ज्ञानयोग/१२. अपरोक्षानुभूति

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१२. अपरोक्षानुभूति

  मैं तुम लोगों को एक और उपनिषद से कुछ अंश पढ़कर सुनाऊँगा। यह अत्यन्त सरल एवं अतिशय कवित्वपूर्ण है। इसका नाम है कठोपनिषद्। सर एडविन अर्नाल्ड कृत इसका अनुवाद शायद तुममें से बहुतों ने पढ़ा होगा। हम लोगों ने पहले देखा ही है कि जगत् की सृष्टि कहाँ से हुई। इस प्रश्न का उत्तर बाह्य जगत् से नहीं पाया जा सकता, अतः इस प्रश्न के समाधान के लिये लोगों की दृष्टि अन्तर्जगत् की ओर आकृष्ट हुई। कठोपनिषद् में मनुष्य के स्वरूप के सम्बन्ध में यह अनुसन्धान आरम्भ हुआ है। पहले यह प्रश्न होता था कि इस वाह्य जगत् की सृष्टि किसने की? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?—इत्यादि। किन्तु अब यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि मनुष्य के अन्दर कौन सी ऐसी वस्तु है जो उसे जीवित रखती है और उसे चलाती है, एवं मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है? पहले मनुष्य ने इस जड़ जगत् को लेकर क्रमशः इसके आभ्यन्तर में पहुँचने की चेष्टा की थी और इससे उसने पाया जगत् का एक जबरदस्त शासक—एक व्यक्ति—एक मनुष्य मात्र। हो सकता है कि मनुष्य के गुणसमूह को अनन्त परिमाण में बढ़ाकर, वे उसके नाम के साथ जोड़ दिए गये हो, किन्तु कार्यतः वह एक मनुष्य मात्र है। परन्तु यह मीमांसा कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकती। अधिक से अधिक इसे आंशिक सत्य कह सकते हैं। हम लोग इस जगत् को मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और हमलोगों का ईश्वर इस जगत् की मानवीय व्याख्या मात्र है। [ २५० ]कल्पना करो, एक गाय दार्शनिक और धर्मज्ञ हुई—वह जगत् को अपनी गो-दृष्टि से देखेगी, वह जब इस समस्या की मीमांसा करेगी तो गाय के भाव से ही करेगी, और वह हमारे ही ईश्वर को देखेगी, ऐसी भी कोई बात नहीं। इसी प्रकार यदि कोई बिल्ली दार्शनिक हो तो वह बिड़ाल-जगत् को ही देखेगी, वह यही सिद्धान्त रखेगी कि कोई बिड़ाल ही इस जगत् का शासन कर रहा है। अतएव हम लोग देखते है कि जगत् के सम्बन्ध में हमलोगों की व्याख्या पूर्ण नहीं है, और हम लोगों की धारणा भी जगत् के सर्वांश को स्पर्श करनेवाली नहीं है। मनुष्य जिस भाव से जगत् के सम्बन्ध में भयानक स्वार्थपर मीमांसा करता है, उसे ग्रहण करने पर भ्रम में ही पड़ना होगा। बाह्य जगत् से जगत् के सम्बन्ध में जो मीमासा प्राप्त होती है, उसमे दोष यही है कि जिस जगत् को हम लोग देखते है, वह हम लोगो का अपना जगत् मात्र है, सत्य के सम्बन्ध में जितनी हमारी दृष्टि है वस उतना ही है। प्रकृत सत्य वह परमार्थ वस्तु कभी इन्द्रियग्राह्य नहीं हो सकती, किन्तु हम लोग जगत् को उतना ही जानते है जितना पचेन्द्रियविशिष्ट प्राणियों की दृष्टि में पड़ता है। कल्पना करो, हम लोगो की एक इन्द्रिय और हुई, उसके होने से समस्त ब्रह्माण्ड हम लोगो की दृष्टि में अवश्य ही और एक रूप धारण करेगा। कल्पना करो, हम लोगो को एक चौम्बक (Magnetic) इन्द्रिय प्राप्त हुई―जगत् में इस प्रकार की लाखों शक्तियाँ है, जिनकी उपलब्धि के लिये हम लोगो के पास कोई इन्द्रिय नहीं है―उस समय उन सब की उपलब्धि हमे होने लगेगी। हमलोगों की इन्द्रियाँ सीमाबद्ध है, वस्तुतः अत्यन्त सीमाबद्ध है, और इन सीमाओ के भीतर ही हम लोगो का समस्त जगत् अवस्थित है एवं हम लोगो [ २५१ ]का ईश्वर हमारे इस क्षुद्र जगत् की समस्या का मीमांसा मात्र है। किन्तु वह कभी भी पूर्ण समस्या की मीमासा नहीं हो सकता। यह तो असंभव व्यापार है। यथार्थ रूप से कहा जाय तो वह कोई मीमांसा ही नहीं है। किन्तु मनुष्य तो चुप होकर रह नहीं सकता, वह तो चिन्ताशील प्राणी है, इसलिए वह ऐसी एक मीमांसा करना चाहता है जिससे जगत् की सभी समस्याओं की मीमांसा हो जाय।

पहले इस प्रकार के एक जगत् का आविष्कार करो, इस प्रकार के एक पदार्थ का आविष्कार करो जो सम्पूर्ण जगत् का एक साधारण तत्त्व स्वरूप हो―जिसे हमलोग इन्द्रिय-प्रत्यक्ष कर सके या न कर सके किन्तु जिसे हम युक्ति-बल से सम्पूर्ण जगत् की नीव कह सके तथा सम्पूर्ण जगत् के भीतर मणिमालामध्यस्थित सूत्र स्वरूप कह सके। यदि हमलोग इस प्रकार के एक पदार्थ का आविष्कार कर सके, जो इन्द्रियगोचर न हो सकने पर भी केवल अकाटय युक्तिवल से सभी प्रचार के अस्तित्व की भित्तिभूमि कहलाकर प्रमाणित किया जा सके। ऐसा होने पर हम कहेगे कि हम लोगो की समस्या कुछ मीमासोन्मुख हुई। अतएव यह स्थिर सिद्धान्त है कि हमारे इस दृष्टिगोचर ज्ञात जगत् से इस मीमासा के पाने की कोई सभावना नहीं, क्योकि यह समग्र भाव का केवल अशविशेषमात्र है।

अतएव जगत् के अन्त प्रदेश में प्रवेश करना ही इस समस्या की मीमांसा का एक मात्र उपाय है। अति प्राचीन मननशील महात्मा- गण यह समझ सके थे कि वे केन्द्र से जितना दूर जाते है उतना ही वे उस अखण्ड वस्तु से दूर होते जाते हैं, और केन्द्र के जितने निकटवर्ती होते है उतने ही वे उसके निकट पहुँचते जाते है। हमलोग [ २५२ ]इस केन्द्र के जितने निकटवर्ती होते है उतने ही हम सब जिस साधारण भूमि पर एकत्रित हो सकते है उस भूमि के निकट उपस्थित होते हैं और हमलोग उससे जितना दूर जाते है उतना ही हमलोगों के साथ दूसरों का विशेष पार्थक्य आरम्भ हो जाता है। यह बाह्य जगत् उस केन्द्र से बहुत दूर है, अतएव इसमे कोई ऐसी साधारण भूमि नहीं हो सकती जहाँ पर सम्पूर्ण अस्तित्व-समष्टि की एक साधारण मीमांसा हो सके। यह जगत् सम्पूर्ण अस्तित्व का अधिक से अधिक एकांशमात्र है और भी कितने व्यापार है; जैसे मनोजगत् का व्यापार, नैतिक जगत का व्यापार और बुद्धिराज्य का सम्पूर्ण व्यापार, आदि आदि। इन सभों में से केवल एक को लेकर उससे समुदय जगत्-समस्या की मीमांसा करना असम्भव है। अतएव हमे प्रथमतः कहीं एक ऐसे केन्द्र का आविष्कार करना होगा, जिससे अन्यान्य समुदय विभिन्न लोकों की उत्पत्ति हुई है। फिर हम इस प्रश्न की मीमांसा की चेष्टा करेगे। यही इस समय प्रस्तावित विषय है। वह केन्द्र कहाँ है? वह हमलोगो के भीतर है―इस मनुष्य के भीतर जो मनुष्य रहता है, वहीं यह केन्द्र है। लगातार भीतर की ओर अग्रसर होते होते महापुरुषो ने देखा कि जीवात्मा का गम्भीरतम प्रदेश ही समुदय ब्रह्माण्ड का केन्द्र है। जितने प्रकार के अस्तित्व हैं, सभी आकर उसी एक केन्द्र में एकीभूत होते है। वस्तुतः यही स्यान समुदय की एक साधारण भूमि है। इस स्थान पर आकर हम एक सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँच सकते है। अतएव किसने इस जगत् की सृष्टि की है?--यह प्रश्न विशेष दार्शनिक युक्तिसिद्ध नहीं है, और न उसकी मीमांसा ही किसी काम की है।

