दुखी भारत/१२ प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १७८ से – १९५ तक

 

बारहवाँ अध्याय

प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान*[]

वैदिक-काल†[]-इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान समय में स्त्रियों की जो स्थिति है वह वैदिक-काल की अपेक्षा बहुत गिरी हुई है। इस बात को प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि वैदिक-काल में पञ्जाब में आर्य स्त्रियों को अत्यन्त सम्माननीय ही नहीं अत्यन्त महान् पद भी प्राप्त था। इसके पश्चात् के समय में जो प्रभाव पड़े और जो परिवर्तन हुए उनसे यह स्थिति और अच्छी नहीं हुई, उलटा और बिगड़ गई‡[] सूक्ष्म रूप से स्त्रियों और पुरुषों में क्या क्या सम्बन्ध होना चाहिए इस पर वैदिक साहित्य में कोई वाद-विवाद नहीं मिलता। ऋग्वेद में स्त्री को कुमारी, पत्नी और माता कहा गया है। और इन स्थितियों में उलके अधिकारों का बहुत संक्षिप्त वर्णन मिलता है।

कुमारी की दशा में स्त्री को भी रक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा-सम्बन्धी वे ही अधिकार प्राप्त थे जो कुमारों को प्राप्त थे। जीवन का साथी चुनने में उनको वही स्वतंत्रता प्राप्त थी जो पुरुषों को थी। वेदों में विवाह के पूर्व कुमारों और कुमारियों के किसी न किसी प्रकार के प्रेमाभिनय का वर्णन मिलता है। 'कुमारों में कुमारियों के प्रति प्रेम' प्रकाश करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। उनके कुमारियों से विवाह की प्रार्थना करने और दोनों के पारस्परिक प्रेम' के भी वर्णन मिलते हैं। इस पद की पुष्टि के लिए ऋग्वेद दशम खण्ड का ८५ मंत्र देखिए। उसमें सोम का सवितर-अर्थात् सूर्य्यदेव की कुमारी कन्या सुरमा-से विवाह-प्रार्थना करने की बात मिलती है। सुरमा को 'इच्छुकवधू' कहा गया है। और विवाह के पश्चात् ही वर उसे धूम-धाम के साथ अपने घर ले जाता है। वहाँ विवाह की सब विधियाँ समाप्त की जाती हैं।

३६ वें मन्त्र में विवाह के सिद्धान्त वर्णित हैं। इसे आज भी प्रत्येक हिन्दू वर और वधू विवाह के अवसर पर परस्पर कहते हैं। मन्त्र का अर्थ यह है-'सुख के लिए मैं तुझे अपने दाहिने हाथ से स्वीकार करता हूँ जिससे कि तू मेरे, अपने पति के साथ साथ वृद्धावस्था को प्राप्त हो। 'आर्य्यमन', 'भग', 'सवितर', 'परमादी'*[] ने तुझे मेरे हाथों सौंपा है जिससे कि हम दोनों मिलकर अपने गृह का शासन करें।

अपने पति के घर में आने पर वधू का इस प्रकार स्वागत किया जाता है:-

"यहाँ तू धन-धान्य और सन्तति से सम्पन्न होकर प्रसन्नता के साथ रह। इस गृह की सावधानी के साथ देख-रेख कर। अपने पति के साथ निवास कर और वृद्धावस्था प्राप्त होने पर तेरा इस गृह पर शासन बना रहे। अब तू यहीं रह। कभी पृथक न हो। अपने जीवन के सम्पूर्ण वर्षों का सुख-भोग कर। पुत्रों और पौत्रों की क्रीड़ा देखकर गृह के भीतर प्रसन्नचित्त बनी रह।"

इसके पश्चात् उसे अन्तिम आशीर्वाद देकर स्वागत कार्य समाप्त किया जाता है। यह आशीर्वाद पहले पति देता है उसके पश्चात् सब एकत्रित जन उसे दुहराते हैं। पति कहता है:-

"प्रजापति हमें पुत्र और पौत्र प्रदान करें। आर्यमन हमें वृद्धावस्था तक टिकनेवाली सम्पत्ति देखें। अब तुम अपने पति-गृह में प्रवेश करो। गृह के भीतर मनुष्यों और पशुओं की वृद्धि हो और वे सुख से रहें। तेरे कारण पशुओं तक का आग्य जगे। तेरा हृदय कोमल हो, मुखमण्डल प्रसन्न हो, तू वैदिक साहित्य में स्त्रियों के पर्दे में रहने का कहीं भी पता नहीं चलता। और जितने प्रमाण मिलते हैं वे सब इसी बात की पुष्टि करते हैं कि स्त्रियों को चलने फिरने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी।

स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि स्त्रियों को पढ़ने-लिखने की केवल स्वतंत्रता ही नहीं थी बल्कि इस बात को सिद्ध करनेवाले प्रमाण भी मिलते हैं कि शिक्षा में स्त्रियाँ छात्रा और शिक्षिका के रूप में उच्च से उच्च प्रतिष्ठा-पद प्राप्त करती थीं।

