दुखी भारत/१३ स्त्रियाँ और नवयुग

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १९६ से – २०७ तक

 

तेरहवाँ अध्याय

स्त्रियाँ और नवयुग

मिस मेयो ने भारतीय स्त्रियों के धर्माचरण और भारतीय समाज में उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ अत्यन्त असह्य बातें कही हैं। अपने दृष्टिकोण से तो उसने इन बातों को बड़ी कुशलता के साथ लिखा है। परन्तु वास्तव में उसने सत्य और असत्य का बड़ी धूर्तता के साथ सम्मिश्रण किया है। जो चित्र उसने अङ्कित किया है वह भ्रमोत्पादक और अतिशयोक्ति-पूर्ण ही नहीं है वरन सत्य का घोर विरोधी भी है। यदि वह केवल बाल-विवाह की प्रथा और विधवाओं के पुनर्विवाह-निषेध पर ही आक्रमण करती तो उसके साथ कोई असहमत न होता। परन्तु वह तो अपनी मर्य्यादा भङ्ग करके ऐसे निष्कर्षों के आधार पर जो सर्वथा अप्रामाणिक हैं, अत्यन्त घातक रूप से भारत के पुरुषत्व और स्त्रीत्व पर आक्रमण करती है। उसने जिन प्रश्नों पर अपनी सम्मति प्रकट की है, मैं एक एक करके उन सब पर विचार करूँगा।

भारतीय स्त्रियों की साधारण स्थिति कतिपय अवस्थाओं में यथेष्ट शोचनीय है। भारतीय स्त्री अपनी परिस्थितियों से विवशतापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही है। जिस देश में पुरुषों की राजनैतिक और सामाजिक स्थिति ग़ुलामों की-सी हो वहाँ स्त्रियों की स्थिति किसी दशा में अच्छी नहीं हो सकती। भारतीय स्त्रियों की वर्तमान दशा पश्चिमीय स्त्रियों की अपेक्षा उतनी ही बुरी है जितनी कि भारतीय पुरुषों की दशा पश्चिमीय पुरुषों की दशा से बुरी है। परन्तु मिस मेयो की पुस्तक पाठक के हृदय में यह भाव उत्पन्न करती है कि भारतीय स्त्रियों की जैसी बुरी अवस्था वर्तमान समय में है वैसी ही सब काल में थी। परन्तु यह सत्य नहीं है। इस अध्याय के पूर्व हमने प्राचीन भारत में स्त्रियों के स्थान का जो वर्णन दिया है उससे पाठकों ने स्पष्टरूप से समझ लिया होगा कि ऐसी बातें कितनी भ्रमोत्पादक हैं। वास्तविक हिन्दू भारत के इतिहास के प्रत्येक समय में स्त्रियों को मध्य-विक्टोरियन काल से पूर्व प्रत्येक समय की योरपीय स्त्रियों की अपेक्षा समाज में कहीं अधिक उच्च स्थान प्राप्त था।

वैदिक काल में प्रत्येक बात में स्त्री पुरुष के बराबर समझी जाती थी। बुद्धि से काम लेने और अपने स्वार्थों को समझने की प्रायु प्राप्त कर लेने पर वह अपना पति चुनती थी! विधवाओं को पुनर्विवाह करने से कोई रोकता नहीं था। सर हरबर्ट रिसले जैसे विद्वानों ने इस बात को स्वीकार*[] किया है। कतिपय दशाओं में वैदिक भारत की स्त्रियाँ वर्तमान योरपियन स्त्रियों से भी अधिक स्वतंत्र थीं।

योरप में स्त्रियों को अभी हाल में स्वतंत्रता मिली है। बहुत समय नहीं हुआ जब 'स्त्रियों के निर्वाचन' की बात कोई जानता ही नहीं था। एक समय में यह बात भी बहुत कम लोग मानते थे कि स्त्रियों के श्रात्मा होती है।

