दुखी भारत/२२ गाय भूखों क्यों मरती है?

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २९७ से – ३०५ तक

 
बाईसवाँ अध्याय
गाय भूखों क्यों मरती है?

मिस मेयो की पुस्तक में १७ वें अध्याय से लेकर २० वें अध्याय तक में गाय के सम्बन्ध में विचार किया गया है। १७ वें अध्याय का शीर्षक है 'मुक्ति की फौज का पाप'। परन्तु इस अध्याय के अन्त में एक पादटिप्पणी के अतिरिक्त 'मुक्ति की फौज' का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त यंग इंडिया से लिये गये एक उद्धरण में इसका थोड़ा-सा उल्लेख हो गया उस पर हम शीघ्र ही विचार करेंगे। इस अध्याय के गीत का टेक यह है कि 'हिन्दू अपने लिए भोजन उत्पन्न करते हैं परन्तु अपनी गाय माता के लिए भोजन नहीं उत्पन्न करते; इसीलिए वह भूखों मरती है।'

मुक्ति की फौजवाले अध्याय में मुक्ति की फौज का उल्लेख केवल २०६ पृष्ठ पर पाया जाता है। वहाँ मिस मेयो ने महात्मा गान्धी के एक संवाददाता श्रीयुत देसाई को यह कहते हुए उपस्थित किया है कि—'प्राचीन काल में और मुसलिम शासन-काल में भी पशुओं के चरने के लिए पृथक् भूमि का प्रबन्ध रहता था और उन्हें जङ्गलों में भी स्वतन्त्रता के साथ चरने से नहीं रोका जाता था। जो लोग गाय पालते थे उन्हें उसके खिलाने के लिए जो व्यय करना पड़ता था वह प्रायः कुछ नहीं के बराबर होता था। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इन पशुओं की, जो न तो स्वयं कुछ कह सकते हैं न अपनी ओर से कुछ कहने के लिए अपना कोई प्रतिनिधि रखते हैं, वंश-परम्परा से प्राप्त इस सम्पत्ति पर लोभ की दृष्टि लगा दी और इसे कभी भूमि-कर में वृद्धि के उद्देश्य से तथा कभी अपने मित्रों को—जैसे ईसाई-धर्म-प्रचारकों को—अपना आभारी बनाने के उद्देश्य से उनसे छीन लिया।' इस पर मिस मेयो लिखती है—'तब यह लेखक अपने कथन को पुष्ट करने के लिए लिखता है कि गुजरात में एक बार सरकार ने ५६० एकड़ गोचर-भूमि 'मुक्ति फौज' को खेती करने के लिए दे दी थी।' भारतवर्ष की संयुक्त-राज्य (अमरीका) से तुलना करते हुए मिस मेयो लिखती है:—

"यह सच है कि हमारे देश में बड़ी बड़ी चरागाहें हैं। परन्तु हम उनको बदलते रहते हैं और अधिक चर लिये जाने से बचाते रहते हैं। यह एक ऐसा विषय है जिसकी भारतवासी कल्पना ही नहीं कर सकते। उन-भागों—पश्चमीय प्रदेश के ऊसर और अर्द्ध-ऊसर के पहाड़ी सिलसिलों—में भी जहाँ चरागाहों का क्षेत्रफल बहुत विस्तृत है हम अपनी खेती का भाग पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने में लगाते हैं हम अपनी रुई उत्पन्न करने वाली भूमि का ५३ प्रतिशत भाग पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने में लगाते हैं। इसमें पशुओं के लिए अनाज, ग्वार, छीमी आदि उत्पन्न किया जाता केवल १० प्रतिशत भूमि मनुष्यों के लिए खाद्य-सामग्री उत्पन्न करने के काम में लाई जाती है। हमारे यहाँ अन्न और शीतकाल के गेहूँ उत्पन्न करने की भूमि के ७५ प्रतिशत भाग में पशुओं के लिए चारा उत्पन्न किया जाता है। गल्ला उत्पन्न करने की भूमि के ८५ प्रतिशत भाग में पशुओं के लिए चारा बोया जाता है और केवल १६ प्रतिशत भाग मनुष्य के काम आता है। उत्तर और पूर्व के राज्यों में उपजाऊ भूमि का लगभग ७० प्रतिशत भाग पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने के काम में आता है। हमारी सम्पूर्ण उपजाऊ भूमि का १० भाग पशुओं के लिए खाद्य सामग्री उत्पन्न करने में लगाया जाता है। मनुष्य का भोजन हमारे यहाँ २५,००,००,००० एकड़ भूमि में उत्पन्न किया जाता है। और प्रत्येक ५ व्यक्तियों के लिए एक दूध देनेवाली गाय होती है।"

