दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/सोलहवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ६४ से – ६९ तक

 

सोलहवां परिच्छेद।
चातुर्य्य।

कार्य्य समापन पश्चात बिमला प्रफुल्ल बदन अपनी कोठरी में पलङ्ग पर बैठी है, दीप जल रहा है, आगे मुकुर रक्खा है देखा तो सन्ध्या को श्रृङ्गार करके गई थी सब उसी प्रकार बना है। बाल बिखरे नहीं, आंखों के कज्जल में कुछ भेद नहीं आया, ओंठो पर धड़ी बंधी है और कान कुंडल भी वही असीम शोभा दिखा रहा है। भृङ्गी भाव से तकिया पर लेटी मूर्ति नवयुवतियों को मान हीन करती थी। इस प्रभा को आरसी में निहार बिमला मुस्किराई।

इस अवस्था में बैठी जगतसिंह की राह देख रही थी कि इतने में अमराई में तुरुही का शब्द हुआ और वह चिहुंक उठी। फाटक के अतिरिक्त अमराई इत्यादि कहीं तुरुही नहीं बजती थी, आज इतनी रात को क्या बात है मार्ग का व्यापार सब स्मरण करके मनमें अमङ्गल का अनुभव करने लगीं और खिड़की की राह अमराई की ओर देखने लगी। फिर घबरा कर कोठरी के बाहर निकल आई और आंगन में होकर सोपान द्वारा अटारी पर चढ़ इधर उधर देखने लगी किन्तु पेड़ों की छाया और अंधेरी रात के कारण कुछ देख न पड़ा, मुंडे़रे के नीचे झांक कर देखा परन्तु कहीं कुछ दिखाई न दिया। अमराई में बड़ा अंधेरा था,। उदास होकर नीचे उतरना चाहती थी कि अकस्मात किसी ने आकर उसके पीछे से उसको स्पर्श किया, उलट कर देखा कि शस्त्र बांधे एक मनुष्य खड़ा है उसको देखतेही हाथ पैर ढ़ीले हो गए और पुतली सी खड़ी रह गई।

शस्त्रधारी ने कहा "सावधान" चिल्लाना न, नहीं तो उठा कर छत के नीच फेंक दूंगा।"

इस मनुष्य का पहिरावा पठान सैनिक का सा था परन्तु उत्तमता के कारण बोध होता था कि यह कोई उच्च पद धारी है। उमर उसकी अभी तीस बर्ष से अधिक नहीं थी और श्री उसके मुंह पर दीप्तमान थी पगड़ी में एक हीरा भी लगा था। बीरता तो उसमें जगतसिंह से कम नहीं झलकती थी पर शरीर उतना विशाल नहीं था। कटिबन्द में तेगा और हाथ में नंगी तलवार लिए था।

उसने कहा खबरदार जो चिल्लायगी तो अभी नीचे डाल दूंगा।

परम चतुर विमला किञ्चित काल पर्य्यन्त बिहली थी आगे मृत्यु और पाछे गड़हा प्राण रक्षा का उपाय केवल इश्वराधीन था, धीरे से बोली "तुम कौन हो?" सैनिक ने उत्तर दिया तू पूछ कर क्या करेगी?

बिमला ने कहा तुम इस दुर्ग में क्या करने आए। चोर को फांसी होती है क्या तुमने नहीं सुना?

सै०| प्यारी मैं चोर नहीं हूं।

बि०| तुम दुर्ग में कैसे आए?

सै०| तुम्हारेही करते आया हूं? जब तू द्वार खोल कर चली गई उसी समय मैं भीतर आया और तेरेही पीछे २ चला आता हूं।

विमला ने अपना माथा ठोंका फिर पूछा तुम हौ कौन?

सै०| मैं पठान हूं।

बि०| यहतो कुछ नहीं हुआ जाति के पठान हो पर हौ कौन?

सै०| मुझको उसमान खां कहते हैं।

वि०| उसमान खां को तो मैं जानती नहीं।

सै०| उसमान खां कतलू खां का सेनापति।

बिमला का शरीर कांपने लगा और मनमें आया कि किसी प्रकार बीरेन्द्रसिंह को समाचार पहुंचता तो अच्छा था, किन्तु कोई उपाय नहीं क्योंकि यह तो आगेही खड़ा है। जब तक यह बात करता है तभी तक अवकाश हैं इतने में यदि कोई प्रहरी आजाय तो बड़ी बात हो और उसको बातों में उलझा लिया।

आप इस दुर्ग से क्या करने आए?