आधुनिक विज्ञानयुग के पूर्व योरप में अत्यन्त समुन्नत-काल वह था जब रोमन लोग सब बात के कर्ता-धर्ता थे। रोमन्स के योरप में स्त्री केवल विलास की सामग्री मात्र थी। रोमन कानून में कतिपय दशाओं में स्त्रियों को वही स्थान प्राप्त था जो मध्यकालीन भारत की स्त्रियों को प्राप्त था। और कतिपय अन्य दशाओं में उससे भी निम्न स्थान प्राप्त था। भारतवर्ष में यह स्थिति तब थी जब इस देश का राजनैतिक हृास हो रहा था। योरप में यह स्थिति तब थी जब रोमन लोग अपनी राजनैतिक प्रधानता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए थे।

रोम की प्रधानता के समय में स्त्रियों की क्या स्थिति थी इस प्रश्नपर विचार करते हुए एक लेखिका†[] लिखती है-"स्त्री से इस बात की आशा की जाती थी कि वह यावज्जीवन अपने पिता, पति या अन्य संरक्षक के अधीन रहेगी और बिना उनकी आज्ञा के कुछ न करेगी। निःसन्देह प्राचीन काल में यह अधिकार इतना बड़ा था कि बिना सार्वजनिक रूप से स्त्री का न्याय हुए पिता या पति कुटुम्ब के लोगों की राय लेकर उसकी हत्या कर सकते थे। स्त्रियों पर संरक्षम की इतनी पराधीनता का कारण यह था कि वे 'स्वभाव की चञ्चल होती थीं, 'शरीर से निर्बल होती थीं' और 'राजनियमों से अनभिज्ञ होती थीं।'

रोमन राज्य में वैवाहिक नियम क्या थे? इस सम्बन्ध में उस लेखिका ने निम्न बातें लिखी हैं*[]:-

"समस्त दक्षिणी देशों की भाँति-जहाँ स्त्रियाँ कम आयु में ही युवती हो जाती हैं-रोम में भी बालिकाओं का प्रायः कम आयु में ही विवाह कर दिया जाता था। रीति के अनुसार बारह वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर वह विवाह के योग्य समझी जाती थी। प्राचीन काल में तीन भिन्न भिन्न उपायों द्वारा स्त्रियाँ पनी बनाई जाती थीं। (१) विक्रय-प्रहसन द्वारा (२) शपथ द्वारा। यह विवाह एक विचित्र संस्कार के साथ होता था और जो इस रीति से विवाह करते थे वे स्त्री पुत्र समेत पादरी होने के योग्य समझ लिये जाते थे। (३) कुछ समय तक एक साथ निवास-द्वारा। इस नियम के अनुसार कोई भी स्त्री किसी मनुष्य की पत्नी समझ ली जाती थी, यदि बह उसके साथ एक वर्षपर्यन्त रह लेता था और इस समय के भीतर चह एक के बाद दूसरी, ऐसी तीन रातों से अधिक के लिए उससे पृथक नहीं होती थी।"

दूसरी शताब्दी में कुछ परिवर्तन हुआ। उस दशा में कोई पुरुष स्वयं उपस्थित न हो तब भी विवाह कर सकता था। परन्तु स्त्री नहीं कर सकती थी। स्त्री के माता-पिता या संरक्षक उसके लिए वर का प्रबन्ध कर देने के आदी हो गये थे। योरप के अधिकांश भागों में अब भी ऐसा ही होता है। विवाह के सम्बन्ध में कन्या की स्वीकृति भी आवश्यक समझी जाती थी। पर दबाव डालकर यह सम्मति लेने में माता-पिता की शक्ति परिमित†[] थी।