पहले जो मैंने कठोपनिषद् की चर्चा की है, उसकी भाषा बहुत अलंकारपूर्ण है। अति प्राचीन काल में एक बड़े धनी व्यक्ति थे। [ २५३ ]उन्होने एक समय एक यज्ञ किया। उस यज्ञ में सर्वस्वदान करने का नियम था। इस यज्ञकर्ता व्यक्ति का बाहर और भीतर समान नहीं था। वह यज्ञ करके खूब मान और यश पाने की इच्छा रखता था। किन्तु यज्ञ में वह ऐसी सभी वस्तुओ का दान करता था, जो व्यवहार में पूर्णतः अनुपयुक्त थी। उसने कितनी ही जराजीर्ण, अर्धमृत, बन्ध्या, एक आँखवाली और लँगड़ी गाये ब्राह्मणो को दान में दी। उसका एक छोटा पुत्र था, जिसका नाम था नचिकेता। उसने देखा, उसके पिता ठीक ठीक अपना व्रत-पालन नहीं कर रहे है, अपितु वे व्रत का भग कर रहे है, अतएव वह निश्चय नहीं कर पाया कि वह उनसे क्या कहे। भारतवर्ष में माता-पिता प्रत्यक्ष जीवन्त देवता माने जाते है। उनके सामने सन्तान कुछ कहने या करने का साहस नहीं करता है, केवल चुप होकर वे खड़े रहते है। अतएव उस बालक ने पिता के सम्मुख साक्षात् विरोध करने में असमर्थ हो, उनसे केवल यही पूछा―"पिताजी, आप मुझे किस को देगे? आपने तो यज्ञ में सर्वस्त्रदान का सकल्प किया है।" यह सुनकर पिता विरक्त हुए और बोले―"हे वत्स, तू क्या कह रहा है? भला पिता अपने पुत्र का दान करेगा, यह कैसी बात है? "पर बालक ने दूसरी बार. तीसरी बार बारम्बार पिता से यही प्रश्न किया, तब पिता क्रुद्ध होकर बोले―"तुझे मैं यम को दे दूँगा।" उसके बाद आख्यायिका ऐसी है कि वह बालक यम के घर गया। आदिमानव मृत होकर यमदेवता होते हैं, वे स्वर्ग जाकर समुदय पितृगण के शासनकर्ता होते हैं। अच्छे व्यक्ति मृत्यु प्राप्त कर यम के निकट अनेक दिनो तक रहते है। ये यम एक अत्यन्त शुद्धस्वभाव साधुपुरुष कहकर वर्णित है। वह बालक नचिकेता यमलोक को [ २५४ ]गया। देवता भी समय समय पर अपने घर में नहीं रहते हैं। यमराज उस समय घर पर नहीं थे, इसलिये उस बालक को तीन दिन तक उसी तरह उनकी प्रतीक्षा में रहना पड़ा। चौथे दिन यम अपने घर आये।

यम बोले, "हे विद्वान्! तुम पूजनीय अतिथि होकर भी तीन दिन तक बिना कुछ खाये पिए हमारे घर में रहे। हे ब्रह्मन्! तुम्हें प्रणाम है, हमारा कल्याण हो। मैं घर पर नहीं था, इसका मुझे बहुत दुःख है। किन्तु मैं इस अपराध के प्रायश्चित्त स्वरूप तुम्हें प्रत्येक दिन के लिये एक एक करके तीन वर देने को प्रस्तुत हूँ, तुम वर माँगो।" बालक ने पहला वर यह माँगा—"आप मुझे पहला वर यह दीजिये जिससे कि मेरे प्रति पिताजी का क्रोध दूर हो जाय, वे जिससे मेरे प्रति प्रसन्न हों, और जब आप मुझे प्रस्थान करने के लिये आज्ञा देंगे और जब मैं पिता के निकट जाऊँ तो उस समय वे मुझे पहचान सकें।" यम ने कहा—'तथास्तु'। नचिकेता ने द्वितीय वर में स्वर्ग पहुँचाने वाले यज्ञविशेष के विषय में जानने की इच्छा की। हमने पहले ही देखा है, वेद के संहिता-भाग में हमलोग केवल स्वर्ग की बात पाते हैं। वहाँ सबका शरीर ज्योतिर्मय होता है, और वे अपने पूर्व पूर्व पितरों के साथ वहाँ वास करते हैं। क्रमशः अन्यान्य भाव आये, किन्तु इन सभों से लोगों के प्राण पूर्ण तृप्त न हो सके। इस स्वर्ग से भी कुछ उच्चतर उन्हें आवश्यक ज्ञात हुआ। स्वर्ग में रहना इस जगत् में रहने की अपेक्षा कुछ भिन्न नहीं है। जिस प्रकार एक स्वस्थ धनिक नवयुवक का जीवन होता है, उसी प्रकार स्वर्गीय जीवों का भी जीवन होता है, भेद केवल इतना है कि उनकी भोग-सामग्री होती है और उनका शरीर नीरोग, स्वस्थ एवं अधिक बलशाली [ २५५ ]होता है। यह सब तो जड़ जगत् की ही वस्तु ठहरी, इससे कुछ अधिक अच्छी अवश्य है बस इतना ही। और जब हमने पहले ही देखा है कि यह जड़ जगत् पूर्वोक्त समस्या की कोई मीमांसा नहीं कर सकता, तो स्वर्ग से भी उसकी क्या मीमांसा हो सकती है? इसलिये स्वर्ग के ऊपर स्वर्ग की कितनी भी कल्पना क्यों न करो, परन्तु समस्या की उपयुक्त मीमांसा इससे नहीं हो सकती। यदि यह जगत् इस समस्या की कोई मीमांसा नहीं कर सकता, तो इस तरह के चाहे कितने भी जगत् हों वे किस तरह इसकी मीमांसा करेंगे। कारण, हमें स्मरण रखना उचित है कि स्थूल भूत प्राकृतिक समुदय व्यापारों का एक अत्यन्त सामान्य अंश मात्र है। हम लोग जिन अगण्य घटनाओं को वास्तविक देखा करते हैं, वे भौतिक नहीं है।

अपने जीवन के प्रति क्षण को देखिये, मालूम होगा कि हमारे चिन्तन के व्यापार कितने हैं, और बाहर की वास्तविक घटनायें कितनी हैं। कितनों का तुम केवल अनुभव करते हो, और कितनों का वास्तविक दर्शन तथा स्पर्श करते हो? यह जीवन-प्रवाह कितने प्रबल वेग से चलता है—इसका कार्यक्षेत्र भी कितना विस्तृत है—किन्तु इसमें मानसिक घटनाओं की तुलना में इन्द्रियग्राह्य व्यापार कितना स्वल्प है! स्वर्गवाद का भ्रम यही है कि वह कहता है कि हम लोगों का जीवन और जीवन की घटनावली केवल रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और शब्द में ही आबद्ध है। किन्तु इस स्वर्ग से, जहाँ पर ज्योतिर्मय शरीर मिलता है, अधिकांश लोगों को तृप्ति नहीं हुई। तथापि इस जगह नचिकेता ने द्वितीय वर से स्वर्ग-प्रापक यज्ञ सम्बन्धी ज्ञान की प्रार्थना की है। वेद के प्राचीन भाग में वर्णित है कि देवतागण यज्ञ द्वारा संतुष्ट होकर लोगों को स्वर्ग ले जाते हैं। [ २५६ ]सभी धर्मो की आलोचना करने पर निश्चित रूप से यह सिद्धान्त लब्ध होता है कि जो कुछ प्राचीन होता है वही कालान्तर मे पवित्र रूप मे परिणत हो जाता है। हमारे पूर्वपुरुष भोजपत्र पर लिखते थे, अन्त में उन्होने कागज बनाने की प्रणाली सीखी, परन्तु इस समय भी भोज-पत्र पवित्र कहा जाता है। प्राय: ९-१० हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वपुरुष लकडी से लकड़ी घिसकर अग्नि प्रज्वलित करते थे, वही प्रणाली आज भी वर्तमान है। यज्ञ के समय किसी दूसरी प्रणाली द्वारा अग्नि प्रज्वलित करने से काम नहीं चलेगा। एशियावासी आर्यगणो की और एक शाखा के सम्बन्ध मे भी ऐसा ही है। इस समय भी उनके वर्तमान वशधर वैद्युताग्नि सग्रहकर उसकी रक्षा करना अच्छा समझते है। इससे प्रमाणित होता है कि ये लोग पहले इस तरह अग्नि का सग्रह करते थे; बाद मे दो लकडियो को घिसकर अग्नि उत्पादन करना इन्होने सीखा, फिर जब अग्नि-उत्पादन करने के अन्यान्य उपाय उन्होने सीखे, उस समय भी पहले के उपायो का परित्याग नही किया। वे सब उपाय पवित्र आचारो मे परिणत होगये।

हिब्रुओं के सम्बन्ध मे भी यही हाल है। उनके पूर्वज पार्चमेन्ट (Parchment) पर लिखत थे। इस समय वे लोग कागज पर लिखते है, किन्तु पार्चमेन्ट पर लिखना उनकी दृष्टि मे महा पवित्र आचार है। इसी तरह सभी जातियो के सम्बन्ध मे है। इस समय जो आचार शुद्धाचार कहलाये जाते है, वे प्राचीन प्रथा मात्र है। यज्ञ भी इसी तरह प्राचीन प्रथा मात्र थे। कालक्रम से जब लोग पहले की अपेक्षा उत्तम रीति से जीवन-निर्वाह करने लगे, उस समय उनकी सभी धारणायें पूर्व की अपेक्षा अधिक उन्नत हुई, किन्तु ये प्राचीन प्रथाये रह गयीं। [ २५७ ]समय समय पर इन सभो का अनुष्ठान होता था और वे पवित्र आचार माने जाने लगे। उसके बाद कुछ व्यक्तियो ने इस यज्ञ-कार्य के निर्वाह का भार अपने ऊपर ले लिया। यही लोग पुरोहित हुए। ये यज्ञ के सम्बन्ध मे गम्भीर गवेषणा करने लगे। यज्ञ ही इन लोगो का सर्वस्त्र हो-गया। उन लोगों की यह धारणा उस समय बद्धमूल हुई कि देवता लोग यज्ञ के गंध का आघ्राण करने के लिये आते है। यज्ञ की शक्ति से संसार मे सब कुछ हो सकता है। यदि निर्दिष्ट सख्या में आहुतियाॅ दी जायॅ, कुछ विशेष विशेष स्तोत्रो का पाठ हो, विशेष आकार वाली कुछ वेदियो का निर्माण हो, तो देवता सब कुछ कर सकते हैं, इत्यादि मतवादो की सृष्टि हुई। नचिकेता इसी लिये दूसरे वर द्वारा जिज्ञासा करता है कि किस तरह के यज्ञ से स्वर्गप्राप्ति हो सकती है। उसके बाद नचिकता ने तीसरे वर की प्रार्थना की, और यही से प्रकृत उपनिषद का आरम्भ है। नचिकेता बोला--"कोई कोई कहते है, मृत्यु के बाद आत्मा रहती है, कोई कोई कहते हैं, आत्मा मृत्यु के बाद नहीं रहती। आप मुझे इस विषय का यथार्थ तत्व समझा दे।"

