ज्ञानयोग/१३. आत्मा का मुक्त स्वभाव

नागपुर: श्री रामकृष्ण आश्रम, पृष्ठ २८३ से – ३०६ तक

 

 

१३. आत्मा का मुक्त स्वभाव

हम पहले जिस कठोपनिषद की आलोचना करते थे, वह छान्दोग्योपनिषद के, जिसकी हम आलोचना करेंगे, बहुत समय बाद रचा गया था। कठोपनिषद की भाषा अपेक्षाकृत आधुनिक है, उसकी चिन्तनशैली भी सबसे अधिक प्रणालीबद्ध है। प्राचीनतर उपनिषदों की भाषा कुछ अन्य प्रकार की थी। वह अति प्राचीन एवं बहुत कुछ वेद के संहिता-भाग की तरह थी। फिर उनमें अनेक बार अनेक अनावश्यक विषयों में से घूम फिर कर तब कहीं उनका सार मत प्राप्त होता है। इस प्राचीन उपनिषद में कर्मकाण्डात्मक वेदांश का काफी प्रभाव है। इसीलिए इसका आधे से अधिक भाग अब भी कर्मकाण्डात्मक है। किन्तु अति प्राचीन उपनिषदों के अध्ययन से एक महान लाभ होता है। वह लाभ यह है कि उनके अध्ययन से आध्यात्मिक भावों का ऐतिहासिक विकास जाना जा सकता है। अपेक्षाकृत आधुनिक उपनिषदों में ये आध्यात्मिक तत्व सब एकत्र संग्रहीत एवं सज्जित पाये जाते हैं। उदाहरण रूप भगवद्गीता को ही ले लीजिये। श्रीमद्‌भगवद्गीता को अन्तिम उपनिषद कहा जासकता है, क्योंकि उसमें कर्मकाण्ड का लेशमात्र भी नहीं है। गीता का प्रत्येक श्लोक किसी न किसी उपनिषद से संग्रहीत है, मानो अनेक पुष्पों के संचयन से एक सुन्दर गुच्छ निर्मित हुआ हो, किन्तु उनमें इन सब तत्वों का क्रमविकास देखने में नहीं आता। अनेक लोगों के मतानुसार इन आध्यात्मिक तत्वों के क्रम-विकास को जानने की सुविधा ही वेद के अध्ययन की एक विशेष उपकारिता है। वास्तव में यह सत्य भी है, क्योंकि वेद को लोग इतनी पवित्रता की दृष्टि से देखते हैं कि संसार के अन्यान्य धर्मशास्त्रों में जिस तरह नाना प्रकार की मिलावट हुई है, वेद में वैसी नहीं होने पाई। वेद में अति उच्च विचार और निम्नतम विचारों का भी समावेश है। सार, असार, अति उन्नत विचार, और साथ ही सामान्य छोटी-छोटी बातें भी उसमें सन्निविष्ट है। किसीने भी उसमें परिवर्तन या परिवर्धन करने का साहस नहीं किया। हाँ, टीकाकारों ने अवश्य ही व्याख्या के बल से अति प्राचीन विषयों से अद्भुत-अद्भुत नये भाव निकालना आरम्भ किया, अनेक साधारण वर्णनों के भीतर वे आध्यात्मिक तत्व देखने लगे, किन्तु मूल जैसे का तैसा ही रहा—इसी मूल में ऐतिहासिक गवेषणा के अनेक विषय हैं। हम जानते है कि मनुष्य की चिन्तनशक्ति जितनी ही उन्नत होती है उतना ही वे धर्म के पूर्व भावों को परिवर्तित कर उनमें नवीन नवीन ऊँचे भावों को मिलाते हैं। यहाँ एक, वहाँ एक—इस प्रकार नई नई बातें जोड़ी जाती हैं, कहीं कहीं एक आध बात निकाल भी दी जाती है। टीकाकार की ही तो कला ठहरी! सम्भवतः वैदिक साहित्य में ऐसा नहीं किया गया। और यदि हुआ हो तो प्रथमतः उसका पता ही नहीं चलता। हमें इससे लाभ यह है कि हम विचार के मूल उत्पत्तिस्थान में पहुँच सकते हैं—देख सकते हैं कि किस प्रकार क्रमशः उच्च से उच्चतर विचारों का, किस प्रकार से स्थूल आधिभौतिक धारणाओं से लेकर सूक्ष्मतर आध्यात्मिक धारणाओं का विकास हो रहा है और अन्त में किस प्रकार वेदान्त में उन सभों की चरम परिणति हुई है। वैदिक साहित्य में अनेक प्राचीन आचार-व्यवहारों का भी आभास पाया जाता है। पर उपनिषद् में उन सभों का वर्णन अधिक नहीं है। वह एक ऐसी भाषा में लिखा गया है जो अत्यन्त संक्षिप्त है और सरलता से याद रखी जा सकती है।

प्रतीत ऐसा होता है कि इस ग्रन्थ के लेखक मानो केवल कई घटनाओं को स्मरण रखने के उपाय लिख रहे हैं। मानो उनकी ऐसी धारणा है कि ये सब बातें सभी जानते हैं। इससे असुविधा यह होती है कि हम उपनिषद में लिखी कथाओं के वास्तविक तात्पर्य को ग्रहण नहीं कर सकते। इसका कारण यह है—यह सब जिन लोगों के समय में लिखा गया था वे लोग उन घटनाओं को जानते थे, किन्तु आज उनकी किम्वदन्ती भी वर्तमान नहीं है,—और जो एकाध है भी, वह भी अतिरंजित होगई है। उनकी ऐसी नयी व्याख्या होगई है कि जब हम पुराणों में उनके विवरण पढ़ते है तो देखते है कि वे उच्छ्वासात्मक काव्य बन गये हैं।