रामायण और महाभारत-काल-महाभारत और रामायण काल में हम आकर देखते हैं कि स्त्रियों का स्थान किसी दशा में गिरा नहीं था। उस काल में भी विवाह के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता थी। स्वतंत्रता ही नहीं, पूर्ण स्वतंत्रता थी। रामायण और महाभारत-काल में समाज ऐसे विवाहों की स्वीकृति देता था जो माता-पिता की बिना अनुमति के स्वतन्त्र प्रेम के परिणाम स्वरूप होते। उदाहरण के लिए महाभारत की कथा के दो मुख्य पान अर्जुन और सुभद्रा के विवाह को लीजिए। उस समय के समाज का झुकाव उन समस्त विवाहों की स्वीकृति देने की ओर था जिनसे विवाह के समय विवाह करनेवालों के। विचारों से यह प्रकट होता था कि यह सम्बन्ध स्थायी होगा। वास्तव में विवाह के ऐसे ऐसे रूप स्वीकार किये गये हैं जो अनियमित सम्बन्धों को भी धर्मोचित ठहराते हैं। जिससे कि ऐसे सम्बन्धों से जो सन्तान उत्पन्न हो उसे जारज होने का अपमान न सहना पड़े। उस समय जाति के बन्धन तो थे ही नहीं। अपनी सम्पत्ति पर स्त्रियों की शक्ति और अधिकारों का स्पष्ट विकास मिलता है, जो कि स्त्री-धन कहा जाता था। हाँ, यह कहना ठीक न होगा। कि वैदिक या रामायण और महाभारत काल में स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता। का उस रूप में भी विचार किया गया है जिस रूप में कि आज वह पश्चिम में समझी जाती है। यह कहा जाता है कि रामायण और महाभारत काल में स्त्रियों को पर्दे में रखने की प्रथा आरम्भ हुई। परन्तु यह सम्मति बहुत ही निर्बल बातों पर अवलम्बित है और विपक्ष में जो प्रमाण हैं उनकी गुरुता पर। यह ध्यान नहीं देती। स्त्रियों के खेल देखने, स्वपति के साथ युद्ध-क्षेत्र में जाने, यात्रा में जाने और अन्य प्रकार से स्वतंत्रता-पूर्वक विचरण करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इसके विरुद्ध जितने भी प्रमाण पाये जाते हैं वे सब क्षत्रिय-जाति से सम्बन्ध रखते हैं। यह बात सब लोग स्वीकार करते हैं कि इन महाकाव्यों में बड़ी स्वतंत्रता के साथ नये नये श्लोक जोड़े गये हैं। यह कार्य अभी हाल के समय तक जारी रहा है। इससे यह सम्भावना की जाती है कि इस सम्बन्ध में जो वर्णन मिलते हैं वे बहुत पश्चात् के समय के होंगे-उस समय के जब स्त्रियों का पर्दे में रहना सम्मान का चिह्न समझा जाने लगा।

रामायण और महाभारत काल में इसके अतिरिक्त और किसी दशा में स्त्रियों का स्थान नहीं गिरा। वास्तव में मैं तो यहां तक समझता है कि इस काल में भारतवर्ष में स्त्रियों को सर्वोत्तम स्थान प्राप्त था। तभी से इसका क्रमशः पतन होना आरम्भ हुआ है। उस समय नृत्य, गान और घोड़े की सवारी करना स्त्रियों के गुण समसे जाते थे और कदाचित् स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध सर्वोत्तम ढङ्ग का था।

सूत्रकाल-रामायण और महाभारत-काल से हम सूत्रकाल में पाते हैं। संस्कृत-साहित्य का सूत्रकाल अपने दङ्ग का एक ही है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ सूत-धागा है। सूत्र-कालीन साहित्य संक्षिप्त विवरणों से आच्छादित है। धर्म, दर्शन, सिद्धान्त, विज्ञान सबके सकुंचित रूप अर्थात् सूत्र बन गये थे। आर्यों के बहुत से पवित्र सिद्धान्त और स्मृतियाँ इसी काल की हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उनकी नींव प्राचीन थी परन्तु उनका स्वरूप बहुत पश्चात् के समय का था। हिन्दू आर्य्यों के सब बातों के नियमबद्ध करने के ये प्रथम उद्योग थे। और उनके स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध-सम्बन्धी धर्मशास्त्र में हमें संकीर्णता और उदारता तथा स्वतंत्रता और नियंत्रण का विचित्र सम्मिश्रण मिलता है। इन नियमों का रचना-काल निश्चित करना कठिन है। योरप के विद्वान उन्हें बौद्धकाल के पश्चात् का अर्थात् ईसवी से ५०० वर्ष पहले के पश्चात् का बतलाते हैं। हिन्दू उनके लिए अधिक प्राचीनता का दावा करते हैं। कदाचित् सत्य इन दोनों छोरों के बीच में है। मूल रूप में तो ये धर्मशास्त्र बौद्धकाल के पूर्व के ही हैं परन्तु आज वे जिस रूप में हैं वह बौद्धकाल के पश्चात् की रचना है। इनमें रचयिताओं ने वे बातें भी जोड़ दी हैं जो उन्हें अच्छी लगती थीं या जिन्हें उस समय के समाज ने स्वीकार कर लिया था। स्त्रियों के सम्बन्ध में इन धर्मशास्त्रों में जिन बातों का वर्णन है वे संक्षेप में निम्नलिखित हैं:-

(क) ने इस बात पर जोर देते हैं कि बालिकाओं का विवाह जब रजोदर्शन हो तब या उसके तीन वर्ष के भीतर हो जाना चाहिए। रजोदर्शन से पूर्व के विवाहों की भी वे स्वीकृति देते हैं।

(ख) ऐसी परिस्थिति में वर या वधू की अनुमति प्रदान का प्रश्न ही नहीं रह जाता। प्रेमाभिनय या प्रेम-प्रकाश करने का भी अवसर नहीं प्राप्त हो सकता।

(ग) परन्तु यदि संरक्षक अपने आश्रित कुमारियों का रजोदर्शन के पश्चात् तीन वर्ष के भीतर विवाह न कर दें तो कुमारियों को यह आज्ञा है कि वे माता-पिता की अनुमति या स्वीकृति का बिना ध्यान किये अपने मन का पति चुन सकती हैं। परन्तु रजोदर्शन से पूर्व बालिकाओं का विवाह कर देने की ऐसी भयप्रद और कठोर अाज्ञा है कि इस सम्बन्ध में असावधानी करके कठिन दण्ड भोग करने का माता-पिता साहस ही नहीं कर सकते। इस प्रकार यह प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित होगई।