हिन्दुओं की गो-भक्ति के सम्बन्ध में मिस मेयों ने एबे डुबोइस की पुस्तक से इस आशय का एक अंश उद्धृत किया है कि 'अत्यन्त धर्मात्मा लोग प्रतिदिन गो-मूत्र पीते हैं।' यह वक्तव्य सर्वथा मिथ्या है। १८ वीं शताब्दी में मदरास में कुछ लोग ऐसा करते रहे हो तो मैं नहीं कह सकता, परन्तु अपने जीवन में (इस समय मैं ६३ वर्ष का हूँ) मैंने एक भी ऐसा धर्मात्मा मनुष्य नहीं देखा जो गाय का मूत्र पीता हो। अस्तु एबे के वक्तव्य पर मिस मेयो ने अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की है—'इन बातों में कट्टर भारतवर्ष जैसा एबे के समय में था वैसा ही अब भी है।' इन बातों ने इस विषय को बहुत भद्दा बना दिया है। पशुओं के लिए चारा न उत्पन्न करने की हिन्दुओं की लापरवाही के लिए उन्हें धिक्कारने में मिस मेयो ने भारतीय कृषि की अमरीका के साथ तुलना करने की तथा उसकी परिस्थितियों के सम्बन्ध में अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। पहली बात तो यह है कि संयुक्त राज्य (अमरीका) का क्षेत्रफल भारतवर्ष के क्षेत्रफल से दूना है परन्तु उसकी जन-संख्या भारतवर्ष की जनसंख्या की केवल एक-तिहाई है। दूसरी बात यह है कि वहां 'वार्षिक लगान' की भांति कोई पद्धति नहीं हैं। तीसरी बात यह है कि वहां के पशुपालकों को इस व्यवसाय में सरकार की ओर से यथेष्ट सहायता मिलती है। क्योंकि वहां भूमि की अधिकता और जन-संख्या की कमी के कारण इसकी आवश्यकता भी प्रतीत होती है। चौथी बात यह है कि वहाँ के निवासी इतने गरीब नहीं होते कि उन्हें सरकार को भूमि का कर चुकाने के लिए और अपने कुटुम्बों को जीवित रखने के लिए 'अधिक दाम दिलानेवाली' खेती करने के लिए विवश होना पड़े। भारतवर्ष में खेती के काम में आनेवाली भूमि के प्रत्येक बीघे पर कर लगाया जाता है।

इस बात में भारतवर्ष की संयुक्तराज्य (अमरीका) के साथ कोई तुलना नहीं हो सकती। संयुक्त राज्य में लाखों एकड़ भूमि ऐसी है जो पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने के अतिरिक्त और किसी काम में आही नहीं सकती। मिस मेयो को यह बात मालूम होगी कि संयुक्त राज्य में पशुओं की एक बड़ी संख्या का पालन-पोषण केवल मांस के व्यवसाय के लिए किया जाता है। लाखों पशु, जिनमें गाय भी सम्मिलित होती है, वहाँ इसी भवसाय के लिए मारे जाते हैं।

तो भी, मैं यह स्वतन्त्रता के साथ स्वीकार करता हूँ कि सम्पूर्ण योरप और अमरीका में दूध देनेवाली गायों की देख-रेख भारतवर्ष की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह की जाती है। भारतवर्ष में गाय की जो अवहेलना की जाती है इसके बहुत से कारण हैं। मुख्यतः आर्थिक कमी से ऐसा होता है। संसार के समस्त राज्यों ने सबको दूध पहुँचाने के प्रश्न पर कार्य्य:शीलता और गम्भीरता के साथ विचार किया है। बालकों की स्वास्थ्य-युक्त वृद्धि के लिए और राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिए दूध, अच्छे दूध, की आवश्यकता है। इसलिए राज्यों ने क़ानून बनाये हैं कि गाय की भलीभांति रक्षा की जाय और लोगों को यथेष्ट, अच्छा और सस्ता दूध मिले; इस सम्बन्ध में भारत सरकार ने व्यावहारिक रूप से कुछ नहीं किया; केवल इसलिए कि वह इस देश के निवासियों और यहाँ के शिशुओं की अपेक्षा सेना और योरपियन-नौकरों को अपने लिए अधिक आवश्यक समझती है। भारत- सरकार के लिए यहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना बिलकुल एक गौण विषय है। अमरीका के संयुक्त राज्य में सरकार ( फेडरल या नगर-सम्बन्धी ) का यही प्रथम कर्तब्य है। अपनी पुस्तक के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मिस मेयो ने इस प्रधान विषय की अवहेलना की है और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि उसने यह अवहेलना अन्याययुक्त और पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों के कारण की है।

