दुखी भारत/२१ हिन्दुओं का स्वास्थ्य-शास्त्र

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २८८ से – २९६ तक

 

इक्कीसवाँ अध्याय
हिन्दुओं का स्वास्थ्य-शास्त्र

इसके अतिरिक्त मिस मेयो की पुस्तक पढ़ने से पाठकों के हृदय में यह असत्य धारणा भी उत्पन्न हो सकती है कि हिन्दू रोगी और गन्दे होते हैं। अच्छा, मिस मेयो के साथ न्याय करने के लिए यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि यदि कोई विदेशी भारतवर्ष के शहरों या गाँवों की यात्रा करता है तो सबसे प्रथम उसके दिल पर ऐसा ही प्रभाव पड़ता है। ऐसा यात्री यहाँ के निवासियों की आन्तरिक दशा के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानता। और न वह भारतीय जन-संख्या के भिन्न भिन्न समुदायों या इस उप-महाद्वीप के भिन्न भिन्न भागों में ही कोई भेद लक्षित कर सकता है। एक बार जो धारणा बना ली जाती है वही बनी रहती है और कितना ही क्यों न समझाया जाय इसमें कमी नहीं आ सकती। परन्तु तो भी यह एक सत्य बात है कि संसार की कोई भी जाति (जापानियों के अतिरिक्त) स्वच्छता को भद्र पुरुष के लिए वैसा अनिवार्य गुण नहीं मानती जैसा हिन्दू मानते हैं। यह उनके धर्म का एक आवश्यक अङ्ग है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर लोवेज़ डिकन्सन ने अपनी 'अपियरेन्स' नामक पुस्तक में लिखा है कि संसार में कदाचित् भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जहाँ धर्म एक सत्य और जीवित वस्तु माना जाता है जिसका कि कुछ मूल्य हो सकता है?

स्वच्छता कई प्रकार की होती है। शरीर की, पास-पड़ोस की और कपड़ों की। जिन प्रान्तों में जन-संख्या का अधिकांश भाग हिन्दुओं से बना होता है, उन उनमें शारीरिक स्वच्छता तो पूर्णरूप से पाई जाती है, पर अन्य प्रकार की स्वच्छता भी ऐसी होती है कि उसकी निन्दा नहीं की जा सकती। दूसरे प्रान्तों में जहाँ शीत अधिक पड़ता है और दरिद्रता भी बहुत अधिक होती है वहाँ कुछ और ही बातें दृष्टिगोचर होती हैं। शीत-प्रधान प्रान्तों में वस्त्रों की स्वच्छता की समस्या रुपये की समस्या है। जो मनुष्य दिन में भर पेट दो बार भोजन करने के लिए भी यथेष्ठ धन नहीं पाता उससे स्वच्छ पोशाक बनवाने के लिए द्रव्य प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती। पास-पड़ोस की स्वच्छता का प्रबन्ध रखना राष्ट्रीय और स्थानिक शासन का काम है, व्यक्तियों का नहीं। दक्षिण भारतवर्ष में––विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण जहाँ शीत नहीं पड़ता, या अधिक नहीं पड़ता वहाँ आप सब जाति के हिन्दुओं को देखेंगे कि वे अपने शरीर की और अपने गृहों की बड़ी सावधानी के साथ सफ़ाई रखते हैं। उनके पास-पड़ोस के स्थान उतने ही स्वच्छ होते हैं जितने कि एक विदेशी शासन-प्रबन्ध में––जिसके नियम, उद्देश्य, सिद्धान्त सब विदेशी होते हैं––हो सकते हैं। इसके विपरीत उत्तरी भारतवर्ष में जहाँ ६ मास शीतकाल रहता है (पञ्जाब, अवध, विहार, और आसाम के समान कुछ भागों में कड़ाके का जाड़ा पड़ता है) परिस्थिति सर्वथा भिन्न होती है तो भी जहाँ तक शारीरिक स्वच्छता का सम्बन्ध है प्रत्येक स्थान के और प्रत्येक जाति के हिन्दू, निम्न श्रेणियों के भी बड़ी सावधानी से काम लेते हैं।