हमें इस बात का पूर्ण निश्चय नहीं है कि भारत में मुसलमानों का प्राधिपस्य स्थापित होने के समय यह प्रथा जैसी सर्वमान्य हो गई थी वैसी ही उसके पूर्व भी थी। क्योंकि मुसलमानों के शासन के एक शताब्दी पूर्व तक कन्याओं के अधिक आयु में अपने पति चुनने और विवाह करने के उदाहरण मिलते हैं। राजा दाहिर की पुन्नियाँ जो ईसा के पश्चात् आठवीं शताब्दी में बन्दी बनाई गई थीं और जिन्होंने अपनी असाधारण बुद्धि-द्वारा अपने बन्दी बनानेवालों से पूरा बदला चुका लिया था, अवश्य ही युवती कुमारियों रही होंगी। कन्नौज की राजकुमारी संयोगिता-जिसने अपने पिता की इच्छाओं के विरुद्ध दिल्ली के नरेश पृथ्वीराज को अपना पति बरण किया था-युवती कुमारी ही थी। ये उदाहरण किसी प्रकार भी इने गिने नहीं कहे जा सकते, क्योंकि मुसलमानों के आक्रमण के पूर्व काल में जिन नाटकों की रचना हुई है के युवती कुमारियों के अपनी पसन्द के युवकों से प्रेम करने और इच्छानुसार उनके साथ विवाह करने के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। सबसे बड़े भारतीय नाटककार कालिदास ईसा से पूर्व पाँचवीं शताब्दी में हुए थे। उनकी रचनाओं में सर्वश्रेष्ट शकुन्तला एक वयस्क कुमारी थी। उसने दुष्यन्त की प्रेम-प्रार्थना को बिना अपने पिता की अनुमति की प्रतीक्षा किये स्वीकार कर लिया था। उसकी सखियाँ भी युवती कुमारियाँ थीं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वान चांग ने एक ब्राह्मण युवक और एक कुमारी के विवाह का उल्लेख किया है। विवाह के ही समय से दोनों एक साथ रहने लगे और एक ही वर्ष पश्चात् स्त्री ने एक शिशु को जन्म दिया। यह छठी शताब्दी की बात है। ग्यारहवीं शताब्दी का मुसलमान लेखक अलबेरूनी लिखता है कि 'हिन्दुओं में बहुत कम आयु में विवाह हो जाता है इसलिए माता-पिता अपनी सन्तान के विवाह का प्रबन्ध करते हैं।' हम समझते हैं कि हमारा इस निश्चय पर पहुँचना उचित होगा कि मुसलमान राज्य प्रारम्भ होने के समय इस प्रथा का निर्माण हो रहा था। और सुसलमानी राज्य ने इसे और भी प्रबल कर दिया। इसका कारण यह था कि इसलाम-धर्म में विवाहिता स्त्रियों को भी अपहरण करके गुलाम बनाने की आज्ञा नहीं थी।

अब सूत्रों और स्मृतियों की ओर ध्यान दीजिए तो ज्ञात होगा कि बालविवाह की धारणा के वशीभूत होने के कारण ही माता-पिता यह कल्पना कर लेते थे कि स्व-पुत्रों और स्व-पुत्रियों पर उनका बहुत बड़ा अधिकार है। हिन्दू स्मृतिकारों को यह अधिकार स्वीकार कर लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई। परन्तु जब वे स्त्रियों के प्रति पुरुषों के व्यवहार-सम्बन्धी सिद्धान्तों की व्याख्या करने बैठे तब उन्हें समाज की भिन्न भिन्न स्थितियों में एक विचित्र मतभेद का सामना करना पड़ा। एक ओर तो श्रार्यों की स्त्रियों के प्रति उच्च सम्मान की भावना थी और दूसरी ओर यह धारणा थी कि स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं होना चाहिए । एक ओर हम मनु का यह सिद्धान्त पाते हैं कि*[]:-

"उन पिता, भाई, पति और देवरों के द्वारा स्त्रियों की पूजा होनी चाहिए जो यह चाहते हैं कि उन्हें अधिक उन्नति प्राप्त हो।" "जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। परन्तु जहाँ उनकी पूजा नहीं होती कहाँ सब क्रियायें निष्फल जाती हैं।

"जिस कुल में स्त्रियों दुख पाती हैं वह कुल शीघ्र ही विनष्ट हो जाता है। परन्तु जहाँ वे दुःख नहीं पाती वहीं सदैव सुख-सम्पत्ति की वृद्धि होती है।

"अपमानित होकर जिन गृहों को स्त्रियाँ शाप देती हैं वे इतने शीघ्र नष्ट हो जाते हैं माने किसी ने जादू कर दिया हो।

"इसलिए जो लोग सुख-सम्पत्ति की वृद्धि चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे उत्सवों और त्यौहारों पर आभूषणों, वस्त्रों और भोजनों से स्त्रियों की पूजा करें।"

यह बात पुनर्बार कही गई है कि यदि पत्नी प्रसन्न रहेंगी तो सम्पूर्ण परिवार प्रसन्न रहेगा; यदि वह प्रसन्न न रहेगी तो सब लोग दुखी रहेंगे*[]

इसकी मनु द्वारा पाँचवें अध्याय में समस्त स्त्रियों के सम्बन्ध में कही गई निम्नलिखित अयोग्यताओं से ज़रा तुलना कीजिए:-

"बाल्यावस्था में (स्त्री) अपने पिता के अधीन रहे युवावस्था में (अपने) पति के अधीन रहे; पति के मर जाने पर पुत्र के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतन्त्र न हो।

"उसे अपने पिता, पति, था पुन से कभी पृथक् होने की आकांक्षा न करनी चाहिए। क्योंकि उनसे पृथक् होने से उसके दोनों कुलों की निन्दा होगी।

"उसे सदैव प्रसन्न-मुख रहना चाहिए, गृहस्थी के कार्यों में निपुण होना चाहिए। गृह की सब वस्तुओं को स्वच्छतापूर्वक रखनी चाहिए। और व्यय करने में उसको स्वतन्त्रता न लेनी चाहिए†[]।"

नवें अध्याय के २ और ३ श्लोकों में पुनर्वार कहा गया है किः-

"उन्हें रात-दिन कुटुम्ब के पुरुषों के अधीन रखना चाहिए। बाल्यावस्था में पिता उनकी रक्षा करता है, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र।" सातवें श्लोक में पति से कहा गया है कि वह पत्नी की बड़ी सावधानी के साध रक्षा करें। क्योंकि उसकी रक्षा करके वह अपनी सन्तान की रक्षा करता है, अपने कुल-धर्म की रक्षा करता है और स्वयं अपनी तथा अपने धर्म की रक्षा करता है। इसके पश्चात् के दो श्लोकों में बताया गया है कि 'रक्षा करने का क्या अर्थ है! यह कहा गया है कि बल-प्रयोग करके या पर्दे में बन्द करके कोई पुरुष किसी स्त्री की रक्षा नहीं कर सकता। केवल वे ही स्त्रियाँ भली भौति रक्षित रहती हैं जो अपनी रक्षा अपने आप करती हैं। यहां पर उन्हें निरन्तर काम में लगी रहने के कुछ उपाय बतलाये गये हैं। इन नियमों में केवल एक बात पर निरन्तर ध्यान रक्खा गया है। वह है सन्तति की शुद्धता। यह शुद्धता (क) वर और वधू के सावधानी के साथ किये गये चुनाव से (ख) जाति के भीतर ही विवाह करने से (ग) स्त्रियों के सामने सदाचार का सर्वोच्च शादर्श रखने से (घ) पत्नी पर शासन करने का पति को पूर्ण अधिकार देने से (ङ) जाति से बाहर किये गये विवाहों के दुष्परिणामों का ज़ोरदार शब्दों में विवेचन करने से और (च) मिश्रित विवाहों से उत्पन्न सन्तति को समाज में अत्यन्त निम्नस्थान प्रदान करने से, प्राप्त हो सकती है।

