ज्ञानयोग/११. सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

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११. सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

हमने देखा कि हम अपने दुःख दूर करने की कितनी ही चेष्टा क्यो न करे, परन्तु फिर भी हमारे जीवन का अधिकाश अवश्य ही दुःखपूर्ण रहेगा। और यह दुःखराशि वास्तव में हमारे लिये एक प्रकार से अनन्त है। हम अनादि काल से इसी दुःख के प्रतिकार की चेष्टाये करते आ रहे है, किन्तु यह जैसा था वैसा ही अब भी है। हम जितने ही उपाय इस दुःख को दूर करने के लिए निकालते है उतना ही हम देखते हैं कि जगत् में और भी कितना दुःख गुप्त भाव से विद्यमान है। और भी हमने देखा कि सभी धर्म कहते है कि इस दुःखचक्र से बाहर जाने का एक मात्र उपाय ईश्वर है। सभी धर्म कहते है कि आजकल के प्रत्यक्षवादियो के मतानुसार जगत् जिस रूप में देखने में आता है उसी रूप में यदि लिया जाय तो इसमे दुःख को छोड़कर और कुछ भी शेष नहीं रहेगा। किन्तु सभी धर्म कहते है―इस जगत् के अतीत और भी कुछ है। यह पञ्चेद्रियग्राह्य जीवन, यह भौतिक जीवन, केवल यही पर्याप्त नहीं है―वह तो वास्तविक जीवन का अत्यन्त सामान्य अंश मात्र है, वास्तव में वह अति स्थूल कार्य मात्र है। इसके पीछे, इसके अतीत प्रदेश में वही अनन्त रहता है, जहाँ दुःख का लेशमात्र भी नहीं है, उसे कोई गॉड, कोई अल्लाह, कोई जिहोवा, कोई जोव और कोई और कुछ कहता है। वेदान्ती इसे ब्रह्म कहते है। किन्तु जगत् के अतीत जाना पड़ेगा यह बात सत्य होने पर [ २३० ]
भी हमे इसी जगत् मे जीवनधारण तो करना पड़ेगा। अब इसकी मीमांसा कहाॅ है?

जगत् के बाहर जाना होगा, सभी धर्मो के इस उपदेश से ऊपर ऊपर सोचने पर मन मे यही भावना उदित होती है कि शायद आत्महत्या करना ही श्रेयस्कर है। प्रश्न यही है कि जीवन के दुःखो का प्रतिकार क्या है, और इसका जो उत्तर दिया जाता है उससे तो आपातत यही बोध होता है कि जीवन का त्याग करना ही इसका एकमात्र उपाय है। इस उत्तर से मेरे मन मे एक प्राचीन कथा याद पड़ती है। एक मच्छर किसी के मुॅह पर बैठा था। उसके एक मित्र ने उस मच्छर को मारने के लिये इतने ज़ोर से मारा कि वह मनुष्य मर गया, और मच्छर भी मर गया! पूर्वोक्त प्रतिकार का उपाय मानो ठीक इसी प्रणाली का उपदेश देता है।

जीवन दुःखपूर्ण है, यह जगत् दुःखपूर्ण है, यह बात कोई भी व्यक्ति जिसने जगत् को अच्छी तरह जान लिया है, अस्वीकार नही कर सकता। किन्तु सभी धर्म इसका क्या प्रतिकार बताते है? वे कहते है, जगत् कुछ भी नहीं है। इस जगत् के बाहर ऐसा कुछ है जो वास्तविक सत्य है। इसी स्थान पर वास्तव में विवाद प्रारम्भ होता है। इस उपाय से मानो हमारा जो कुछ भी है सभी कुछ नष्ट करके फेक देने का उपदेश देते है। तब फिर यह प्रतिकार का उपाय कैसे होगा? तब क्या कोई उपाय नहीं है? एक उपाय और भी कहा जाता है। वह यह है: वेदान्त कहता है-विभिन्न धर्म जो कुछ कहते है सब सत्य है, किन्तु इसका ठीक ठीक अर्थ क्या है, यह समझना होगा। प्राय लोग विभिन्न धर्मों के उपदेशों को ठीक
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उलटा ही समझते है, और वे धर्म भी इस विषय में एकदम स्पष्ट करके कुछ भी नहीं कहते। मस्तिष्क एवं हृदय दोनो की ही हमे आवश्यकता है। हृदय अवश्य ही बहुत श्रेष्ठ है--हृदय के भीतर से ही जीवन को उच्च पथ पर ले जाने वाले महान् भावों का स्फुरण होता है। हृदयशून्य केवल मस्तिष्क की अपेक्षा यदि मेरे पास कुछ भी मस्तिष्क न हो, किन्तु थोड़़ासा भी हृदय रहे तो मैं उसे सैकड़ो बार पसन्द करूॅगा। जिसके पास हृदय है उसीका जीवन सम्भव है, उसीकी उन्नति सम्भव है, किन्तु जिसके पास तनिक भी हृदय नही है, केवल मस्तिष्क है, वह सूख कर मर जाता है।