योरप में ईसाई-धर्म के विचारों से स्त्रियों का स्थान ऊँचा उठाने में बिलकुल सहायता नहीं मिली। मिस हेकर ने लिखा है कि जेनेसिस के मतानुसार स्त्री ही मनुष्य-जाति के पतन का कारण है‡[] सेंट जेरोम का यह कहना था कि सब प्रकार की बुराइयाँ स्त्री से ही उत्पन्न होती हैं। सेंट आगस्टिन का तर्क यह था कि पुरुष ने तो परमात्मा की आकृति पाई है परन्तु स्त्री ऐसी नहीं है। वह कहता है कि 'स्त्री को अपने पति पर शासन करने की आज्ञा नहीं है। वह साक्षी नहीं दे सकती, जमानत नहीं कर सकती और न कचहरी का कार्य्य कर सकती है*[]। पितागण इस बात पर अधिक ज़ोर देते हैं कि बेटियों अपनी माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध जो विवाह करती हैं, वह विवाह नहीं व्यभिचार है।

जर्मन लोगों में विवाह सदैव संरक्षण-द्वारा शासित होता था। जातिभेद भी बहुत प्रबल था। स्त्रियों को अपनी स्थिति से निम्नअवस्था में विवाह करना पड़ता था†[]। और वे कभी स्वतन्त्र नहीं होने पाती थीं। वहीं के 'पवित्र धर्म-शास्त्रों के अनुसार' विवाह करते ही स्त्री पति के अधीन हो जाती थी। और इस प्रकार पति उसकी समस्त सम्पत्ति का भी स्वामी बन बैठता था।‡[]

इंगलेंड के सम्बन्ध में १७६३ ईसवी में ब्लैकस्टोन ने लिखा था:-

'प्राचीन कानून के अनुसार पति भी अपनी स्त्री को साधारण दण्ड दे सकता है। उसके बुरे वर्ताव के लिए पति को भी उत्तर देना पड़ता है इसलिए कानून ने यह उचित समझा कि उसे स्त्री को गृह-सम्बन्धी दण्डों द्वारा, कठोर परिश्रम-द्वारा, या बच्चों के द्वारा ऐसे व्यवहारों से रोकने का अधिकार दिया जाय जिनके लिए गृह-स्वामी या माता-पिता को भी कतिपय अवस्थाओं में उत्तरदायी होना पड़ता है§[]।......"

यह उस समय के आसपास की बात है जब एबे हुबोइस हिन्दुओं की सामाजिक प्रथाओं में अपनी निन्दास्पद खोज करने में लगा था। ब्लैकस्टोन ने इसी क्रम में आगे कहा है:"इँग्लैंड के सिविल कानून ने पति को अपनी स्त्री पर शासन करने के लिए वही या उससे भी कड़ा अधिकार दिया था। इस कानून के अनुसार कुछ अनुचित कार्यों के लिए उसे अपनी स्त्री को कोड़ों और दण्डों से पीटने की आज्ञा थी। और दूसरे कुछ अपराधों के लिए मामूली दण्ड देने की आज्ञा थी।"

तृतीय जार्ज के शासन काल में जिस स्त्री पर हत्या का अभियोग लगाया जाता था वह घसीट कर जीवित जला दी जाती थी।[१०]

मिस हेकर का कहना है कि 'स्त्री की स्वतन्त्रता पर पति के शासन का अधिकार तब तक पूर्ण रूप से निर्मूल हुआ नहीं कहा जा सकता जब तक १८९१ ई॰ में रेग बनाम जैकसन का मुकदमा नहीं उपस्थित हुआ था। इँग्लैंड में पत्नी को पीटना आज भी एक साधारण अपराध समझा जाता है[११]।' यह १९११ के सुन्दर वर्ष की बात है।

सम्पत्ति पर स्त्रियों के अधिकार के सम्बन्ध में यह हाल है कि १९वीं सदी के तीन चौथाई भाग के समय तक विवाहित अवस्था में स्त्री को यह अधिकार नहीं था कि वह बिना अपने पति की अनुमति के अपनी भूमि किसी और के नाम मलगा दे। विधवा को पति-दत्त उपहार के रूप में उस भूमि का एक तिहाई भाग जीवन-पर्यन्त तक के लिए मिलता था जिसे पति वैवाहिक जीवन में किसी रईस की ओर से युद्ध करने के बदले में पाता था।