अपनी पुस्तक में २१० वें पृष्ठ पर वह लिखती है---महात्मा गान्धी के संवाददाता ने गाय की भूख के रूप में हमें ब्रिटिश-शासन का एक दोष दिखलाया है। इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान भयङ्कर 'स्थिति' का बहुत कुछ उत्तरदायित्व ब्रिटिश-शासन पर ही है। इस सम्बन्ध में ब्रिटिश शासन के उत्तरदायित्व से उसका जो तात्पर्य है, उसका आगे चल कर वह इस प्रकार खुलासा करती है:---

"इस शासन-प्रणाली का ( प्राचीन शासन-प्रणाली का ) स्थान ब्रिटिश लोगों को सौंपा गया। इसमें सौंपनेवालों का सर्वप्रथम उद्देश्य इतना ही था कि इस देश की डकैती, युद्ध और बर्बादी से रक्षा हो तथा यहाँ शान्ति स्थापित हो। यह कार्य प्रायः वही था जो अमरीकावासियों को फिलीपाइन्स में करना पड़ा था। जो सफलता हमें फिलीपाइन्स में मिली वही अँगरेज़ों को भारतवर्ष में प्राप्त हुई। हाँ, इसमें अँगरेज़ों को क्षेत्रफल और जन-संख्या की अधिकता के कारण कुछ देर अवश्य लगी। ब्रिटिश ने अपना यह कार्य, जो सब प्रकार की शक्तियों की अपेक्षा रखता था, प्रायः अब से ५० वर्ष पहले ही पूरा कर दिया था। इसके शासन के अधीन जीव प्राण और धन की जितनी रक्षा और हिफ़ाज़त होनी चाहिए कदाचित् उतनी हो गई है। महामारियाँ रोकी गईं और अकाल से भी लोगों को बहुत कुछ बचाया गया। इसलिए पहले जिन शत्रुओं के कारण धन और जन की क्षीणता हो रही थी, उनसे समुचित रक्षा की व्यवस्था होने पर मनुष्यों और पशुओं की संख्या समान रूप से बढ़ने लगी। और मनुष्यों को भोजन अवश्य मिलना चाहिए। इसलिए सरकार ने उनकी आवश्यकतानुसार उन्हें पट्टे पर भूमि दी ताकि वे अपने लिए भोजन उत्पन्न कर सकें और मृत्यु से बचें।"

यह समझ में नहीं आता कि इस प्रलाप का गाय या 'मुक्ति की फौज' से क्या सम्बन्ध है। परन्तु यह संक्षिप्त पैराग्राफ भी असत्य वक्तव्यों से परिपूर्ण है––(१) 'इस प्रणाली का स्थान ब्रिटिश लोगों को सौंपा गया'। किसने सौंपा? किसने उन्हें भारतवर्ष में शान्ति स्थापित करने के लिए निमन्त्रित किया? वे केवल अपने लाभ के लिए आये। और केवल उसी लाभ के लिए यहाँ बने हैं। (२) 'ब्रिटिश ने अपना यह कार्य...............५० वर्ष पहले ही पूरा कर दिया था।' मिस मेयो को यह जानना चाहिए था कि सरकार ने अपने राज्य में जो देश अन्तिम बार जीत कर मिलाये उन्हें ७५ वर्ष से ऊपर हो गये अर्थात् वे १८४९ में जीत कर मिलाये गये थे। और भूमिकर के बन्दोबस्त से बङ्गाल, बिहार और संयुक्त-प्रान्त का नाश तो उससे भी पहले कर दिया गया था। (३) 'ब्रिटिश शासन में प्राण और धन की सुरक्षा' अब भी नहीं है (सीमा प्रान्त के युद्धों और आक्रमण और बलवों आदि का वर्णन देखिए।) (४) 'सर्वनाश करनेवाली महामारियां' अब भी देश में विद्यमान हैं और अकाल की गणना तो प्रतिदिन की घटनाओं में है। रेल और दरिद्रता के कारण महामारियों का प्रकोप शीघ्र शीघ्र और अधिकाधिक वेग से होने लगा है। जन-साधारण की दरिद्रता और मूर्खता से महामारियों का पोषण होता है और अकाल पड़ते हैं। मिस मेयो की पुस्तक के 'संसार का संकट' नामक अध्याय से भी किसी अंश तक इसी बात का समर्थन होता है।

