दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/सत्रहवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ६९ से – ७२ तक

 

सत्रहवां परिच्छेद।
प्रेमी।

जब बिमला ने देखा कि उसमान अन्यत्र चलागया तो मन में कुछ भरोसा हुआ कि ईश्वर चाहे तो अब बन्धन से छूट जाउं और शीघ्र उसका उपाय करने लगी।

कुछ देर बाद उसने प्रहरी से वार्तालाप आरंभ की। यमदूत क्यों न हो। मनमोहनी की बात सुन मन चलायमान होही जाता है। पहिले तो विमला ने नाना प्रकार की बातचीत की फिर उसका नाम धाम आदि गृहस्ती की बातें पूछने लगी और प्रहरी का भी जी लगने लगा। औसर पाय बिमला ने धीरे २ जाल फैलाया। एक तो सुन्दर स्त्री, दूसरे प्रेममय अलाप, तीसरे तिर्छी चितवन, प्रहरी तो घायल हो गया। बिमला ने देखा कि अब यह भली भांति आशक्त हो गया और कहा-तुम डरते क्यों हो शेख़ जी? यहां हमारे समीप आकर बैठो।

कहने की देर थी पठान आम की भांति टपक पड़ा। इधर उधर की बात करते २ जब बिमला के देखा कि अब विष विध गया है और प्रहरी बार-बार उसके मुंह की ओर देख रहा है तो बोली।

शेख़जी क्या नींद आती है? यदि मेरा हाथ खोल दो तो मैं तुमको पंखा झल दूं फिर बांध देना। शेख़जी के माथे में पसीना भी निकल आया था, फिर ऐसे कोमल हाथों की हवा खाने को किसका जी न चाहेगा? प्रहरी ने उसका बन्धन खोल दिया।

बिमला थोड़ी देर तक अपने अंचल के झलती रही फिर बोली, शेख़जी? तुम्हारी स्त्री क्या तुमको चाहती नहीं?

शेख़ जी ने विस्मित होकर कहा, क्यों?

बिमला ने कहा शेख़ जी! कहते लाज लग्ती है किन्तु जो तुम हमारे पति होते तो मैं कभी तुमको लड़ाई पर न जाने देती।

प्रहरी ने फिर ठंढी स्वांस ली।

विमला बोली, "हा! तुम मेरे स्वामी न हुए"! और एक आह ली, इस आघात के सहने की प्रहरी को सामर्थ न थी और वह सरक कर विमला के समीप आगया, बिमला ने भी सरक कर उस को भरोसा दिया।

शेख को उसके अंग स्पर्श से "विहिश्त" में पहुँचने के लिये केवल तीन डण्डे शेष रह गए।

बिमला ने अपना हाथ प्रहरी के हाथ में दे दिया और बोली 'क्यों, शेख जी! जब तुम यहां से चले जाओगे तो क्या तुम को मेरा स्मर्ण रहेगा।

शे०| वाह, तुमको भूल जाऊंगा।

वि०| तो मैं तुम को अपने मन की बात बताऊंगी।

शे०| हां कहो।

वि०| नहीं, नहीं, मैं नहीं कहूंगी, तुम अपने जी में न जाने क्या समझो।

शे०| नहीं, नहीं, कहो, मैं तो तुम्हारा सेवक हूं।

वि०| मेरे मन में आता है कि अपने स्वामी को छोड़ तुम्हारे संग भाग चलूं, ओर तिरछा आखें करके उसके मुंह की ओर देखने लगी।

शेख जी मारे आल्हाद के फूल गए, और बोले चलो न।

वि०| ले चलने कहो तो चलैं।

शेख०| वाह तुमको न ले चलूंगा! प्राण मांगो तो दे दूं।

बि०| अच्छा तो यह लो, और गले से सोने की माला निकाल कर प्रहरी के गले में डाल दिया और बोली "हमारे शास्त्र में माला द्वारा विवाह होता है"।

प्रहरी ने दांत बाय कर कहां, तो हमारी तुम्हारी शादी हो गई! "होही गई" कहके विमला चुप रह कर कुछ सोचने लगी।

प्रहरी ने कहा क्या सोचती हो?

वि०| क्या सोचूं मेरे भाग्य में सुख नहीं है।

शेख०| क्यों?

बि०| तुम लोग यहां जय न पाओगे?

शे०| जय हुआ कि होने को है।

बि०| ऊं-हूं इसमें एक भेद है।

श०| क्या भेद है?

बि०| तुमसे कह दूं।

शे०| हां।

बिमला ने कुछ संकोच प्रकाश किया।

शेख जी ने घबरा कर कहा क्यों, क्या है।

बिमला बोली तुम जानते नहीं, जगतसिंह दस सहस्त्र सेना लिए इसी दुर्ग के समीप ठहरे हैं उनको यह मालूम है कि आज तुमलोग यहां आओगे, अभी कुछ न बोलेंगे, किंतु जब तुम लोग दुर्ग जय कर निश्चिंत हो जाओगे तब तुमको आकर घेर लेंगे।

प्रहरी चुप रह गया।

बि०| यह बात दुर्ग के सब लोग जानते हैं।

प्रहरी ने प्रसन्न होकर कहा सुनो, आज तुमने, बड़ा काम किया, मैं अभी जाकर सेनापति से यह बात कहता हूं, ऐसे समाचार देने से पुरस्कार मिलता है। तुम यहीं बैठी रहो मैं अभी आता हूं।

बिमला ने कहा आओगे तो!

शे०| आऊंगा क्यों नहीं, अभी आया।

बि०| देखो हमको भूल न जाना।

शे०| नहीं, नहीं।

बि०| देखो हमी को खाओ।

कुछ चिन्ता नहीं, कहता हुआ प्रहरी दौड़ा।

उसको आंख से ओट होतेही बिमला भी वहां से भगी।।