यम भयभीत होगये। उन्होने परम आनन्द के साथ नचिकेता के प्रयमोक्त दोनो वरो को पूर्ण किया था। इस समय वे बोले, --"प्राचीन काल में देवतागण इस विषय मे सदिग्ध थे। यह सुक्ष्म धर्म सुविज्ञेय नही है। हे नचिकेता! तुम कोई दूसरा वर माॅगो। मुझसे इस विषय में और अधिक अनुरोध न करो, मुझे छोड दो।

नचिकेता दृढप्रतिज्ञ था वह बोला--"हे मृत्यो! सुना। है, देवतालोगो ने भी इस विषय मे सदेह किया था, और इसे समझना

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भी सरल बात नहीं है, यह बात सत्य है। किन्तु मैं आपके सदृश इस विषय का कोई दूसरा वक्ता भी नहीं पा सकता, और इस वर के समान दूसरा कोई वर भी नहीं है।"

यम बोले--" हे नचिकेता! शतायु पुत्र, पौत्र, पशु, हाथी, सोना, घोडा आदि माँग लो। इस पृथ्वी के ऊपर राज्य करो, एवं जितने दिन तुम जीने की इच्छा करो उतने दिन तक जीवित रहो। इसके समान और कोई दूसरा वर यदि तुम्हारे मन मे हो तो उसे भी मॉग लो, अथवा धन और दीर्घ जीवन की प्रार्थना कर लो। अथवा हे नचिकेता! तुम विस्तृत पृथ्वीमण्डल पर राज्य करो, मै तुम्हे सभी प्रकार की काम्यवस्तुओं से संयुक्त करूॅगा। पृथ्वी में जो जो काम्यवस्तुएँ दुर्लभ है, उनकी प्रार्थना करो। गीत और वाद्य मे विशारद इन रथारूढ रमणियों को मनुष्य नहीं पा सकता। हे नचिकेता! इन सभी रमणियों को मैं तुम्हे देता हूँ, ये तुम्हारी सेवा करेगी, किन्तु तुम मृत्यु के सम्बन्ध मे जिज्ञासा मत करो।"

नचिकेता ने कहा--"ये सभी वस्तुएँ केवल दो दिनों के लिये है, ये इन्द्रियों के तेज को हरण करती है। अतिदीर्घ जीवन भी अनन्त काल की तुलना में वस्तुतः अत्यन्त अल्प है। इसलिये ये हाथी, घोड़े, रथ, गीत, वाद्य आदि तुम्हारे ही पास रहे। मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं हो सकता। जब मै तुम्हे देखूँगा ही, तो इस वित्त की चिरकाल के लिये किस तरह रक्षा कर सकूॅगा? तुम जितने दिन तक इच्छा करोगे, मैं उतने ही दिन तक जीवित रह सकूँगा। मैने जिस वर की प्रार्थना की है, केवल वही वर मै चाहता हूॅ।"

यम इस समय सतुष्ट हुए। वे बोले--" परमकल्याण (श्रेय) और आपातरम्य भोग (प्रेय) इन दोनों का उद्देश्य भिन्न है, ये दोनों
[ २५९ ]ही मनुष्यों को बद्ध करते है। जो इनमें से श्रेय को ग्रहण करते हैं, उनका कल्याण होता है, और जो आपातरम्य भोग को ग्रहण करते है, वे लक्ष्यभ्रष्ट होते हैं। ये श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के समीप उपस्थित होते हैं। ज्ञानी दोनों पर विचार कर एक को दूसरे से पृथक् जानते हैं। वे श्रेय को प्रेय से श्रेष्ठ समझकर स्वीकार करते है, किन्तु अज्ञानी पुरुष अपने शारीरिक सुख के लिये प्रेय को ही ग्रहण करते हैं। हे नचिकेता! तुमने आपातरम्य समग्र विषयों की नश्वरता समझ कर उन सभों को छोड़ दिया है।" इन वचनों से नचिकेता की प्रशंसा कर अन्त में यम ने उसे परम तत्व का उपदेश देना आरम्भ किया।

यहाँ पर हमें वैदिक वैराग्य और नीति की अत्युन्नत धारणा प्राप्त हुई कि जितने दिन तक मनुष्य की भोगवासना का त्याग नहीं होता, उतने दिन तक उसके हृदय में सत्य-ज्योति का प्रकाश नहीं हो सकता। जितने दिन तक ये तुच्छ विषयवासनायें तुमुल कोलाहल करती हैं, जितने दिन तक प्रति मुहूर्त वे हमलोगों को खींच कर बाहर ले जाती हैं—लेजाकर हमें प्रत्येक वाह्य वस्तु का, एक बिन्दु रूप का, एक बिन्दु रस का, एक बिन्दु स्पर्श का दास बनाती हैं, उतने दिन चाहे जितना हम ज्ञान का अभिमान क्यों न करे, हमलोगों के हृदय में सत्य किस तरह प्रकाशित हो सकता है?

यम बोले—"जिस आत्मा के सम्बन्ध में, जिस परलोकतत्व के सम्बन्ध में तुमने प्रश्न किया है, वह वित्त-मोह से मूढ़ बालकों के हृदय में प्रतिभात नहीं हो सकता है। इसी जगत् का अस्तित्व है, परलोक का नहीं, यह माननेवाले बारम्बार मेरे वश में आते हैं।" [ २६० ]

फिर यह सत्य समझना भी कठिन है। बहुत से तो लगातार इस विषय को सुन कर भी समझ नहीं पाते, इस विषय का वक्ता भी आश्चर्यजनक होना आवश्यक है और श्रोता भी। गुरु का भी अद्‌भुत शक्तिसम्पन्न होना आवश्यक है और शिष्य भी उसी तरह का होना ज़रूरी है। मन को फिर वृथा तर्क के द्वारा चंचल करना उचित नहीं है। कारण, परमार्थ तत्व तर्क का विषय नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। हमलोग बराबर सुनते आरहे हैं कि प्रत्येक धर्म विश्वास करने पर जोर देता है। हमलोगों के कानों में तो अन्ध विश्वास शब्द ही भर दिया गया है।

यह अन्ध विश्वास सचमुच ही बुरी वस्तु है, इसमे कोई संदेह नहीं। पर यदि इस अंध विश्वास का हम विश्लेषण करके देखे तो ज्ञात होगा कि इसके पीछे एक महान् सत्य है। जो लोग अन्ध विश्वास की बात कहते हैं, उनका वास्तविक उद्देश्य यही अपरोक्षानुभूति है जिसकी हम इस समय आलोचना कर रहे हैं। मन को व्यर्थ ही तर्क के द्वारा चंचल करने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि तर्क से कभी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर प्रत्यक्ष का विषय है, तर्क का नहीं। समुदय तर्क ही कुछ सिद्धान्तों के ऊपर स्थापित है। इन सिद्धान्तों को छोड़कर तर्क हो ही नहीं सकता। हमलोगों ने जिन्हें पहले निश्चित रूप में प्रत्यक्ष कर लिया है, उस तरह के कुछ विषयों की तुलना की प्रणाली को युक्ति कहा जाता है। इन निश्चित प्रत्यक्ष विषयों के न होने पर युक्ति चल ही नहीं सकती। और बाह्य जगत् के सबन्ध में यदि यह सत्य है, तो अन्तर्जगत् के सम्बन्ध में भी ऐसा ही क्यों न होगा? [ २६१ ]