इस सम्बन्ध में हिन्दुओं की धार्मिक पुस्तकों का हवाला देना भी लाभदायक होगा। इससे उनकी व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वच्छता का मूलाधार विदित हो जायगा। हिन्दुओं के धर्म-शास्त्रों और चिकित्सा शास्त्रों में स्वच्छता के जो आदर्श रक्खे गये हैं वे प्राचीन जगत् में अन्यत्र बहुत कम देखने में आते हैं। गोंडाल के हिज़ हाइनस ठाकुर साहब ने (जो लन्दन के एम॰ डी॰ हैं और ए॰ डी॰ सी॰ एल॰; एफ॰ आर॰ सी॰ पी॰ ई॰ आदि भी हैं) अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक––आर्य-चिकित्सा-शास्त्र के एक अध्याय में इस विषय की विवेचना की है। स्नान-सम्बन्धी धार्मिक कर्तव्य के विषय में हम ठाकुर साहब के ग्रन्थ में पड़ते हैं[]:––

"हिन्दुओं में स्नान उनके धार्मिक कर्तव्यों का एक अङ्ग माना गया है। मनु की आज्ञा है––प्रातःकाल उठ कर मनुष्य हाथ मुँह धोवे, दाँत साफ़ करे, स्नान करे, अपने शरीर का शृङ्गार करे, आँखों में काजल लगावे और देवताओं का पूजन करे।" (अध्याय ४, श्लोक २०३) इसी प्रकार याज्ञवल्क्य भी स्नान को आवश्यक धार्मिक कर्तव्य बतलाते हैं (अध्याय ३, श्लोक ३१४)"

यह आज्ञा केवल धर्मशास्त्र के पृष्ठों पर ही नहीं है। नियम यह है कि अपने साधारण स्वास्थ्य में प्रत्येक हिन्दू दिन में एक बार स्नान करता है। ठाकुर साहब लिखते हैं—'नियमानुसार प्रातःकाल के भोजन से पहले स्नान करना आवश्यक है। किन्हीं किन्हीं उच्च श्रेणी के हिन्दुओं में सन्ध्या के भोजन से पूर्व भी स्नान करने की प्रथा है और किसी अपवित्र वस्तु से छू जाने पर भी वे स्नान करते हैं।' इन्हीं आदतों के कारण हिन्दू लोग घमण्ड के साथ कहते हैं कि स्वच्छता में उनकी जाति संसार में सर्वश्रेष्ठ है।

योरप की जातियों में स्वास्थ्य के सम्बन्ध में कुछ ज्ञान होने से बहुत समय पूर्व और उनके दांतों की सफ़ाई करने के लिए ब्रुश और दैनिक स्नान का मूल्य समझने के भी बहुत समय पूर्व हिन्दू नियमानुसार दोनों पर आचरस करते थे। अब से केवल २० वर्ष पहले भी लन्दन के गृहों में स्नान के हौज़ नहीं होते थे और दांत साफ़ करने का ब्रुश रखना ऐश्वर्य्य समझा जाता था। ग्रेट ब्रिटेन और अमरीका दोनों देशों में लोग हिन्दुओं को उनके स्वच्छ दाँतों के लिए बधाई देते थे।[] अब भी, अपनी समस्त वैज्ञानिक उन्नति के होते हुए भी योरपवासियों को शारीरिक स्वच्छता के सम्बन्ध में हिन्दुओं से बहुत कुछ सीखना शेष है। योरपियन लोगों के शृङ्गार का ढङ्ग सर्वथा अवैज्ञानिक और गन्दा है। स्नान के हौज़ आदि रोगों के कीटाणुओं और मैल के घर हैं। हिन्दुओं की स्वच्छता, स्नान और शृङ्गार के ढङ्ग सर्वोत्तम हैं। ऐसा कोई हिन्दू कदाचित् ही देखने में आवे जो शृङ्गार में जल का प्रयोग न करता हो या जो प्रतिदिन स्नान न करता हो और दांत न धोता हो। जो योरपियन लोगों की रहन-सहन का अनुकरण करने लगते हैं वे ही ऐसा नहीं करते हैं।