पाश्चात्य देशों में जैसे हम पाश्चात्य जाति की राजनीतिक उन्नति के विषय में एक विशेष भाव देख पाते हैं कि वे किसी प्रकार अनियन्त्रित शासन सहन नहीं कर सकते, वे किसी प्रकार के बन्धन को—जैसे कोई उनके ऊपर शासन करे—सहन नहीं कर सकते, वे जैसे क्रमशः उच्च से उच्चतर प्रजातन्त्र-शासन-प्रणाली की उच्च उच्चतर धारणा तथा वाह्य स्वाधीनता कीं उच्च से उच्चतर धारणा प्राप्त कर रहे हैं ठीक वैसी ही घटना दर्शन में घटती है; किन्तु भेद यही है कि यह आध्यात्मिक जीवन की स्वाधीनता है। 'अनेकदेववाद' से क्रमशः लोग 'एकेश्वरवाद' में पहुँचते है—उपनिषद में फिर मानो इसी एकेश्वरवाद के विरुद्ध युद्धघोषणा हुई है। जगत् के अनेक शासनकर्ता अपने भाग्य को नियंत्रित कर रहे हैं केवल यही धारणा उन्हें असह्य होती हो सो नहीं, बल्कि एकजन उनके अदृष्ट का विधाता होगा—यह धारणा भी उन्हें सह्य न हो सकी। उपनिषद की आलोचना करने पर यही सबसे पहले हमारे सामने आता है। यही धारणा धीरे धीरे बढ़कर अन्त में उसकी चरम परिणति हुई, प्रायः सभी उपनिषदों में अन्त में हम यही परिणति पाते हैं। वह है—जगदीश्वर को सिंहासनच्युत करना। ईश्वर की सगुण धारणा जाकर निर्गुण धारणा उपस्थित होती है। तब ईश्वर जगत् का शासनकर्ता एक व्यक्ति नहीं रह जाता, वह फिर एक अनन्तगुणसंपन्न मनुष्य-धर्मविशिष्ट नहीं रहता, प्रत्युत वह एक भाव मात्र, एक परम तत्व मात्र रूप में ज्ञात होता है। हममें, जगत् के सभी प्राणियों में, यहाँ तक कि समस्त जगत् में वही तत्व ओत-प्रोत भाव से विराजमान है। और यह निश्चित है कि जब ईश्वर की सगुण धारणा निर्गुण धारणा में पहुँच गई तब मनुष्य भी सगुण नहीं रह सकता। अतएव मनुष्य का सगुणत्व भी उड़ गया—मनुष्य भी एक तत्व-मात्र हुआ। सगुण व्यक्ति बाह्य प्रदेश में विराजित है;—प्रकृत तत्व अन्तर्देश में—पश्चात्। इसी तरह दोनों ओर से ही क्रमशः सगुणत्व चला जाता है और निर्गुणत्व का आविर्भाव होता रहता है।

सगुण ईश्वर की क्रमशः निर्गुण धारणा होती है एवं सगुण मनुष्य का भी निर्गुण मनुष्यमात्र आता रहता है—तब इन दो दिशाओं में विभिन्न भाव से प्रवाहित इन दो धाराओं का विभिन्न वर्णन पाया जाता है। ये दो धारायें जिस क्रम से क्रमशः आगे होकर मिल जाती हैं, उसके वर्णन से उपनिषद पूर्ण है एवं प्रत्येक उपनिषद की शेष कथा है―तत्वमसि। केवल एक मात्र नित्य आनन्दमय पुरुष ही है, और वही परम तत्व इस जगत् रूप में अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है।

अब दार्शनिक आए। उपनिषद का कार्य यहीं समाप्त हुआ– दार्शनिक लोगो ने उसके बाद अन्यान्य प्रश्नो पर विचार आरम्भ किया। उपनिषद में मुख्य बात मिली―अब विस्तार पूर्वक व्याख्या करना, विचार करना दार्शनिक लोगो के लिए ही रहा।

यह स्वाभाविक है कि पूर्वोक्त सिद्धान्त से अनेक प्रश्न उठते हैं। यदि यही स्वीकार किया जाय कि एक निर्गुणतत्व ही परिदृश्यमान नाना रूपो में प्रकाशित होता है, तो यही जिज्ञासा होती है कि एक क्यो अनेक हुआ? यह वही प्राचीन प्रश्न है जो मनुष्य की अमार्जित बुद्धि में स्थूल भाव से उत्पन्न होता है। जगत् में दुःख अशुभ क्यो है? उसी प्रश्न ने स्थूल भाव त्यागकर सूक्ष्म रूप धारण किया है। अब फिर हमारी बाह्य दृष्टि ऐन्द्रियिक दृष्टि से वह प्रश्न नहीं पूछा जा रहा है, बल्कि भीतर से दार्शनिक दृष्टि से इस प्रश्न का विचार हो रहा है। क्या वह एक तत्व अनेक हुआ? इसका उत्तर― सर्वोत्तम उत्तर भारतवर्ष में मिला। इसका उत्तर― मायावाद―वास्तव में वह अनेक नहीं हुआ, वास्तव में उसके प्रकृत स्वरूप की लेशमात्र भी हानि नहीं हुई। यह अनेकत्व केवल आपातप्रतीयमान मात्र है, मनुष्य आपात दृष्टि से व्यक्ति रूप से प्रतीयमान हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह निर्गुण है। ईश्वर भी आपाततः सगुण या व्यक्ति रूप से प्रतीयमान हो रहा है, यद्यपि वास्तव में वह इसी समस्न ब्रह्माण्ड में अवस्थित निर्गुण पुरुष है। यह उत्तर भी एकदम ही प्राप्त नहीं हुआ। उसके भी विभिन्न सोपान है। इस उत्तर के सम्बन्ध में दार्शनिको में मतभेद है। मायावाद भारत के सभी दार्शनिको को मान्य नहीं है। सम्भवतः उनमे से अधिकांश दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया। कुछ तो द्वैतवादी है―उनका मत द्वैतवाद है―निश्चय ही उनका यह मत विशेष उन्नत तथा मार्जित नहीं है। वे इस प्रश्न की जिज्ञासा ही नहीं होने देगे-वे इस प्रश्न के उत्पन्न होते ही इसे दबा देते है। वे कहते है–"तुमको इस प्रश्न के पूछने का अधिकार नहीं है–क्यो इस तरह हुआ, इसकी व्याख्या पूछने का तुम्हे कुछ भी अधिकार नहीं। वह तो ईश्वर की इच्छा है―हमें शान्त भाव से उसे सहन करना होगा। जीवात्मा को कुछ भी स्वाधीनता नहीं है। सब कुछ पहले से ही निर्दिष्ट है―हम क्या करेगे, हमे क्या क्या अधिकार है, हम क्या-क्या सुख-दुःख भोगेगे, सभी कुछ पहले से ही निर्दिष्ट है। हमारा कर्तव्य है–धैर्य से उन सभो का भोग करते जाना। यदि हम ऐसा न करेतो और भी अधिक कष्ट पायेगे। किस तरह से हमने इसको जाना है?–क्योकि वेद ऐसा कहते है।" वे भी वेद के श्लोक उद्धृत करते है, उनके मतसम्मत वेद का अर्थ भी है; वे इन सभों को प्रमाण कह कर सभी को उन्हे मानने के लिए कहते है और तदनुसार चलने का उपदेश देते है।