हम लोग बारंबार इस भ्रम में पड़ते हैं। हम जानते हैं कि सभी बाह्य विषय प्रत्यक्ष के ऊपर ही निर्भर रहते हैं। बाह्य विषयों पर विश्वास करने को तुमसे कोई नहीं कहता और न उनके पारस्परिक सम्बन्ध विषयक नियम किसी युक्ति पर निर्भर हैं, किन्तु प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा वे लब्ध होते हैं। फिर सभी तर्क कुछ प्रत्यक्षानुभूतियों के ऊपर स्थापित है। रसायनवेत्ता कुछ द्रव्य लेते हैं—उससे और कुछ द्रव्य उत्पन्न होते हैं। यह एक घटना है। हम उसे स्पष्ट देखते हैं, प्रत्यक्ष करते हैं, एवं उसे नींव मान कर हम रसायन-शास्त्र का विचार करते हैं। पदार्थ-तत्ववेत्ता भी वैसा ही करते हैं—सभी विज्ञान के विषय में यही हाल है। सभी प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष के ऊपर स्थापित है। उसके ऊपर निर्भर रहकर ही हमलोग विचार-युक्ति किया करते हैं। किन्तु आश्चर्य का विषय है कि अधिकांश लोग, विशेषतः वर्तमान काल में, सोचा करते हैं कि धर्मतत्त्व में प्रत्यक्ष करने को कुछ नहीं है—यदि कुछ धर्मतत्त्व लाभ करना होगा तो वह बाह्य वृथा तर्क के द्वारा ही होगा। किन्तु वास्तविक धर्म बातों का विषय नहीं है, यह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। हमें अपनी आत्मा के अन्दर अन्वेषण करके देखना होगा कि वहाँ क्या है। हमें उसे समझना होगा और जिसे हम समझेंगे उसका साक्षात्कार करना होगा। यही धर्म है। चाहे कितना ही चीत्कार क्यों न करो, परन्तु वह धर्म नहीं हो सकता। अतएव एक कोई ईश्वर है या नहीं, यह व्यर्थ तर्कों के द्वारा प्रमाणित नहीं हो सकता, क्योंकि युक्ति दोनों ओर समान है। किन्तु यदि कोई ईश्वर है, तो वह हमारे अन्तर में ही है। तुमने क्या कभी उसे देखा है? यही प्रश्न है। जिस तरह जगत् का अस्तित्व है या नहीं—इस प्रश्न की मीमांसा अभीतक [ २६२ ]
नही हो सकी इसी प्रकार प्रत्यक्षवाद और विज्ञानवाद Idealism) का तर्क अनंत काल से चला आरहा है। इस प्रकार का तर्क निश्चय ही चलता है, परन्तु हम जानते है कि जगत् है और वह चल रहा है। हमलोग केवल एक शब्द का भिन्न भिन्न अर्थ करके यह तर्क किया करते है। हमारे जीवन के अन्यान्य सभी प्रश्नों के सम्बन्ध मे भी ऐसा ही है--हमे प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनी होगी। जैसे बाह्य विज्ञान मे--उसी तरह परमार्थ विज्ञान मे भी हमें कुछ पारमार्थिक व्यापार को प्रत्यक्ष करना होगा। उसी पर धर्म स्थापित होगा। अवश्य ही किसी भी धर्म के किसी भी मत में विश्वास रखना होगा, इस युक्तिहीन दावे मे कोई आस्था नहीं की जा सकती। उससे मनुष्य के मन की अवनति होती है। जो व्यक्ति तुम्हे सभी विषयों में विश्वास करने को कहता है, वह अपने को भी नीचे गिराता है, और यदि तुम उसके वचनो पर विश्वास करते हो तो वह तुम्हे भी नीचे गिराता है। जगत् के साधुगणो को हमसे केवल यही कहने का अधिकार है कि उन्होंने अपने मन का विश्लेपण किया है तथा उन्होने कुछ सत्य पाया भी है, हम भी वैसा करे, फिर हम उन पर विश्वास करेगे, उसके पहले नहीं। यही धर्म का सार है। किन्तु यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो जो धर्म के विरुद्ध तर्क करते है, उनमे से निन्यान्नवे प्रतिशत व्यक्ति अपने मन का विश्लेषण करके नहीं देखते, वे सत्य को पाने की चेष्टा नहीं करते। इसलिये धर्म के विरोध मे उनकी युक्ति का कोई मूल्य नही है। यदि कोई अन्धा मनुष्य निश्चय करके कहे, "तुम लोग, जो कि सूर्य के अस्तित्व में विश्वास करनेवाले हो सभी भ्रान्त हो" तो उसके इस वाक्य का जितना मृत्य होगा, उतना ही मूल्य इनके वाक्य का होगा। इसलिये जो अपने मन का विश्लेषण नहीं करते और धर्म को एकदम
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उड़ा देने, और लोप करने में अग्रसर है, उनकी बातो मे हमे थोड़ी भी आस्था करने की आवश्यकता नहीं।

इस विषय को ही विशेषतया समझना एवं अपरोक्षानुभूति का भाव मन मे सर्वदा जागरूक रखना उचित है। धर्म लेकर ये सब झगडे, मारामारी, विवाद-विसंवाद उसी समय चले जायॅगे, जब कि हम समझेगे कि धर्म किसी ग्रन्थविशेष या मन्दिरविशेष मे बॅधा हुआ नहीं है, अथवा इन्द्रिय द्वारा भी उसका अनुभव सम्भव नही है। यह अतीन्द्रिय तत्त्व की अपरोक्षानुभूति है। जिन व्यक्तियो ने वास्तविक ईश्वर एव आत्मा की उपलब्धि की है, वे ही प्रकृत धार्मिक है और यह प्रत्यानुभूति न होने पर उच्चतम धर्मशास्त्रवेत्ता जो धाराप्रवाह धर्मवक्तृता दे सकते हैं उनमे तथा अत्यन्त सामान्य अज्ञ जड़वादी में कोई भेद नहीं है। हम सब नास्तिक है, इसे हम लोग क्यो नहीं मान लेते? केवल विचारपूर्वक धर्म के समग्र सत्य मे समति देने मात्र से हम धार्मिक नहीं हो सकते। एक ईसाई या मुसलमान अथवा अन्य किसी दूसरे धर्मानुयायी की बात लो। ईसा के उस पर्वत पर के धर्मोपदेश का स्मरण करो। जो कोई व्यक्ति इस उपदेश को कार्यरूप मे परिणत कर सके, वह उसी क्षण देवता हो सकता है, सिद्ध हो सकता है। तथापि कहा गया है कि पृथ्वी मे इतने करोड़ ईसाई है। क्या तुम कहना चाहते हो, ये सभी ईसाई है? वास्तविक इसका अर्थ यह है कि ये किसी न किसी समय इस उपदेश के अनुसार कार्य करने की चेष्टा कर सकते है। दो करोड लोगो मे एक भी सच्चा ईसाई है या नहीं इसमें सदेह है।

भारतवर्ष मे भी इस तरह कहा गया है कि तीस कोटि वेदान्ती हैं। यदि प्रत्यक्षानुभूति-सम्पन्न व्यक्ति हजार में एक भी होते,
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तो यह जगत् पॉच मिनट मे कुछ दूसरा ही हो जाता। हम सभी नास्तिक है, परन्तु जो व्यक्ति उसे स्पष्ट स्वीकार करता है, उससे हम विवाद करने को प्रस्तुत होते है। हम लोग सभी अन्धकार में पड़े हुए है। धर्म हम लोगों के समीप मानो कुछ नहीं है, केवल विचारलब्ध कुछ मतों का अनुमोदन मात्र है, केवल मुॅह की बात है--अमुक व्यक्ति खूब अच्छी तरह से बोल सकता है, अमुक व्यक्ति नहीं बोल सकता, यही हमलोगों का धर्म है--शब्द-योजना करने की सुन्दर कुशलता, अलङ्कारिक शब्दों मे वर्णन करने की क्षमता, शास्त्रों के श्लोकों की अनेक प्रकार से व्याख्या, ये सभी केवल पण्डितों के आमोद के निमित्त है--मुक्ति के लिये नहीं। आत्मा की जब यह प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म आरम्भ होगा। उसी समय तुम धार्मिक होगे, एवं उसी समय, केवल उसी समय नैतिक जीवन भी प्रारम्भ होगा। इस समय हम रास्ते के पशुओं की अपेक्षा भी कोई विशेष अधिक नीतिपरायण नहीं है। हमलोग इस समय केवल समाज के शासन के भय से ही कुछ गडबड़ नहीं करते। यदि समाज आज कहे--चोरी करने से अब दण्ड नहीं मिलेगा तो हमलोग इसी समय दूसरे की सम्पत्ति लूटने के लिये व्यग्र होकर दौड़ पड़ेगे। हम लोगों के सच्चरित्र होने मे एकमात्र कारण पुलिस है। सामाजिक प्रतिष्ठा-लोप की आशंका ही हमलोगों के नीतिपरायण होने मे बहुधा कारण है, और वस्तुस्थिति तो यह है कि हम पशुओ से बिलकुल थोडासा ही उन्नत है। हम लोग जब अपने अपने घर के एकान्त कोने में बैठकर अपने हृदय के भीतर अनुसधान करेगे तभी समझ सकेगे कि यह बात कितनी सत्य है। अतएव आओ, हमलोग इस कपटता का त्याग करे। आओ, स्वीकार करे कि हमलोग धार्मिक नही है और दूसरों के प्रति घृणा करने का
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हमारा कोई अधिकार नहीं है। हम सभों के बीच वास्तव मे भ्रातृसम्बन्ध है, और हमे धर्म की जब प्रत्यक्षानुभूति होगी तभी हम नीतिपरायण होने की आशा कर सकते है।

कल्पना करो तुमने कोई देश देखा है। कोई व्यक्ति तुम्हे काट कर टुकड़े टुकड़े कर फेक दे सकता है। परन्तु तुम अपने हृदय के भीतर कभी भी ऐसी बात नहीं सोच सकते कि मैने उस देश को देखा है। अवश्य ऐसा हो सकता है कि शारीरिक बल-प्रयोग के कारण तुम कह दो--मैने उस देश को नहीं देखा है, किन्तु तुम अपने मन मे जानते हो कि तुमने उस देश को देखा है। बाह्य जगत् को तुम जिस तरह प्रत्यक्ष करते हो, जिस समय इससे भी अधिक उज्ज्वल भाव से धर्म और ईश्वर का साक्षात्कार होगा, तब कुछ भी तुम्हारे विश्वास को नष्ट नहीं कर सकता। उसी समय प्रकृत विश्वास का आरम्भ होगा। "जिसे एक सरसो मात्र भी विश्वास है, वह पहाड़ के पास जाकर कहे कि तुम हट जाओ तो पहाड़ भी उसकी बात सुनेगा।" बाइबिल की इस कथा का तात्पर्य यही है। उस समय स्वय सत्यस्वरूप हो जाने के कारण तुम सत्य को जान सकोगे। केवल विचारपूर्वक सत्य के विषय मे समति देने से कोई लाभ नहीं है।

