दुखी भारत/२० हमारे परिचित विश्व-निन्दक-वृन्द

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २८० से – २८७ तक

 

बीसवाँ अध्याय
हमारे परिचित विश्व-निन्दक-वृन्द

जो लोग अमरीका के पत्र-सम्पादकों की––जिस जाति से मिस मेयो आविर्भूत हुई है उसकी––नीति के सम्बन्ध में जानना चाहते हैं उनके लिए सबसे सरल उपाय यही है कि वे उपटन सिंक्लेयर की 'पीतल की हुण्डी' नामक साहित्यिक पुस्तक का अवलोकन करें। उपटन सिंक्लेयर ने अपने बालकाल में ज़िलाधीश के पद के लिए किसी उम्मेदवार को एक बार भाषण देते हुए सुना था। वह उम्मेदवार बवण्डर की भाँति अपने आन्दोलन में निमग्न था। वह व्याख्यानदाता प्रतिवर्ष नगर पुलिस को लाखों रुपया देनेवाली वेश्या-वृत्ति पर क्रोध प्रकट कर रहा था और नमक-मिर्च लगाकर अपने भाषण को उसने बड़ा मनोरञ्जक और प्रभावशाली बना लिया था। उसने उन कमरों का चित्र खींचा जिनमें सुन्दरी स्त्रियाँ लोगों के चुनाव के लिए एकत्र की जाती थीं, और चुननेवाले अपनी पसन्द की स्त्री के लिए ३ या ५ डालर देकर द्वार पर बैठे ख़ज़ानची से एक 'पीतल की हुण्डी' ख़रीद लेते थे। तब वे कोठों पर जाते थे और उस स्त्री के कृपापात्र बन जाने पर उसे वह हुण्डी दे देते थे। यह कहने के पश्चात् उस व्याख्यानदाता ने एकाएक जेब से एक धातु का टुकड़ा निकाला और चिल्लाकर कहा–'देखिए, एक महिला के सम्मान का यह मूल्य है।' उस व्याख्यान के सुनने के पश्चात् से सिंक्लेयर की यह धारणा हो गई कि 'यह पीतल की हुण्डी संसार की सबसे बड़ी और भयानक दुष्टता का चिह्न है।' यह सबसे बड़ी भयानक दुष्टता उसे अमरीका की सम्पादनकला में इतनी अधिक मात्रा में दिखाई पड़ी कि उसने इन दृश्यों का दिग्दर्शन करानेवाली अपनी पुस्तक का नाम ही 'पीतल की हुण्डी*[]रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि अमरीका के सम्पादकों में सभी ऐसे नहीं हैं। कुछ इस नीति के अपवाद भी हैं। परन्तु यह बात बड़े महत्त्व की है कि अमरीका के बड़े बड़े लेखकों में कुप्रथाओं के विरोध करनेवाले भी कम नहीं हैं। एच॰ एल॰ मेङ्कन, उपटन सिंक्लेयर, जैक लन्दन, सिंक्लेचर लेबिस आदि ऐसे ही लेखक हैं। सर्वोत्कृष्ट-अर्थात् अमरीका के अत्यन्त सच्चे और स्वतंत्र समाचार-पत्र––दी नेशन, न्यूरिपब्लिक, अमरीकन मरकरी, न्यू मासेस आदि––समाचार-पत्र भी इसी प्रकार कुप्रथाओं के घोर विरोधी हैं, परन्तु मदर इंडिया पर विचार करते समय हमें इन उत्तम अपवादों पर विचार नहीं करना है।

सिंक्लेयर के एक अध्याय का शीर्षक है––'निन्दा का दफ्तर'। और अमरीका की सम्पादन कला निसन्देह परनिन्दामय है। अमरीका के कुछ नगर संसार में प्रमुख पाप-केन्द्रों के नाम से विख्यात हैं। पर इन सब बातों के होते हुए भी हुए भी अमरीका का यह निन्दा का दफ्तर भली भांति जानता है कि अमरीका में किसी मनुष्य की मानहानि करने का सबसे अधिक प्रभावोत्पादक मार्ग यही है कि उसके सम्बन्ध में एक निन्दाजनक विषय-भोग-सम्बन्धी कथा का प्रचार किया जाय। पवित्रता का ढोंग रचने वाला यह पाखण्डी समाज सदा आश्चर्य से चकित हो जाने के लिए उत्सुक रहता है। इसके अतिरिक्त यह कथा नमक मिर्च लगाकर चटपटी बना दी जाती है और मसालेदार चटपटी सामग्री की सदैव माँग रहती ही