"हमारा कानून पति और पत्नी दोनों के बीच में किसी प्रकार की सम्मिलित सम्पत्ति की व्यवस्था नहीं करता। चल-सम्पत्ति के सम्बन्ध में भी नहीं। विवाह के समय जो भी चल-सम्पत्ति स्त्री के पास रहती है वह सब पति की हो जाती है। और वैवाहिक जीवन के समय में स्त्री को जो भी सम्पत्ति प्राप्त होती है उस सब पर पति का अधिकार हो जाता है। और पति बिना उसकी अनुमति के उसके दिये हुए समस्त ऋणों को नालिश करके वसूल कर सकता है[१२]।" वैवाहिक जीवन के समय में स्त्री अपने नाम पर जायदाद-सम्बन्धी काई लिखा-पढ़ी नहीं कर सकती। विवाहिताओं की संपत्ति-रक्षा का कानून––जिससे पत्नी की संपत्ति पर पति के पूर्ण अधिकार का अन्त हो जाता है––इँग्लैंड में सभी थोड़े ही समय हुए १८८२ ईसवी में पास हुआ था[१३]

इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य वह बात है जो मिस हेकर स्वीकृति आयु के संबन्ध में लिखती है:––

"इस संबन्ध में ईसाई सभ्यता पर अत्यन्त शोचनीय कलङ्क वह है जो 'कानून से स्वीकृति की आयु' के नाम से पुकारा जाता है। प्राचीन साधारण कानून के अनुसार यह आयु केवल १० या १२ वर्ष मानी जाती थी। १८८५ में यह १३ वर्ष थी। उस उम्र में एक बालिका से यह आशा की जाती थी कि वह अपने कर्तव्य को जानती है। परन्तु १८८५ ईसवी में मिस्टर स्टीड ने लन्दन की जनता से स्पष्ट रूप से कह दिया कि अपरिपक्व आयु की बालिकाओं के साथ शताब्दियों से अत्याचार किया जा रहा है और इस भयङ्कर सत्य को हम सब भली भांति जानते हैं। इसके पहले इस बात को स्वीकार करने का किसी ने साहस नहीं किया था। परिणाम यह हुआ कि पार्लियामेंट ने स्वीकृति की आयु कानून-द्वारा बढ़ा कर सोलह वर्ष कर दी। यह आयु अब भी यही मानी जाती है[१४]।"

यह बात सबको भली भाँति मालूम है कि इँग्लैंड में स्त्रियों को उच्च शिक्षा देने का आन्दोलन भी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध-काल में आरम्भ हुआ है। स्त्रियों को मताधिकार मिलने का आन्दोलन तो अभी बिल्कुल हाल की बात। और इसके सम्बन्ध में अभी कुछ लिखने की आवश्यकता भी नहीं प्रतीत होती।

मिस मेयो के देश में

अभी अभी १८८० ईसवी तक अमरीका में रेबरेंड नाक्स लिटिल के समान व्यक्ति मौजूद थे जिसने फिला डेलफिया के गिरजाघर में व्याख्यान देते हुए कहा था कि 'पत्नी बनने में ही स्त्री का महान् गौरव है।······पति के प्रति उसका यह कर्तव्य है कि वह आँख मूँद कर पति की आज्ञाओं का पालन करे। ऐसा कोई पाप नहीं है जिसमें पुरुष के पड़ जाने पर स्त्री-द्वारा उसका त्याग न्यायोचित कहा जा सकता है। पति के किसी भी पाप के कारण स्त्री को विवाह-विच्छेद जैसी भयङ्कर वस्तु की प्रार्थना न करनी चाहिए[१५]। बड़े लोग चाहे वे भारतवर्ष में हो चाहे अन्यत्र इससे अधिक और क्या माँग सकते हैं?