फिर अनेक ऐसे भी दार्शनिक है जो मायावाद स्वीकार नहीं करते, पर उनका मत मायावाद और द्वैतवाद के बीच का है। वे है परिणामवादी। वे कहते है, जीवात्मा की उन्नति तथा अवनति― विभिन्न परिणाम ही-जगत् की प्रकृत व्याख्या है। वे रूपक भाव से वर्णन करते है कि समस्त आत्मा एक बार सकोच को और फिर विकास को
प्राप्त होते हैं। समस्त जगत् ही जैसे भगवान का शरीर है। ईश्वर समस्त प्रकृति एव आत्माओ के आत्मा स्वरूप है।

सृष्टि का अर्थ है ईश्वर के स्वरूप का विकास--कुछ समय तक यह विकास जारी रहकर फिर संकुचित होने लगता है। प्रत्येक जीवात्मा के लिए इस सकोच का कारण है--असत् कर्म। मनुष्य के असत् कर्म करने से उसकी आत्मा की शक्ति क्रमशः सकुचित होने लगती है--जितने दिनो तक वह सत्कर्म आरभ नही करता। तब फिर उसका विकास होने लगता है। इन भारतीय विभिन्न मतो मे--एव मेरे विचार में, जान मे या अनजान मे जगत् के सभी मतो मे--एक साधारण भाव दिखाई देता है, मै उसे "मनुष्य का देवत्व" या ईश्वरत्व कहना चाहता हूॅ। जगत् मे ऐसा कोई मत नहीं है, प्रकृत धर्म नाम के उपयुक्त ऐसा कोई धर्म नहीं है जो किसी न किसी तरह पौराणिक या रूपक भाव से ही हो अथवा दर्शनो की परिमार्जित स्पष्ट भाषा मे हो, यह भाव प्रकाशित न करता हो कि जीवात्मा जो कुछ भी हो, अथवा ईश्वर के साथ उसका जो भी सम्बन्ध हो, वह स्वरूपतः शुद्ध स्वभाव एव पूर्ण है। पूर्णानन्द और ऐश्वर्य उसके प्रकृतिगत हैं; दुःख या अनैश्वर्य उसकी प्रकृति नहीं है। यही दुख किसी रूप मे उसमे आगया है। सभी अमार्जित मतो मे इस अशुभ के व्यक्तित्व (Personified Evil) की कल्पना कर शैतान या अर्हीमन को इन अशुभो का सृष्टिकर्ता कहकर अशुभो के अस्तित्व की व्याख्या की जा सकती है।

दूसरे मतो के अनुसार एक ही आधार मे ईश्वर और शैतान दोनों का भाव आरोपित किया जा सकता है, एवं किसी प्रकार की

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युक्ति दिए बिना ही वे कहते है कि वह चाहे जिसे सुखी या दुखी करता है। फिर कुछ अधिक चिन्ताशील व्यक्तिगण मायावाद आदि के द्वारा अशुभ की व्याख्या करने की चेष्टा कर सकते है। किन्तु एक विषय सभी मतो मे अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशित है और वह है हमारा प्रस्तावित विषय--आत्मा का मुक्त स्वभाव। ये सभी दार्शनिक मत और प्रणालियाँ केवल मन के व्यायाम और बुद्धि की कसरत मात्र हैं। एक महान उज्ज्वल धारणा है--जो मुझे विशेष स्पष्ट प्रतीत होती है, एवं जो सभी देश तथा धर्म के कुसंस्कारो के बीच प्रकाश पाती है, और वह यही है कि मनुष्य देवस्वभाव है,--देवभाव ही हमारा स्वभाव है, हम ब्रह्मस्वरूप हैं।

वेदान्त कहता है, और जो अन्य कुछ है, वह उसका उपाधि-स्वरूप मात्र है। कुछ मानो उसके ऊपर आरोपित हुआ है, किन्तु उसके देवस्वभाव का किसी से भी विनाश नहीं होता। वह जैसा अतिशय साधुप्रकृति व्यक्ति मे है, वैसा ही एक बडे पतित व्यक्ति में भी वर्तमान है। इस देवस्वभाव को जगाना पडेगा, तभी उसका कार्य होगा। हमे उसका आह्वान करना होगा, तभी वह प्रकाशित होगा। पुराने लोग समझते थे, चकमक पत्थर में आग रहती है, उसी आग को बाहर निकालने के लिये केवल इस्पात का घर्षण आवश्यक है। आग सूखी लकडी के दो टुकड़ों मे वास करती है, घर्षण केवल उस प्रकाशित करने के लिये आवश्यक है। अतएव यह अग्नि--यह स्वाभाविक मुक्तभाव और पवित्रता प्रत्येक आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का गुण नही, क्योंकि गुण तो उपार्जित किया जा सकता है, अतएव वह फिर नष्ट भी हो सकता है। मुक्ति या मुक्त स्वभाव कहकर जो

समझा जाता है, आत्मा कहने से भी उसी का बोध होता है--इस प्रकार सत्ता या अस्तित्व एवं ज्ञान भी आत्मा का स्वरूप है--आत्मा के साथ अभिन्न है। यह सत् चित् आनन्द आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का जन्मजात अधिकार स्वरूप है, हम जो इन सभी अभिव्यक्तियों को देखते है, वे आत्मा के स्वरूप के विभिन्न प्रकार मात्र हैं--वह किसी समय अपने को मृदुभाव से और किसी समय उज्ज्वल भाव से प्रकाशित करती है। यहाँ तक कि मृत्यु अथवा विनाश भी उसी प्रकृत सत्ता का प्रकाश मात्र है। जन्म-मृत्यु, क्षय-वृद्धि, उन्नति-अवनति, सभी उस एक अखण्ड सत्ता के विभिन्न प्रकाशमात्र है। इसी प्रकार हमारा साधारण ज्ञान भी, वह चाहे विद्या अथवा अविद्या किसी भी रूप से प्रकाशित क्यो न हो, उसी चित् का, उसी ज्ञान स्वरूप का प्रकाश है; उसकी विभिन्नता प्रकारगत नही है, अपितु परिमाणगत है। छोटे कीड़े जो तुम्हारे पैर के पास घूमते हैं, उनके ज्ञान में और स्वर्ग के श्रेष्टतम देवता के ज्ञान मे भिन्नता प्रकारगत नहीं है, किन्तु परिमाणगत है। इसी कारण वेदान्ती मनीषी निर्भय होकर कहते है कि हम अपने जीवन मे जो सब सुखोपभोग करते हैं, यहाॅ तक कि अतिघृणित आनन्द भी--वे आत्मा के ही स्वरूपभूत, उसी एक ब्रह्मानन्द के प्रकाश है।