उपटन सिंक्लेयर को इस निन्दा के दफ्तर के हाथों प्रायः कष्ट भोगना पड़ा है। एक बार तो इन विश्व-निन्दकों ने उसके जीवन को इतना दुखी बना दिया था कि उसे अमरीका छोड़ देना पड़ा और यह निश्चय करना पड़ा कि वहाँ वह फिर कभी लौटकर न जायगा। इसके अतिरिक्त उसे प्रायः इस बात का अनुभव हुआ था कि जब वह सम्पादन-कला की दुर्नीतियों के विरुद्ध कोई आन्दोलन करता था तो यह निन्दा का दफ्तर उसके विरुद्ध आन्दोलन करने लगता था। सिंक्लेयर ने समाजसुधारकों का एक संघ स्थापित किया तो इस निन्दा के ने इस संघ को 'सिंक्लेचर की प्रेम-लीला' कह कर पुकारना आरम्भ किया और उसके विरुद्ध सब प्रकार की निन्दाजनक बातें फैलाई गई। वह डेनवर के हड़तालियों की सहायता करने गया तो उसके विरुद्ध फिर ऐसी ही बातें कही गई। जब रूस और जापान के पश्चात् गोर्की रूसी क्रान्ति के लिए धन-संग्रह करने के उद्देश्य से अमरीका गया तो पूँजीपतियों के इन समाचार-पत्रों ने उसके विरुद्ध अपनी इसी नीति का प्रयोग किया। परिणाम यह हुआ कि गोर्की को धन-संग्रह करने में पूर्ण अलफलता हुई। संयोग से गोर्की का विवाह ईसाई-धर्म के नियमानुसार नहीं हुआ था इसलिए यह निन्दा का दफ्तर गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाने लगा कि जिस स्त्री के साथ गोर्की ने विवाह किया है वह एक व्यभिचारी की कलङ्किता नारी है। समाचार-पत्रों में, व्याख्यान-मञ्चों पर और धर्म-वेदियों पर सर्वत्र गोर्की की निन्दा की गई और उसे नैतिक कोढ़ी कहा गया। पिछले अध्याय में हम न्यायाधीश लिंडसे के सम्बन्ध में लिख चुके हैं। न्यायाधीश महोदय एक दृढ़ और स्वतंत्र विचार के सुधारक हैं इसलिए इस निन्दा के दफ्तर ने आपको विशेषरूप से अपना लक्ष्य बनाया है। निस्सन्देह लिंडसे के सम्बन्ध में इस ने अत्यन्त नीच उपायों का सहारा लिया। लिंडसे के विरुद्ध भयानक अपराध लगाने के लिए इस दफ्तर ने उनके 'शिशु-न्यायालय को अपनी आधारशिला बनाया। उपटन सिंक्लेयर का कथन है कि इस निन्दा के दफ्तर ने अपनी निन्दाजनक बातों को सत्य सिद्ध करने के लिए झूठी गवाहियाँ मोल ली और एक झूठा सुधारक-संघ भी स्थापित किया।

मिस मेयो ने अमरीकावासियों की दृष्टि में एक सम्पूर्ण राष्ट्र को पतित, ठहराने के लिए इस निन्दा के दफ्तर के इन्हीं प्रतिदिन के उपायों का अवलम्बन किया है। उनके मत्थे उसने उन समस्त दुर्वासनाओं और महापापों को मढ़ दिया है जो धार्मिक विचारवालों के हृदय में किसी जाति के प्रति घृणा उत्पन्न कर सकते हैं।.........

अमरीका के पत्र-सम्पादक लोग घटनाओं की सूचनाओं को 'संवाद-कथाएँ' कहते हैं या अधिकतर केवल कथाएँ कहते हैं। भेंट की बातचीत को भी 'कथाएँ' ही कहते हैं। और अधिकांश में उनमें सचाई कम होती है, कथा भाग ही अधिक रहता है। मिस मेयो ने अपनी कथाओं में मदर इंडिया में––इसी शैली का अनुकरण किया है। परन्तु उसकी कुछ कथाएँ इतनी मूर्खतापूर्ण हैं कि अमरीकन-समाचार-पत्रों के आदर्श की दृष्टि से उनकी जाँच की जाय तब भी वे मानवीय कपट के एक बड़े वर्णन के समान प्रतीत होती हैं।