स्वीकृति की आयु बढ़ाने के संबन्ध में एक गैर सरकारी बिल पर बड़ी व्यवस्थापिका सभा में कुछ अत्यन्त कट्टर सदस्यों के व्याख्यानों को लेकर मिस मेयो ने बहुत कुछ शोर गुल मचाया है। यह बिल एक हिन्दू मेम्बर द्वारा उपस्थित किया गया था। परन्तु सरकारी सदस्यों की ओर से विरोध होने के कारण यह बिल पास नहीं हो सका। विवाह के लिए कम से कम आयु नियत कर देने के लिए दूसरा बिल बड़ी व्यवस्थापिका सभा के एक हिन्दू सदस्य रायबहादुर हरविलास शारदा द्वारा उपस्थित किया गया था। सरकारी सदस्यों द्वारा इसका भी घोर विरोध किया गया। इस समय यह सेलेक्ट कमेटी में है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्रिटिश-सरकार की ओर से विरोध होते हुए भी उन्नति के विचार बड़ी शीघ्रता के साथ प्रबल हो रहे हैं। और यह तो बिल्कुल प्रत्यक्ष बात है कि कुछ अपरिवर्तनवादी लोग ऐसी बातों का सदैव ही विरोध करेंगे। भारतवर्ष के ही संबन्ध में यह कोई विशेष बात नहीं है। १८५२ ईसवी में ब्रिटिश-पार्लियामेंट में रेल-निर्माण के विरुद्ध एक प्रस्ताव पर विचार हुआ था। हाउस आफ़ कामन्स में नेपियर ने जहाज़ी बेड़े में भाप की शक्ति के प्रथम प्रयोग का विरोध किया था। स्काट ने रोशनी के लिए गैस की निन्दा की थी। बाइरन ने कविता में इसकी हँसी उड़ाई थी। इस बात में मिस मेयो का बोस्टन नगर सबसे बाजी मार ले गया, जब १८४५ ईसवी में इसके म्यूनिसिपल बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास करके चिकित्सा के अतिरिक्त अन्य सभी अवस्थाओं में स्नान के टबों को गैर कानूनी घोषित कर दिया था। यहाँ अमरीका के स्वीकृति की आयु के कानून का इतिहास दे देना अधिक उपयुक्त होगा। मिस हेकर[१६] ने अपनी पुस्तक में इसका नीचे लिखे अनुसार वर्णन किया है:––

"१८९० ईसवी में न्यूयार्क की सिनेट में स्वीकृति की आयु––वह आयु जिसमें कानूनी तौर पर कोई बालिका किसी पुरुष को अपने साथ सम्भोग करने की स्वीकृति दे सके––१६ वर्ष से घटा कर १४ वर्ष कर देने के लिए एक प्रस्ताव उपस्थित किया गया। यह प्रस्ताव गिर गया। १८९२ ईसवी में वेश्या-गृहों के संचालकों ने इसे बड़ी व्यवस्थापिका सभा में पास कराने का फिर उद्योग किया। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास होनेवाला था कि सभापति ने प्रत्येक व्यक्ति से हाँ या नहीं में मत माँगा ताकि जिन लोगों ने उन्हें चुना है उनको भी ज्ञात हो जाय कि उनके निर्वाचित सदस्यों ने अपना मत किस पक्ष में दिया। इस पर प्रस्ताव गिर गया। १८८९ ईसवी में कन्सास की सिनेट में एक प्रस्ताव लाया गया कि स्वीकृति की आयु १८ वर्ष से घटा कर १२ वर्ष कर दी जाय। परन्तु जनता को इस बात का पता चल गया। बड़ा घोर विरोध आरम्भ हो गया। ऐसी परिस्थिति में कानून वैसा ही रहने दिया गया।"