एक मात्र बात यही है कि क्या तुम्हे प्रत्यक्षानुभूति हुई है? वेदान्त की मूल बात यही है--धर्म का साक्षात्कार करो--केवल कहने से कुछ न होगा, किन्तु साक्षात्कार करना बहुत कठिन है। जो परमाणु के अन्दर अति गुह्य रूप से रहते है, वही पुराण पुरुष, वही प्रत्येक मानव-हृदय के गुह्यतम प्रदेश में निवास करते हैं, साधु पुरुषो ने उन्हें अन्तर्दृष्टि द्वारा उपलब्ध किया है और तभी वे सुख-दुःख दोनो
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से पार होगये है, हम लोग जिसे धर्म कहते है, और जिसे अधर्म कहते है, और शुभाशुभ सब कर्म, एवं सत् असत्, इन सभों से वे पार होगये है,--जिन्होंने उन्हे देखा है, उन्होंने ही यथार्थ सत्य का दर्शन किया है। किन्तु फिर स्वर्ग का क्या हुआ? स्वर्ग के सम्बन्ध मे हम लोगों की ऐसी धारणा है कि वह दुःखशून्य सुख है; अर्थात् हम संसार के सभी सुख चाहते है, और उसके दुःखों को केवल छोड़ देना चाहते है। अवश्य यह अत्यन्त सुन्दर धारणा है, यह स्वाभाविक भाव से ही आती है, किन्तु यह धारणा सम्पूर्ण भ्रमात्मक है, कारण, पूर्ण सुख या पूर्ण दुःख नाम का कोई पदार्थ नहीं है।

रोम मे एक व्यक्ति बड़ा धनी था। उसने एक दिन सुना कि उसकी सम्पत्ति मे केवल दस लाख पौण्ड शेष है। सुनते ही उसने कहा--तब मै कल क्या करूॅगा? और यह कह कर उसी समय उसने आत्महत्या कर ली! दस लाख पौण्ड उसके लिये दारिद्रयसूचक था, किन्तु हम लोगो के लिये वैसा नहीं है। वह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन की आवश्यकता से भी अधिक है। वास्तविक सुख ही क्या है, और दुःख ही क्या? वे लगातार विभिन्न रूप धारण करते रहते है। मैं जब छोटा था, तो सोचता था--जब मै गाड़ी चलाने लगूॅगा तो सुख की पराकाष्ठा को प्राप्त करूॅगा। इस समय मैं ऐसा नहीं समझता। अब तुम कौनसे सुख को पकड़े रहोगे? यही हमे विशेषकर समझने की चेष्टा करना उचित है। और हमारा यह कुसस्कार नष्ट होने में बहुत विलम्ब लगता है। प्रत्येक के सुख की धारणा अलग अलग है। हमने एक आदमी को देखा है, जो प्रतिदिन प्रचुर अफीम खाये बिना सुखी नही होता था। वह शायद सोचता होगा, स्वर्ग की मिट्टी अफीम की ही बनी
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होगी! किन्तु हमारी दृष्टि मे वह स्वर्ग सुविधाजनक न होगा। हम लोग बारबार अरबी कविता मे पढ़ते है, स्वर्ग अनेक प्रकार के मनोहर उद्यानों से पूर्ण है, उसमे अनेक नदियाॅ बहती है। मैंने अपना अधिकांश जीवन एक ऐसे स्थान मे बिताया है, जहाॅ जल प्रचुर मात्रा में है, कितने ही गाव और हजारो लोग प्रतिवर्ष बाढ़ में मृत्यु के मुख मे चले जाते है। अतएव मेरा स्वर्ग नदीप्रवाहयुक्त एवं उद्यानपूर्ण नहीं हो सकता; मेरा स्वर्ग तो शुष्कभूमिपूर्ण तथा अधिक वर्षारहित होना आवश्यक है। हमारे जीवन के सम्बन्ध मे भी ऐसा ही है, सुख की हमारी धारणा क्रमश बदलती रहती है। युवक यदि स्वर्ग की कल्पना करे तो उसका स्वर्ग परम सुन्दर रमणीयों से परिपूर्ण होना आवश्यक है। वही व्यक्ति आगे चल कर वृद्ध होने पर उसे स्त्री की आवश्यकता फिर न रहेगी। हमारा प्रयोजन ही हमारे स्वर्ग का निर्माता है, और हमारे प्रयोजन के परिवर्तन के साथ साथ हमारा स्वर्ग भी भिन्न भिन्न रूप धारण करता है। यदि हम इस प्रकार के एक स्वर्ग में जायॅ जहाॅ अनन्त इन्द्रिय-सुख का लाभ होगा तो उस जगह हमारी कोई विशेष उन्नति नही हो सकती। जो विषयभोग को ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य मानते है वे ही इस प्रकार के स्वर्ग की प्रार्थना किया करते है। यह वास्तविक मंगलकारी न होकर महा अमगलकारी होगा। यही क्या हमारी अन्तिम गति है? थोडा हॅसना-रोना, उसके वाद कुत्ते के समान मृत्यु! जिस समय तुम लोग इन सब विषय भोगों की प्रार्थना करते हो, उस समय तुम यह नही जानते कि मानव जाति के लिये जो अन्यत अमगलकारक है, उसकी तुम कामना करते हो--वास्तविक ऐहिक सुखभोग की कामना करके तुम वैसा ही करते हो, क्योकि तुम यह नहीं जानते कि प्रकृत आनन्द क्या है। [ २६८ ]
वस्तुतः दर्शनशास्त्र मे आनन्दत्याग करने का उपदेश नहीं दिया गया है। प्रकृत आनन्द क्या है इसी का उपदेश दिया गया है। नार्वेवासियों की स्वर्ग के सम्बन्ध में धारणा ऐसी है कि वह एक भयानक युद्धक्षेत्र है, वहाॅ सभी लोग जाकर वोडन (woden) देवता के सम्मुख बैठते है। कुछ समय के बाद जंगली सूअरों का शिकार आरम्भ होता है। बाद मे वे आपस में ही युद्ध करते हैं और एक दूसरे को खण्ड विखण्ड कर डालते है। किन्तु इस प्रकार के युद्ध के थोड़ी देर बाद ही किसी न किसी रूप से उन लोगों के घाव ठीक हो जाते है, उस समय वे एक हॉल मे जाकर उसी सूअर के मांस को पका कर खाते तथा आमोद-प्रमोद करते है। उसके दूसरे दिन वह सूअर जीवित हो जाता है और फिर उसी तरह शिकार आदि होता है। यह हमारी धारणा के अनुरूप ही है, अन्तर इतना ही है कि हमारी धारणा कुछ अधिक परिष्कृत है। इस प्रकार हम सभी सूअर का शिकार करना चाहते है--हम एक ऐसे स्थान में जाना चाहते है, यहाॅ ये भोग पूर्ण मात्रा मे लगातार चलते रहे--ठीक उसी प्रकार जैसे नार्वेवासी सूअर की कल्पना करते है।

दर्शनशास्त्र के मत मे निरपेक्ष अपरिणामी आनन्द नामक पदार्थ है, अतएव हम साधारणतया जो ऐहिक सुखोपभोग करते है, उसके साथ इस सुख का कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु फिर वेदान्त ही केवल प्रमाणित करता है कि इस जगत् मे जो कुछ आनन्दकारी है, वह उसी प्रकृत आनन्द का अंश मात्र है, क्योंकि उस ब्रह्मानन्द का ही वास्तविक अस्तित्व है। हम प्रतिक्षण उसी ब्रह्मानन्द का उपभोग करते है, किन्तु यह नहीं जानते कि वह ब्रह्मानन्द है। जहाॅ
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कही किसी प्रकार का आनंद देखोगे, यहाॅ तक कि चोरों को चोरी मे जो आनन्द मिलता है, वह भी वस्तुतः वही पूर्णानन्द है; अन्तर यही है कि वह कुछ बाह्य वस्तुओं के संपर्क से मलीन हो गया है। किन्तु उसकी प्राप्ति के लिये पहले हमे समस्त ऐहिक सुखभोग का त्याग करना होगा। उसका त्याग करने पर ही प्रकृत आनन्द की साक्षात् उपलब्धि होगी। पहले अज्ञान, मिथ्या का त्याग करना होगा, तभी सत्य का प्रकाश होगा। जब हम सत्य को दृढ़तापूर्वक पकड़ सकेगे, तब पहले हमने जो कुछ भी त्याग किया था वही फिर एक दूसरा रूप धारण करेगा, एक नवीन आकार में प्रतिभात होगा, उस समय समस्त ब्रह्माण्ड ही ब्रह्ममय हो जायगा, उस समय सभी कुछ उन्नत भाव को धारण करेगा, उस समय हम सभी पदार्थों को नवीन आलोक मे देखेंगे। किन्तु पहले हमे उन्ही सब का त्याग करना होगा; बाद मे सत्य का अन्तत एक बिन्दु आभास पाने पर फिर हम उन सभी को ग्रहण करलेगे, किन्तु अन्य रूप मे--ब्रह्माकार मे--परिणत रूप मे। अतएव हमे सुख-दुःख सभी का त्याग करना होगा। ये सब उस प्रकृत वस्तु का, उसे चाहे सुख कहो या दुःख, विभिन्न क्रम मात्र है। 'सभी वेद जिसकी घोषणा करते हैं, सभी प्रकार की तपस्याये जिसकी प्राप्ति के लिये की जाती है, जिसे पाने की इच्छा से लोग ब्रह्मचर्य का अनुष्टान करते है, हम सक्षेप मे उसी के सम्बन्ध मे तुम्हे बतायॅगे, वह ॐ है। 'वेद मे इस ॐ कार की अतिशय महिमा और पवित्रता वर्णित है।