इन कथाओं में सम्मान का पद उस मृत-कथा को देना चाहिए जो अब एक नीरस और शुष्क फल से किसी दशा में अच्छी नहीं है। और जिसमें एक राजा पर यह कहने का कलङ्क लगाया गया है कि यदि ब्रिटिश भारतवर्ष को छोड़ देंगे तो तीन ही मास के भीतर न तो कहीं एक रुपया रह जायगा न कहीं कोई कुमारी कन्या।

कलकत्ता के कैपिटल नामक पत्र में लिखते हुए 'डिचर' (स्वर्गीय मिस्टर पैटलोवेट) ने कहा था:––

मालूम होता है मिस मेयो अपनी परिमिति शक्तियों को जानती है। क्योंकि अपनी सड़ी गोभी पकाने के लिए वह चण्डूखाने की गप्पों की ओर अधिक रुचि प्रकट करती है। परन्तु जिन पात्रों ने उससे ये गप्पे कही हैं उन्हीं ने उसकी टाँग भी बुरी तरह खींची है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित बात पर ध्यान दीजिए:––

"यहाँ मैं एक ऐसे मनुष्य के मुँह से निकली बात लिख रही हूँ जिसकी सत्यता पर––मेरा विश्वास है––कभी किसी ने सन्देह नहीं किया। यह उस तूफानी समय की बात है जब १९२० ईसवी में नवीन सुधार-क़ानूनों ने खलबली मचा दी थी। लोग भ्रम में पड़ गये थे और ये खबरें उड़ने लगी थीं कि ब्रिटेन भारतवर्ष को छोड़ने जा रहा है। मुझे यह बात भारतवर्ष के सम्बन्ध में बहुत दिनों का अनुभव रखनेवाले एक अमरीकन से ज्ञात हुई थी। उन दिनों वह एक ऐसे प्रभावशाली देशी नरेश से मिलने गया था जो अत्यन्त आकर्षक, शिक्षित और शक्तिशाली था तथा जिसने अपने राज्य का सर्वोत्तम प्रबन्ध कर रक्खा था। राजा साहब का दीवान भी उस समय उपस्थित था और ये तीनों सज्जन चिर परिचित हो जाने के कारण बड़ी बेफिक्री से बातें कर रहे थे।

"दीवान ने कहा––'राजा साहब इस बात पर विश्वास नहीं करते कि ब्रिटेन भारतवर्ष को छोड़ने जा रहा। परन्तु तो भी इँग्लैंड के इस नवीन शासन-प्रबन्ध के अनुसार उन्हें (अँगरेज़ों को) गलत सलाह दी जा सकती है। इसलिए राजा साहब अपनी सेना सङ्गठित कर रहे हैं, हथियार इकट्ठा कर रहे हैं और सिक्के ढाल रहे हैं। यदि अँगरेज़ चले जायँगे तो उसके तीन ही मास पश्चात् समस्त बङ्गाल में ढूँढ़ने से न कहीं एक रुपया मिलेगा न कोई कुमारी कन्या।' "बङ्गाल की राजधानी से भारतवर्ष की चौड़ाई के आधे फासले पर हुए राजा साहब ने इस बात का गम्भीरतापूर्वक समर्थन किया। उनके पूर्वज सदा से लुटेरे मरहठों के सरदार होते आये थे।"

मैंने उस कथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सुना था। अब से चालीस वर्ष वह और भी अच्छे ढङ्ग से और शीघ्रता के साथ कही जाती थी। इस कथा के नायक थे लार्ड डफरिन और सर प्रतापसिंह––वीर राजपूत––जो प्रायः जोधपुर के राज्य-प्रतिनिधि का कार्य करते थे।

वायसराय ने पूछा––'यदि ब्रिटिश लोग भारतवर्ष को छोड़ कर चले जायँ तो क्या हो?

राजपूत योद्धा ने जवाब दिया––'हो क्या? मैं अपने जवानों को हथियार लेकर निकल पड़ने का हुक्म दे दूँगा और एक मास के भीतर ही बङ्गाल में न तो एक रुपया शेष रह जायगा न कोई कुमारी कन्या?

मैं सर प्रताप को भली भाँति जानता था। और लार्ड कर्जन के दरबार के समय मैंने उनसे पूछा कि कभी ऐसी बातचीत हुई थी। उन्होंने आवेश के साथ जवाब दिया––'मित्रवर! झूठ महा झूठ!! हम राजपूत लोग निर्दोष पर कभी वार नहीं करते। जब हम अपने शत्रुओं का अपमान करते हैं तब उन्हें भी तलवार से बदला लेने का अवसर देते हैं। अमरीकावासियों के कपट-जाल के सम्बन्ध में यहाँ मेरी सिडनी स्मिथ की सम्मति उद्धत करने की इच्छा होती है पर सोचता हूँ कि एक पागल स्त्री के प्रलाप के कारण सम्पूर्ण राष्ट्र का क्यों अपमान करूँ?