आरम्भिक साहित्य में हम समस्त स्थायी सम्बन्धों को धर्मानुकूल समझने की उत्कण्ठा पाते हैं। चाहे वे सम्बन्ध प्रेम के कारण हो, चाहे दैवयोग से हो गये हो, चाहे अविचार-द्वारा हो गये हो। इसका उद्देश्य यह था कि इस प्रकार जो सन्तति उत्पन्न हो वह धर्मानुकूल समझी जाय। यह स्पष्टरूप से कह दिया गया था कि जाति के बाहर जो विवाह होंगे उनसे उत्पन्न सन्तति की जाति वही समझी जायगी जो पिता की जाति होगी। कुमारियों के पुत्र अपने पिता के धर्मानुकूल पुत्र समझे जाते थे। और जो पुरुष अपनी स्त्री को उसके निर्दोष होने पर भी त्याग देता था, नपुंसक होता था, या क्षयी का रोगी होता था, उसकी स्त्री का दूसरे पुरुष के सम्बन्ध से उत्पन्न पुत्र भी धर्मानुकूल ही समझा जाता था। पश्चात् के साहित्य में जाति से बाहर के सम्बन्धों से उत्पन्न सन्तति निम्नश्रेणी की समझी जाने लगी थी। कुछ अपवादों को छोड़ कर अनुचित सम्बन्धों से जो सन्तानोत्पत्ति होती थी उसको भी यही स्थान मिलता था। इस स्थान पर हिन्दू-धर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वीकृत विवाहों की गणना मनोरञ्जक होगी।

हिन्दू-धर्म ने आठ प्रकार के विवाह माने हैं। इनमें से चार स्वीकार किये जाते हैं, एक क्षम्य समझा जाता है और शेष तीन के लिए आज्ञा नहीं है। परन्तु इनकी गणना विवाहों में की जाती है। इससे सिद्ध है कि किसी समय में ये स्वीकार भी किये जाते रहे होंगे। विवाह के स्वीकृत-रूप वे हैं जिनमें कुल-रीति के अनुसार कन्या-दान किया जाता है। क्षम्य विवाह वह है जिसमें संरक्षक की अनुमति के विरुद्ध पारस्परिक प्रेम के द्वारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जिन तीन विवाहों के लिए आज्ञा नहीं है, वे इस प्रकार हैं। (क) जिलमें पिता कन्या के लिए मूल्य मांगता है और लेता है। (ख) जिसमें कन्या अपनी इच्छा के विरुद्ध हरण कर ली जाती है। (ग) जिसमें कोई पुरुष किसी ऐसी स्त्री के साथ सम्भोग करता है जो सुप्तावस्था में होती है या किसी अन्य प्रकार से बेसुध होती है। यह सबसे नीच कर्म समझा जाता था परन्तु जब यह हो ही जाता था तब सम्बन्धि जनों के हित के लिए नियमानुकूल मान लिया जाता था*[]

हिन्दू-वंश-विज्ञान-हिन्दुयों ने वंश-वृद्धि-सम्बन्धी नियमों का अत्यन्त उच्च आदर्श विकसित किया था। नीचे हम धर्म-शास्त्रों से कुछ नियम देते हैं। इनसे यह बात स्पष्ट हो जायगी:-

नारद कहते हैं:-"पहले विवाहार्थी के पुरुषत्व की परीक्षा होनी चाहिए। जब उसका पुरुषत्व प्रमाणित हो जाय और सन्देह के लिए कोई स्थान न रह जाय तब उसका विवाह होना चाहिए, अन्यथा नहीं।

"यदि उसकी हँसली, घुटने की हड्डियाँ, और साधारण रूप से सब हड्डियाँ दृढ़ हों, यदि उसके कन्धे और बाल भी दृढ़ हों, यदि उसकी ग्रीवा का ऊपरी पृष्ठ-भाग पुष्ट हो, और उसकी जङ्घा तथा त्वचा कोमल हो और यदि उसकी चाल और आवाज़ में प्रभाव प्रतीत हो......तो इन चिह्नों से समझना। चाहिए कि उसमें पौरुष है। और यदि इसके विरुद्ध लक्षण मिलें तो समझना चाहिए कि वह पुरुषत्वहीन है†[]।" नारद का पुरुष की योग्यता पर जोर देना और मनु का स्त्री की योग्यता पर यह सिद्ध करता है कि नारदीय शास्त्र-रचना-काल से मनु के नाम से प्रसिद्ध धर्म-शास्त्र के काल में, जो कि आज तक माना जाता है, हिन्दुओं के विचारों में, कितना परिवर्तन हो गया है।

मनु कहते हैं-जिसने अपना अध्ययन समाप्त कर लिया है और जो गृहल्याश्रम में प्रवेश करना चाहता है उसको चाहिए कि वह इन दस कुलों की कन्या से विवाह न करे-वह कुल जो धर्मानुष्ठानों की अवहेलना करता हो, जो वेदों के ज्ञान से रहित हो, जिसमें पुरुष न हों, जिस कुल के लोगों के शरीर पर बहुत बाल हो, वे कुल भी जिनमें क्षय, अजीर्ण, मृगी और कुष्ट के रोग पाये जायें।

"उसे पीले और भूरे रजवाली, आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों के कुलबाली, रोगग्रस्ता, बालरहित या बहुत बालोंवाली, बकवादी, लाल आँखोंवाली, नक्षत्र, वृक्ष, नदी, पक्षी, सप या दास नामवाली या किसी भयानक नामवाली कन्या से भी विवाह नहीं करना चाहिए।