किन्तु हम यह भी जानते है कि जो केवल अपने हृदय के द्वारा परिचालित होते है उन्हे अनेक कष्ट भोग करने पड़ते है, कारण उनकी प्राय: ही भ्रम में पड़ने की सम्भावना रहती है। हमको चाहिये हृदय और मस्तिष्क का सम्मिलन। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि कुछ हृदय और कुछ मस्तिष्क लेकर हम दोनो का सामञ्जस्य करे, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति का अनन्त हृदय हो और उसके साथ साथ अनन्त परिमाण मे विचारबुद्धि भी रहे।

इस जगत् मे हम जो कुछ चाहते है उसकी क्या कोई सीमा है? क्या जगत् अनन्त नहीं है? जगत् मे अनन्त परिमाण में भावों के (हृदय के) विकास का और उसके साथ साथ अनन्त परिमाण मे शिक्षा और विचार का भी अवकाश या सम्भावना है। वे दोनों ही अनन्त परिमाण में आये--वे दोनो ही समानान्तर रेखा मे प्रवाहित होते रहे। [ २३२ ]अधिकांश धर्म, 'जगत् में दु:खराशि विद्यमान है' यह बात समझते है और स्पष्ट भाषा में ही इसका उल्लेख करते है अवश्य, किन्तु मालूम होता है, सभी एक ही भ्रम में पड़ गये है, वे सभी हृदय के द्वारा, भावों के द्वारा परिचालित होते है। जगत् में दुःख है, अतएव इसका त्याग करो-यह बहुत अच्छा उपदेश है, एक मात्र उपदेश है, इसमे सन्देह नहीं। 'संसार का त्याग करो!' सत्य जानने के लिये असत्य का त्याग करना होगा―अच्छी वस्तु पाने के लिये बुरी वस्तु का त्याग करना होगा, जीवन प्राप्त करने के लिये मृत्यु का त्याग करना होगा, इस विषय में कोई दो मत नहीं हो सकते।

किन्तु यदि इन मतों का यही तात्पर्य है कि पाँच इन्द्रियों का जीवन―हम जिसे जीवन नाम से समझते है, उसका त्याग करना होगा तब फिर हमारे पास क्या शेष रहता है? यदि हम उसे त्याग करे तो हमारे पास कुछ भी नहीं रहता।

जब हम वेदान्त के दार्शनिक अंश की आलोचना करेगे तब हम इस तत्व को और भी अच्छी तरह समझेगे, किन्तु आपाततः मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि केवल वेदान्त में इस समस्या की युक्तिसङ्गत मीमासा मिलती है, इस समय केवल वेदान्त का वास्तव में उपदेश क्या है, वही कहूँगा―वेदान्त शिक्षा देता है, जगत् को ब्रह्म स्वरूप देखो।

वेदान्त वास्तव में जगत् को एकदम उड़ा देना नहीं चाहता। वेदान्त में जिस प्रकार चूड़ान्त वैराग्य का उपदेश है, और कहीं भी वैसा नहीं है, किन्तु इस वैराग्य का अर्थ आत्महत्या नहीं है―स्वयँ [ २३३ ]को सूखा डालता नहीं है। वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है जगत् का ब्रह्म-भाव-जगत् को हम जिस भाव से देखते है, उसे हम जैसा जानते है, वह जैसा हमे प्रतिभात होता है उसका त्याग करो, और उसके वास्तविक रूप को पहचानो। उसे ब्रह्म रूप में दखो― वास्तव में वह ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, इसी कारण सब से प्राचीन उपनिषद में―वेदान्त के सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा गया था उसकी प्रथम पुस्तक में―हम देखते है, 'ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्या जगत्' (ईश॰ श्लोक १)। 'जगत् में जो कुछ भी है, उसको ईश्वर के द्वारा आच्छादित करना होगा।'

