दृश्य-दर्शन/औरङ्गाबाद, दौलताबाद और रौज़ा

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औरङ्गाबाद, दौलताबाद और रौज़ा

ग्रेट इंडियन पेनिन्शुला रेलवे के मन्माड़ स्टेशन से जो रेलवे लाइन हैदराबाद को गई है उसी पर औरङ्गाबाद है। मन्माड़ से वह कोई ७० मील है। किसी समय दक्षिण में औरङ्गाबाढ़ की वैसी ही प्रसिद्धि थी जैसी इस तरफ़ देहली की थी। वह देहली का स्थानवर्ती था। औरंगज़ेब ने अपने शासन का पिछला भाग दक्षिण ही में व्यतीत किया। उस समय औरङ्गाबाद उसकी राजधानी था। निज़ामशाही बादशाहों के आखिरी बादशाह के परम प्रतापशाली सचिव-सेनापति मलिक अम्बर ने, १६१० ईसवी में इस नगर की नींव डाली थी। इसका पहला नाम खिरकी था, परन्तु जबसे औरङ्गजेब वहां पधारे तब से वह औरङ्गाबाद हुआ। यह इस समय निज़ाम के राज्य में है। इसकी आबादी १०,००० के लगभग है। [ ७६ ]औरङ्गजेब के समय के बने हुए शाही महल, मसजिदें और मकानात, इस नगर में, सैकड़ों वर्ष बेमरम्मत पड़े रहने के कारण बहुत कुछ उज़ाड़ हो गये थे, यहां तक कि उनके आस पास प्रचण्ड जङ्गल हो गया था और भालू, भेड़िये और गीदड़ोंने उनको अपना घर बना लिया था। कुछ समय हुआ, सर सालारजङ्ग ने इस जङ्गल को कटाकर शाही इमारतों को साफ़ करा दिया। साफ़ कराने पर उसमें अनेक जलाशय, फौवारे और महल निकले। उनमें से प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों की मरम्मत भी करा दी गई। तब से जो लोग यलोरा की गुफायें देखने जाते हैं वे इसे भी अवश्य देखते हैं; क्योंकि वहां से यह सिर्फ ८ मील है। इस समय, इस नगर में, औरङ्गज़ेब के क़िले का केवल एक ही फाटक शेष रह गया है; परन्तु यह उस किले का द्वार है जिसके भीतर बादशाही दरबार में हिन्दुस्तान के ५० से भी अधिक राजे महाराजे हाज़िर रहते थे। औरङ्गजेब के जीवनकाल में औरङ्गगाबाद ने अपूर्व वैभव का उपभोग किया; परन्तु उसके मरते ही उसके उत्तराधिकारियों ने उसका एकबारगी ही परित्याग कर दिया। अतएव उसका अल्पकालिक वैभव सहसा नष्टप्राय हो गया। औरङ्गाबाद में जो क़िला था उसका नाम "किला एराक" था। उसके भीतर औरङ्गज़ेब की जामै मसजिद अभी तक विद्यमान है। उसको लोग आलमगीरी मसजिद भी कहते हैं। उसको मलिक अम्बर ने आरम्भ किया; परन्तु वह उसे पूरा नहीं कर सका। औरंगज़ेब ने उसकी समाप्ति की। यह मसजिद यद्यपि छोटी है तथापि बहुत ही सुन्दर बनी हुई है और अबतक अच्छी दशा में है। इसके दरवाज़े पर जो काम है वह बड़ा ही मन[ ७७ ]मोहक है। इसपर तार की पतली जाली लगी हुई है। इसलिए पक्षी अथवा और कोई जीव इसके भीतर नहीं जा सकते। इस कारण यह बहुत साफ़ रहती है।

इस नगर में औरङ्गज़ेब की लड़की ज़ेबुन्निसा का महल भी देखने लायक़ है। वह उन्हीं इमारतोंमें से है जिनके चारों ओर घोर जङ्गल उग आया था। इसके सिवा कई पुरानी बारादरियां, दीवानखाने और शाही मकान हैं, जो अपने पूर्व वैभव का कुछ कुछ अनुमान देखने वाले के मन में उत्पन्न करते हैं।