यही भाव वेदान्त का सर्वप्रधान भाव ज्ञात होता है, और जैसा मैंने पहले ही कहा है, मुझे मालूम होता है कि सभी धर्मों का यही मत है। मैं इस प्रकार का कोई धर्म नहीं जानता, जिसके मूल मे यह मत नहीं है। सभी धर्मों के भीतर यह सार्वभौमिक भाव रहा है। उदाहरण के तौर पर बाइबिल की कथा ले लीजिए--उसमें

रूपक के ढंग से कथा वर्णित है,--आदि मानव आदम अत्यन्त पवित्र स्वभाव के थे, अन्त मे उनके असत्कार्यों से उनकी पवित्रता नष्ट हुई। इस रूपक से यह प्रमाणित होता है कि इस ग्रन्थ के लेखक विश्वास करते थे कि आदिम मानव का (अथवा वे उसका अन्य किसी भी भाव से वर्णन क्यो न करे) या प्रकृत मानव का स्वरूप आदि से ही पूर्ण था। हमें जो तरह तरह की दुर्बलताये अथवा अपवित्रता दिखाई देती है, वह सब उसके ऊपर आरोपित आवरण या उपाधि मात्र है, एवं उसी धर्म का परवर्ती इतिहास यह बतलाता है कि उसके अनुयायी केवल उसी पूर्व अवस्था को पुनः प्राप्त करने की सम्भावना मे ही नहीं, वरन् उसकी निश्चितता में भी विश्वास करते है। यही समस्त बाइबिल का--प्राचीन तथा नवीन टेस्टामेण्ट का--इतिहास है।

मुसलमानों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। वे भी आदम तथा उसकी जन्मजात पवित्रता पर विश्वास करते है। और उनकी यह धारणा है कि हज़रत मुहम्मद के आगमन से उस लुप्त पवित्रता के पुनरुद्धार का उपाय प्राप्त हो चुका है।

बौद्धो के विषय में भी यही है। वे भी निर्वाण नामक अवस्था- विशेष पर विश्वास रखते है। यह अवस्था द्वैत जगत् से अतीत अवस्था है। वेदान्ती लोग जिसे ब्रह्म कहते है, यह निर्वाण अवस्था भी ठीक वहीं है। और बौद्ध धर्म के सम्पूर्ण उपदेश का यही धर्म है कि उस विनष्ट निर्वाण अवस्था को फिरसे प्राप्त करना होगा।

इस तरह देखा जाता है कि सभी धर्मो में यही एक तत्व पाया जाता है कि जो तुम्हारा नहीं है उसे तुम कभी नहीं पा सकते। इस

विश्वब्रह्माण्ड मे तुम किसी के भी निकट ऋणी नही हो। तुम्हे अपना जन्मप्राप्त अधिकार ही प्राप्त करना है। एक प्रसिद्ध वेदान्ताचार्य ने यही भाव अपने किसी ग्रन्थ के नाम में ही बड़े सुन्दर भाव से प्रकट किया है। ग्रन्थ का नाम है 'स्वराज्यसिद्धि' अर्थात् हमारा अपना राज्य, जो खो गया था, उसकी पुनःप्राप्ति। वही राज्य हमारा है, हमने उसे खो दिया है, फिर हमे उसे प्राप्त करना होगा। किन्तु मायावादी कहते है--यह राज्यनाश केवल हमारा भ्रम मात्र है, हमारे राज्य का नाश तो कभी हुआ ही नही--बस यही दोनों मे भेद है।

यद्यपि इस विषय में कि हमारा जो राज्य था, उसे हमने खो दिया हैं, सभी धर्म-प्रणालियाॅ एकमत है तथापि वे उसे फिर से पाने के उपाय के बारे मे विभिन्न उपदेश दिया करती है। कोई कहते है--कुछ विशिष्ट क्रियाकलाप, प्रतिमा आदि की पूजा-अर्चना करने से और स्वय कुछ विशेष नियमानुसार जीवन यापन करने से वह स्वराज्य मिल सकता है। कुछ और लोग कहते है--यदि तुम प्रकृति से अतीत पुरुष के सम्मुख अपने को नतकर रोते रोते उसके निकट क्षमा प्रार्थना करो, तो तुम पुनश्च उस राज्य को प्राप्त कर लोगे। दूसरे कोई कहते है--यदि तुम इस पुरुष से अन्तःकरणपूर्वक प्रेम कर सको, तो तुम फिर से इस राज्य को प्राप्त कर सकोगे। उपनिषद मे ये सभी उपदेश पाये जाते हैं। क्रमशः हम तुम्हे जितना उपनिषद समझायगे, उतना ही तुम यह समझते जाओगे। किन्तु सर्वश्रेष्ठ अन्तिम उपदेश यह है कि तुम्हारे रोने का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। तुम्हारे इन क्रियाकलापो की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। क्या क्या करने से राज्य की पुनः प्राप्ति होगी, इस चिन्ता की तुम्हें कोई आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि तुम्हारा राज्य तो कभी नष्ट हुआ ही नहीं। जिसे तुमने कभी खोया ही नहीं, उसे पाने के लिये इस प्रकार की चेष्टा की आवश्यकता ही क्या? तुम स्वभावतः मुक्त हो, तुम स्वभावतः शुद्धस्वभाव हो। यदि तुम अपने को मुक्त समझकर भावना कर सको, तो तुम इसी मुहूर्त में मुक्त हो जाओगे, और यदि तुम अपने को बद्ध समझकर भावना करो, तो तुम बद्ध ही रहोगे। केवल इतना ही नहीं; इस बार अवश्य ही जो कुछ हम कहेंगे, उसे हम अत्यन्त साहस के साथ कहेंगे—यह बात मैंने इन वक्तृताओं के आरम्भ करने के पूर्व ही कही थी। तुम्हें यह सुनकर इस क्षण भय हो सकता है, किन्तु तुम जितना चिन्तन करोगे, एवं प्राण प्राण में अनुभव करोगे, उतना ही देखोगे कि मेरी बात सत्य है। कारण, कल्पना करो कि मुक्त भाव तुम्हारा स्वभावसिद्ध नहीं है; तब तुम किसी भी प्रकार मुक्त नहीं हो सकोगे। कल्पना करो कि तुम मुक्त थे, इस समय किसी कारण से उस मुक्त स्वभाव को खोकर बद्ध हुए हो तो ऐसा होने पर प्रमाणित होता है कि तुम पहले से ही मुक्त नहीं थे। यदि तुम मुक्त थे तो किसने तुम्हें बद्ध किया? जो स्वतन्त्र है, वह कभी भी परतन्त्र नहीं हो सकता; और यदि हो सकता है तो प्रमाणित हुआ कि वह कभी भी स्वतन्त्र नहीं था—यह स्वातन्त्र्य-प्रतीति भ्रम मात्र थी।

