर्ड-तिलक-यात्रा" में खूब किया है। यह किला एक पहाड़ी पर बना हुआ है। दूर से देखने में वह पहाड़ का एक छोटा सा टुकड़ा मालूम होता है; क़िला नहीं मालूम होता। जिस पहाड़ी पर वह बना हुआ है वह शहर से ३०० फुट ऊँची है। वह उत्तर-दक्षिण पौने दो मील लम्बी है। चौड़ाई उसकी ६०० फुट से २८०० फुट तक है। उसकी दीवारें ३० से ३५ फुट तक ऊँची हैं। इस क़िले के भीतर कई चीजें दर्शनीय हैं। उनमें से मान-मन्दिर, कर्ण-मन्दिर, विक्रम-मन्दिर इत्यादि पुरातन राजप्रासाद और सास-बहू का मन्दिर, तेली का मन्दिर और कई एक जैन मन्दिर और मूर्तियां मुख्य हैं। क़िले के ऊपर चढ़कर चारों तरफ़ देखने से ग्वालियर की अपूर्व शोभा एक ही साथ आँखों के सामने आ जाती है। सब ओर पर्वत ही पर्वत देख पड़ते हैं! यहां तक कि धवलपुर तक की पहाड़ियां दिखलाई देती हैं। ग्वालियर के पास गेरू की अनेक पहाड़ियां हैं; उनकी शोभा विलक्षण ही जान पड़ती है। वर्षा ऋतु में, जब सब पर्वतमालायें हरी भरी हो जाती हैं तब, क़िले के ऊपर चढ़कर उसके चारों तरफ़ देखने से नेत्र निर्निमेष होकर उस प्राकृतिक दृश्य में ऐसे अटक जाते हैं मानों वे वहां पर जड़ दिये गये हों। क़िले में प्रवेश करने का जो मार्ग उत्तर-पूर्व की तरफ़ है उसमें ६ फाटक हैं। पहले का नाम आलमगीरी फाटक है। औरङ्गजेब के वक्त में ग्वालियर के मुसल्मान-गवर्नर ने उसे १६६० ईसवी में बनवाया था। यह फाटक सादा है। उसके भीतर एक बड़ा कमरा है, जहां मुसलमानी न्यायाधीश बैठ कर न्याय करते थे। इसी लिए उसका नाम कचहरी है।

दूसरे फाटक का नाम बादलगढ़ है। राजा मानसिंह के चचा का नाम बादलसिंह था। उन्हीके नाम पर इसका नाम करण हुआ है। उसके बाहर एक हिंडोला पड़ा रहता था इससे लोग इसे हिंडोलाफाटक भी कहते हैं। यह हिन्दू नमूने का फाटक है; और अच्छा बना है। यहांपर एक लोहे की चद्दर है। उसपर एक लेख खुदा है। उसमें लिखा है कि ग्वालियर के गवर्नर सैयद आलम ने १६४८ ईसवी में उसकी मरम्मत कराई।

यहांपर, पहाड़ी के नीचे, दाहनी तरफ़, मूजरी-महल नामका सुन्दर राज-प्रासाद है। राजा मानसिंह ने उसे अपनी प्यारी रानी मूजरी के लिए बनवाया था। वह ३०० फुट लम्बा और २३७ फुट चौड़ा है। वह दो मंजिला है। वह पत्थर काटकर बनाया गया है। इस समय वह उजाड़ पड़ा है।

तीसरे फाटक का नाम भैरव-दरवाज़ा है। भैरवसिंह नाम का एक कछवाहा राजा यहां हो गया है। उसीके नाम से यह फाटक प्रसिद्ध है। इस पर भी एक लेख है। वह १४८५ ईसवी का है। उसके एक ही वर्ष बाद प्रसिद्ध राजा मानसिंह ग्वालियर की गद्दी पर बैठे थे। चौथा फाटक गणेश-दरवाज़ा है। वह १४२४-१४५४ ईसवी के बीच का बना है! उसके बाहर "कबूतरख़ाना" नाम की एक जगह है। वहीं ६० फुटx३९ फुटx२५ फुट का एक गहरा तालाब है। उसका नाम नूर-सागर है। उसमें ख़ूब पानी रह सकता है। यहीं महात्मा ग्वालप का एक मन्दिर है। उसके पास ही मुसलमानों ने एक छोटी सी मसजिद खड़ी कर देने की कृपा की है। १६६४ ईसवी का खुदा हुआ एक मुसलमानी शिला-लेख उसपर जगमगा रहा है। उसका मतलब है-"यह दुष्ट ग्वालों का मन्दिर था; इसमें उसकी मूर्ति भी थी। वह तोड़ डाली गई ओर मन्दिर बन्द कर दिया गया। खूब चमकीले चन्द्रमा के समान सारी दुनिया को रोशन करने वाले आलमगीर (औरङ्गजेब) ने अपने राज्य-काल में यह मसजिद बनवाई। मसजिद नहीं बल्कि इसे स्वर्ग-मन्दिर कहना चाहिए।" सम्भव है जो मन्दिर इस समय ग्वालप के नाम से प्रसिद्ध है वह पीछे से बना हो।