मदर इंडिया के २४ वें अध्याय का शीर्षक है––'फूस में आग'। इस अध्याय में मिस मेयो ने असहयोग के दिनों की अशान्तिपूर्ण बातों का एक-तरफा और पक्षपात-पूर्ण वर्णन किया है जिससे कि सब लोग भली भाँति परिचित हैं। इन आक्षेपों का असहयोगियों ने जो उत्तर दिया है मिस मेयो ने उस पर न तो विचार करने की कुछ चेष्टा की है और न उसका अपनी पुस्तक में कहीं उल्लेख ही किया है। अपनी पुस्तक के २९४ पृष्ठ पर तिथियों का असावधानी के साथ प्रयोग करने के कारण उसने चौरीचौराकाण्ड को मोपला-काण्ड से पहले लिख मारा है। वह कहती है––

'मोपला-काण्ड के आरम्भ होने से ६ महीने से भी कम पहले मलाबार से बहुत दूर संयुक्त-प्रान्त में चौरी-चौरा की घटना घटी।' यह कथन सत्य नहीं है। २९५ पृष्ठ पर वह कहती है––'सन् १९१९ की अशान्ति के समय में पञ्जाब में सरकार के विरुद्ध कार्य करनेवालों ने विदेशी स्त्रियों का अपमान करने के लिए विशेषरूप से आन्दोलन करना आरम्भ कर दिया था।' इस राक्षसी अपवाद का एक-मात्र आ‌धार केवल एक दीवाल पर चिपकाया गया विज्ञापन है। परन्तु उसका भी पंजाब के नेताओं ने जोर के साथ उसी समय प्रतिवाद किया था जब कि उन्हें उसका पता चला था। वह उत्तेजना फैलाने के लिए नियुक्त किसी व्यक्ति का कार्य समझा गया था। अपने विवरण में महात्मा गांधी ने भी इस पर टिप्पणी लिखी थी। मिस मेयो ने इन प्रतिवादों की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया।

अब एक दूसरी कथा पर ध्यान दीजिए। यह कथा उसकी पुस्तक के २७३-२७४ पृष्ठों पर इस प्रकार है:––

"इसी प्रकार भारतवर्ष की अवस्था से भली भाँति परिचित एक न्यूयार्क के पत्रकार ने १९२६-२७ ईसवी के शीतकाल में कतिपय भारतवासियों से, जो नगर में सार्वजनिक रूप में वार्तालाप कर रहे थे, पूछा––'भारतवर्ष की परिस्थिति के सम्बन्ध में आप लोग इस प्रकार घोर असत्य बातें क्यों कह रहे हैं? उनमें से एक ने शेष सबकी ओर से कहा––'क्योंकि आप अमरीकन लोग भारतवर्ष के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते और आपके ईसाई धर्म प्रचारक लोग जब और रुपया लेने के लिए वापस लौटते हैं तो अत्यन्त सत्य बातें कहते हैं और हमारे अभिमान पर आघात पहुँचाते हैं। इसलिए पलरा बराबर करने के लिए हमें असत्य भाषण करना पड़ता है।'

न्यूयार्क के पत्रकार का नाम नहीं दिया गया। और न उसका नाम दिया गया है जिसके मुँह से ये भद्दी बातें कहलाई गई हैं।