श्रीयुत अरनाल्ड लप्टन ने मिस मेयो के उपर्युक्त कथनों का बढ़ा सुन्दर उत्तर दिया है। भारतवर्ष की खाद्य-सामग्री पर विचार करते हुए वे लिखते हैं[]:––

"इसके अतिरिक्त इन अङ्कों में से अन्न का उतना भाग कम कर देना चाहिए जो पशुओं के काम आ जाता है। पशुओं की संख्या भी उतनी ही है जितनी कि मनुष्यों की। अर्थात् छोटे बड़े सब मिला कर २०,९०,००,००० पशु हैं। ये सब लगभग १७,००,००,००० बैलों के बराबर हैं। इसमें मुर्गी, कबूतर आदि पालतू पक्षियों की गणना नहीं की गई है। इसमें सन्देह नहीं कि इन पशुओं को चारा, घास, पात-तृण, अनाज के डण्ठल, जड़ें, बिनौला, खली, देकर और भूली आदि के अतिरिक्त कुछ पौष्टिक खाद्य भी देने की आवश्यकता है

"इसमें जरा भी सन्देह नहीं हो सकता कि पशुओं को चारे के अतिरिक्त उस अन्न का भी एक बड़ा भाग मिलता है जिसके सम्बन्ध में हमने यह अनुमान किया है कि वह केवल मनुष्यों के ही लिए पर्याप्त है। और सम्भवतः इस अन्न के पशुओं के दिये जाने के कारण ही मज़दूरों को कम मात्रा में भोजन मिलता है। धनी लोग जो घोड़े रखते हैं और यह चाहते हैं कि उनकी गौएँ खूब दूध दें तथा उनके बैल खूब काम करें, प्रायः इन कामों के लिए गल्ला खरीद कर रख लेते हैं। इस प्रकार वे अनाज का भाव मँहगा कर देते हैं और उनके निर्धन पड़ोसियों को कम भोजन मिलता है।.........

"अन्न का कुछ भाग, चोकर या रोटी गौओं को या काम करनेवाले बैलों और घोड़ों को प्रतिदिन पृथक खूराक के तौर पर दिया जाता है। इससे मैं यह परिणाम निकालने के लिए विवश हूँ कि गङ्गा के मैदान, पञ्जाब, और अन्य धनी बस्तियों में जो अनाज मनुष्यों के लिए आवश्यक है उसका एक बड़ा भाग पशुश्नों को खिला दिया जाता है और इस कारण बहुत से निर्धन लोगों को केवल आधापेट भोजन करके जीवन व्यतीत करना पड़ता है।............

"यदि अन्न की उत्पत्ति ५० प्रतिशत बढ़ा दी जाय तो पशुओं के स्वास्थ्य, हित और उन्नति में बड़ी सहायता मिलने लगे और इससे लोगों को भी बड़ी सहायता मिले क्योंकि उनके लिए पशुओं का परिश्रम बड़ा आवश्यक है और उनका दूध बड़ा मूल्यवान् है। जिन लोगों के सिद्धान्त और जेब उन्हें मांस खाने की आज्ञा देते हों उनके लिए तो कुछ कहना ही नहीं है।"

मिस मेयो की भांति मिस्टर लप्टन बार बार यह सौगन्द नहीं खाते कि इस अध्ययन में उनका कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं है। परन्तु वे 'पक्षपात-रहित हो कर वर्तमान भारत के सम्बन्ध में सत्य की कसोटी पर कसी हुई बातों को' उपस्थित करने की चेष्टा करते हैं। वे उन बुराइओं की ओर से दृष्टि नहीं फेर लेते जो भारतवर्ष में विद्यमान हैं किन्तु उनके सम्बन्ध में भारतवासियों की व्यवहारिक रूप से सहायता करने की दृष्टि से विचार करते हैं। जिस विषय पर हम विचार कर रहे हैं उसका ऊपर उद्धत की गई उनकी सम्मतियों से संक्षेप में इतना ठीक ज्ञान हो जाता है कि इस विषय पर अधिक विचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