समस्त जगत् को ईश्वर के द्वारा आच्छादित करना होगा; जगत् में जो अशुभ दुःख है, उसकी ओर न देख कर, सभी मड्गलमय है, सभी कुछ सुखमय है अथवा सभी भविष्य में मड्गल के लिये है इस प्रकार के भ्रान्त सुखबाद का अवलम्बन करके नहीं, किन्तु वास्तविक रूप से प्रत्येक वस्तु के भीतर ईश्वर का दर्शन करके। इसी रूप से हमे संसार का त्याग करना होगा और जब संसार का त्याग कर दिया तो शेष क्या रहा? ईश्वर। इस उपदेश का तात्पर्य क्या है? तात्पर्य यही है,―तुम्हारी स्त्री भी रहे, उससे कोई हानि नहीं है, उसको छोड़कर जाना होगा इसका कोई अर्थ नहीं, किन्तु इसी स्त्री में तुम्हे ईश्वर-दर्शन करना होगा। सन्तात का त्याग करो― इसका अर्थ क्या है? क्या बाल-बच्चों को लेकर रास्ते में फेक देना होगा―जैसा कि सभी देशों में नर-पशु किया करते हैं? कमी नहीं―यह तो पैशाचिक काण्ड है―यह तो धर्म नहीं है। फिर क्या करो? सन्तान आदि में ही ईश्वर का दर्शन करो। इसी [ २३४ ]प्रकार सभी वस्तुओं में, जीवन में, मरण में, सुख में, दुःख में-सभी अवस्थाओं में समस्त जगत् ईश्वर से पूर्ण है। केवल आँखे खोल कर उसका दर्शन करो। वेदान्त यही कहता है; तुम जगत् को जिस रूप में अनुमान करते हो उसे छोड़ो, कारण तुम्हारा अनुमान अत्यन्त कम अनुभूति के ऊपर-बिलकुल सामान्य युक्ति के ऊपर-स्पष्ट शब्दों में, तुम्हारी अपनी दुर्बलता के ऊपर स्थापित है। यह आनुमानिक ज्ञान छोड़ो―हम इतने दिन जगत् को जिस रूप में समझते थे, इतने दिन जिसमे अत्यन्त आसक्त थे वह हमारे द्वारा ही सृष्ट मिथ्या जगत् मात्र है। इसको छोड़ो। आँखे खोल कर देखो, हम अब तक जिस रूप में जगत् को देखते थे, वास्तव में उसका अस्तित्व वैसा कभी नहीं था― हम स्वप्न में इस प्रकार देखते थे—माया से आच्छन्न होने के कारण यह भ्रम हमे होता था। अनन्त काल से लेकर वे ही एक मात्र प्रभु विद्यमान थे। वे ही सन्तान के भीतर, वे ही स्त्री में, वे ही स्वामी में, वे ही अच्छे में, वे ही बुरे में, वे ही पाप में, वे ही पापी में, वे ही हत्याकारी में, वे ही जीवन में एवं वे ही मरण में वर्तमान है।

प्रस्ताव तो अवश्य कठिन है।

किन्तु वेदान्त इसी को प्रमाणित करना, शिक्षा देना और प्रचार करना चाहता है। यही विषय लेकर वेदान्त का आरम्भ होता है।

हम इसी प्रकार सर्वत्र ब्रह्म-दर्शन करके जीवन की विपत्तियो और दुःखो को हटा सकते है। कुछ इच्छा मत करो। कौन हमे दुःखी करता है? हम जो कुछ भी दुःख भोग करते है, वासना से ही उसकी उत्पत्ति होती है। तुम्हे कुछ अभाव है, वह पूरा नहीं होता, फल दुःख। अभाव यदि न रहे तो दुख भी नहीं होगा। जब हम सब [ २३५ ]वासनाओ का त्याग कर देगे तब क्या होगा? दीवार में कोई वासना नहीं है, उसे कोई दुःख नहीं भोगना होता। ठीक है, परन्तु वह कभी उन्नति भी नहीं करती। इस कुर्सी में कोई वासना नहीं है, कोई कष्ट भी उसे नहीं है, परन्तु यह जो कुर्सी है, कुर्सी ही रहेगी। सुखभोगो के भीतर भी एक महानता है और दुःखभोगों के भीतर भी। यदि साहस करके कहा जाय तो यह भी कह सकते है कि दुःख की भी उपकारिता है। हम सभी जानते है कि दुःख से कितनी बड़ी शिक्षा मिलती है। हमने जीवन में ऐसे सैकड़ों कार्य किये है जिनके विषय में बाद में लगता है कि वे न किये जाते तो अच्छा होता, किन्तु यह होने पर भी ये सब कार्य हमारे लिये महान् शिक्षक का कार्य करते है। मैं अपने सम्बन्ध में कह सकता हूँ कि मैने कुछ अच्छे कार्य किये है यह सोच कर भी मैं आनन्दित हूँ और अनेक बुरे कार्य किये हैं यह सोच कर भी आनन्दित हूँ। मैने कुछ सत्कार्य किया है इसलिये भी सुखी हूँ और अनेक भ्रमो में भी मैं पड़ा हूँ इसलिये भी सुखी हूँ, कारण उनमे से प्रत्येक ने ही मुझे कुछ न कुछ उच्च शिक्षा दी है।