"उसे सुन्दरी, सौभाग्यसूचक नामवालो, हंस या हाथी के समान चाल चलनेवाली, पतले गुच्छेदार बालोंवाली, सुन्दर महीन दांतोंवाली और कोमलाङ्गी स्त्री से विवाह करना चाहिए।"

सभी स्मृतिकार इस बात से सहमत हैं कि सबसे उत्तम विवाह वही है जो अपनी जाति के भीतर ही किया जाय। परन्तु वे उन कुल के मनुष्य को नीच कुल की स्त्री से विवाह करने की आज्ञा देते हैं। जाति से बाहर किये गये पर नियमानुकूल माने गये विवाहों से उत्पञ्च सन्तति को पहले के स्मृतिकार पिता के कुल का स्वीकार करने के पक्ष में हैं परन्तु बाद के स्मृतिकार इसके विरुद्ध हैं। वर्तमान समय में हिन्दुओं में मूल चार वर्णों के अतिरिक्त जो अनेक जातियां और उपजातियां पाई जाती हैं वे बहुत कुछ इन्हीं मिश्रित विवाह से उत्पन्न हुई हैं।

मनुस्मृति में दी गई समस्त बातों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि जब इसकी रचना हुई थी तब निर्णायकों और स्मृति कारों में स्त्रियों के स्थान और अधिकार के सम्बन्ध में एक विचित्र मतभेद उपस्थित था। कुछ लोग प्राचीन आदर्शों को बनाये रखने के पक्ष में थे। परन्तु कुछ लोगों का झुकाव पुरुषों को स्त्रियों पर पूर्ण आधिपत्य देने के पक्ष में था।

अब तक तो हमने साधारणरूप में या पत्नी के रूप में स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में विचार किया है। परन्तु जब हम उसके स्थान का उसके माता के रूप में विचार करते हैं तो तुरन्त उसे एक उच्चतर पद पर आसीन 'पाते हैं। और इस सम्बन्ध में सब स्मृतिकारों को भी सहमत देखते हैं। अध्याय दो श्लोक १४५ में मनु कहते हैं कि 'आचार्य्य (आध्यात्मिक गुरु) दस उपाध्यायों (साधारण शिक्षकों) से अधिक पूजनीय है। पिता सौ श्राचाययों से अधिक पूजनीय है। परन्तु माता पिता से भी सहस्रगुना पूज्य है और शिक्षा देनेवाली है। हिन्दुओं में मातृत्व पद एक अत्यन्त पवित्र पद माना गया है। सम्पूर्ण प्रकृति में वे इस पद का आदर करते हैं। अपने स्त्रीत्वसम्बन्धी गुणों के अनुसार प्रत्येक स्त्री एक संभावित माता है। इसलिए प्रत्येक स्त्री को, जो अपनी पत्नी, पुत्री, या बहनन हो लोग माता कहकर संबोधित करते हैं। अपरिचित स्त्रियों से बातचीत करते समय हिन्दू सर्वदा उन्हें 'माता' कहते हैं। कभी-कभी वे 'बहन' भी कहते हैं। परन्तु बहन की अपेक्षा माता ही अधिक कहते हैं। देवियों में माताओं की सबसे अधिक पूजा होती है और कभीकभी उन्हें देवताओं से भी उच्च स्थान दिया जाता है। इसी प्रकार जन्म-भूमि। की भी मातृ-भूमि कहकर पूजा की जाती है। इसी से मिस मेयो ने अपनी पुस्तक का व्यङ्गपूर्ण नाम रक्खा है।

हिन्दू लोग साधारणतया अपने बच्चों पर बड़ी ममता रखते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इस नियम के विरुद्ध भी उदाहरण मिल जायेंगे। भारतीय इतिहास के अत्यन्त अन्धकारमय समय में कतिपय प्रधाएँ उत्पन्न हो गई थीं। वे प्रथायें यद्यपि कुछ ख़ास ख़ास वर्गों तक ही परिमित हैं परन्तु वे अपने जन्मदायकों और अनुयायियों के लिए अत्यन्त निन्दा की कारण हैं। वे प्रथायें सती, शिशु-हत्या, विधवाओं के साथ अत्याचार, बाल-विवाह, बहुविवाह, कन्या-विक्रय और कन्याओं को देवार्पण कर देने आदि की हैं। ईसाईधर्म-प्रचारक लोग इन प्रधाओं पर कभी कभी बड़ा गहरा रङ्ग चढ़ा देते हैं और उन्हें भारतवर्ष-व्यापी प्रथायें बतलाते हैं। वे काफी बुरी हैं। और कम से कम उनमें से एक अर्थात् बाल-विवाह की प्रथा सारे देश में पाई भी जाती है। परन्तु निःसन्देह वे इतनी बुरी या इतनी प्रचलित नहीं हैं जितनी कि बताई जाती हैं। सती और शिशु-हत्या की प्रथा सार्वभौमिक कभी नहीं थी। अधिकतर राज-वंशों या अत्यन्त उच्च कुलों तक ही प्रचलित थीं। आरम्भ में सती पूर्ण रूप से स्वेच्छानुसार थी। इन प्रथाओं में से कुछ नष्ट हो चुकी हैं। दूसरी प्रथायें भी या तो नष्ट हो रही हैं या उनमें परिवर्तन हो रहा है। आधुनिक काल में जितने सुधारक-दल काम कर रहे हैं सब समाज में स्त्रियों को उनका प्राचीन उच्च स्थान देने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं।

क़ानूनी पद-हिन्दू कानून पत्नी के अपनी निजी सम्पत्ति रखने के अधिकार को सर्वदा से मानता आया है। अध्याय ३ श्लोक १९४-११५ में मनु कहते हैं:-

"जो कुछ भी विवाह-यज्ञ के समय स्त्री को दिया जाता है जो उसे वैवाहिक यात्रा के समय मिलता है, जो प्रेमोपहार के रूप में मिलता है और जो भाई, माता और पिता से मिलता है वह सब उलका ६ प्रकार का धन कहलाता है। जो कुछ भी उसे (विवाहिता को) विवाह के पश्चात् अपने पति के कुटुम्बियों से अथवा अपने दूसरे सम्बन्धियों से भेंट-स्वरूप प्राप्त होता है और जो कुछ भी उसे अपने प्यारे पति से प्राप्त होता है वह सब पति की जीवित अवस्था में उसके (स्त्री के) मर जाने पर उसके बच्चों की सम्पत्ति हो जाता है।"