अब तुम इन दोनों पक्षों में कौन सा पक्ष ग्रहण करोगे? दोनों पक्षों की युक्ति-परंपरा को स्पष्ट करने पर हमें निम्नलिखित बातें दिखाई देती है। यदि कहो कि आत्मा स्वभावतः शुद्धस्वरूप एवं मुक्त है, तो अवश्यमेव यह सिद्धान्त स्थिर करना होगा कि जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उसे बाँध सके। किन्तु जगत् में यदि इस
प्रकार की कोई वस्तु हो, जिससे उसे बद्ध किया जा सके, तो अवश्य यह कहना होगा कि आत्मा मुक्तस्वभाव थी ही नही, अतएव तुमने उसे जो मुक्तस्वभाव कहा था वह तुम्हारा भ्रम मात्र है। अतएव तुम्हे यह सिद्धान्त अवश्य ही स्वीकार करना होगा कि आत्मा स्वभाव से ही मुक्तस्वरूप है। इसके अतिरिक्त और कुछ हो ही नही सकती। मुक्तस्वभाव का अर्थ है--किसी बाह्य वस्तु के अधीन न होना--अर्थात् उसके अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उसके ऊपर हेतु रूप में कोई कार्य नहीं कर सकती।

आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध से अतीत है, और इसीसे आत्मा के सम्बन्ध मे हमारी उच्च उच्च धारणाये उत्पन्न होती है। यदि यह अस्वीकार किया जाय कि आत्मा स्वभावतः मुक्त है अर्थात् बाहर की कोई भी वस्तु उसके ऊपर कार्य नहीं कर सकती तो आत्मा के अमरत्न की कोई धारणा प्रस्थापित नहीं की जा सकती। क्योंकि, मृत्यु हमारे वहि स्थित किसी वस्तु के द्वारा किया हुआ कार्य है। इससे ज्ञात होता है कि हमारे शरीर के ऊपर बाहरी कोई दूसरा पदार्थ कार्य कर सकता है, मानलो मैने थोड़ा सा विष खाया, उससे मेरी मृत्यु हुई--इससे जाना जाता है कि हमारे शरीर के ऊपर विष नामक बाहरी कोई पदार्थ कार्य कर सकता है। यदि आत्मा के सम्बन्ध में यह सत्य हो, तो आत्मा भी बद्ध है। किन्तु यदि यह सत्य है कि आत्मा मुक्तस्वभाव है, तो यह भी स्वभावत ज्ञात होता है कि बाहरी कोई भी पदार्थ उसके ऊपर कार्य नहीं कर सकता है और न कर ही सकेगा। ऐसा होने पर आत्मा कभी मर नहीं सकती, एवं आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध मे अतीत भी होगी। आत्मा का मुक्त स्वभाव, उसका अमरत्व एवं

उसका आनन्द स्वभाव, सभी इस बात के ऊपर निर्भर है कि आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध एवं इस माया से अतीत है। अब यदि इस समय तुम कहो कि आत्मा का स्वभाव पहले पूर्ण मुक्त था, इस समय वह बद्ध हो गई है, तो इससे यही जाना जाता है कि वस्तुतः वह मुक्तस्वभाव थी ही नहीं। तुम जो कहते हो कि वह मुक्तस्वभाव थी, वह असत्य है। किन्तु दूसरी ओर हम देखते है कि हम वास्तविक मुक्तस्वभाव है; यह जो हम बद्ध हुए है ऐसा ज्ञात हो रहा है यह हमारी केवल भ्रान्ति है। अब इन दोनों पक्षों में कौन सा पक्ष लोगे? या तो पहले पक्ष को भ्रान्ति कहो या दूसरे पक्ष को भ्रान्ति कह कर स्वीकार करो। मैं तो निश्चय ही द्वितीय पक्ष को भ्रान्ति कहूँगा। यही हमारे समुदय भाव और अनुभति के साथ संगत है। मै अच्छी तरह जानता हूॅ कि मैं स्वभावतः मुक्त हूॅ। बद्ध भाव सत्य एवं मुक्त भाव भ्रमात्मक हो, यह ठीक नहीं।

सभी दर्शनों मे स्थूल भाव से यही विचार चलता है। यहाँ तक देखा जाता है कि अत्यन्त आधुनिक दर्शन मे भी यह विचार प्रविष्ट हुआ है। इस सम्बन्ध में दो दल है; एक दल कहता है, आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है, वह तो केवल भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति का कारण सभी जडकणों का बारंबार स्थान-परिवर्तन है; यह समवाय--जिसे तुम शरीर, मस्तिष्क आदि नामों से पुकारते हो, उसी के स्पन्दन से, उसी की गतिविशेष से एवं उसके सभी अंशों के लगातार स्थान परिवर्तन से यह मुक्त स्वभाव की धारणा आती है। कुछ बौद्ध सम्प्रदाय भी थे, उनका कहना था कि एक मशाल लो, और उसे चारों ओर लगातार ज़ोर से घुमाओ, तो एक वर्तुलाकार प्रकाश दिखाई पड़ेगा। वस्तुतः इस गोलाकार प्रकाश का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि यह

मशाल प्रत्येक क्षण में स्थान-परिवर्तन करती है। उसी तरह हम भी छोटे छोटे परमाणुओ की समष्टि मात्र हैं, उन परमाणुओं के ज़ोर से घूमने से यह 'अहं' भ्रान्ति उत्पन्न होती है। अतएव एक मत यह हुआ कि शरीर सत्य है, आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है। दूसरा मत यह है कि चिन्ताशक्ति के द्रुत स्पन्दन से जड़ रूप एक भ्रान्ति की उत्पत्ति होती है, वस्तुत: जड का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह तर्क आज तक चल रहा है,--एक दल कहता है--आत्मा भ्रम मात्र है, दूसरा इसी तरह जड़ को भ्रम कहता है। तुम कौन सा मत लोगे?