हिन्दुओं के चिकित्सा-सम्बन्धी ग्रन्थों में दिनचर्य्या (दैनिक कर्तव्य) के सविस्तर नियम दिये हुए हैं। इनमें प्रातःकाल उठकर दन्तमञ्जन या ताज़ी दाँतौन से दाँत साफ़ करना भी सम्मिलित है। प्राचीन हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों से उद्धरण देते हुए ठाकुर साहब कहते हैं[]:—

"स्वस्थ मनुष्य के लिए प्रातःकाल अर्थात् सूर्य्योदय से एक घण्टा पहले उठना अत्यन्त लाभकारी है। उठने पर उसे नित्य क्रिया से निवृत्त होना चाहिए......तब उसे दन्तमञ्जन से दांत साफ़ करना चाहिए। मञ्जन प्रायः तम्बाकू के चूर्ण, नमक और जली हुई सुपारी से या काली मिर्च, सोंठ, पीपर और फिटकिरी आदि ओषधियों को मिला कर पीस लेने से बनता है। सबसे अच्छी दांतौन बबूल की समझी जाती है। परन्तु चिकित्सा-ग्रन्थ अन्य वृक्षों की दांतौन अधिक हितकर बताते हैं। जिन लोगों को कतिपय रोग होते हैं उन्हें दांतौन करने की आज्ञा नहीं दी जाती। दांत साफ़ करने के पश्चात् एक पतली धातु की पट्टी से जिह्वा स्वच्छ करते हैं। यह पट्टी सोना, चांदी, या ताँबे की बनती है। दस अंगुल दांतौन को चीर कर दो करके एक टुकड़े से भी जिह्वा स्वच्छ की जाती है। तब ठण्डे पानी से कई बार कुल्ले किये जाते हैं और मुँह धोया जाता है। इस प्रयोग से मुँह में कोई रोग नहीं होता। ठण्डे पानी से मुँह धोने से झाईं, मुहासा, खुश्की और मुँह की जलन आदि रोग दूर होते हैं। गर्म पानी से मुँह धोने से वायु और कफ़ के विकार शान्त होते हैं और खुश्की भी नहीं होती। नाक को रोगों से बचाने के लिए उसमें प्रति दिन एक बूँद कड़ुवा तेल छोड़ते हैं। इस क्रिया से मुंह का स्वाद ठीक रहता है, कण्ठ निखरता है और बाल सफेद नहीं होते। शीशे या जस्ते की सलाई से आँखों में श्वेत सुरमा लगाने से आँखें सुन्दर हो जाती हैं और दृष्टि-शक्ति बढ़ती है। सिन्धु पर्वत का काला सुरमा बिना साफ किये भी लगाया जा सकता है। इससे खुजली, जलन, कीचड़ आदि दोष दूर होते हैं। आँखों में धूप की चमक और हवा के झोंके को सहने की शक्ति आती है।......नाखून, दाढ़ी और बालों को स्वच्छ रक्खा जाता है और उनकी काट-छाँट होती रहती है। हर पांचवें दिन बाल बनवाने और नाखन कटाने का नियम है। इससे बल, स्वास्थ्य, स्वच्छता और सौंदर्य की वृद्धि होती है।...... प्रतिदिन नियमानुसार व्यायाम करना चाहिए। व्यायाम से शरीर हलका और कार्य्य-शील रहता है, अङ्ग सुडौल और पुष्ट होते हैं, और पाचनशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि जो भी मनुष्य खाता है सब शीघ्र हज़म हो जाता है। आलस्य से छुटकारा पाने की व्यायाम सर्वोत्तम ओषधि है।......भोजन के पश्चात् या दाम्पत्य-सहवास के पश्चात् व्यायाम करने से हानि पहुँचती हैं। जिन्हें दमा, क्षयी या अन्य फेफड़े के रोग हो उनके


लिए व्यायाम करना वर्जित है। अति श्रम करना भी वर्जित है। घर के भीतर और बाहर व्यायाम करने की अनेक विधियाँ हैं।......