इस समय यम नचिकेता के प्रश्न का--मृत्यु के बाद मनुष्य की क्या दशा होती है--उत्तर देते है। "सदा चैतन्यवान आत्मा
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कभी नहीं मरती, न कभी जन्म लेती है, यह किसी से भी उत्पन्न नहीं होती है, यह नित्य है, अज है, शाश्वत है और पुराण है। देह के नष्ट हो जाने पर भी यह नष्ट नहीं होती। मारनेवाला यदि सोच मैं किसी को मार सकता हूॅ, अथवा मरनेवाला व्यक्ति यदि सोचे--मै मरा हूॅ, तो दोनों को ही सत्य से अनभिज्ञ समझना चाहिये; क्योंकि आत्मा न किसीको मारती है, न स्वय मृत होती है।" यह तो बड़ी भयानक बात हुई। प्रथम श्लोक में आत्मा का विशेषण जो 'सदा चैतन्यवान' शब्द है उसी के ऊपर विशेष लक्ष्य करो। क्रमशः देखोगे, वेदान्त का प्रकृत मत यही है कि समुदय ज्ञान, समुदय पवित्रता, पहले से ही आत्मा में अवस्थित है, उसका कही पर अधिक प्रकाश होता है और कहीं पर कम। इतना ही भेद है। मनुष्य के साथ मनुष्य का अथवा इस ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ का पार्थक्य प्रकारगत नहीं है, परिमाणगत है। प्रत्येक के भीतर अवस्थित सत्य--वही एक मात्र अनन्त नित्यानन्दमय, नित्यशुद्ध, नित्यपूर्ण ब्रह्म है। वही यह आत्मा है--वह पुण्यशील, पापी, सुखी, दुःखी, सुन्दर, कुरूप, मनुष्य, पशु, सब मे समान है। वही ज्योतिर्मय है। उसके प्रकाश के तारतम्य से ही नाना प्रकार का प्रभेद है। किसीके भीतर वह अधिक प्रकाशित है और किसी के भीतर कम, किन्तु उस आत्मा के समीप इस भेद का कोई अर्थ नहीं है। एक व्यक्ति की पोशाक के भीतर से उसके शरीर का अधिकांश देखा जाता है, पर दूसरे व्यक्ति की पोशाक के भीतर से उसके शरीर का अल्पांश देखा जाता है--पर इससे शरीर में किसी प्रकार का भेद नहीं होता। केवल शरीर के अधिकांश या अल्पांश को आवृत करने वाली पोशाक का ही भेद देखा जाता है। आवरण अर्थात् देह और मन के तारतम्यानुसार ही
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आत्मा की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित होती है। अतएव यहाँ पर यह बात समझ लेना ठीक है कि वेदान्तदर्शन मे अच्छी और बुरी दो पृथक् वस्तुएँ नहीं है। वही एक पदार्थ अच्छा और बुरा दोनों होता है और उनके बीच विभिन्नता केवल परिमाणगत है, एवं वास्तविक कार्यक्षेत्र मे भी हम यही देखते हैं। आज जिस वस्तु को हम सुखकर कहते है, कल कुछ अच्छी अवस्था प्राप्त होने पर उसी को दुखकर अवस्था कहकर उससे घृणा करेगे। अतएव वास्तविक वस्तु के विकास की विभिन्न मात्रा के कारण ही भेद उपलब्ध होता है, उस पदार्थ मे तो वास्तविक कोई भेद नहीं है। वस्तुतः अच्छा बुरा नामक कोई पदार्थ ही नही है। जो अग्नि हमे सर्दी से बचाती है, वही किसी बच्चे को भस्म भी कर सकती है, तो यह क्या अग्नि का दोष हुआ? अतएव यदि आत्मा शुद्धस्वरूप और पवित्र हो, तो जो व्यक्ति असत्कार्य़ करने जाता है, वह अपने स्वरूप के विपरीत आचरण करता है--वह अपने स्वरूप को नही जानता। एक खूनी के भीतर भी शुद्ध स्वरूप आत्मा रहती है। वह भ्रान्ति से उसको ढाँके रहता है, उसकी ज्योति को प्रकाशित नहीं होने देता। और जो व्यक्ति सोचता है कि वह मारा गया, उसकी भी आत्मा मरती नहीं। आत्मा नित्य है--कभी भी उसका ध्वंस नही हो पाता। "अणु से भी अणु, वृहत् से भी वृहत् , वही सभी के प्रभु प्रत्येक मनुष्य--हृदय के गुह्यप्रदेश में वास करते हैं। निष्पाप व्यक्ति विधाता की कृपा से उसे देखकर सभी प्रकार के शोक से रहित हो जाता है। जो देहशून्य होकर देह मे रहते है, जो देशविहीन होकर भी देश मे रहनेवालों के समान हैं, उस अनन्त और सर्वव्यापी आत्मा को इस प्रकार जानकर ज्ञानी व्यक्ति का दुःख सम्पूर्ण रूप से दूर हो जाता है। इस आत्मा
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को वक्तृताशक्ति, तीक्ष्ण मेघा अथवा वेदाध्ययन के द्वारा नहीं पाया जा सकता।

यह 'वेदों' के द्वारा लाभ नहीं की जा सकती' ऐसा कहना ऋषियों के लिये परम साहस का कार्य था। पहले ही कहा है, ऋषि चिन्ता-जगत् मे बडे साहसी थे, वे किसी के द्वारा भी रोके जानेवाले नही थे। हिन्दू लोग वेद को जिस सम्मान की दृष्टि से देखते है, उस भाव से ईसाई लोग बाइबिल को कभी नहीं देखते। ईसाइयों की ईश्वर-वाणी के विषय मे ऐसी धारणा है कि किसी मनुष्य ने ईश्वरानुप्राणित होकर उसे लिखा है, किन्तु हिन्दुओ की धारणा है--जगत् मे जो सभी विभिन्न पदार्थ हैं, उसका कारण यह है कि वेद मे इन इन पदार्थों का नाम उल्लिखित है। उनका विश्वास है कि वेद के द्वारा ही जगत् की सृष्टि हुई है। ज्ञान नाम से जो कुछ समझा जाता है, वह वेद मे ही है। जिस प्रकार आत्मा अनादि अनन्त है उसी प्रकार वेद का प्रत्येक शब्द भी पवित्र एवं अनंत है। सृष्टिकर्ता के समस्त मन का भाव ही मानो इस ग्रन्थ मे प्रकाशित है। वे इस भाव से वेद को देखते है। यह कार्य नीतिसंगत क्यों है?--क्योकि इसे वेद कहता है यह कार्य अन्याय क्या है?--क्योकि इसे वेद कहता है। वेद के प्रति प्राचीनो की ऐसी श्रद्धा रहने पर भी इन ऋषियो का सत्यानुसन्धान में कितना साहस है, देखो। उन्होने यह कहा कि 'नही, बारंवार वेदपाठ करने पर भी सत्यलाभ की कोई सम्भावना नहीं है'। अतएव वही आत्मा जिसके प्रति प्रसन्न होती है, उसीको वह अपना स्वरूप दिखलाती है। किन्तु इससे एक और आशका उठ सकती है कि इसमे भी उस पर पक्षपात का दोष हुआ, इसलिये निम्नलिखित वाक्य भी इसके साथ कहे गये है। 'जो असत्कार्य करनेवाले है और जिनका मन शान्त
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नही है, वे कभी भी इसे नही पा सकते। केवल जिनका हृदय पवित्र है, जिनका कार्य पवित्र है, जिनकी इन्द्रियाॅ संयत है, उन्ही के निकट यह आत्मा प्रकाशित होती है।'

आत्मा के सम्बन्ध में एक सुन्दर उपमा दी गयी है। आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी, मन को लगाम और इन्द्रियो को अश्व की उपमा दी गई है। जिस रथ के घोडे अच्छी तरह संयत है, जिस रथ की लगाम खूब मज़बूत है और सारथी के द्वारा दृढ़रूप से पकड़ा हुआ है, वही रथ विष्णु के उस परम पद को पहुँच सकता है, किन्तु जिस रथ के इन्द्रिय रूपी घोड़े दृढभाव से सयत नहीं हैं तथा मनरूपी लगाम दृढ़भाव से संयत नहीं रहती वही रथ अन्त मे विनाश की दशा को प्राप्त होता है। सभी प्राणियो के मध्य मे अवस्थित आत्मा चक्षु अथवा किसी दूसरी इन्द्रिय के समक्ष प्रकाशित नहीं होती, किन्तु जिनका मन पवित्र हुआ है, वे ही उसे देख पाते है। जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध से अतीत है, जो अव्यय है, जिसका आदि अन्त नही है, जो प्रकृति के अतीत है, अपरिणामी है, उसे वे प्राप्त करते है, वे मृत्यु-मुख से मुक्त होते है। किन्तु उसे पाना बहुत कठिन है, यह मार्ग तेज क्षुरधारा के समान अत्यंत दुर्गम है। मार्ग बहुत लम्बा एव विपद्व्याप्त है, किन्तु निराश मत होना, दृढतापूर्वक चले जाओ, 'उठो, जागो, जिसकी कोई सीमा नहीं है, उसी चरमलक्ष्य पर पहुॅचो, वहाॅ तक पहुॅचे बिना निवृत्त मत होओ।'