पांचवे फाटक, लक्ष्मण-दरवाजे, पर पहुंचने के पहले एक मन्दिर मिलता है। वह चतुर्भुज के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। वह पहाड़ की ठोस चट्टान को काट कर बनाया गया है। वह विष्णु का मन्दिर है और बहुत पुराना है। वह ८७६ ईसवी का बना हुआ है। उसमें एक शिलालेख भी है। यहाँपर एक तालाब है; उसके सामने ताजनिज़ाम की क़ब्र है। इब्राहीम लोधी के समय में वह देहली के अमीरों में था। १५१८ इसवी में इस फाटक पर हल्ला करते वक्त वह मारा गया था। हथियापौर, अर्थात् हाथी-दरवाजा, मानसिंह ने बनवाया था। वह उसके महल से मिला हुआ है। यहीं पर पूर्वोल्लिखित हाथी की एक मूर्ति थी।

इस किले में उत्तर पश्चिम की तरफ़ तीन फाटक हैं और दक्षिण- पश्चिम की तरफ़ आने जाने का जो रास्ता है उसमें पांच । इन पांचों में से तीन फाटकों को जनरल व्हाइट ने तोड़ डाला था।

ग्वालियर के किले के भीतर पानी का बड़ा सुकाल है। उसमें अनेक कुर्वे,तालाब और कुण्ड हैं । इसी कारण,उत्तरी हिन्दुस्तान में वह बहुत ही दृढ़ और अप्रवेश्य किला समझा जाता है। उसके भीतर सूर्य-कुण्ड सबसे पुराना है। वह २७५ ईसवी के लगभग बना था। वह ३५० फुट लम्बा और १८० फुट चौड़ा है। वह गहरा भी खूबvहै। उसके सिवा तिकोनिया-तालाब,जौहर-तालाब, सास-बहू का तालाब,गङ्गोला-तालाब और धोबी-तालाब आदि और भी कई तालाब हैं और सब बड़े बड़े हैं । जब अल्तमश ने ग्वालियर पर कब्जा किया था तब वहां की राजपूत स्त्रियाँ जौहर करके जल मरी थीं। जौहर तालाब उसीका स्मरण दिलाता है और है भी उसी जगह जहां जौहर नामी स्त्रीमेध यज्ञ हुआ था।

ग्वालियर के किले में ६ पुराने महल हैं। उनमें से गूजरीमहल का

जिक्र ऊपर आ चुका है। दूसरे का नाम मान-मन्दिर है । वह ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मानसिंह का महल है। वह १४८६–१५१६ के करीब बना था। १८८१ में उसकी मरम्मत की गई है। उसका नाम चित्रमन्दिर भी है। यह नाम इसलिये पड़ा है कि उसकी दीवारों पर चित्रों
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की बहुत अधिकता है। हंस,हाथी,मोर आदि के जो चित्र यहां पर बने हैं उनका रङ्ग अभी तक खराब नहीं हुआ है। देखने से जान पड़ता है कि अभी कल का है। चित्र भी बहुत सुन्दर और चित्ता- कर्षक हैं । इस महल के दो खण्ड ऊपर हैं और दो ही नीचे। परन्तु,आप जानते हैं,इसमें आजकल रहता कौन है ? इसमें रहते हैं बूढ़े बूढ़े चिमगादड़ों के कुटुम्ब ! पूर्व की तरफ़ वह ३०० फुट लम्बा और १०० फुट ऊँचा है और दक्षिण की तरफ़ बरबाद हालत में पड़ा है। इसमें जहां जहां पर गवाक्ष-जाल–जाली का काम- है,वहां वहाँ पर,बहुत बड़ी कारीगरी की गई है। इस महल की सुन्दरता की वे लोग भी प्रशंसा करते हैं जो पुराने जमाने की यञ्जिनियरी की जांच करने में बहुत योग्य समझे जाते हैं।