इस वक्तव्य में श्रीयुत लप्टन ने अकाल के वर्षों में भी देश से बाहर खाद्य-अन्न भेजने की नीति के कुप्रभावों पर विचार नहीं किया। इससे ज़मींदारों को लाभ अवश्य होता है। परन्तु जन-साधारण इस नीति के कारण वैसे ही कम मात्रा में भोजन पाते हैं और भूखों मरते हैं जैले श्रीयुत लप्टन के विचार में पालतू पशुओं के कारण।

फिर भी यह कहने से काम न चलेगा, जैसा कि कुछ मनचले समालोचक यदा कदा कहा करते हैं, कि भारतवर्ष के आधे पशुओं को नष्ट कर देना चाहिए भारतवर्ष में जितने पशु हैं उनकी तुलना खेती के योग्य प्रति एकड़ भूमि के हिसाब से अन्य देशों के पशुओं के साथ कीजिए तो यह बात स्वयं आपकी समझ में आ जायगी। भारतवर्ष की जन-संख्या में जिस हिसाब से बृद्धि हुई है उसी हिसाब से पशुओं की संख्या में वृद्धि नहीं हुई। और बैलों को वर्तमान संख्या खेती के लिए जितनी भूमि प्राप्त हो सकती है, उसके जोतने के लिए भी यथेष्ट नहीं है। फिर वर्तमान जन-संख्या के लिए खाद्य-सामग्री कैसे उत्पन्न की जाय?[]

इन आर्थिक समस्याओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गाय उस देश में भूखों क्यों मरती है जहाँ उसकी पूजा होती हैं। परन्तु इसमें सन्देश नहीं कि भारतवर्ष में मूर्ख और स्वार्थी ग्बाले गायों के साथ अत्यन्त निर्दयता का बर्ताव करते हैं। भारतवासी मिस मेयो से बड़ी सरलतापूर्वक यह कह सकते हैं कि वह उन्हें बकरों की जीवित खाल खींचने के लिए उपदेश देने की अधिकारिणी नहीं है जब कि वह जानती है कि, स्वयं उसके देश में और अन्य योरपियन देशों में स्त्रियों के फैशन के लिए पक्षियों के रोओं और पंखों आदि के नोचने में उससे कहीं अधिक निर्दयता से काम लिया जाता है। परन्तु इस उत्तर से भारतवर्ष के ग्वाला लोग 'फूका' के समान निर्दय व्यवहारों के नहीं ठहराये जा सकते। फिर भी हमारा यह कहना अत्यन्त उचित है कि भारतवर्ष में इतनी अधिक मात्रा में गोहत्या होना बिल्कुल एक नई समस्या है। यहाँ विदेशी लुटेरों के शासन का स्वार्थ राष्ट्र के स्वार्थ के बिल्कुल विपरीत प्रतीत होता है। सरकार ने मांस और चमड़े के विदेश भेजने के व्यवसाय में ब्राजील और दूसरे देशों के विदेशी व्यापारियों को बड़ी स्वतंत्रता दे रक्खी है। पश्चिम में युद्ध के पश्चात् से गायों की जो कमी हो गई है उसके कारण भारतवर्ष में दूध देनेवाले पशुओं की आफ़त आ गई है। विदेशी खरीदारों के प्रलोभन में पड़कर ग्वाले थोड़े से व्यापारिक लाभ के लिए फूका जैसी निर्दय यातनाओं को काम में लाकर एक या दो बार बच्चा दने के पश्चात् दूध देने वाली गायों को बिल्कुल बेकाम कर देते हैं। चैटर्जी महाशय लिखते हैं[]:––

"जिन देशों के निवासी मांसाहारी होते हैं वहाँ वे एक विशेष प्रकार के पशुओं को केवल मांस के लिए पालते हैं।......वे अपने दूध देनेवाले पशुओं की हत्या करने की बात कभी नहीं सोचते। परन्तु हमारे देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। और 'अच्छी अच्छी दूध देनेवाली गाय शहरों को भेजी जाती हैं......... और एक बड़ी संख्या में उनकी हत्या की जाती है।'