हम तो निश्चय ही आत्मास्तित्ववाद को स्वीकार कर जड़ को भ्रमात्मक कहेगे। युक्ति दोनों ओर बराबर है, केवल आत्मा के निरपेक्ष अस्तित्व की ओर वाली युक्ति अपेक्षाकृत प्रवल है; क्योंकि जड़ क्या है इसे किसी ने कभी देखा नहीं। हम केवल स्वयं को ही अनुभव कर सकते है, मैंने ऐसा मनुष्य नही देखा, जिसने स्वय के बाहर जाकर जड का अनुभव किया हो। कोई कभी कूद कर अपनी आत्मा के बाहर नहीं जा सकता। अतएव आत्मा के पक्ष मे यह एक दृढ़तर युक्ति हुई। द्वितीयतः आत्मवाद जगत् की सुन्दर व्याख्या हो सकता है, किन्तु जड़बाद नहीं। अतएव जड़वाद के द्वारा जगत् की व्याख्या अयौक्तिक है।

पहले जो आत्मा के स्वाभाविक मुक्त और बद्ध भाव सम्बन्धी विचार का प्रसग उठा था, जड़वाद और आत्मवाद का तर्क उसी का केवल स्थूल भाव है। दर्शनसमूह का सूक्ष्म भाव मे विश्लेषण करने पर तुम देखोगे कि उनमे भी इन दोनों मतों का संघर्ष है। अति आधुनिक दर्शनसमूह में भी हम किसी दूसरे रूप मे उसी प्राचीन

विचार को ही देखते हैं। एक दल कहता है--मनुष्य का तथाकथित पवित्र और मुक्त स्वभाव भ्रम मात्र है--दूसरे इसी प्रकार बद्धभाव को ही भ्रमात्मक कहते हैं। इस जगह भी हम दूसरे दल के साथ ही सहमत है--हमारा बद्धभाव ही भ्रमात्मक है।

अतएव वेदान्त का सिद्धान्त यह है कि हम बद्ध नहीं है, अपितु नित्यमुक्त है। इतना ही नहीं बल्कि यह सोचना भी कि हम बद्ध है, अनिष्टकर है, भ्रम है, अपने आपको मोह मे डालकर अभिभूत करना है। जहाॅ तुमने कहा कि मै बद्ध हूँ, दुर्बल हूँ, असहाय हूॅ, तभी तुम्हारा दुर्भाग्य आरम्भ होगया, तुमने अपने पैरो मे और एक शृखला डाल ली। इसलिये ऐसी बात कभी न कहना और न इस प्रकार कभी सोचना ही। मैने एक आदमी की कहानी सुनी है; वह वन मे रहता था, एवं दिनरात 'शिवोऽहं, शिवोऽहं' उच्चारण करता था। एक दिन एक बाघ ने उसके ऊपर आक्रमण किया और उसे पकड़कर ले चला। नदी के दूसरे तट पर कुछ लोग यह सब दृश्य देख रहे थे। परन्तु उस व्यक्ति की 'शिवोऽह, शिवोऽहं' की ध्वनि लगातार जारी थी। जितनी देर तक उसमे बोलने की शक्ति थी, बाघ के मुख मे पड़कर भी वह 'शिवोऽह, शिवोऽहं' कहता ही रहा, चुप नही हुआ। इस प्रकार और भी अनेक व्यक्तियों की बात सुनी गई है। कई व्यक्तियों के शत्रुओं ने उनके टुकडे टुकडे कर डाले, परन्तु वे उन्हे आशीर्वाद ही देते रहे। 'सोऽहं सोऽह, मै ही वह, मै ही वह, तुम भी वही'। मै निश्चित पूर्णस्वरूप हूॅ, मेरे सभी शत्रु भी पूर्णस्वरूप है। तुम भी वही हो, और मै भी वही हूॅ। यही वीर की बात है। फिर भी द्वैतवादियों के धर्म मे भी अनेक अपूर्व उत्तम उत्तम भाव है--प्रकृति से पृथक् हमारे उपास्य और प्रेमास्पद सगुण ईश्वर हैं--ऐसा सगुण ईश्वरवाद अत्यन्त अपूर्व है। अनेक समय इससे प्राण शीतल होजाता है--किन्तु वेदान्त कहता है, प्राण की यह शीतलता अफीम खानेवालो की नशा के समान अस्वाभाविक है। और इससे दुर्बलता आती है और जगत् में पहले बलसंचार की जितनी आवश्यकता नही थी, आज जगत् मे उसी बलसंचार--शक्तिसंचार की उतनी ही अधिक आवश्यकता है। वेदान्त कहता है--दुर्बलता ही संसार में समस्त दुःख का कारण है, इसीसे सारे दुःख-भोग पैदा होते है। हम दुर्बल है इसीलिये इतने दुःख को भोगते हैं। हम दुर्बलता के कारण ही चोरी-डकैती, झूठ-ठगी तथा इसी प्रकार के अनेकानेक अन्य दुष्कर्म करते हैं। दुर्बल होने के कारण ही हम मृत्यु के मुख मे गिरते है। जहाॅ हमे दुर्बल बनाने वाला कोई नहीं है, वहाॅ मृत्यु अथवा दूसरा किसी प्रकार का दुःख नही रह सकता। हम लोग केवल भ्रान्तिवश ही दुःख भोगते है। इस भ्रान्ति को उन्मूलित करो, सभी दुःख चले जायेंगे। यह तो बहुत सरल बात है। इन सभी दार्शनिक विचारो और कठोर मानसिक व्यायाम के भीतर से होकर हम समस्त ससार के सर्वापेक्षा सहज एव सरल आध्यात्मिक सिद्धान्त पर पहुॅच जायॅगे।

अद्वैत वेदान्त जिस रूप मे आध्यात्मिक सिद्धान्त स्थापित करता है, वही सबसे अधिक सहज तथा सरल है। भारत तथा अन्य सभी स्थानों में इस विषय में एक बड़ा भ्रम उत्पन्न हुआ था। वेदान्त के आचार्यों ने स्थिर किया था कि यह शिक्षा सार्वजनीन नही बनाई

जा सकती, कारण वे जिन सिद्धान्तों पर पहुॅचे थे उन्हे लक्ष्य न कर उन्होंने उस प्रणाली पर ही अधिक ध्यान दिया जिसके द्वारा वे इन सब सिद्धान्तों तक पहुॅचे थे--और वह प्रणाली सचमुच बड़ी जटिल थी। उस भयानक दार्शनिक तथा उन नैयायिक प्रक्रियाओं को देखकर वे भय पाते थे। वे सर्वदा सोचते थे, कि इन सभों की शिक्षा प्रतिदिन के कर्मजीवन मे नहीं दी जा सकती, और इस प्रकार के दर्शन की आड़ मे लोग अतिशय अधर्मपरायण हो जायेंगे।