मान-मन्दिर से उत्तर कर्ण-मन्दिर है। उसे कीर्ति-मन्दिर भी कहते हैं । वह दो मज़िला है। उसका एक कमरा ४३ फुट लम्बा और २८ फुट चौड़ा है। उसमें बहुत ही खूबसूरत खम्भों की दो लैनें हैं;उन्हींके सहारे उसकी छत थंभी है। इस महल में पलस्तर का काम देखने लायक है।

मानमन्दिर और कर्णमन्दिर के बीच में विक्रम-मन्दिर है।

किलेके उत्तर तरफ़ जहांगीर और शाहजहाँ के महल हैं। उनमें कोई विशेषता नहीं।

इस किले के भीतर हिन्दुओं के ११ मन्दिर हैं।

(१) ग्वालप का मन्दिर जैन-मन्दिर
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(२) चतुर्भुज का मन्दिर
(८) सूर्यदेव ।
(३) जयन्ती थोरा
के मन्दिर
(९) मालदेव
(४) तेली का मन्दिर
(१०) धोंडादेव
(५-६ ) सास-बहू का मन्दिर
(११) महादेव

ये जितने मन्दिर हैं सब को सुसलमानों ने थोड़ा बहुत छिन्न-भिन्न कर डाला है;परन्तु अब तक उनकी पूजा-आर्चा कभी कभी होती है और दूर-दूर से लोग उनको देखने आते हैं। ग्वालियर और चतुर्भुज के मन्दिरों का नाम ऊपर आ चुका है। जयन्तो-थोरा में “थोरा” शब्द का क्या अर्थ है । समझ में नहीं आता। १२३२ ईसवी में अल्तमश ने उसको गिराकर नाम-शेष कर दिया। पर उसकी जगह अब तक मालूम है;वहां पर पन्द्रहवीं सदी के कुछ शिलालेख भी हैं।

तेली का मन्दिर एक प्रसिद्ध मन्दिर है। वह ग्यारहवीं शताब्दी का बना हुआ है। १८८१ में उसकी मरम्मत हुई है। लोगों को विश्वास है कि वह किसी तेली का बनवाया हुआ है। वह ६० वर्गफुट में बना हुआ है । ग्वालियर में इससे ऊंची इमारत और कोई नहीं।

इसका द्वार ३५ फुट ऊँचा है;इसके ऊपर, बीच में, गरुड़ की एक बहुत अच्छी मूर्ति है । आदिमें वह विष्णु का मन्दिर था ; परन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी से वह शिवालय हो गया है। यह सारी इमारत सैकड़ों प्रकार की मूर्तियों से भरी पड़ी है। इसकी मूर्तियां इत्यादि जो तोड़-फोड़ डाली गई थीं ; या जो गिर पड़ी थी, ढंढ़ ढंढ़ कर मन्दिर के पास रख दी गई हैं।
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सास-बहू के नाम के दो मन्दिर हैं-एक बड़ा, दूसरा छोटा। लोगों का खयाल है कि किसी “सास-बहू ने उनको बनाया था। कोई कोई इन मन्दिरों का नाम “सहस्र बाहु” बतलाते हैं। परन्तु ये दोनों नाम निर्मूल जान पड़ते हैं। क्योंकि बड़े मन्दिर के भीतर बरामदे में एक बहुत लम्बा शिलालेख खुदा हुआ है। उसमें इसका नाम “पद्मनाथ” लिखा है । यह शिलालेख सम्बत् ११५० अर्थात् सन् १०९३ ईसवी का है। यह मन्दिर महीपाल नामक कछवाहा (कच्छ- पारि) राजा का बनवाया हुआ है। बड़ा मन्दिर १०० फुट लम्बा और ६३ फुट चौड़ा है। उँचाई उसकी इस समय सिर्फ ७० फुट है। परन्तु जनरल कनिहाम अनुमान करते हैं कि किसी समय वह १०० फुट ऊँचा था। इस मन्दिर में पत्थर का काम बहुत ही अच्छा है। इसके बीच का कमरा ३१ वर्गफुट है । इसकी छत बहुत बड़ी और भारी है। उसका बोझ थांभने में सहायता देने के लिए चार बड़े बड़े खम्मे हैं। छत को देखकर आश्चर्य होता है। उसकी बनावट को देखकर उसके बनाने वाले कारीगरों की सहस्र मुख से प्रशंसा करने को जी चाहता है। छोटा मन्दिर चारों तरफ़ से खुला हुआ है। उसमें १२ खम्भे हैं । खम्भे सब गोल हैं। उसमें,और बड़े मन्दिर में भी,नर्तकी स्त्रियों की बहुत सी मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। उनमें बड़ी कारीगरी दिखलाई गई है।