औरङ्गजेब की बेगम रबिअब्दुर्रानी का यहां बहुत ही अच्छा मक़बरा है। उसकी उपमा आगरे के ताजमहल से दी जाती है। उसके फाटक के किवाड़ों पर पीतल का पत्र जड़ा हुआ है और उसपर नक्काशी का काम है। वहांपर यह एक लेख है—"इस दरवाज़े को १०८९ हिज़री में, हैबतराय ने प्रधान कारीगर अनाउल्ला से बनवाया।" समाधि-स्थान सङ्गमरमर के एक ऊँचे चबूतरे पर है। उसके चारों ओर सङ्गमरमर की जाली है। उसका काम बहुत ही मनोहर है। यह जाली समाधि को चारों ओर से घेरे हुए है। निज़ाम की गवर्नमेंट ने अनन्त धन खर्च कर के इस रौज़े की मरम्मत कराई है। मरम्मत क्या, उसे बिलकुल नया कर दिया है। इसके फाटक की छत पर जो काम है उसे देख कर बुद्धि नहीं काम करती; वह अपूर्व है।

औरंगाबाद में वहां की पनचक्की भी दर्शनीय है। एक सुन्दर बाग़ में विमल जल से भरा हुआ एक तालाब है। इस तालाब में मछलियों की अतिशय अधिकता है। एक फुट से लेकर तीन फुट तक की [ ७८ ]
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मछलियां उसमें खेला करती हैं। इस तालाब का पानी एक दूसरे तालब में गिरता है। यह तालाब पहले की अपेक्षा छोटा है। इसका भी पानी एक छोटी सी नहर में गिरता है । यद्यपि इसका नाम पनचक्की है और यह एक प्रपात है, तथापि इसमें भी बाबा शाह मुसाफिर चिश्ती की कब है। ये औरंगजेब के धर्मोपदेशक थे। पहले तालाब और बाग के आगे एक और तालाब है । यह पहले से भी बड़ा है। इसमें यह विलक्षणता है कि यह धरातल पर नहीं, किन्तु आकाश में लटका हुआ है । अत्यन्त दृढ़ और प्रकण्ड खम्भों के ऊपर धन्वाकार मेहराबों पर पक्का जलगृह बना हुआ है; उसीमें अनन्त सलिल-समूह भरा है !

औरंगाबाद के पास एक पहाड़ी है, वह कोई ५०० फुट ऊंची है। २५० फुट की उंचाई पर उसमें यलोरा की जैसी ५ गुफायें हैं । परन्तु ये वैसी अच्छी और वैसी प्रसिद्ध नहीं जैसी यलोरा की गुफायें हैं। इनमें से दूसरे नम्बर की गुफा बौद्धों का चैत्य है; और तीसरे तथा चौथे नम्बर की गुफ़ायें विहार हैं । इनमें बुध,पद्मपाणि और वज्रपाणि आदि बोधि-सत्वों की अनेक मूर्तियां हैं। बुध की एक प्रतिमा ८१२ फुट ऊंची है !

औरंगाबाद से दौलताबाद ८ मील है। वहां पर भी रेलवे स्टेशन

है। उसका प्राचीन नाम देवगिरि है। वहां का किला समुद्र के धरातल से ५०० फुट ऊंची चद्वान पर बना हुआ है। वह तेरहवें शतक में बना था। किले की चारों ओर ऊंची दीवार है, उसमें निशान लगाने के लिये छेद हैं,और तोपें रखने के लिए यथा-स्थान बुर्ज बने हुए हैं। [ ७९ ]
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औरङ्गाबाद, दौलताबाद और राजा