एक सम्मिलित हिन्दू कुटुम्ब में पुरुष या स्त्री कोई भी सम्पत्ति के किसी निश्चित भाग का अधिकारी नहीं हो सकता। कुटुम्ब के समस्त पुरुषों और स्त्रियों का हित सामने रखकर कुटुम्ब का प्रधान सम्पूर्ण सम्पत्ति का प्रबन्ध करता है। पुत्रियों का जब तक विवाह नहीं हो जाता तब तक वे उस कुटुम्ब की सदस्या समभी जाती हैं। परन्तु जब उनका विवाह हो जाता है तब वे दूसरे कुटुम्ब में जाकर सम्मिलित हो जाती हैं। विभक्त कुटुम्बों में कतिपय दशाओं में विधवाएँ, माताएँ, पुत्रियाँ और बहनें उत्तराधिकारी मानी जाती हैं। कुछ स्मृतिकारों के अनुसार अविवाहिता पुत्री अपने भाई की भांति पिता की सम्पत्ति का एक भाग पाती है। साधारणतया यह होता है कि पिता की मृत्यु के पश्चात् यदि पुनर्जीवित रहते हैं तो वे उसकी सम्पूर्ण जायदाद पर अधिकार कर लेते हैं पर उन्हें उस जायदाद से कुटुम्ब की स्त्रियों का पालन-पोषण करना पड़ता है। यदि वे इस बात की अवहेलना करते हैं और जायदाद बेच डालते हैं तो उस कुटुम्ब की स्त्रियों के पालन-पोषण का भार भी उसी जायदाद के साथ उस मनुष्य पर जा पड़ता है जो उसे खरीदता है। यदि पुत्र नहीं जीवित रहते तो मृतक की विधवा उस जायदाद की अधिकारिणी होती है। सम्पूर्ण आय को स्वेच्छानुसार व्यय करने का उसे अधिकार रहता है। परन्तु उस जायदाद को वह किसी दूसरे के नाम नहीं लगा सकती। ऐसा वह केवल कानूनी आवश्यकता आ पड़ने पर या अपने पश्चात् के उत्तराधिकारी की अनुमति से ही कर सकती है। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी पुत्रियाँ उस जायदाद की अधिकारिणी होती हैं और उन्हें भी वही अधिकार प्राप्त रहते हैं जो माता को थे। इसी प्रकार यदि भाई नहीं तो भी माता ही उत्तराधिकारिणी होती है।

किसी स्त्री की निजी सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी उसकी सन्तान (पुत्र और पुत्रियाँ) होती हैं। यदि कोई सन्तान न हो तो कतिपय दशाओं में पति और कतिपय दशाओं में उसके पिता के कुल के लोग उस सम्पत्ति को पाते हैं।

गोद लेने का अधिकार-हिन्दू स्त्री को किसी बालक के गोद लेने का पूर्ण अधिकार रहता है। वह अपने पति की मृत्यु के पश्चात् उसके लिए भी गोद ले सकती है। पर उसी दशा में जब उसने अपनी जीवितावस्था में उसे ऐसा अधिकार दे दिया हो या उसके (पति के) आत्मीय जन इसे स्वीकार कर लें।

शिशुओं के संरक्षण का अधिकार-कतिपय परिस्थितियों में सा को अपनी सन्तान, पुन और पुत्रियाँ दोनों, के संरक्षण का अधिकार रहता है। कन्याओं का विवाहादि निश्चित करनेवाले संरक्षकों में उसकी भी गाना होती है।

सन्तति पर अधिकार-हिन्दू-धर्म-शास्त्रों में सन्तानोत्पत्ति, सन्तान-पालन और सन्तान पर अधिकार-विषयक नियम बड़े विस्तृत हैं। ईसाई-साधु-संघों और ईसाई-धर्म-शास्त्रों के बीच में पलकर जो बड़े हुए हैं उन्हें ये नियम विचित्र से प्रतीत होंगे। परन्तु यदि ये कुल और वंश-विज्ञान-सम्बन्धी आधु निक और समुन्नत दृष्टिकोण से देखे जायेंगे तो लाभ से खाली न प्रतीत होंगे। मनु स्त्री की समता खेत ले और पुरुष की बीज से करते हैं।*[१०] कहीं वीर्य को मुख्य वस्तु माना है, कहीं स्त्री के गर्भाशय को! जब दोनों उत्तम होते हैं तब सन्तति सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है। वीर्य और गर्भाशय में साधारण रूप से तुलना की जाती है तो वीर्य को अधिक महत्त्व मिलता है। क्योंकि प्रत्येक जीवधारी की सन्तति में वीर्य्य की विशेषता पाई जाती है। वीर्य्य में जो भी गुण होंगे वे सब सन्तति में मिलेंगे। क्योंकि यद्यपि इस पृथ्वी को विधि की रचना का विशाल गर्भाशय कहा गया है तथापि इससे जो वस्तुएं उत्पन्न होती हैं उनमें बीज इस गर्भाशय-रूपा पृथ्वी का एक भी गुण नहीं प्रदर्शित करता। पृथ्वी में-एक या एक ही प्रकार की भूमि में भी किसान जो बीज बोते हैं ये नियत समय पर उगने पर अपने प्राकृतिक गुणों के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप के होते हैं। चावल, शालि (एक प्रकार का चावल) गन्ना, तिल आदि, अरहर आदि, और जो अपने अपने वीज के ही अनुसार उगते हैं। और इसी प्रकार लहसुन और गन्ना आदि भी उपजते हैं। अतएव एक शिक्षित पुरुष जो इन नियमों को जानता है और जो बुद्धिमान् है, किसी दूसरे पुरूष की स्त्री में कदापि वीर्यारोपण नहीं कर सकता।'