हम देखते है, समस्त उपनिषद के भीतर प्रधान बात यह अप- रोक्षानुभूति ही है। इसके सम्बन्ध मे मन मे समय समय पर अनेक प्रकार के प्रश्न उठेगे--विशेषत, आधुनिक लोगो के लिए इसकी उपकारिता के

१८ [ २७४ ]सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित होंगे—तथा और भी अनेक प्रकार के संदेह उठेंगे, परन्तु हम देखेंगे कि सभी में हम अपने पूर्व संस्कारों के द्वारा संचालित होते हैं। हमारे मन पर इन पूर्व संस्कारों का अतिशय प्रभाव है। जो बाल्यकाल से केवल सगुण ईश्वर की और मन के व्यक्तिगत तत्व (The personality of the mind) की बात सुनते हैं, उनके लिये पूर्वोक्त बातें अवश्य ही अति कर्कश मालूम पड़ेंगी, किन्तु यदि हम उन्हें सुनें और यदि दीर्घकाल तक उनकी चिन्ता करें, तो वे बातें हमारे प्राणों में भिंद जायँगी, हम फिर इस तरह की बातें सुनकर भयभीत न होंगे। हाँ, दर्शन की उपकारिता अर्थात् कार्यकारिता के सम्बन्ध में मुख्य प्रश्न अवश्य है। उसका केवल एक ही उत्तर दिया जा सकता है। यदि प्रयोजनवादियों के मत में सुख का अन्वेषण करना मनुष्य के लिये कर्तव्य है, तो आध्यात्मिक चिन्ता में जिन्हें सुख मिलता है, वे क्यों न आध्यात्मिक चिन्ता में सुख का अन्वेषण करें? अनेक लोग विषयभोग में सुख पाने के कारण विषयसुख का अन्वेषण करते हैं, किन्तु ऐसे अनेक व्यक्ति हो सकते हैं जो उच्चतर भोग का अन्वेषण करते हैं। कुत्ता केवल खाने पीने से सुखी होता है। किन्तु वैज्ञानिक विषयसुख को तिलाञ्जलि दे, केवल कुछ ही तारों की स्थिति जानने के लिये ही शायद किसी पर्वत के शिखर पर वास करते हैं। वे जिस अपूर्व सुख का आस्वाद पाते हैं, कुत्ता उसे समझने में अक्षम है। कुत्ता उन्हें देखकर हँस सकता है और उन्हें पागल कह सकता है। हो सकता है बिचारे वैज्ञानिक को विवाह भी करने की सुविधा न मिली हो। हो सकता है, वे केवल रोटी के कुछ टुकड़े और थोड़ेसे पानी के आधार पर ही पर्वत के शिखर पर रहते हैं। किन्तु वैज्ञानिक कहेंगे, "भाई कुत्ते! तुम्हारा सुख केवल इन्द्रियों में आबद्ध है; तुम [ २७५ ]
इस सुख का भोग कर रहे हो। तुम उसे छोड़कर उच्चतर कोई भी सुख नही जानते, किन्तु हमारे लिये यही सबसे बढ़कर सुखकर है। और यदि तुम्हे अपने मनोनुकूल सुखान्वेषण का अधिकार है, तो हमें भी है।" हमारा यही भ्रम है कि हम समस्त जगत् को अपने ही भाव से बनाना चाहते है। हम अपने ही मन को समस्त जगत्का मापदण्ड बनाना चाहते हैं। तुम्हारी दृष्टि में इन्द्रियविषयो मे ही सर्वापेक्षा अधिक सुख है। किन्तु हमे भी उन्हीं से सुख मिलेगा, इसका कोई अर्थ नहीं है। जिस समय तुम इस मत को लेकर जिद्द करते हो, तभी हमारा तुमसे मतभेद होता है। सांसारिक हितवादी (Worldly Utilitarian) के साथ धर्मवादी का यही प्रभेद है। सांसारिक हितवादी कहते हैं--"देखो, हम कितने सुखी है!"

"हम तुम्हारे धर्म-तत्वो को लेकर माथापच्ची नहीं करते। वे तो अनुसधानातीत है। उन सभी का अन्वेषण न कर हम बड़े सुख मे हैं। "बहुत अच्छा, अच्छी बात है। है हितवादियो! तुम लोग जिससे सुखी होते हो, वह ठीक है। किन्तु यह संसार बड़ा भयानक है। यदि कोई व्यक्ति अपने भाई का कोई अनिष्ट करके सुख प्राप्त कर सके, तो ईश्वर उसकी उन्नति करता है। किन्तु जब वही व्यक्ति आकर हमे अपने मत के अनुसार कार्य करने का परामर्श देता है और कहता है, यदि तुम इस तरह नहीं करते हो तो तुम मूर्ख हो तो उससे हम कहते है, तुम भ्रान्त हो, क्योंकि तुम्हारे लिये जो सुखकर है, उसे यदि हम करे, तो हम प्राण रखने में भी समर्थ न हो सकेगे। यदि हमे सोने के कुछ टुकड़ों के लिये दौडना पडे, तो हमारा जीना ही निरर्थक होगा। धार्मिक व्यक्ति हितवादी को यही
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उत्तर देगा। और वास्तविक बात भी ऐसी ही है। जिसने निम्नतर भोगवासनाओं का अन्त कर लिया है, वही धर्माचरण कर सकता है। हम लोगो को भोग भोगकर आघातो द्वारा सीखना होगा, जहाॅ तक हमारी दौड है, वहाॅ तक दौड लेना होगा। जब इस संसार मे हमारी दौड निवृत्त होती है, तभी हम लोगों की दृष्टि के समक्ष परलोक प्रतिभात होता है।

इस विषय मे और एक विशेष समस्या हमारे मन मे उत्पन्न हुई। सुनने मे बात तो बडी कर्कश है, परन्तु है वह वास्तविक सत्य कथा। यह विषय-भोगवासना किसी किसी समय और एक रूप धारण करके उदित होती है--उसमे वडी विपदाशंका है, फिर भी वह आपाततः रमणीय है। यह बात तुम सर्वदा सुनते हो। अत्यन्त प्राचीन काल मे भी वह धारणा थी--वह प्रत्येक धर्म-विश्वास के अन्तर्गत है और वह यह है कि एक ऐसा समय आयेगा जब संसार का समस्त दुःख समाप्त हो जायगा, केवल सुखांश ही अवशिष्ट रह जायगा और पृथ्वी स्वर्गराज्य मे परिणत हो जायगी। पर मेरा इस बात पर विश्वास नही है। हमारी पृथ्वी जैसी है, वैसी ही रहेगी। अवश्य ही यह बात कहना बहुत भयानक है, किन्तु यह न कहकर और कोई मार्ग देखता ही नहीं हूॅ। यह बात रोग के समान है। मस्तक से उतारो तो पैर मे जायगा। एक स्थान से हटा देने से दूसरे स्थान मे चला जायगा। कुछ भी क्यों न करो, वह किसी भी तरह पूर्णरूपेण दूर नहीं हो सकता। दुःख भी इसी तरह है। अति प्राचीन काल मे लोग जंगल मे रहा करते थे और एक दूसरे को मारकर खा लेते थे। वर्तमान काल मे मनुष्य एक दूसरे मनुष्य का मांस नही
[ २७७ ]
खाता, परन्तु एक दूसरे को ठगा खूब करता है। मनुष्य प्रतारणा करके नगर का नगर, देश का देश ध्वस कर डालता है। निश्चय ही यह किसी बहुत बड़ी उन्नति का परिचायक नही है। और तुम लोग जिसे उन्नति कहते हो, उसे भी मैं बडा नही समझता--वह तो वासना की लगातार वृद्धि मात्र है। यदि मुझे कोई विषय अति स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है, तो वह यही है कि वासना से केवल दुःख का ही आगमन होता है--वह तो याचक की अवस्था मात्र है। सर्वदा ही कुछ न कुछ के लिये याचना करना--किसी दूकान आदि मे जाकर किसी न किसी वस्तु के पाने की इच्छा रहती ही है। बस चाहना, चाहना, चाहना! सारा जीवन ही केवल तृष्णाग्रस्त याचक की अवस्था है--वासना की दुनिवार तृष्णा है। यदि वासना पूर्ण करने की शक्ति समयुक्तान्तर श्रेणी (Arithmetical progression) के नियमानुसार बटे, तो वासना की शक्ति समगुणितान्तर श्रेणी (Geometrical progression) के नियमानुसार बढती है। अनन्त जगत् के समस्त सुखदुःख की समष्टि सर्वदा ही समान है। समुद्र मे यदि एक तरग कही से उठती है, तो निश्चय कही पर एक गर्त उत्पन्न होगी। यदि किसी मनुष्य को सुख प्राप्त हुआ है, तो निश्चय ही किसी दूसरे मनुष्य या पशु को दुख हुआ है। मनुष्य की सख्या बढ रही है, पशु की संख्या घट रही है। हम उनका विनाश करके उनकी भूमि छीन रहे है, हम उनका समस्त खाद्यद्रव्य छीन रहे है। तब हम किस तरह कहे कि सुख लगातार बढ रहा है? प्रबल जाति दुर्बल जाति का ग्रास कर रही है, किन्तु तुम लोग क्या समझते हो कि प्रबल जाति कुछ सुखी होगी? नहीं, वे एक दूसरे का सहार ही करेगी, मेरी समझ में नहीं आता कि सुख का युग किस तरह आयेगा। यह तो
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प्रत्यक्ष करने का विषय है। आनुमानिक विचार के द्वारा भी मै देखता हूॅ कि यह कभी सम्भव नहीं है।