"स्नान करने के पश्चात् शरीर को तौलिये से पोंछ कर सुखा लेना चाहिए और फिर समुचित रीति से वस्त्र धारण करना चाहिए..."

भोजन के सम्बन्ध में सविस्तर वर्णन किया गया है। वयस्क लोगों के लिए केवल दो बार भोजन करने की आज्ञा है। और कहा गया है—'जल्दी जल्दी भोजन नहीं करना चाहिए.....भोजन करने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को भोजन की परीक्षा कर लेनी चाहिए क्योंकि मनुष्य जो भोजन करता है उसी से मस्तिष्क बनता है। और वह वस्तु केवल मस्तिष्क है जो मनुष्य को अच्छा, बुरा, मूर्ख या दुष्ट बना सकती है।

ठाकुर साहब कहते हैं कि किसी के शयन-गृह में झाँकना उचित नहीं है। परन्तु प्राचीन काल के चिकित्सा और धर्म-शास्त्र के प्रणेतागण वहाँ के लिए भी नियम बनाने से नहीं चूके।' इस प्रकार वे हिन्दुओं के महान् चिकित्साशास्त्र-वेत्ता सुश्रुत के दाम्पत्य-सम्भोग-सम्बन्धी[] नियमों को उद्धृत करते हैं। मनु[] जैसे धार्मिक विधान बनानेवालों ने भी इस आवश्यक विषय की अवहेलना नहीं की। अति-सम्भोग के दोषों पर उन्होंने बड़ी सावधानी के साथ जोर देकर लिखा है। कोई भी व्यक्ति जो हिन्दू-साहित्य को अवलोकन करेगा तुरन्त यह जान जायगा कि मिस मेयो के आक्षेप—जैसे उसका यह कहना कि हिन्दुओं को किसी ने ब्रह्मचर्य्य की शिक्षा दी ही नहीं—कितने मिथ्या हैं। सच बात तो यह है कि घर बार छोड़ कर योगी बन जाने की सीमा तक ब्रह्मचर्य्य की शिक्षा दी गई है। ठाकुर साहब दूसरों के पहने हुए 'जूतों, वस्त्रों और मालाओं' को न पहनने की आज्ञाओं को भी उद्धृत करते हैं[] और उस पर अपनी सम्मति प्रकट करते हैं कि 'इस उपदेश से ज्ञात होता है कि हिन्दू छूत से फैलनेवाले रोगों की ओर से असावधान नहीं थे।'

व्यक्तिगत स्वच्छता में हिन्दू आदर्श सदैव अत्यन्त उच्च कोटि का रहा है और आज भी वैसे ही सर्वोच्च है। गत शताब्दी के अन्तिम भाग में सर विलियम हंटर ने, जिन्हें हिन्दुओं की रहन-सहन का दीर्घ अनुभव था, उनकी स्वच्छ वृत्तियों से प्रभावित होकर निम्नलिखित सम्मति प्रकट की थी:—

"यह कहने की आवश्यकता नहीं कि एशिया की जातियों में भारतवर्ष के हिन्दुओं के समान शारीरिक स्वच्छता का भाव किसी में नहीं है। एशिया के ही क्यों इस सम्बन्ध में वे संसार की सब जातियों से आगे हैं। हिन्दुओं का स्नान एक कहावत हो गया है। उनका धर्म उन्हें इस बात की आज्ञा देता है। और युगों की रीति-रिवाज ने स्नान को उनके दैनिक जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकता बना दिया है।"