सास-बहू के बड़े मन्दिर में जो शिलालेख है उसके विषय में हमको कुछ कहना है । यह लेख पहले पहल हमने डाकर राजेन्द्र लाल की "इण्डोआर्यन्स' नामक पुस्तक में देखा। परन्तु वहां पर यह बहुत
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की त्रुटित दशा में था। इससे इसकी तरफ हमारा ध्यान अच्छी तरह नहीं मायान पर "इण्डियन ऐण्टिक्केरी” में जब हमने कोलहान साहब के द्वारा सम्पादित किया हुआ यह लेख देखा तब हम इसकी सुन्दरता और रचना-वैचित्र्य पर मोहित हो गये। इस लिए इसकी मूललिपि देखने के लिए हमारे चित्त में प्रवल इच्छा जागृत हो उठी। इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए हम शीघ्र ही झांसी से ग्यालियर गये। वहां हमने इस प्रशस्तिरूप लेखको प्रत्यक्ष देखा और किले में जितनी इमारते देखने लायक थीं उनको भी देखा ।

गोपगिरि (ग्वालियर ) में पद्माल नामक एक राजा था। उसने "मेरु-पर्वत के समान” एक बहुत ऊँचा विष्णु-मन्दिर बनवाना आरम्भ किया। वह बन न चुका था कि राजा मर गया। उसके पीछे उसके भाई सूर्यपाल का पुत्र महीपाल राजा हुआ। उसने सिंहासन पर बैठते ही दो काम किये । एक तो उसने इस मन्दिर को पूरा किया;दूसरे राज्यकन्या के लिए एक अच्छा वर ढूंढ़ कर उसका विवाह कर दिया। इस विषय का शिलालेख सुनिए-

तच्च द्वयं कृतमनेन विवेकभाजा
 
राजात्मजा मदनपालवराय दत्ता।
श्री पद्मनाथ सुरमन्दिरमेतदुच्चै-
 
नीतं समाप्तिमविनाशि यशःशरीरम् ॥

कनिंहाम साहब ने उसकी ऊँचाई जो १०० फुट अनुमान की है

सो ठीक मालूम होती है। इस शिलालेख में, इस मन्दिर की उँचाई के विषय में इस तरह लिखा है
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प्रजाभ! तेन क्षितितिलकभूतेन सदनं
 
हरेधर्मज्ञन त्रिदशसहशा कारितमदः।
वदाम्यस्योच्चैस्त्वं कथमिव गिरा यस्य शिखरं
 
समारूढ़ः सिंहो मृगमिव मृगाङ्कस्थमशितुम् ॥

अर्थात् इस प्रजापालक, धर्मज्ञ, नरपतितिलक, पद्मपाल राजा के बनवाये हुए इस विष्णु-मन्दिर को उँचाई मैं वाणी से किस प्रकार वर्णन करू? यह तो इतना ऊँचा है कि इसके शिखरपर बैठा हुआ सिंह, मृगाङ्क (चन्द्रमा) के मृग को, मानो निगल जाना चाहता है।

इस मन्दिर में जो शिलालेख है वह प्रशस्ति के रूप में है। उसमें ११२ श्लोक हैं। उनमें पहले पद्मपाल के वंशजों का थोड़ा थोड़ा वर्णन है;फिर स्वयं पद्मपाल का। पद्मपाल का वर्णन कुछ अधिक है। परन्तु लेख का अधिक भाग राजा महीपाल की तारीफ़ से भरा हुआ है। महीपाल ही की आज्ञा से यह प्रशस्ति बनी थी। संस्कृत में सब से अच्छे काव्य का यह एक उत्कृष्ट नमूना है। यह कविता मणिकण्ठ सूरि नामक कवि की रचना है। माहुल सिंहराज और पद्मनाभ नाम के दो शिल्पियों ने इस प्रशस्ति को खोदा था । मणिकण्ठ ने इसकी रचना ११४९ वैक्रमीय संवत में की थी। मणिकण्ठ जी अपनी तारीफ़ इस प्रकार करते हैं-

