दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/अठारहवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ७२ से – ७५ तक

 

अठारहवां परिच्छेद।
प्रकोष्टाभ्यन्तर।

पहिले बिमला के मनमें आई कि चलकर इसका सम्वाद बीरेन्द्रसिंह को देना चाहिए और उसी ओर दौड़ी, आधी दूर नहीं गई थी कि पठानों का अल्ला २ उसके कान में पड़ा

क्या! पठानों ने जय पा ली? बिमला बहुत व्याकुल हुई, थोड़ी देर में बड़ा कोलाहल हुआ और जान पड़ा कि दुर्ग में सब सजग होगए। घबराई हुई बीरेन्द्रसिंह की कोठरी में जाकर देखा तो वहां भी बड़ा कोलाहल मचरहा है, झांक कर देखा कि बीरेन्द्रसिंह कमर बाँधे हाथ में नंगी तलवार लिए रूधिराव शिक्त उन्मत्त की भांति अति घूणित फिरते है, किन्तु निष्फल, एक पठान ने ऐसे ज़ोर से तरवार मारी कि हाथ की कृपाण भूमि में गिर पड़ी और बीरेन्द्रसिंह पकड़े गए।

बिमला देख भाल, भग्नाशा हो वहां से चली। उस समय तिलोत्तमा स्मरण हुई और उसके यहां दौड़ी, पर मार्ग में देखा कि तिलोत्तमा के यहां जाना बड़ा कठिन है। छत पर, सीढ़ी पर, कोठरी दर कोठरी जहां देखा वहीं पठान सेना। दुर्ग जय हो जाने की शंका फिर मनमें न रही।

जब बिमला ने देखा कि तिलोत्तमा के यहां जाने में धोखा है तो वहां से लौटी और मनमें सोचती जाती थी कि अब जगतसिंह और तिलोत्तमा को इसका समाचार कैसे पहुंचाऊं! खड़ी २ एक कोठरी में इसी प्रकार सोच रही थी कि पठान लूटते २ इसी कोठरी के निकट आ पहुंचे वह मारे डरके एक सन्दूक के पीछे छिप रही। सिपाहियों ने आकर उस कोठरी में भी लूट मचा दी। बिमला ने देखा कि यहां भी बचाव नहीं हो सकता क्योंकि लुटेरे जब आकर इस सन्दूक को खोलेंगे तब, मैं पकड़ जाऊंगी। कुछ काल तो जान पर खेल वहीं पड़ी रही और सिर उठा कर देखा कि लुटेरे क्या करते हैं। उनको अपने काम में दशो चित्त से लिप्त देख धीरे २ वहां से निकल कर भागी, किसी ने देख नहीं पाया किन्तु द्वार से बाहर निकलतेही एक सैनिक ने पीछे से आकर उसका हाथ पकड़ लिया। पीछे से फिरकर जो उसने देखा तो रहीम शेख़ ने कहा 'क्यों' अब कहां भाग कर जायगी। बिमला का मुंह सूख गया, परन्तु बुद्धि प्रकाश द्वारा बोली 'चुपचाप बाहर चले आओ' और उसका हाथ पकड़े पकड़े बाहर खींच ले गई रहीम उसके साथ चला गया। एकान्त में ले जाकर विमला ने उसे कहा छी, छी, छी, ! ऐसा कोई काम करता है? मुझको छोड़ के तुम कहां चले गए? मैंने तुम्हारे लिए कूओं में बांस डलवा दिए।'

एक बेर उस मधुर चितवन को देख फिर रहीम खां का रोष शांत हुआ और बोले, 'मैं जगतसिंह का सम्वाद देने को सेनापति को ढूंढ़ता था, जब वे न मिले तो फिर तेरे पास आया पर तू वहां थी ही नहीं, तेरी ही शोध में फिर रहा हूं।

बिमला ने कहा 'जब अतिकाल हुआ तो मैंने जाना कि तुम हमको भूल गये इसी लिए तुमको खोज रही हूं, अब क्यों विलम्ब करते हो! दूर्ग जय तो हो ही गया, अब भागने का उद्योग करना चाहिये।

रहीम ने कहा 'आज नहीं कल प्रातःकाल क्योंकि, बिना कहे कैसे चल सकता हूं! कल सेनापति से विदा होकर चलूंंगा।'

बिमला ने कहा, अच्छा चलो आज अपना गहना इत्यादि रखदें नहीं तो कोई लुटेरा ले लेगा।

सैनिक ने कहा,'चलो।'

रहीम को साथ लेने का यह अभिप्राय था कि उसके कारण दूसरा कोई सैनिक उस पर हाथ न डाल सकेगा और, यह बात शीघ्र देख पड़ी। थोड़ी दूर जाने के अनन्तर एक दल लुटेरों का मिला, बिमला को देख उन सबों ने कोलाहल किया।

"देखो कैसा पक्षी हाथ लगा।" रहीम ने कहा, 'अपना २ काम करो' इस ओर कोई दृष्टिपात न करना, और वे सब ठिठक रहे। एक ने कहा, रहीम तू बड़ा भाग्यशाली है नवाबों के मुंह का निवाला छीन लेता है।

रहीम और विमला चले गये।

बिमला रहीम को अपने शयनागार के नीचे वाली कोठरी में ले जाकर बोली, 'यह हमारा नीचे का घर है। जो २ सामग्री इसकी तुमको लेना हो सब ले लो और इसके ऊपर मेरा शयनागार है, मैं अभी अपना अलंकार आदि लेकर आती हूं और उसके आगे एक तालियों का गुच्छा फेंक दिया।

रहीम बहु सामग्री संयुक्त घर देख कर सन्दूक पेटारा आदि खोलने लगा।

बिमला ने बाहर आकर कोठरी की कुंडी चढ़ा दी और शेख जी भीतर बन्द हो गए। सच है लालच विनाश करती है?

वहां से दौड़ कर विमला ऊपर वाले घर में गई, उसके और तिलोत्तमा के घर में केवल थोड़ा ही अन्तर था किन्तु लुटेरे अभी यहां नहीं पहुंचे थे, वरन यह भी सन्देह था कि तिलोत्तमा और जगतसिंह ने यह बात सुनी भी नहीं। कौतुहलवशत: विमला केवाड़ों की झरी से देखने लगी और अन्तस्थित भाव देख कर विस्मित हुई।

"तिलोत्तमा पलंग पर बैठी और जगतसिंह उसके समीप चुप चाप खड़े उसके मुंह की प्रभा देख रहे थे। तिलोत्तमा रोती थी और जगतसिंह आंसू पोछ रहे थे।"

विमला ने मन में कहा "जान पड़ता है यह विरह रोदन है?"