'सार्वजनिक स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से भी हिन्दुओं में कोई कमी नहीं थी। उनके राजनैतिक ग्रन्थों ने एक ऐसे पृथक् राजकीय विभाग को स्वीकार किया है जो शुद्ध जल का प्रबन्ध करता था, राजपथों, बीथियों एवं सर्वसाधारण के काम में आनेवाले स्थानों की शुद्धता का ध्यान रखता था, और जनता के स्वास्थ्य के विरुद्ध आचरण करनेवालों को दण्ड देता था। मदरास के गवर्नर लार्ड एम्पथिल ने फ़रवरी १९०५ ईसवी में मदरास के राजकीय चिकित्सा-विद्यालय को उद्घाटन करते हुए इस विषय पर एक लम्बा व्याख्यान दिया था[]। उन्होंने कहा था:—

"अब हमें शनैः शनैः यह बात मालूम होने लगी है कि हिन्दू-धर्म-शास्त्रों में भी स्वच्छता-सम्बन्धी नियमों का वर्णन किया गया है। इन नियमों के सिद्धान्तों में कोई त्रुटि नहीं है। और महान् धर्म-शास्त्र-रचयिता मनु संसार के बड़े बड़े स्वच्छता-सम्बन्धी सुधार करनेवालों में से एक थे।"

इस क्षेत्र में हिन्दुओं की सफलता के सम्बन्ध में गवर्नर साहब ने अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की थी:—

"जब हम नगर-समितियों की ओर से यंत्रों या नलों द्वारा जल पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं; जब हम अस्पताल और चिकित्सा सम्बन्धी विद्यालयों की स्थापना करते हैं; जब हम प्लेग आदि महामारियों को फैलने से रोकने के लिए नियम बनाते हैं, और जब हम स्थानिक संस्थाओं को जनता के स्वास्थ्य पर दृष्टि रखने का कार्य्य सौंपते हैं तब हम किसी आधुनिक आविष्कार को नहीं उपस्थित करते या कोई योरपीय चमत्कार नहीं दिखाते। परन्तु हम केवल वही करते हैं जो शताब्दियों पहले किया जाता था। अब इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं के अतिरिक्त और सब लोग प्रायः इस बात को भूल गये हैं। इन प्रश्नों के अध्ययन करने से उस प्राचीन कहावत की सचाई प्रकट हो जाती है जिसका तात्पर्य यह है कि इस संसार में कोई वस्तु नई नहीं है। यह कहावत बाधक ओषधियों के सम्बन्ध में भी सत्य प्रतीत होती है, यद्यपि इसके सम्बन्ध में हम सबकी यह धारणा है कि यह आधुनिक विज्ञान का अभी हाल का आविष्कार है। कर्नेल किंग ने इस बात को सिद्ध करके दिखा दिया है कि प्राचीन हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था की इसी सिद्धान्त पर स्थापना हुई थी कि रोग छूत से होते हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनों टीका लगाकर चेचक को रोकने की विधि जानते थे। जेनर ने टीका द्वारा चिकित्सा करने का जो आविष्कार किया या यह कि पुनर्बार जो आविष्कार किया उसके बहुत समय पूर्व यह विद्या योरपवालों को कुस्तुनतुनिया से प्राप्त हो चुकी थी। और इस चिकित्सा का ज्ञान कुस्तुनतुनिया आदि स्थानों को, जैसा कि मैं पहले बतला चुका हूँ, ईसाई-संवत् के आरम्भ-काल में भारतवर्ष से हुआ था।"