भारद्वाजेन मीमांसान्यायसंस्कृत बुद्धिना।
कवीन्द्ररामपौत्रेण गोविन्दकविसूनुना ।। १०४ ॥
कविना मणिकण्ठेन सुभाषितसरस्वता।
प्रशस्तिर्द्विजमुख्येन रचितेयमनिन्दिता ।। १०५॥
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मणिकण्ठ के पिता भी कवि थे और पितामह भी। फिर मणिकण्ठ भला क्यों न अच्छे कवि होते ? आप कवि भी थे, नैय्यायिक भी थे और मीमांसक भी थे। सुभाषित के तो आप समुद्र ही थे! मणिकण्ठ की यह पिछली उक्ति हमको बहुत अच्छी लगी। क्योंकि अपने को सुभाषित का समुद्र बतलाने में मणिकण्ठ ने गर्वोक्ति नहीं की;बात सच्ची कही है। आपने इस प्रशस्ति में जो महीपाल की प्रशंसा की है उसके अन्तर्गत आपने २५ श्लोक ऐसे कहे हैं जो दो दो अर्थों से भरे हुए हैं और बड़े ही अपूर्व हैं । इन श्लोकों में आपने महीपाल राजा से जिनकी जिनकी समता दिखलाई है उनके नाम हम नीचे देते हैं-

१ ब्रह्मा
१७ कर्ण
९ सूर्य
२ विष्णु
१८ समुद्र
१० चन्द्रमा
३ बलभद्र
१९ सिंह
११ व्यास
४ काम
२० हाथी
१२ भगीरथ
५शड्कर
२१ कमल
१३ रामचन्द्र
६ कार्तिकेय
२२ कैरव
१४ युधिष्ठिर
७इन्द्रं
२३ आभूषण
१५ भीम
८ कुवेर
२४ चन्दन
१६ अर्जुन
२५ कृष्ण
 

प्रति श्लोक के चौथे चरण में कवि ने महीपाल से यह पूछा है कि जिनकी समता आप में पाई जाती है, बतलाइए, उनके आप कौन हैं ? अर्थात् उनसे आपका क्या सम्बन्ध है ? विषयान्तर हुआ

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दृश्य-दर्शन

जाता है;परन्तु यह कविता इतनी अच्छी है कि हम इसके दो एक उदाहरण दिये बिना नहीं रह सकते। महीपाल का साम्य विष्णु में देखिये-

लक्ष्मीपतिस्त्वमसि पङ्कजचक्र चिन्हं
पाणिद्वयं वहसि भूप भुवं बिभर्षि ।
श्यामं वपुः प्रथयसि स्थिति हेतुरेक-
स्त्वंकोऽसि नोतिविजितोद्धव माधवस्य । ३६

आप लक्ष्मीपति अर्थात् सम्पत्तिमान हैं;आपके करद्वय में कमल और चक्र के चिन्ह हैं:आप पृथ्वी को धारण (पालन) करते हैं; आपका शरीर श्यामल है;आप ही की स्थिति से सब (प्रजा) की स्थिति है;नीति में आपने उद्धव को भी जीत लिया है। अत- एव, कहिए, आप विष्णु के कौन हैं ? क्योंकि वे भी लक्ष्मीपति हैं;उनके भी हाथों में कमल और चक्र हैं;उन्होंने भी (वराह होकर )पृथ्वी को धारण किया है;उनका भी शरीर श्यामल है;पालन- कर्ता होने के कारण वे भी सबकी स्थिति के हेतु हैं;और उन्होंने भी उद्धव को नीति में परास्त किया है।

अब कमल की समता देखिये-

सद्भ श्रियस्त्वमसि मित्र कृत प्रमोद-
 
स्त्वं राजहंससमलं कृतपादमूलः।
स्वामिन्नधः कृतजड़ोऽसि गुणाभिरामः
 
कस्त्वं स्मितात्यमुखपङ्कज पङ्कजस्य ॥१५॥
अखिले कमल के समान मुसकान-युक्त मुख-कमल को धारण
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ग्वालियर