जो अमरीका-यात्री भारतवर्ष में आकर यहाँ की स्त्रियों की अयोग्यताओं की सूची तैयार करते हैं उन्हें यह न भूल जाना चाहिए कि स्वयं उनके देश में स्त्रियों की स्वतन्त्रता अभी बिल्कुल नई बात है। अमरीकन स्त्रियों का आन्दोलन केवल गत शताब्दी के अन्त में ज़ोर पकड़ सका है। स्त्रियों की पहली महासभा सेनेका फाल्स न्यूयार्क में १८४८ ई॰ में हुई थी। तब अमरीका के समाचार-पत्रों ने इसकी दिल्लगी उड़ाई थी। और कहा गया था कि यह भीड़ 'परित्यक्ता पत्नियों, वन्ध्या स्त्रियों और कुछ वृद्धा कुमारियों द्वारा एकत्रित की गई है[१७]

जब अमरीका की स्त्रियाँ अपना अधिकार प्राप्त कर रही थीं तब भारतवर्ष में व्यवस्थापक कौन भारतवासी या ब्रिटिश? गत शताब्दी के मध्यकाल तक योरप और अमरीका की स्त्रियों की जो दशा रही है, उससे बुरी या निम्न अवस्था में भारतीय स्त्रियों को हिन्दू इतिहास के किसी काल में भी नहीं रहना पड़ा। पिछले अध्याय में हम यह लिख चुके हैं कि वैदिक काल में भारतवर्ष की स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का स्थान प्राप्त था। बौद्ध काल से उनकी दशा बिगड़नी आरम्भ हुई है परन्तु कानून की दृष्टि से बौद्ध-काल में भी उनको पूर्व का-सा ही स्थान प्राप्त था। यह एक विचित्र बात है कि योरप के रोमन-राज्य के समकालीन हिन्दू-इतिहास में स्त्रियों की स्वतंत्रता में जो रुकावटें डाली गई थीं वे बहुत अंशों में वैसी ही थीं जैसी कि रोमन राज्य में थीं। उदाहरण के लिए, दोनों जगह स्त्रियों को निरन्तर पुरुषों के संरक्षण में रहने की आवश्यकता थी। परन्तु भारतवर्ष में यह केवल कुछ ही स्मृतिकारों की सम्मति थी और प्रयोग में यह कभी नहीं लाई गई। हिन्दू-इतिहास के किसी भी काल में स्त्रियों को, जायदाद सम्बन्धी लिखा-पढ़ी करने, अपनी सम्पत्ति को मनमाने तौर से उपयोग करने, पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी बनने (यद्यपि केवल जीवन भर के लिए) अपनी सन्तान की संरक्षिका होने, और माता, पुत्री और बहन के रूप में सम्पत्ति के कुछ भागों का उत्तराधिकार पाने से, कभी भी वञ्चित नहीं किया गया। जीवन में उसके पति का जो स्थान रहा हो उसी की मर्यादा के अनुसार गृह में निवास करने और भरण-पोषण प्राप्त करने का उसे सर्व-प्रथम अधिकार था और अब भी है। उसके शिक्षा ग्रहण करने और धार्मिक कृत्यों में भाग लेने के अधिकार को कभी अस्वीकार नहीं किया गया।

पश्चिम में स्त्रियों की जो वर्तमान अवस्था है वह केवल गत ७५ वर्षों की उन्नति का फल है। इसके पूर्व योरप और अमरीका में स्त्रियों की दशा कानून, गृह-शासन, नीति और समाज प्रत्येक के दृष्टिकोण से उतनी अच्छी भी नहीं थी जैसी कि आज-कल भारतवर्ष की स्त्रियों की है। यदि इसी समय में भारतवासी भी स्वतंत्र होते तो इसमें सन्देह नहीं कि उनकी स्त्रियों की दशा पश्चिम की स्त्रियों की दशा से कहीं उत्तम होती। यदि मिस को अपनी दूसरे देशों की बहनों की भी भलाई का ध्यान होता तो स्वीकृति की आयु बढ़ाने और विवाह की कम से कम आयु निश्चित करने के व्यक्तिगत प्रस्तावों के सरकार दुखी भारत