उसमान खां ने उत्तर दिया "हम लोगों ने बीरेन्द्रसिंह के पास दूत भेजा था पर उन्होंने उत्तर दिया कि तुम लोगों से जो करते बने सो करो।" बिमला ने कहा "जाना, दुर्गेश ने आपलोगों से मित्रता न करके मोगलों से मेल किया है इस लिए तुमलोग दुर्ग को लेने आए हो किन्तु तुमतो अकेले हो"

उस०| अभी तो मैं अकेला हूं।

बिमला ने कहा तभी मारे डरके हमको नहीं छोड़ते हो।

अपमान सूचक बचन सुन कर सम्भव है कि पठान मार्ग छोड़ दे यह सोच कर बिमला ने यह बात कही।

उसमानं ने हंस के कहा प्यारी मैं केवल तेरी कटाक्ष का भय करता हूं किन्तु यह चाहता हूं कि—

बिमला उसके मुंह कि तरफ देखने लगी।

"तुम्हारे पास जो ताली है वह हमको देदो हम तुम्हारे शरीर छूने में संकोच करंते हैं।

बिमला ने मुसकिरा कर कहा "अंगस्पर्श तो दूर रहे अभी तो तुम हमको नीचे डाले देते थे।

सेनापति ने कहा समय पर सब काम करना होता है, अभी कोई काम पड़ै तो देखो।

बिमला ने देखा कि ताली की इसको बड़ी आवश्यकता है यदि ऐसे न दूं तो छीन कर ले लेगा। दूसरा कोई ऐसे अवसर पर यथाशक्य ताली को फेंक देता पर बिमला ने कालयापन की आशा से कहा—

'महाशय! यदि मैं ताली न दूं तो आप क्या करेंगे?" और ताली हाथ में ले ली।

उसमान की दृष्टि उसी ओर थी, उसने कहा छीन कर ले लूंगा।

अच्छा छीनिए कह कर बिमला ने चाहा कि कुंजी अमराई की ओर फेक दें किन्तु सेनापति ने झपट कर उसका हाथ पकड़ चाभी छीन ली।

बिमला इस पर बहुत ख़िसिआई। पहिले तो सेनापति ने चाभी टेंट में किया फिर और २ जो कुछ किया वह विमलाही जानती है और पकड़ कर उसका हाथ पैर भी बांध दिया।

बिमला ने कहा यह क्या।

उसमान ने कहा यह तुम्हारा पुरस्कार है।

बि०| इस कर्म्म का फल तुमको शीघ्र मिलेगा।

सेनापति विमला को उसी अवस्था में छोड़ चला गया और कुछ दूर जाकर फिर लौटा, स्त्रियों की रसना का विश्वास नहीं, और उसका मुंह भी बांध दिया।

पूर्वोक्त राह से उतर कर विमला की कोठरी के नीचे वाली कोठरी में पहुंचा और उसी की भांति चाभी लगाय द्वार खोल उसमान खां ने धीरे २ सीटी बजाई, उसको सुन अमराई में से एक मनुष्य उबेने पैर धीरे २ आया और घर में घुस पड़ा, उसके पीछे एक और आया इसी प्रकार बहुत से पठान भीतर घुस आए। अन्त में जो एक मनुष्य आया उससे उसमान ने कहा-बस और नहीं तुम लोग बाहर रहो जब मैं शब्द करूं तो दुर्ग पर आक्रमण करना, ताज खां से भी कह देना।

वह फिर गया और उसमान इस टुकड़ी को लेकर फिर कोठे पर चढ़े और जहां बिमला बंधी पड़ी थी वहीं पहुँच कर बोले यह स्त्री बड़ी चतुर है इसका कभी विश्वास न करना रहीम शेख तुम्हारा इस पर पहरा है। मुंह इसका खोल दो और यदि भागे अथवा किसी से कुछ कहै या चिल्लाय तो स्त्री के मारने में कुछ दोष नहीं है अच्छाः— बहुत अच्छा, कह कर रहीम वहां ठहर गया।

पठानों की सेना एक छत से दूसरे छत पर होकर दुर्ग के अन्यत्र चल गई।