किन्तु मैं तो यह बिलकुल विश्वास ही नहीं करता कि संसार में अद्वैत तत्त्व के प्रचार से दुर्नीति या दुर्बलता की उत्पत्ति होगी। अपितु मुझे इस बात पर अधिक विश्वास है कि दुर्नीति और दुर्बलता के निवारण की वही एक मात्र औषधि है। यही यदि सत्य है, तो जब कि पास ही मे अमृत-स्रोत बहता है, तो लोगों को कीचड़ का जल क्यों पीने देते हो? यदि यही सत्य है, कि सभी शुद्धस्वरूप है तो इसी मुहूर्त सब संसार को यह शिक्षा क्यो नहीं देते? साधु-असाधु, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, छोटे-बड़े, सभी को डंके की चोट पर यह शिक्षा क्यो नहीं देते? जिस किसी व्यक्ति ने संसार में देह धारण की है, जो कोई देह धारण करेगा, जो व्यक्ति सिंहासन पर बैठा हुआ है अथवा रास्ते मे झाडू लगा रहा है, जो धनी है, जो निर्धन है, उन सभीको यह शिक्षा क्यों नहीं देते? मै राजाओं का भी राजा हूॅ, मुझसे बढ़कर बडा राजा कोई नहीं है। मै देवताओं का भी देवता हूॅ, मुझसे बढ़कर कोई देवता नही है।

इस समय यह बहुत कठिन कार्य मालूम पड़ता है, बहुतों को तो यह विस्मयजनक ज्ञात होता है, किन्तु यह सब कुसंस्कार के ही

कारण है, इसका और दूसरा कोई कारण नही। सभी प्रकार के कदन्न और दुप्पाच्य खाद्य खाकर और निरन्तर उपवास करके हमने अपने को सुखाद्य खाने के अनुपयुक्त कर रखा है। हमने बचपन से ही दुर्बलता की बाते सुनी है। यह दुर्बलता भूत मे विश्वास करने के समान ही है। लोग सर्वदा कहते हैं कि मै भूत को नही मानता --किन्तु ऐसे बहुत कम लोग मिलेगे, जिनका शरीर अन्धेरे मे थोड़ा कम्पित न हो जाय। यह केवल कुसंस्कार है। ठीक इसी तरह लोग कहा करते है कि हम इसे नहीं मानते, उसे नहीं मानते इत्यादि--किन्तु समय आने पर अवस्थाविशेष मे अनेक व्यक्ति मन ही मन कहने लगते है, यदि कोई देवता या ईश्वर हो तो मेरी रक्षा करे। वेदान्त से यही एक प्रधान तत्त्व मिलता है, और एक मात्र यही सनातनत्व का दावा कर सकता है।

वेदान्त ग्रन्थ कल ही नष्ट हो सकते हैं। यह तत्व चाहे पहले हिब्रुओ के मस्तिष्क मे उदित हुआ हो या उत्तर मेरु के निवासियो के मस्तिष्क मे, इससे कोई प्रयोजन नही; किन्तु यह सत्य है, और जो सत्य है वह सनातन है, तथा सत्य हमे यही शिक्षा देता है कि वह किसी व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है। मनुष्य, पशु, देवता, ये सभी इस एक सत्य के अधिकारी हैं। उन्हे यही सिखाओ, जीवन को दुःखमय बनाने की क्या आवश्यकता है? लोगो को अनेक प्रकार के कुसंस्कारो मे क्यो पड़ने देते हो? केवल यहाॅ (इंग्लैण्ड मे) ही नही, इस तत्व की जन्मभूमि मे भी तुम यदि इस तत्व का उपदेश करो, तो वहाँ के लोग भी भयभीत होंगे। और कहेगे--ये बाते तो संन्यासियो के लिये हैं जो संसार को त्याग कर जंगल मे निवास

करते हैं। किन्तु हम लोग तो सामान्य गृहस्थ हैं; धर्म करने के लिये हमे किसी न किसी प्रकार के भय या क्रियाकाण्ड की आवश्यकता रहती ही है, इत्यादि।

द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, और यह उसीका फल है। अच्छा, एक नई परीक्षा क्यों न करे? संभव है, सभी मनुष्यों को ऐसी धारणा करने मे लाखों वर्ष लग जायँ, किन्तु इसी समय इसे क्यों न आरम्भ कर दो? यदि हम अपने जीवन मे बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सकें, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया।

भारतवर्ष मे और एक बड़ी शिक्षा प्रचलित है, जो पूर्वोक्त तत्व-प्रचार की विरोधी मालूम होती है। वह शिक्षा यह है कि--'मै शुद्ध हूॅ, आनन्द स्वरूप हूँ,' इस प्रकार मौखिक कहना तो ठीक है, किन्तु जीवन में तो हम इसे सर्वदा नहीं दिखला सकते। मै इस बात को मानता हूँ आदर्श सभी समय अत्यन्त कठिन होता है। प्रत्येक बालक आकाश को अपने सिर से बहुत ऊॅचाई पर देखता है, किन्तु उस कारण से क्या हम आकाश की ओर देखने की चेष्टा भी न करे? कुसंस्कार की ओर जाने से क्या सब अच्छा होजायगा? यदि अमृत का लाभ न कर सके तो क्या विषपान करने से ही कल्याण होगा? हम इसी समय सत्य का अनुभव नहीं कर सकते, इसलिये अन्धकार, दुर्बलता और कुसंस्कार की ओर जाने से ही क्या कल्याण होगा?