नीचे खाई है। खाई के आगे और चार दीवारें बहुत दृढ़ बनी हैं। उनको पार करने पर खाई तक पहुंचने की नौबत आती है। इसके फाटकों पर भाले के समान लोहे की नोकदार कीलें गड़ी हुई हैं। इनके कारण बड़े से बड़े मत्त गजेन्द्र भी उनपर आघात करके उन्हें तोड़ नहीं सकते । इसके भीतर एक मीनार है। इस मीनार को मुसलमानों का विजय-स्तम्भ समझना चाहिए। १४३५ ईसवी में पहले पहल जब उन्होंने देवगिरि को हिन्दुओं से जीता तब यह मीनार बनाया। यह बात यहां के एक फ़ारसो शिलालेख से सूचित है। यहां पर एक बुर्ज में अरब के रहने वाले महम्मद हसन नाम के कारीगर की बनाई हुई “किलै शिकन” नामक विशाल तोप रखी है। यह कोई २२ फुट लम्बी है। इसके मुंह का व्यास ८ इञ्ज है। इस किले में एक इससे भी भारी तोप है । उस पर जो लेख खुदा है उसमें इसका नाम “प्रलयङ्करी" लिखा है। औरंगजेब ने एक योरोपियन के द्वारा इसे सबसे ऊंची बुर्ज पर चड़ाया था। वह वहां किसी प्रकार न उठाई जा सकती थी। इसलिए औरंगजेब ने उस योरोपियन को अपने देश जाने से रोक दिया; और कह दिया कि जबतक वह उसे बुर्ज पर न चढ़ा देगा उसे छुट्टी न मिलेगी और वह हिन्दुस्तान से बाहर कदम न रख सकेगा । अन्त में इस धमकी से उत्तेजित होकर, उसने, किसी प्रकार,उसे बुर्ज पर चढ़ा हो दिया। इस किले में एक बड़ी बिचित्र बात है। इसमें एक जगह ऊपर १ इञ्च मोटी और २० फुट लम्बी लोहे की

चद्दर जड़ी हुई है। युद्ध के समय वह तपाकर आग के समान लाल कर दी जाती थी। शत्रु यदि किले के भीतर पहुंच भी जाय तो वहां [ ८० ]
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से आगे वह किसी प्रकार न बढ़ सके। बढ़ने से उसे वहीं झुलस जाना पड़े।

किले के भीतर प्राचीन हिन्दू राजाओं के महलों के खंडहर दूर तक देखे जाते हैं। दो एक मन्दिर भी उजाड़ दशा में पड़े हैं। प्राचीन नगर का अस्तित्व बिलकुल ही जाता रहा है। उसकी जगह पर,इस समय, एक छोटा-सा गांव है । १२९३ ईसवी में अल्ला- उद्दीन ने देवगिरि पर कब्जा किया; परन्तु किले को वह न ले सका । बहुत दिनों तक वह किले को घेरे पड़ा रहा । कहते हैं, १८७ मन सोना ७ मन के करीब मोती, २५ सेर होरा और कोई ३०० मन चाँदी लेकर उसने किले का घेरा उठाया ! १३३८ ईसवी में मुहम्मद तुगलक ने देवगिरि का नाम दौलताबाद रक्खा; और देहली उजाड़ कर उसे आबाद करना चाहा। इस पागलपनमें उसे कहां तक सफलता हुई, यह विदित ही है।

रौजा का दूसरा नाम है खल्दाबाद । यह, इस समय, एक छोटा सा कसबा है। समुद्र के धरातल से २,००० फुट की ऊंचाई पर यह बसा हुआ है। औरंगाबाद से यह ८ मील और यलोरा को गुफाओं से कुल २ मील है। यहाँ बहुत से मकबरे हैं; इसी लिए इसका नाम रौज़ा है । दक्षिण के मुसलमानों का यह करबला है। जिनकी क़बरें यहां हैं उनमें से औरंगज़ेब, उसका दूसरा पुत्र आज़िमशाह, हैदराबाद के राजवंश का प्रतिष्ठापक आसफजाह, उसका पुत्र नासिरजङ्ग, मलिक अम्बर; थानाशाह आदि मुख्य हैं।

औरंगज़ेब की कब्र बहुत सादी है । उसको प्रसिद्धि उसके सादेपन

ही के कारण है। वह खुली हुई है। धूप और वर्षा से रक्षा का कुछ [ ८१ ]
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आरङ्गाबाद, दौलताबाद आर राजा