इसके पश्चात् गवर्नर साहब ने कहा—"कर्नेल किंग के अनुसार यह भी बहुत कुछ सम्भव है कि प्राचीन भारत में गाय के थन से चेचक का पीब लेकर चेचक का टीका लगाने की रीति लोगो को मालूम थी। और वे इस सिद्धान्त के लिए धन्वन्तरि का एक उद्धरण देते हैं। प्राचीन हिन्दू चिकित्सकों में धन्वन्तरि का स्थान सर्व-श्रेष्ट था। वर्तमान अवसर के लिए तो यह बात बड़ी उपयुक्त है। धन्वन्तरि कहते हैं—'गाय के थन पर से या कन्धे और कोहनी के बीच मनुष्य के हाथ पर से एक तेज़ चाकू द्वारा शीतला का पीब लीजिए। और मनुष्य के हाथों पर—कन्धे और कोहनी के बीच के भागों पर—दूसरा नोकदार चाकू गड़ो दीजिए। जब रक्त निकल आवे तो उसमें वह पीब प्रविष्ट कर दीजिए। इस प्रकार शीतला का ज्वर आ जायगा।' यही आधुनिक टीका की भी विधि है। इससे यह बात स्पष्ट हो जायगी कि शीतला के जिस टीके को जेनर का महान् आविष्कार बताया जाता है वह प्राचीन काल के हिन्दू वास्तव में अपने प्रयोग में लाते थे।"

गवर्नर साहब ने और आगे भी कहा—'मैं कर्नेल किंग को एक और भी मनोरञ्जक खोज का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकता। वह यह है कि प्लेग को शान्त करने और उनको फैलने से रोकने की वर्तमान पद्धति प्राचीन हिन्दू-शास्त्रों के मत से ज़रा भी भिन्न नहीं है।"

वैद्यक-शास्त्रों के इतिहास के सम्बन्ध में लार्ड एम्पथिल इस प्रकार लिखते हैं:—

"भारतवर्ष के लोगों को उनका (कर्नेल किंग का) कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं का ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया है कि वे उस समय में भी, जब योरप महान् अज्ञानता और असभ्यता में निमग्न था, रोगनिवारक और रोगावरोधक-सम्बन्धी-चिकित्सा विधियों के जानने का दावा कर सकते हैं। मैं नहीं समझता कि यह बात सर्वसाधारण को ज्ञात है कि ओषधि-विज्ञान की उत्पत्ति भारतवर्ष में हुई थी। पर बात यही है। भारतवर्ष से यह विद्या अरब ने सीखी और अरब से योरप ने। सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग तक योरप के चिकित्सक अर्बी चिकित्सकों के ग्रन्थ पढ़कर इस विषय का ज्ञान प्राप्त करते रहे थे। और अर्बी चिकित्सकों ने शताब्दियों पूर्व यह ज्ञान धन्वन्तरि, चरक और सुश्रुत जैसे भारतीय चिकित्सकों के ग्रन्थों से प्राप्त किया था।"

भारतवर्ष की वर्तमान रुग्णावस्था और गन्दगी का कारण है सर्वसाधारण की दरिद्रता। अपने पास-पड़ोस को स्वच्छ बनाये रखने के लिए वे यथेष्ट धन व्यय नहीं कर सकते। और दरिद्रता के कारण उनकी शारीरिक निर्बलता उन्हें तत्काल महामारियों में फंसा देती है। यदि भारतवर्ष 'संसार के लिए सङ्कट' हो रहा है तो इसका अधिकांश दोष सरकार का है; क्योंकि वह शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बड़ी कञ्जूसी के साथ व्यय करती है। नवीन परिस्थितियों ने, जिनसे भारतवर्ष की वैसी उन्नति नहीं हो सकती जैसी स्वाधीन देशों की हुई है, इस देश में रोग की समस्या को और भी जटिल बना दिया है। रेलों के कारण महामारियों का फैलना और भी सरल हो गया है। इसलिए सरकार का यह परम कर्तव्य है कि इन रोगों से युद्ध करने के लिए वह यथेष्ट धन व्यय करे। नहरों के निकलने से मलेरिया (जूड़ी बुख़ार) और भी फैलने लगा है। परन्तु मलेरिया को रोकने के लिए जो उपाय पनामा की नहर के पास-पड़ोस की भूमि में तथा अन्य स्थानों में किये गये वह भारतवर्ष की सरकार के लिए अभी तक करना शेष है।

