दुखी भारत/१४ शीघ्र विवाह और शीघ्र मृत्यु
चौदहवाँ अध्याय
शीघ्र विवाह और शीघ्र मृत्यु
इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं कि बाल-विवाह से भारतवासियों के स्वास्थ्य पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ रहा है। परन्तु यह भारतवर्ष की प्राचीन प्रथा कदापि नहीं है। श्रीयुत मैकडानेल, केथ, सर हरबर्ट रिसले और दूसरे विद्वान्, जिन्होंने इस प्रश्न का अध्ययन किया है, सब इस बात से सहमत हैं कि भारतवर्ष में जब हिन्दुओं का राज्य था तब हिन्दू लोग, बालकाल में नहीं, युवावस्था में विवाह करते थे। यह कहना अधिक उचित होगा कि मुसलमानों के आक्रमण से पूर्व भारतवर्ष में बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित नहीं थी। यह कुप्रथा कब और कैसे प्रचलित हो गई यह तो निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि आज यह राष्ट्र की जीवनी शक्ति को खाये जा रही है।
ख़ैर, वर्तमान भारतवर्ष के साम्पत्तिक और आत्मिक हृास के अनेक कारणों में से बाल-विवाह को भी एक कारण स्वीकार कर लेना एक बात है परन्तु इसी के बहाने जो महान् कारण हैं उनको भुला देना बिल्कुल दूसरी बात है। 'कुत्ते को बुरा नाम देकर उसे फाँसी दे दो' यह राजनैतिक आन्दोलन में एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। और मिस मेयो के भारतवर्ष में बाल-विवाह-सम्बन्धी विचार इस सिद्धान्त से पृथक् नहीं हैं।
प्राचीन काल में जिन जातियों ने बड़ी बड़ी सभ्यताओं को जन्म दिया उनमें से बहुतों में बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। यूनान के लोग, जो पूर्ण मनुष्य के सुन्दर विकास और उसकी सर्वाङ्ग उन्नति के आदर्श से आज भी हमें उत्साहित करते हैं, अत्यन्त बाल्यावस्था में ही विवाह किया करते थे। रोमन लोग भी, जिन्होंने उत्तम सैनिकों और शासकों की सृष्टि की थी, बाल-काल में ही विवाह करते थे। यही प्रथा हिब्रू लोगों में भी प्रचलित थी। इँगलैंड में तो स्टुअर्ट्स के समय तक बाल-विवाह प्रचलित था। यदि केवल बाल विवाह ही राष्ट्रों को असमर्थ करने के लिए यथेष्ट होता तो इतिहास पर यूनान, रोम और हिब्रू जातियों का इतना स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता था।
सच बात तो यह है कि बाल विवाह जैसी घातक वस्तु को समाज बिना किसी प्रतीकार के कदाचित् ही प्रचलित रहने दे सकता है। भारतवर्ष में जिन जातियों में बाल विवाह प्रचलित है उनमें विवाह-संस्कार के यथेष्ट समय पश्चात् गौना करने की रीति द्वारा इसके कुपरिणामों से बचने की व्यवस्था भी कर दी गई है। विवाह इस प्रकार एक प्रतिज्ञा के समान ही रह जाता है। और बाल-विवाह का अर्थ है केवल आगे चलकर बालकों का विवाह कर देने की प्रतिज्ञा।
सब हिन्दुओं में बाल विवाह की प्रथा नहीं है। निम्न जातियों में प्रायः बड़ी अवस्था में विवाह होता है। बड़ी जातियों में भी गौने की प्रथा द्वारा इसके कुपरिणामों से बचने की पूर्ण व्यवस्था पाई जाती है। समस्त योग्य निरीक्षकों का ध्यान इस बचाव की प्रथा की ओर गया है। उनमें सर हरबर्ट रिसले और सर एडवर्ड गेट विशेष उल्लेखनीय हैं। इन दोनों महानुभावों ने मनुष्य-गणना के कमिश्नर के पद पर काम करके इस सम्बन्ध में पर्याप्त अनुभव प्राप्त किया था।