विवाह-विच्छेद-हिन्दू-धर्म-शास्त्र के अनुसार विवाह एक अत्यन्त पवित्र-प्रतिज्ञा है और सिद्धान्तरूप में यह बन्धन कभी तोड़ा नहीं जा सकता। एक बार विवाह हो गया, सदा के लिए विवाह हो गया, यही नियम है। यह सिद्धान्त विधवाओं के पुनर्विवाह की प्राज्ञा नहीं देता। यद्यपि विधुरों के विरुद्ध इतनी कड़ाई के साथ इसका प्रयोग नहीं होता। पर तो भी अधिक प्राचीन धर्म-पुस्तकों से पता चलता है कि उन दिनों विधवाओं के पुनर्विवाह की प्रथा ही प्रचलित नहीं थी बरन कतिपय परिस्थितियों में पति-पत्नी दोनों को एक दूसरे की जीवितावस्था में भी पुनर्विवाह करने की आज्ञा थी। विधवाओं की समस्या पर हम किसी दूसरे अध्याय में पुनः विचार करेंगे। पुनर्विवाह-प्रथम, स्त्री के विषय में नारद कहते हैं:*[११]-

"पति के लापता हो जाने पर या मर जाने पर, सन्यासी हो जाने पर. नपुंसक या जातिच्युत हो जाने पर-इन पांचों दशाओं में-स्त्री को अधिकार है कि वह दूसरा पति चुन ले।"

अनुपस्थित पति की प्रतीक्षा करने के लिए नारद भिन्न-भिन्न जातियों के लिए भिन्न भिन्न अवधि नियत करते हैं। और कहते हैं कि अवधि समाप्त हो जाने पर अदि स्त्री दूसरे पुरुष के साथ जाकर रहने लगे तो उस पर कोई अपराध नहीं लगाया जा सकता। पुरुषों को नारद प्रत्यक्षतः अधिक स्वतंत्रता देते हैं। सबके लिए वे इस आज्ञा से आरम्भ करते हैं कि 'जब कोई झगड़ा स्वेच्छाचार के कारण उत्पन्न हो-स्वेच्छाचार जो कि पारस्परिक द्वेष और घृणा का भी कारण होता है-तब पति और पत्नी को चाहिए कि वे एक दूसरे के विरुद्ध अपने सम्बन्धियों या राजा के समीप कोई अभियोग न उपस्थित करें। और फिर कहते हैं कि जब पारस्परिक घृणा के कारण पति-पत्नी एक दूसरे का त्याग करते हैं तब वे एक बड़ा पाप करते हैं।

व्यभिचारिणी को दण्ड देने के लिए नारद अत्यन्त कड़े विधान निश्चित करते हैं परन्तु यह कहने में भी नहीं चूकते कि 'यदि कोई पुरुष अपनी आज्ञाकारिणी, मृदुभाषिणी, गुणवती, सदाचारिणी और सन्तानवती स्त्री का त्याग करे तो राजा को चाहिए कि उसे स्वकर्त्तव्य पर लाने के लिए कठोर दण्ड दे।'

वैवाहिक प्रतिज्ञा को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भङ्ग करने के लिए पति पर क्या क्या अपराध लगाये जा सकते हैं इसकी मनु ने विस्तृत विवेचना की है। उदाहरण के लिए, वे आज्ञा देते हैं कि 'यदि पत्नी पति से घृणा करती है। सो उसे चाहिए कि वह एक वर्ष तक इस घृणा-भाव को सहन करे। वर्ष की समाप्ति पर उसे चाहिए कि उसने पत्नी को जो कुछ दिया हो वह उससे वापस ले ले और उसके साथ कभी न रहे।†[१२] यदि कोई भी परपुरुष के साथ सहवास करती है और अपने पति से इसलिए घृणा करती है कि वह पागल, पतित, नपुंसक या रोगी है तो मनु उसे क्षमा कर देते हैं परन्तु यदि पति स्त्री की ओर से केवल लापरवाह हो, शराबी हो, या अत्यन्त साधारण रोग से पीड़ित हो तो वे व्यभिचारिणी को क्षमा नहीं करते। परन्तु उस दशा में भी यह नहीं कहते कि पति उसको सदा के लिए त्याग दे। केवल तीन मास तक वह उससे विमुख रह सकता है। यदि पत्नी मदिरा पान करती हो, सदा पति का विरोध करती हो, रोगिणी हो, पति को सङ्कट में डाले रहती हो, या सदैव धन का अपव्यय करती हो तो मनु पति को और विवाह भी करने की आज्ञा देते हैं। फिर भी वन्ध्या स्त्री के सम्बन्ध में कहते हैं कि पुरुष को ८ वर्ष तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। परन्तु यदि स्त्री का स्वभाव प्यार करने के योग्य हो, और वह गुणवती हो तो उसके बन्ध्या होने पर पति तभी पुनर्विवाह कर सकता है जब वह स्त्री इसके लिए आज्ञा दे।

मनु के वर्तमान धर्म शास्त्र के रचना-काल में विधवाओं के पुनर्विवाह की निन्दा होने लगी थी। मैं नहीं समझता कि मनु का वर्तमान धर्म-शास्त्र मी इसे धर्म-विरुद्ध' समझता है। हाँ, इनमें सन्देह नहीं कि यह इसकी स्वीकृति नहीं देता। साधारण धार्मिक संयम की दृष्टि से देखा जाय तो मनुस्मृति के विवाह का आदर्श उच्च प्रतीत होगा परन्तु आधुनिक विचारों की दृष्टि से कहा जाय तो यह कठोर और अनुदार ज्ञात होगा। मनु के मतानुसार पति-पली का संक्षेप में एक दूसरे के प्रति यही कर्तव्य होना चाहिए कि वे मृत्यु-पर्यन्त एक दूसरे को मन, वचन या कर्म से दुःखी न करें। और यह वादा किया गया है कि जो इस लोक में सचाई के साथ इस कर्तव्य का पालन करेंगे वे शरीर के नष्ट हो जाने के पश्चात् दूसरे लोक में जाने पर भी एक दूसरे के साथ ही रहेंगे और कभी पृथक् न होंगे*[१३]