भारतवासियों के स्वास्थ्य की ओर भारत-सरकार कहाँ तक ध्यान देती है इसका ठीक ठीक अनुमान उस व्यय से किया जा सकता है जो वह अपने केन्द्रीय और प्रान्तीय कोष से स्वास्थ्य-विभाग पर करती है। भारत सरकार के स्वास्थ्य और शिक्षा-विभाग ने अपनी ९ जनवरी १९२८ ई॰ को लिखी एक चिट्ठी द्वारा मुझे सूचित किया है कि '१९१६-१७ ईसवी के वर्ष तक सार्वजनिक स्वास्थ्य का व्यय "चिकित्सा" के स्तम्भ में सम्मिलित किया जाता था।' यदि भारतवर्ष में निरक्षरता और रोग की प्रधानता है तो यह और भी उचित है कि उन राज्यों की अपेक्षा जहाँ अक्षर-ज्ञान प्रायः सबको है, सब प्रकार की शिक्षा का सर्व-साधारण में प्रचार है और लोग स्वास्थ्य के नियमों से भली भाँति लाभ उठाना जानते हैं, भारत सरकार शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अधिक धन व्यय करे। परन्तु वास्तविकता क्या है? मैंने जिस चिट्ठी का उल्लेख किया है उसमें मुझे बताया गया है कि इस कार्य के लिए सरकार केन्द्रीय और प्रान्तीय कोष से कुल मिलाकर १,२९,८६,४९८, रुपये वार्षिक व्यय करती है। १९१८-१९१९ ईसवीवाले वर्ष में जब भारतवर्ष में केवल इन्फ़्यूएञ्ज़ा से ६० लाख मनुष्य मर गये यह व्यय १,६६,४३,०५३; रुपये थे। इस सम्बन्ध में सबसे नवीन संख्या जो ज्ञात हुई है वह १९२४-२५ की है। उस वर्ष केन्द्रीय कोष से कुल मिलाकर २६,०७,२७१ रुपये व्यय किये गये। और प्रान्तीय कोषों से ३,०४,२०,१६९ रुपये। १९१९-२० ईसवी के सुधार-नियमों के अनुसार कार्य्य होने के समय से, अर्थात् भारतीय मंत्रियों के नियुक्त किये जाने के समय से उन्नति आरम्भ हुई है।


  1. आर्य-चिकित्सा-शास्त्र का संक्षिप्त इतिहास (मैकमिलन १८९६) पृष्ठ ६२।
  2. प्रसिद्ध दन्तमञ्जन बनानेवाले अँगरेज़ मिस्टर कोलगेट जो इसी शीतकाल में भारत-यात्रा के लिए आये थे इस देश के लोगों के स्वच्छ और सुन्दर दांत देखकर चकित रह गये।
  3. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ५७ और आगे।
  4. "फिर सुश्रुत लिखते हैं कि गर्मी की ऋतु में १५ वें दिन से पूर्व और अन्य ऋतुओं में चौथे दिन से पूर्व विषय-भोग नहीं करना चाहिए। जिन्होंने बहुत भोजन कर लिया हो, जो भूखे, प्यासे या अधीर हों, जिनकी अवस्था बचपन की या वृद्ध हो, जिनके किसी अङ्ग में पीड़ा हो, और जिनके पाख़ाना या पेशाब लगा हो उन्हें सम्भोग-सुख से बचना चाहिए,।" उसी पुस्तक से, पृष्ठ ७७।
  5. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ७६,७७
  6. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ७२
  7. व्याख्यान के अवतरण मिस्टर हरविलास शारदा की 'हिन्दुओं की प्रधानता' नामक पुस्तक में मिलेंगे। पृष्ठ २५३ और आगे।