विभिन्न प्रकार के द्वैतवाद के सम्बन्ध में हमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु जो कोई उपदेश दुर्बलता की शिक्षा देता है, उसी पर हमें

विशेष आपत्ति है। स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, जिस समय दैहिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक शिक्षा पाते है, उस समय मै उनसे एक मात्र यही प्रश्न करता हूॅ--"क्या तुम इससे बल पाते हो?" क्योंकि मैं जानता हूॅ एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है। मैं जानता हूँ, सत्य ही एकमात्र प्राणप्रद है। सत्य की ओर गये बिना हम किसीसे भी वीर्यलाभ नहीं कर सकते और वीर हुए बिना सत्य के समीप भी नहीं पहुॅच सकते। इसी हेतु जो कोई मत, जो शिक्षाप्रणालियाँ मन और मस्तिष्क को दुर्बल कर दें और मनुष्य को कुसस्काराविष्ट कर डाले, जिनसे मनुष्य अन्धकार मे टटोलता रहे, जिनसे मनुष्य सदैव ही सब प्रकार के विकृतमस्तिष्क-प्रसूत असंभव, अजीब और कुसंस्कारपूर्ण विषयो के अन्वेषण में लग जाय, मै उन सब प्रणालियों को पसन्द नहीं करता, क्योकि मनुष्यो के ऊपर उन सब का परिणाम बडा भयानक होता है, और उनसे कुछ भी उपकार नहीं होता, वे सब व्यर्थ है।

जो इन बातों से अभिज्ञ है, वे हमारे साथ इस विषय मे एक- मत होंगे कि ये सब मनुष्य को विकृत और दुर्बल बना डालती हैं--इतना दुर्बल कि क्रमशः उसके लिए सत्यलाभ करना और उस सत्य के आलोक मे चलकर जीवन यापन करना एक प्रकार से असभव हो जाता है। अतएव हमारे लिये आवश्यक है एक मात्र बल या शक्ति मे शक्ति-संचार ही इस भव-व्याधि की एकमात्र महौषधि है। धनहीन व्यक्ति जब धनियो द्वारा पददलित होते है, उस समय शक्तिसंचार ही उनके लिये एक मात्र औषधि है। जब मूर्ख विद्वानों द्वारा उत्पीडित होता है उस समय भी बल ही एक मात्र औषधि है। और जिस समय पापिगण अन्य पापियो से उत्पीड़ित होते हैं, उस समय भी यही
एकमात्र अव्यर्थ महौषधि है। और अद्वैतवाद जिस प्रकार का बल और जैसी शक्ति देता है, उस प्रकार का बल और शक्ति किसी से भी नहीं मिल सकती। अद्वैतवाद हमें जिस प्रकार नीति-परायण बनाता है, उस प्रकार कोई भी हमें नीति-परायण नहीं बना सकता। जिस समय समस्त दायित्व हमारे कन्धों पर आ पड़ता है, उस समय हम जितने उच्च भाव से कार्य कर पाते है, उतना और किसी भी अवस्था में उस तरह नहीं कर पाते।

मैं तुम लोगों से यह पूछना चाहता हूँ कि यदि एक नन्हें बच्चे को तुम्हारे हाथ सौंप दूँ तो तुम उसके प्रति कैसा व्यवहार करोगे? उस क्षण के लिए तुम लोगों का जीवन बदल जायगा। तुम्हारा स्वभाव किसी भी प्रकार का क्यों न हो, अन्ततः उन क्षणों के लिए तुम सम्पूर्ण निःस्वार्थी बन जाओगे। यदि तुम्हें उत्तरदायी बनाया जाय तो तुम्हारी सारी पापप्रवृत्तियाँ दूर हो जायँगी, तुम्हारे चरित्र में परिवर्तन हो जायगा। इस प्रकार जब सारे उत्तरदायित्व का बोझ हम पर पड़ता है तभी हम अपने सर्वोच्च भाव में आरोहण करते हैं। जब हमारे सारे दोष और किसीके मत्थे नहीं मढ़े जाते, जब शैतान या भगवान किसी को भी हम अपने दोषों के लिए उत्तरदायी नहीं समझते तभी हम सर्वोच्च भाव में पहुँच जाते हैं। अपने भाग्य के लिए मैं स्वयं ही उत्तरदायी हूँ। मैं स्वयं ही शुभाशुभ दोनों का कर्ता हूँ। किन्तु मेरा स्वरूप शुद्ध तथा आनन्द मात्र है।

न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य-
श्चिदानंदरूपः शिवोऽह शिवोऽहम्॥
न पुण्यं न पाप न सौख्य न दुःखम्
न मत्रं न तीर्थं न वेदान यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्य न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥

वेदान्तं कहता है कि साधारण मनुष्य के लिए यह सत्य ही एक मात्र अवलम्बनीय है। उस अन्तिम लक्ष्य पर पहुॅचने के लिए यही एक मात्र उपाय है--सभों से यही कहना है कि हमी वह है। बार बार ऐसा कहने से बल आयेगा। 'शिवोऽहं रूपी यह अभय-वाणी क्रमशः अधिकाधिक पुष्ट होकर हमारे हृदय मे, हमारे सभी भावो मे भिद जायगी, अन्त मे हमारी नस-नस मे, शरीर के प्रत्येक भाग मे यह समा जायगी। ज्ञानसूर्य की किरणे जितनी अधिक उज्ज्वल होने लगती है, मोह उतना ही दूर भाग जाता है, अज्ञानराशि ध्वंस होती है और धीरे धीरे एक समय ऐसा आता है जब कि सारा अज्ञान बिलकुल लुप्त हो जाता है एवं एकमात्र ज्ञानसूर्य ही अवशिष्ट रह जाता है। अवश्य ही अनेको को यह वेदान्त-तत्व भयानक मालूम हो सकता है, किन्तु उसका कारण कुसंस्कार है, यह मैने पहले ही कहा है। इसी देश मे (इग्लैंड मे) ऐसे बहुत लोग है जिनसे मै यदि कहूॅ कि इस दुनिया मे शैतान नाम की कोई चीज नही है तो वे समझेगे कि धर्म का सत्यानाश होगया। अनेकों ने मुझसे कहा है कि शैतान के न रहने से धर्म किस तरह कायम रह सकता है? उन लोगों का कहना है कि हम परिचालित करने के लिये कोई न रहने से धर्म का क्या अर्थ है?

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शासन करने को यदि कोई न रहे तो हम अपना जीवन किस तरह बिता सकते हैं? सच बात तो यह है कि हमें इस प्रकार का व्यवहार अच्छा लगता है। इस भाव से रहना हमारा अभ्यास हो गया है और इसीलिये हम ऐसे जीवन को पसद करते है। प्रति दिन यदि हमें किसी ने नहीं डॉटा तो हमे सुख नहीं मिलता। यह वही कुसंस्कार है। किन्तु अब यह बात कितनी ही भयानक क्यों न मालूम हो, ऐसा एक समय अवश्य ही आयेगा जब अतीत की सारी बातों का स्मरण कर, जिन कुसंस्कारों ने शुद्ध अनत आत्मा पर आच्छादन फैला दिया था, हम उन प्रत्येक की हॅसी उड़ायेगे और आनन्द, सत्य व दृढता के साथ कहेगे कि मै ही 'वह' हूॅ, चिरकाल वही था और सर्वदा वही रहूॅगा।



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