इसका उद्देश्य यह था कि स्त्री-पुरुष दोनों अपने अपने व्यक्तित्व को पूर्णरूप से एक में मिला दें। कहा जाता है कि 'जिस प्रकार नदी का पानी उस समुद्र का गुण ग्रहण कर लेता है जिसमें कि वह मिलती है उसी प्रकार पतिव्रता स्त्री अपने गुणों को अपने पति में मिला देती है।'*[१४] यहाँ पति की उपमा समुद्र से दी गई है और इस प्रकार उसकी प्रधानता स्वीकार की गई है। उसी अध्याय में†[१५] एक दूसरे स्थान पर कहा गया है कि-'पुरुष केवल पुरुष ही नहीं है; वहा परुष स्त्री और सन्तति तीन है। ऋषियों ने इस बात की घोषणा की थी कि 'पति वही है जो स्त्री है।' दूसरे स्थान‡[१६] पर यह स्पष्टरूप से कह दिया गया है कि यदि पत्नी उच्चारमा हो और पति पापी हो और पत्नी यह निश्चय कर ले कि वह मृत्यु-पर्य्यन्त उसका साथ देगी तब जैसे सबल मदारी गहरी से गहरी कन्दरा से भी साँप को पकड़ कर प्रकाश में खींच लाता है वैसे ही स्त्री के प्रेम और त्याग पति की आत्मा को पाप और अन्धकार से पकड़ कर ऊपर के प्रकाशमय जगत् में खींच ले जाते हैं। यहाँ स्त्री के प्रेम को पति की बुद्धि की अपेक्षा अधिक उच्च स्थान दिया गया है। एक प्राचीन कथापुस्तक§[१७] में इस सम्पूर्ण विषय का बड़ा सुन्दर कवितामय वर्णन मिलता है। उसमें कहा गया है:-

"पुरुष विष्णु है, स्त्री लक्ष्मी। पुरुष विचार है, स्त्री भाषा। पुरुष धर्म है, स्त्री बुद्धि। पुरुष तर्क है, स्त्री भावना। पुरुष अधिकार है, स्त्री कर्त्तव्य। पुरुष रचयिता है, स्त्री रचना। पुरुष धैर्य है, स्त्री शान्ति। पुरुष हट है, स्त्री इच्छा। पुरुष दया है, स्त्री दान। पुरुष मंत्र है, स्त्री उच्चारण। पुरुष अग्ति है, स्त्री ईंधन। पुरुष सूर्य है, स्त्री आभा। पुरुष विस्तार है, स्त्री सीमा। पुरुष आँधी है, स्त्री गति। पुरुष समुद्र है, स्त्री किनारा। पुरुष धनी है, स्त्री धन। पुरुष युद्ध है, स्त्री शक्ति। पुरुष दीपक है, स्त्री प्रकाश। पुरुष दिन है, स्त्री रात्रि। पुरुष वृक्ष है, स्त्री फल। पुरुष संगीत है, स्त्री स्वर। पुरुष न्याय है, स्त्री सत्य। पुरुष सागर है, स्त्री नदी। पुरुष स्तम्भ है, स्त्री पताका। पुरुष शक्ति है, स्त्री सौंदर्य्य। पुरुष आत्मा है, स्त्री शरीर!" इस वर्णन से यह बात ज्ञात हो सकती है कि कतिपय अवस्थाओं में स्त्री को प्रधानता दी गई है, और कतिपय अवस्थाओं में पुरुष को। दाने 'समान रूप से महत्त्व-पूर्ण, अनिवार्य और अभिन्न हैं। दोनों में कुछ ऐसी मानसिक और शारीरिक विशेषताएँ हैं कि ये परस्पर एक दूसरे की कमी को पूरी करती हैं। प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन में दोनों विद्यमान रहते हैं परन्तु कतिपय अवसरों पर एक अपने स्वरूप में और दूसरा अपने विशेष और समुन्नत स्वरूप में प्रकट होता है*[१८]। अँगरेज़ी के 'बेटरहाफ' (सुन्दराद्ध) के समान संस्कृत में भी नियों के लिए अर्धाङ्गी शब्द का प्रयोग किया जाता है। परन्तु इसका अर्थ 'सुन्दरार्द्ध भाग' नहीं, केवल 'अर्द्ध भाग' है। यह कल्पना सम्भवतः मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३२ वें श्लोक पर की गई है। उसमें यह कहा गया है कि ब्रह्म-सृष्टिकर्ता ने अपने ही शरीर को दो भागों में विभक्त किया। एक भाग पुरुष बन गया और दूसरा भाग स्त्री। इसलिए विभक्त पुरुष और स्त्री एक पूर्ण पुरुष तभी बनते हैं जब दोनों पारस्परिक विवाह-सम्बन्ध से फिर एक में मिल जाय। और इस प्रकार एक पूर्ण पुरुष बनने पर ही वे धार्मिक कृत्यों का सफलतापूर्वक प्रतिपादन कर सकते हैं।


  1. * इस अध्याय का विषय मेरे दो लेखों से-जो जून और जुलाई १९१८ ईसवी के यंग इंडिया में प्रकाशित हुए थे-लिया गया है। यह मासिक पन्न: मेरे ही सम्पादकत्व में न्यूयार्क से निकलता था।
  2. † ईसवी सन् से १५०० वर्ष पूर्व का समय वैदिक-काल कहलाता है। १५० वर्ष पूर्व से ५०० वर्ष पूर्व तक महाभारत और रामायण-काल माना जाता है और ५०० पूर्व के आस-पास का समय सूत्र-काल कहा जाता है।
  3. ‡ रागोज़िन-कृत वैदिक-भारत (राष्ट्रों की कथा) प्रथम संस्करण।
  4. * वैदिक देवताओं के नाम।
  5. * मनुस्मृति अध्याय ३।५५-५९
  6. * मनुस्मृति अध्याय ३।६२
  7. † मनुस्मृति अध्याय २।१४८-१५०
  8. * नारदसंहिता अध्याय १२/३८-४४।
  9. † नारद-संहिता अध्याय १२/८-१३
  10. * अध्याय ९ श्लोक ३२
  11. * अध्याय १२, श्लोक ९७-१०१
  12. † मनुस्मृति अध्याय, श्लोक ७७।
  13. * मनुस्मृति अध्याय ९, श्लोक १०१; अध्याय ५ श्लोक १६५।
  14. * मनुस्मृति अध्याय ९, श्लोक २२।
  15. † उसी पुस्तक से अध्याय ९, श्लोक ४५।
  16. ‡ उसी पुस्तक से अध्याय ९, श्लोक २३।
  17. § विष्णुपुराण १-८ ।-विष्णुभागवत ६-१९।
  18. * भगवानदासकृत 'समाजसङ्गठनविज्ञान' (अदयार, थियासिफिकल सोसाइटी) पृष्ठ, २२२।