भी प्रबन्ध नहीं है। उसके आस पास बकुल के वृक्ष हैं; उन्हींकी थोड़ी बहुत छाया उसे मिलती है । कब्र की दोनों ओर ५ फुट ऊंची संगमरमर की मनोहर जाली है; उससे इस रौजे में कुछ थोड़ी-सी शोभा आ गई है। सुनते हैं,औरंगजेब ने कह रक्खा था कि उसकी समाधि में किसी प्रकार का आडम्बर न किया जाय । कुरान की आज्ञा के अनुसार वह बिलकुल सादी बने । जो अपने सगे भाइयों की हत्या से ज़रा नहीं सकुचा;जिसने अपनी निरपराध हिन्दू प्रजा पर घोर जुल्म किया; जिसने अपनी स्त्री को समाधि औरंगाबाद में ऐसी अच्छी बनावाई; कुरान के वचनों पर विश्वास करके उसीका अपने लिये आडम्बर विहीन कब्र बनवाने की आज्ञा देना आश्चर्य की बात है। और गजेब ने कह रक्खा था कि उसके मरने पर,उसकी बनाई हुई टोपियों की बिक्रो से जो कुछ मिले, उतना ही खर्च किया जाय। ये टोपियाँ कोई सात आठ रुपये को विकी । औरंगजेब की लिखी हुई कुरान की प्रतियों को बेचने पर, सब मिलाकर,८०५ रुपये मिले। यह रुपया गरीबों को बांट दिया गया था।

औरंगजेब को कब्र के कुछ ही दूर आगे उसके लड़के आज़िमशाह

की कब है । उसोके पास आज़िमशाह की बेगम की भी है। यहीं पर सैयद जैनुद्दीन की भी कब्र है। वह औरों की अपेक्षा अच्छी है। इन सैयद साहब की मृत्यु १३७० ईसवी में हुई। इसके किवाड़ों पर चाँदी की चदर जड़ी हुई है और सीढ़ियों में रंगबिरंगे पत्थर लगे हुए हैं। इसीके पास एक छोटे से कमरे में कुछ कपड़े हैं, जिनको लोग मुहम्मद साहब के बतलाते हैं। साल में केवल एक बार उनके दर्शन मुसलमान[ ८२ ]
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यात्रियों को मिलते हैं। जैनुद्दीन साहब की मसजिद भी, रौज़े में, देखने की चीज़ है।

औरंगज़ेब और आज़मशाह के मकबरे के सामने आसफजाह और उसकी बेगम की कों हैं। परन्तु इन दोनों से अधिक प्रसिद्ध और दर्शनीय ख्वाजा बुरहानुद्दीन अवलिया की कम है। १३४४ ईसवी में उनकी मृत्यु यहांपर हुई। १४०० चलों को लेकर उत्तरी हिन्दुस्तान से ये दक्षिण में मुसलमानी मज़हब फैलाने के लिए आये थे। यहां इज़रत महम्मद साहब की डाढ़ी के कुछ बाल हैं । सुनते हैं वे हर साल बढ़ते हैं ! परन्तु इससे भी अधिक विलक्षण एक और बात वहां के धर्मरक्षक यात्रियों को बतलाते हैं। वे कहते हैं कि इस रौज़े के तैयार हो जाने पर इसके और अपने खर्च के लिए ख्वाजा साहब के चेलों को बहुत कष्ट होने लगा इसलिए उन्होंने धन के लिए ख्वाजा साहब से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना कबूल हुई, और हर रोज रौज़े के फर्श से चांदी का एक पेड़ निकलने लगा । वह रोज उखाड़ लिया जाता था और उसकी चांदी बेंच दी जाती थी। इससे इतना रुपया इकट्ठा हो गया कि थोड़े ही दिनों में एक जागीर मोल लेली गई और खर्च की तंगी जाती रही। तबसे पेड़ उगना बन्द हो गया; परन्तु चांदी के फूल कुछ दिन तक फिर भी निकलते रहे। इसके प्रमाण में गच पर, एक जगह,चाँदी के कुछ टुकड़े चिपके हुए दर्शकों को दिखालाये जाते हैं !

(मई १९०४)