करने वाले हे स्वामिन् आप लक्ष्मी के घर हैं,(राजों के यहां लक्ष्मी की कमी नहीं); मित्रों से आपको आनन्द प्राप्त होता है;राजों में हंस के समान शोभायमान राज-वर्ग आपके चरणों की शोभा बढ़ाया करते हैं अर्थात् पैरों पर लोटा करते हैं; जड़ों को आपने नीचा दिखाया है ; शौर्य, औदार्य आदि गुणों से आप रमणीय हो रहे हैं। अतएव कृपा करके बतलाइए, आप कमल के कौन हैं ; क्योंकि कमल में भी यही सब बातें पाई जाती हैं। वह भी लक्ष्मी का घर है (कहते हैं कमल में लक्ष्मी रहती हैं); मित्र (सूर्य) के उदय से उसे भी प्रसन्नता होती है ; उसके भी पादमूल (जड़) की शोमा राजहंस पक्षी बढ़ाते हैं ; उसने भी जल (जड़-ल और ड़ का अमेह माना जाता है) को नीचे कर दिया है, अर्थात् वह सदैव जल के ऊपर रहता है ; उसमें भी गुणों (तन्तुओं) की रमणीयता रहती है।

ग्वालियर के किले में शेष जो चार मन्दिर हैं वे विशेष प्रसिद्ध नहीं । इसलिए उनके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं ।

यहां पर जैनों का भी एक मन्दिर है। वह ११०८ ईसवी के लगभग का बना हुआ है। वह हथियापौर और सास-बहू के मन्दिरों के बीच में है। किले की पूर्वी दीवार से सट कर वह बना हुआ है। उसे पहले बहुत कम लोग जानते थे। १८४४ ईसवी में जनरल कनिहाम ने उसका पता लगाया और उसकी प्रसिद्धि की।

किले की दीवार के ठीक नीचे पहाड़ी के भीतर, चट्टानों को काट

कर जो मूर्तियां यहां पर बनी हैं वे उत्तरी भारतवर्ष में अद्वितीय हैं। वे अनेक हैं और बहुत बड़ी बड़ी हैं। पर्वत में गुफायें खोदी गई हैं
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दृश्य-दर्शन

उन्हीं के भीतर पत्थर काट काट कर ये मूर्तियां बनाई गई हैं। सब मिला कर २१ मूर्तियां है। कोई कोई मूर्ति ५० फुट से भी अधिक ऊँची है। ये मूर्तियां आदिनाथ, नेमिनाथ, महावीर और चन्द्रप्रभ आदि जैन तीर्थङ्करों की हैं और प्रायः पन्द्रहवीं शताब्दी की बनी हुई हैं। इनमें से बहुतेरी मूर्तियां बाबर के हुक्म से, १५२७ ईसवी में तोड़ डाली गई थीं। उस समय उनको बने हुए कोई ६० ही वर्ष हुए थे। इस विषय में बाबर ने अपनी दिनचर्या में एक जगह लिखा है-"जैनों ने इस पहाड़ी को काट कर मूर्तियां बनाई हैं। कोई मूर्ति छोटी है;पर कोई चालीस चालीस फुट ऊँची हैं। ये सब मूर्तियां नङ्गी हैं। उन पर कपड़े का एक टुकड़ा भी नहीं। यह स्थान बहुत रमणीय है परन्तु इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि यहां मूर्तियों की अधिकता है। मैंने हुक्म दिया था कि सब मूर्तियां बरबाद कर दी जायँ । पर वे बिलकुल तोड़ी नहीं गई; केवल छिन्न भिन्न कर डाली गई। अब मैंने सुना है कि टूटे हुए सिरों की जैनों ने मरम्मत कराकर उन्हें यथास्थान जुड़वा दिया है।” तोमर-वंशी राजों के समय के कई शिलालेख इन गुफाओं के भीतर हैं। ग्वालियर के किले में ये गुफ़ा-मन्दिर और मूर्तियां भी देखने की चीज़ हैं।

बादशाही कारागार किले के पश्चिम तरफ़ है। उसमें ९ कमरे हैं। इसलिए उसका नाम नौचौकी पड़ गया है। यहीं पर औरङ्गजेब ने अपने बेटे महम्मद और अपने भाई दारा और मुराद के बेटों को कैद किया था । [दिसम्बर १९०४