श्रीमती सरोजिनी नायडू

की ओर से जो विरोध हुए हैं उन्हें देखते हुए वह वर्तमान भारतीय शासन पद्धति की स्तुति करने का विचार नहीं कर सकती थी।

वर्तमान भारतीय विधान के अनुसार भित्र-भिन्न व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों को यह स्वीकृति मिल गई है कि वे स्त्रियों को भी मताधिकार दे सकते हैं। यद्यपि यह अधिकार अभी हाल ही में प्राप्त हुआ है तथापि बहुत सी बड़ी बड़ी व्यवस्थापक-सभाओं ने इसका प्रयोग करना आरम्भ कर दिया है। परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश प्रान्तों में स्त्रियों को प्रान्तीय अथवा केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के लिए मत प्रदान करने या निर्वाचन के लिए खड़ी होने का अधिकार मिल गया है। मिस मेयो का यह कहना सत्य है कि हमारी व्यवस्थापिका-सभाओं में स्त्री-सदस्यों की संख्या अस्यन्त न्यून है, परन्तु क्या हम पूछ सकते हैं कि अमरीका के सिनेट में स्त्री-सदस्यों की संख्या कितनी है? स्त्रियों को मताधिकार मिलना एक बिल्कुल नई बात और इसको सम्भव रूप धारण करने में अभी देर लगेगी। ब्रिटिश के हाउस आफ़ कामन्स के ७०० सदस्यों में केवल चार स्त्रियाँ हैं। परन्तु भारतवर्ष में शिक्षित स्त्रियों को अत्यन्त सम्मान के पद प्रदान किये गये हैं। डाक्टर मधु लक्ष्मी रिद्दी मदरास की व्यवस्थापिका सभा की उपसभानेत्री निर्वाचित हुई हैं। भारतवर्ष की राष्ट्रीय महासभा दो स्त्रियों को अपना सर्वोच्च आसन दे चुकी है। श्रीमती एनी बीसेन्ट को और श्रीमती सरोजनी देवी नायडू को। कांग्रेस के सभापति का आसन ही सर्वोच्च सम्मान है जो गैर सरकारी भारतवर्ष किसी को प्रदान कर सकता है। और स्त्रियाँ इस सम्मान से वञ्चित नहीं रक्खी गई। इस प्रश्न पर राष्ट्रवादी भारतवासियों के प्रगतिशील दृष्टिकोण की यह निश्चित पहचान है।



  1. *सर हरबर्ट रिसले भारतीय जातियों के अनुसन्धान करनेवालों में प्रमुख व्यक्ति थे। इस विषय में उनकी मुख्य पुस्तक भारत की जातियाँ' नामक थैकर स्पिंक कलकत्ता के यहाँ से प्रकाशित हुई है। भारत सरकार के संसस कमिश्नर भी थे।
  2. † यूजिन ए॰ हेकर-स्त्री-अधिकारों का संक्षिप्त इतिहास-इंगलैंड और अमरीका के विशेष वर्णन के साथ (फुटनम १९११) पृष्ठ २।
  3. * उसी पुस्तक से, पृष्ठ म८,९।
  4. † उसी पुस्तक से, पृष्ट १०।
  5. ‡ उसी पुस्तक से, पृष्ट ५३।
  6. * उसी पुस्तक से, पृष्ठ ५८, ५९।
  7. † उसी पुस्तक से, पृ॰ ७९ और आगे।
  8. ‡ उसी पुस्तक से, पृष्ट ८५।
  9. § मिस हेकर द्वारा उद्धृत। उसी पुस्तक से, पृष्ट १२५।
  10. मिस हेकर कृत उसी पुस्तक से, पृष्ठ १२६।
  11. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १२७।
  12. मिस हेकर द्वारा पोलक और मेटलैंड के लेख का उद्धारण। उसी पुस्तक से, पृष्ठ १२९।
  13. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १३२।
  14. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १३८।
  15. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १५१।
  16. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १५५-१५६।
  17. उसी पुस्तक से पृष्ठ १५५-१६६।