रिसले और गेट १९०१ ईसवी की मनुष्य-गणना के विवरण में ४३३ पृष्ठ पर लिखते हैं:–
"जिसने पञ्जाबी सैनिकों का दल कहीं से निकलते हुए देखा है या गाँव के कुओं पर स्वस्थ जाट स्त्रियों को जल से भरे भारी घट उठाते देखा है उसके हृदय में यह बात नहीं पैदा हो सकती कि बाल विवाह का जाति के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।"
इसके पहले पञ्जाब की सेंसस रिपोर्ट में सर डेंज़िल इवस्टन ने लिखा था कि पञ्जाब में राजपूत लोग १६ वर्ष की आयु में विवाह करते हैं और शीघ्र ही स्त्री के साथ सहवास आरम्भ कर देते हैं। इसके विरुद्ध जाट लोग प्रायः ५ और ६ वर्ष के बीच में विवाह करते हैं परन्तु वधू अपने रहन-सहन का दर्जा बढ़ने नहीं देती और प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका सभा में सुधारकों का विरोध करके करती है।
योरप में गत शताब्दियों से शिक्षा-प्रचार और रहन-सहन के दर्जे में उन्नति होने से विवाह की आयु बहुत बढ़ गई है। ऐसी कल्पना करने का कोई कारण नहीं है कि जब भारतवर्ष स्वतंत्र हो जायगा तो यही बातें यहाँ भी बाल-विवाह दूर करने में सहायक न होंगी। मनुष्य-गणना के विवरणों में यह बात स्वीकार की गई है कि जहाँ जहाँ ये बातें काम कर रहीं हैं वहाँ वहाँ बाल-विवाह का पक्ष निर्बल पड़ता जा रहा है। अङ्कों से स्पष्ट विदित होता है शिक्षित समाज में विशेषतः शिक्षित हिन्दुओं में विवाह की आयु अधिक होती जा रही है। मनुष्य-गणना के अध्यक्ष लोग इस बात को स्वीकार करते हैं। राष्ट्र-व्यापी शिक्षा-प्रचार की समस्या ऐसी नहीं है जो व्यक्तिगत उपायों द्वारा सफलता के साथ हल की जा सके। इस बात का उत्तरदायित्व सौतेली माता के समान ब्रिटेन पर ही है कि सर्व-साधारण में वह शिक्षा-प्रचार करना अस्वीकार करके पुरानी और नष्ट-प्राय कुप्रथाओं को फिर से नवजीवन दे रहा है।
भारतीय सुधारकों ने स्वीकृति की आयु को बढ़ाने के लिए बहुत ज़ोर लगाया था तब कहीं जाकर यह आयु १० से १२ वर्ष की गई। सर हरीसिंह गौड़ के अभी हाल में उपस्थित किये गये विल का तात्पर्य्य यह है कि विवाहिता बालिकाओं के सम्बन्ध में यह आयु १४ वर्ष मानी जाय और अविवाहिताओं के सम्बन्ध में १६ वर्ष। परन्तु बड़ी व्यवस्थापिका सभा के सरकारी कर्मचारी इसका विरोध कर रहे हैं। बालक-बालिकाओं की विवाह के लिए कम आयु निश्चित कर देने के लिए श्रीयुत हरविलास शारदा ने जो प्रस्ताव उपस्थित किया था वह बड़ी व्यवस्थापिका सभा की गत बैठक में सरकार की ओर से घोर विरोध होने के कारण एक निर्धारित कमेटी के विचाराधीन कर दिया गया। इसका क्या परिणाम हुआ? यह जानने में अब भी बहुत समय लगेगा। बड़ौदा, मैसूर, कोटा और कुछ दूसरे देशी राज्यों में, जिनके शासक हिन्दू धर्म के कट्टर अनुयायी हैं, शारदा बिल के अनुसार कार्य भी होने लगा है। बड़ौदा में विवाह की आयु नियत करने का क़ानून बने २० वर्ष हो गये। परन्तु ब्रिटिश भारत के अधिकारी ऐसे कानूनों का अब भी विरोध कर रहे हैं।