अब एक दूसरी कथा लीजिए। यह ३०५-३०९ पृष्ठों पर इस प्रकार दी गई है।

"एक दूसरी घटना में भारतवासियों की यह प्रवृत्ति और भी स्वाभाविक रूप में प्रकट हुई है। यह फरवरी सन् १९२६ ईसवी की बात है। एक बूढ़ा मुसलमान असिस्टेंट इंजीनियर एक ब्रिटिश अफ़सर के अधीन सिंचाई के विभाग में बहुत दिनों तक नौकरी कर चुका था। परिस्थिति ऐसी हुई कि उसने अपने आपको एक हिन्दू अफसर के अधीन पाया। यह नवयुवक अभी अभी कालिज से निकला था और नये नये विचारों से भरा हुआ था। इसने अपने पुराने मातहत को दुःख देना आरम्भ कर दिया और इसे इतना सताया कि बेचारे के नाक में दम आ गया। तब यह वृद्ध मुसलमान अपने पुत्र के साथ एक बड़े ब्रिटिश अफ़सर के पास सलाह लेने गया। अपनी कथा समाप्त करने के पश्चात् पुत्र ने कहा––'साहब, क्या आप मेरे पिता की सहायता नहीं कर सकते? इतने वर्षों की नौकरी के पश्चात् उनके साथ इस प्रकार का वर्ताव होना वास्तव में बड़े शर्म की बात है।' परन्तु अँगरेज लोग भला अक्सर से कब चूकते हैं। साहब ने कहा––'महमूद, तुम सदा स्वराज्य मांगते रहे हो? इस घटना से तुम्हें पता चल गया होगा कि स्वराज से तुम्हें क्या लाभ हो सकता है? कहो! अब तुम इसके सम्बन्ध में क्या सोचते हो?' पुत्र ने उत्तर दिया––'आह, परन्तु अब तो मुझे डिप्टी कलेक्टरी मिल गई है। शीघ्र ही मैं कार्य आरम्भ कर दूँगा। और जिन हिन्दुओं पर मैं अपना हाथ लगाऊँगा उन्हें ईश्वर ही बचावे।"

नाम एक भी नहीं दिया गया। मिस मेयो को ये बातें कहीं से ज्ञात हुई, यह भी वह नहीं लिखती। बड़े ब्रिटिश अफ़सर के मुँह से या मुसलमान डिप्टी कलेक्टर के मुँह से ये बातें नहीं निकल सकतीं। क्या कोई व्यक्ति जो अपने होश में हो इस बात पर विश्वास कर सकता है कि एक शिक्षित मुसलमान जिसे डिप्टी कलेक्टरी का पद मिला हो किसी ब्रिटिश अफ़सर के सामने ऐसी बातें कह कर अपने पद और भविष्य की उन्नति को ख़तरे में डालेगा? अथवा क्या हम यह मान लें कि उच्च ब्रिटिश अफसर अपने अधीन भारतीय कर्मचारियों को ऐसी बातें कहने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं?

जो अब तक मिस मेयो का थोड़ा बहुत विश्वास कर भी रहे थे वे मदर इंडिया के २०४ पृष्ट पर निम्न-लिखित वर्णन पड़ने पर उसका सर्वथा अविश्वास करने लगेंगे:––

"कम से कम एक कट्टर हिन्दू नरेश योरपियन लोगों की समाज में जाने पर प्रायः दस्ताने पहन लिया करता था। परन्तु उसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार लन्दन के एक प्रीतिभोज में सम्मिलित होने पर जब उसने दस्ताना उतारा तो उसके पास ही बैठी हुई एक महिला ने उसके हाथ में एक अँगूठी देखी। उस महिला ने कहा––'राजा साहब, आपर्का अँगूठी में क्या सुन्दर नग जड़ा हुआ है! क्या मैं इसे देख सकती हूँ?” राजा ने कहा––'अवश्य,।' इसके पश्चात् उसने अपनी अँगुली से अँगूठी निकाल कर उस महिला की तश्तरी के पास रख दी। उस महिला ने, जो एक उच्च कुल की थी, अँगूठी को इधर-उधर उलटा, उसे प्रकाश के पास ले जाकर देखा, उसकी समुचित प्रशंसा की और तय उसे उसके स्वामी की तश्तरी के पास रख दिया। राजा ने तब तिर्यग्द्दष्टयावलोकन करते हुए अपनी कुर्सी के पीछे खड़े अपने नौकर से अँगूठी उठा लेने का निर्देश किया, उसे आज्ञा दी––'इसे धो लायो।' और बिना किसी प्रकार की बाधा के वह पुनः वार्तालाप में निमग्न हो गया।"

यह राजा कौन था? लन्दन की यह घटना कब घटित हुई? और इस वक्तव्य के लिए मिस मेयो के पास प्रमाण क्या है? निस्सन्देह इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं हो सकता। मिस मेयो इस स्पष्ट बात की अवहेलना करती है कि इस ढङ्ग का कट्टर राजा कभी 'लन्दन के प्रीति-भोज में' नहीं सम्मिलित हो सकता। इस बात के सामने यह सम्पूर्ण कथा कोरी गढ़न्त प्रतीत होती है। अवश्य किसी कहानी गढ़नेवाले से उसे यह कथा प्राप्त हुई है।




  1. *दी ब्रास चेक (पीतल की हुण्डी), अमरीका की सम्पादन-कला का अध्ययन। उपटन सिंक्लेयर-लिखित। पास्साडेना, कैलीफ़ोर्निया। १९२०।