मैं इस समय जो कुछ भी हूँ वह अपने पूर्व कर्मों और विचारो का फलस्वरूप हूँ। प्रत्येक कार्य और चिन्ता का एक न एक फल अवश्य ही है और मोटे तौर से मैने यही उन्नति की है कि मैं बड़े सुख से समय काट रहा हूँ। तब भी इस समय समस्या कठिन आ पड़ी है। हम सभी जानते है कि वासना बड़ी बुरी चीज़ है, किन्तु वासना- त्याग का अर्थ क्या है? शरीर-रक्षा किस प्रकार होगी? इसका उत्तर भी पहले की भाँति आपातत यही मिलेगा कि आत्म-हत्या करो। वासना का सहार करो और उसके साथ ही वासनायुक्त [ २३६ ]मनुष्य को भी मार डालो। किन्तु इसका उत्तर यही है,―तुम विषयों को ही न रक्खो, यह बात नहीं है; आवश्यक वस्तुये, यहाँ तक कि विलास की सामग्री भी न रक्खो, यह बात नहीं है। तुम्हारी जो भी आवश्यक वस्तुये, यहाँ तक कि उनसे अतिरिक्त वस्तुये भी तुम रख सकते हो―इससे कुछ भी क्षति नहीं है। किन्तु तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य यही है कि तुम्हे सत्य को जानना पड़ेगा, उसको प्रत्यक्ष करना होगा। यह जो धन है―यह किसी का नहीं है। किसी भी पदार्थ में स्वामित्व का भाव मत रक्खो। तुम तो कोई नहीं हो, मैं भी कोई नहीं हूँ, कोई भी कोई नहीं है। सब उसी प्रभु की वस्तुये है; ईशोपनिषद् के प्रथम श्लोक में सभी जगह ईश्वर का स्थापन करने के लिये कहा गया है। ईश्वर तुम्हारे भोग्य धन में है, तुम्हारे मन में जो सब वासनाये उठती है उनमे है, अपनी वासना में रहकर तुम जो जो द्रव्य खरीदते हो उसमे वह है, तुम्हारे सुन्दर वस्त्रो में भी वह है, तुम्हारे सुन्दर अलङ्कारो में भी वह है। इसी प्रकार से विचार करना पड़ेगा। इसी प्रकार सब वस्तुओ को देखना आरम्भ करने पर तुम्हारी दृष्टि में सभी कुछ परिवर्तित हो जायगा। यदि तुम अपनी प्रत्येक गति में, अपने वस्त्रो में, अपनी बोलचाल में, अपने शरीर में, अपने चेहरे में―सभी वस्तुओ में भगवान् की स्थापना कर लो तो तुम्हारी आँखों में सम्पूर्ण दृश्य बदल जायगा और जगत् दुःखमय न लगकर स्वर्ग में परिणत हो जायगा।