पूर्णता सर्वदा ही अनन्त है। हम वस्तुतः वही अनन्त स्वरूप है, अपने उसी अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त करने की चेष्टा मात्र हम कर रहे है। तुम और मै, सभी उसी अपने अपने अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त करने की चेष्टा मात्र करते है। यहाॅ तक तो ठीक है, किन्तु कुछ जर्मन दार्शनिको ने इससे एक अत्यत अद्भुत दार्शनिक सिद्धान्त निकालने की चेष्टा की है--वह यही है कि इस तरह अनन्त क्रमशः अधिकाधिक व्यक्त होता रहेगा, जब तक कि हम पूर्ण व्यक्त नही होते है, जब तक कि हम सब पूर्ण पुरुष नहीं हो सकते है। पूर्ण अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है? पूर्णता का अर्थ अनन्त है, और अभिव्यक्ति का अर्थ है सीमा--अतएव इसका यह तात्पर्य हुआ कि हम असीम भाव से ससीम होंगे, परन्तु यह तो असंबद्ध प्रलाप मात्र है। बालकगण इस मत से संतुष्ट हो सकते है; बच्चों को सन्तुष्ट करने के लिये उन लोगों को शौक के तौर पर धर्म देने के लिये यह अवश्य उपयोगी है, किन्तु इससे उन लोगों को मिथ्या के विष से जर्जरित करना होता है--और धर्म के लिये तो यह बडा ही हानिकारक है। हमे यह समझ लेना उचित है कि जगत् और मानव ईश्वर का अवनत भाव मात्र है; तुम्हारी बाइबिल मे भी यह है कि आदम पहले पूर्ण मानव थे, बाद मे भ्रष्ट हुए। इस तरह का कोई धर्म ही नहीं है जो यह न कहता हो कि मनुष्य पहले की अवस्था से हीन अवस्था मे गिर गया है। हम हीन होकर पशु हो गये है। इस समय हम फिर से उन्नति के मार्ग पर चल रहे है, और इस बन्धन से
[ २७९ ]बाहर होने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु हम अनन्त को कभी भी यहाँ अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकते। हम प्राणपण से चेष्टा कर सकते हैं, परन्तु देखेंगे कि यह असंभव है। अन्त में एक समय ऐसा आयेगा जब हम देखेंगे कि जब तक हम इन्द्रियों से आबद्ध है, तब तक पूर्णता का लाभ असंभव है। तब हम जिस ओर अग्रसर हो रहे थे, उसी ओर से पीछे लौटना आरम्भ करेंगे।

इसी लौट आने का नाम त्याग है। तब हम जिस जाल के भीतर पड़े थे, उसमें से हमें निकलना होगा—तभी नीति और दया धर्म आरम्भ होगा। समस्त नैतिक अनुशासन का मूलमंत्र क्या है? 'नाहं नाहं, त्वमसि त्वमसि (तूही, तूही,)'। हमारे पीछे जो अनन्त विद्यमान है, उन्होंने अपने को बहिर्जगत् में व्यक्त करने के लिये इस 'अहं' का आकार धारण किया है। उन्हीं से इस क्षुद्र 'मैं' और 'तुम' की उत्पत्ति हुई है। अभिव्यक्ति की चेष्टा में इसी फल की उत्पत्ति हुई है, —अब इस 'मैं' को फिर पीछे हटकर अपने अनन्त स्वरूप में मिल जाना होगा। उन्हें मालूम होगा कि वे इतने दिन तक व्यर्थ की चेष्टा कर रहे थे। उन्होंने अपने को भँवर में डाला है—उन्हें इस भँवर से बाहर निकलना होगा। प्रत्येक दिन यही हमें प्रत्यक्ष होरहा है। जितने बार तुम कहते हो 'नाहं नाहं, त्वमसि त्वमसि' उतने ही बार तुम लौटने की चेष्टा करते हो, और जितने बार तुम अनन्त को यहाँ अभिव्यक्त करने में सचेष्ट होते हो, उतने ही बार तुम्हें कहना होगा 'अहं, अहं, न त्वम्'। इसीसे संसार में प्रतिद्वन्द्विता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है, किन्तु अन्त में त्याग, अनन्त त्याग का आरम्भ होगा ही। 'मैं' मर जायगा। अपने जीवन के लिये उस समय कौन यत्न करेगा? यहाँ रहकर इस जीवन का उपभोग करने [ २८० ]
की व्यर्थ वासना और फिर इसके आगे स्वर्ग जाकर उसी तरह रहने की वासना--अर्थात् सर्वदा इन्द्रिय और इन्द्रियसुख में लिप्त रहने की वासना ही मृत्यु को लाती है।

यदि हम पशुओं की उन्नत अवस्था मात्र है, तो जिस विचार से यह सिद्धान्त लब्ध हुआ उसी विचार से यह सिद्धान्त भी हो सकता है कि पशुगण मनुष्य की अवनत अवस्था मात्र है। तुमने यह कैसे समझा कि वैसा नहीं है? तुम जानते हो--क्रमविकासवाद का प्रमाण केवल यही है कि निम्नतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक सभी शरीर परस्पर-सदृश हैं, किन्तु उससे तुमने किस प्रकार यह सिद्धान्त निकाला कि निम्नतम प्राणी से क्रमशः उच्चतम प्राणी जन्मा है, न कि यह कि उच्चतम से क्रमशः निम्नतम प्राणी उत्पन्न हुआ है? दोनों ही ओर समान युक्ति है--और यदि इस मतवाद मे वास्तविक कुछ सत्य है, तो हमारा यह विश्वास है कि एकबार नीचे से ऊपर, फिर ऊपर से नीचे गति होती है--अर्थात् लगातार इस देहश्रेणी का आवर्तन हो रहा है। क्रमसकोचवाद स्वीकार न करने पर क्रमविकासवाद किस तरह सत्य हो सकता है? जो कुछ भी हो, मै जो कह रहा था कि मनुष्य की लगातार अनन्त उन्नति नहीं हो सकती यह इससे अच्छी तरह स्पष्ट होजाता है।

'अनन्त' जगत् मे अवश्य अभिव्यक्त हो सकता है, इसे यदि मुझे कोई समझा सके तो मै उसे समझने को प्रस्तुत हूॅ, किन्तु हम लगातार सरल रेखा मे उन्नति करते जा रहे है, इस बात पर मेरा बिलकुल विश्वास नहीं है। यह तो एक असंबद्ध प्रलाप मात्र है। सरल रेखा मे किसी प्रकार की गति हो ही नहीं सकती। यदि तुम अपने सामने ही
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सामने एक पत्थर फेको, तो अनन्त काल के बाद एक समय ऐसा आयेगा, जब वह घूमकर गोलाकार मे तुम्हारे निकट फिर आजायेगा। तुमलोगो ने क्या गणित के इस स्वत सिद्ध सिद्धान्त को नही पढ़ा है कि सरल रेखा अनन्त रूप मे बढ़ाने पर वर्तुलाकार धारण करती है? अवश्य ही यह ऐसा ही होगा, परन्तु संभव है, मार्ग पर अग्रसर होते होते कुछ इधर उधर होजाय। इसी कारण मै सर्वदा ही प्राचीन धर्मों का मत लेता हूॅ--क्या ईसा, क्या बुद्ध, क्या वेदान्त, क्या बाइबिल, सभी कहते है--इस अपूर्ण जगत् को छोड़कर ही समय पर हम पूर्णता प्राप्त करेंगे। यह जगत् कुछ भी नहीं है--अधिक से अधिक उस सत्य की एक भयानक विसदृर्श अनुकृति अर्थात् छाया मात्र है। सभी अज्ञानी मनुष्य इन इन्द्रियसुखो का उपभोग करने के लिये दौड़ते है।

इन्द्रियो मे आसक्त होना अत्यन्त सहज है। और भी सहज यह है कि हम अपने प्राचीन अभ्यास के वशीभूत होकर केवल आहार--पान मे मत्त रहे। किन्तु हमारे आधुनिक दार्शनिक इन सभी सुखकर भावो को लेकर उनके ऊपर धर्म का छाप देने की चेष्टा करते है। किन्तु यह मत सत्य नहीं है। इन्द्रियो की मृत्यु अटल है। हमे मृत्यु से अतीत होना होगा। मृत्यु कभी भी सत्य नहीं है। त्याग ही हमे सत्य मे पहुॅचायेगा। नीति का अर्थ ही त्याग है। हमारे प्रकृत जीवन का प्रत्येक अंश ही त्याग है। हम जीवन के उन्ही क्षणो मे वास्तविक साधुता से युक्त होते हैं और प्रकृत जीवन का संभोग करते है, जब हम 'मैं' की चिन्ता से विरत होते है। 'मैं' का जब नाश होता है--हमारे अन्तर के 'प्राचीन मनुष्य' ('Old man') की मृत्यु होती है, उसी समय हम सत्य मे पहुॅचते है। और वेदान्त कहता है--वह
[ २८२ ]सत्य ही ईश्वर है, वही हमारा प्रकृत स्वरूप है―वह सर्वदा ही तुम्हारे साथ रहता है और केवल यही नहीं, तुममें ही रहता है। उसी में सर्वदा वास करो। यद्यपि यह बहुत कठिन प्रतीत होता है, तथापि क्रमशः यह सहज हो जायगा। तब तुम देखोगे, उसमें रहना ही एकमात्र आनन्दपूर्ण अवस्था है, अन्य सभी अवस्थाये मृत्यु है। आत्म-भाव में पूर्ण होना ही जीवन है, और सभी भाव मृत्यु है। हमारे वर्तमान समस्त जीवन को ही केवल शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय कहा जा सकता है। प्रकृत जीवन लाभ करने के लिए हमे इसके बाहर जाना होगा।




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