चैटजी महाशय अपनी पुस्तक में यह शिकायत करते हैं कि:––

"देशी पशु-पालकों की दरिद्रता और भूर्खता से लाभ उठा कर विदेशों में मांस का व्यवसाय करनेवाले व्यापारी उत्तम पशुओं को प्रायः ऐसे सस्ते दामों में खरीद लेते हैं जो अर्थशास्त्र की दृष्टि से देखा जाय तो उनके वास्तविक मूल्य का आधा भी न होगा[]।" मिस मेयो को यह शिकायत है कि सरकार ने पशुओं की देख-रेख का कार्य भारतीयों को दिये गये अधिकारों में सम्मिलित करके बुद्धिमानी का कार्य नहीं किया; क्योंकि इससे बेचारे पशु अँगरेज़ों की कृपा से वञ्चित हो गये हैं। परन्तु क्या ब्रिटिश शासन के अधीन भारतवर्ष में पशुओं की कुछ उन्नति हुई है? इस विषय के हाल के ही प्रामाणिक लेखक श्रीयुत एन चैटर्जी बड़ी सावधानी और प्रमाण के साथ अपनी पुस्तक में लिखते हैं[]:––

"समस्त भारतवर्ष में पशुओं की दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही है। किसी जिले के 'गज़ेटियर' के पृष्ठों को पलटिए, पशुओं के सम्बन्ध में सरकारी और ग़ैर सरकारी विवरणों को देखिए; तब आपको पता चलेगा कि सर्वत्र एक यही शिकायत है कि पशु क़द में छोटे हो गये हैं, उनकी दूध देने की शक्ति बहुत घट गई है, और वे खेती या खींचने के काम के लिए बड़े निर्बल हो गये हैं।"

पुनश्च[]:-

"उनकी जाति बड़ी शीघ्रता के साथ निकम्मी होती जा रही है। जिस प्रकार उनकी शक्ति का हास हो रहा है उसी प्रकार उनकी दूध देने की मात्रा भी घटती जा रही है। अकबर के शासनकाल में 'दिल्ली' की बहुत सी गायें बीस बीस सेर दूध देती थीं और दस रुपये से अधिक दामों में कदाचित् ही बेची जाती थीं।"

"वे (गायें) घोड़ों से तेज़ चल सकती थीं और शेरों तथा हाथियों से लड़ सकती थी[]। अब से केवल २५ वर्ष पहले औसत दर्जे पर बङ्गाल की गायें ३ से ५ सेर तक दूध देती थीं। पर अब यह मात्रा घट कर केवल प्रति गाय प्रति दिन १ सेर रह गई है[] और यही अवस्था प्रायः भारतवर्ष के सब भागों के दूध देनेवाले पशुओं की हो गई है[]।"

'मनुष्य की दया' आर्थिक समस्याओं से बिल्कुल स्वतंत्र नहीं होती। और न वह सरकार की कार्य-शीलता या अकर्मण्यता के प्रभावों से ही वज्चित रह सकती है।

  1. अरनाल्ड लप्टन, हैपी इंडिया। लन्दन, जार्ज एलन और अनविन १९२२, पृष्ठ १४४-८।
  2. एन॰ चैटर्जी-कृत "भारतवर्ष में पशुओं की स्थिति" नामक पुस्तक कीं सर जान उडरोफ़ की लिखी भूमिका। (अखिल भारतवर्षीय गोरक्षिणी सभा, कलकत्ता के अधिवेशन १९२६ के समय लिखित) पृष्ठ १४।
  3. चैटर्जी-कृत उसी पृष्ठ २७। अन्तिम वाक्य चैटर्जी महाशय ने सर जान उडरोफ़ का वक्तव्य उद्धत किया है।
  4. चैटर्जी कृत उसी पुस्तक से, पृष्ठ ३८। अन्तिम वाक्य चैटर्जी महाशय ने कृषि विभाग के १९१६ ईसवी के विवरण से उद्धत किया है।
  5. चैटर्जी कृत उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४१
  6. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १२।
  7. वर्नियर, चैटर्जी द्वारा उद्धत।
  8. ब्लैक उड़,––'बङ्गाल के पशुओं की जाँच और गणना' कलकत्ते के इँगलिशमैन नामक समाचार पत्र में प्रकाशित; चैटर्जी द्वारा उद्धत।
  9. सर जान उडरोफ़, चैटर्जी द्वारा उद्धत।