"स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है"। वेदान्त कहता है कि वह पहले से ही तुम्हारे भीतर मौजूद है। और सभी धर्म यही बात कहते [ २३७ ]है, सभी महापुरुष यह बात कहते है। 'जिसके पास देखने के लिये आँख है वह देखे; जिसके पास सुनने के लिये कान है वह सुने।' वह पहले से ही तुम्हारे अन्दर मौजूद है और वेदान्त उसका केवल उल्लेख मात्र करता हो यह बात नहीं है, वह उसे युक्तियो द्वारा प्रमाणित भी करने को प्रस्तुत है। अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है और समस्त जगत् में उसको पाने के लिये केवल रोते, कष्ट भोगते घूमते फिरते रहे, किन्तु वह सदा ही हमारे अन्तर के अन्तस्तल में वर्तमान था। इसी तत्वदृष्टि की सहायता से जगत् में जीवन काटना पड़ेगा। यदि 'संसार त्याग करो' यह उपदेश सत्य हो और इसको यदि उस प्राचीन स्थूल अर्थ में ग्रहण किया जाय तो यही फल निकलता है कि हमे कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं है, आलसी होकर मिट्टी के ढेले की भाँति बैठे रहना ही ठीक होगा, कोई चिन्ता करने की या कोई कार्य करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है, अदृष्टवादी होकर, घटनाचक्र से ताड़ित होकर, प्राकृतिक नियमो के द्वारा परिचालित होकर इधर उधर घूमने रहने से ही काम चल जायेगा; यही फल निकलता है। किन्तु पूर्वोक्त उपदेश का अर्थ वास्तव में यह नहीं है। हम लोगों को कार्य अवश्य ही करना पड़ेगा। साधारण मनुष्य जो व्यर्थ की वासनाओ के चक्र मे पडकर इधर उधर भटकते फिरते है, वे कार्य के सम्बन्ध में क्या जानते हैं? जो व्यक्ति अपने भावो और इन्द्रियो के द्वारा परिचालित है वह कार्य को क्या समझता है? कार्य वही कर सकता है जो किसी वासना के द्वारा, किसी स्वार्थपरता के द्वारा परिचालित नहीं है। वे ही कार्य कर सकते हैं जिनकी कोई कामना [ २३८ ]नहीं है। वे ही कार्य कर सकते है जो कार्य से किसी लाभ की प्रत्याशा नहीं करते।

एक चित्र का अधिक भोग कौन करता है? चित्र का बेचने वाला अथवा देखने वाला। विक्रेता तो उसके हिसाब-किताब में ही व्यस्त रहता है, उसको कितना लाभ होगा इत्यादि चिन्ताओं में ही वह मग्न रहता है। ये ही सब विषय उसके मस्तिष्क में सदा घूमते रहते है। वह केवल नीलाम के हथौड़े की ओर लक्ष्य रखता है और क्या भाव पड़ा यही सुनता रहता है। भाव किस तरह बढ़ता जा रहा है यही सुनने में वह व्यस्त है। चित्र देख कर आनन्द का उपभोग वह कब करेगा? वे ही चित्र का सम्भोग कर सकते हैं जिनको उस चित्र की विक्री-खरीद से कोई मतलब नहीं है। वे चित्र की ओर ताकते रहते है और असीम आनन्द का उपभोग करते है। इसी प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड एक चित्र के समान है, जब वासना बिलकुल चली जायगी तभी लोग जगत् का संभोग कर सकेंगे, तब यह बेचने खरीदने का भाव, यह भ्रमात्मक स्वामित्व का भाव नहीं रहेगा। उस समय न ऋण देने वाला है, न खरीदने वाला है, न बेचने वाला है, और जगत् उस समय एक सुन्दर चित्र के समान हो जाता है। ईश्वर के सम्बन्ध में नीचे लिखी हुई बात से अधिक सुन्दर बात मैने नहीं देखी―'वही महान कवि है, प्राचीन कवि है, समस्त जगत् उसकी कविता है, वह अनन्त आनन्दोच्छ्वास में लिखी दुई और नाना प्रकार के श्लोकों, छन्दों और तालों में प्रकाशित है, वासना का त्याग कर लेने पर ही हम ईश्वर की इस विश्वकविता का गाठ और सम्भोग कर पायेगे। उस समय सब वस्तुये ब्रह्मभाव धारण [ २३९ ]
कर लेगी। संसार का प्रत्येक कोना, प्रत्येक अँधेरी गली, वीहड़ मार्ग और सभी छिपे हुये स्थान जिन्हे हमने पहले इतना अपवित्र समझा था, जिन सब के ऊपर का दाग हमे इतना काला दीखता था, सब कुछ ब्रह्मभाव धारण कर लेगा। वे सभी अपने प्रकृत स्वरूप को प्रकाशित करेगे। तब हम अपने आप ही हॅसेगे और सोचेगे, यह सब रोदन और चीत्कार केवल बच्चों का खेल है, और हम जननी रूप मे खड़े होकर बराबर यह खेल देख रहे थे।

वेदान्त कहता है कि इस प्रकार के भाव को आश्रय करने से ही हम ठीक ठीक कार्य करने में समर्थ होगे। वेदान्त हमे कार्य करने का निषेध नही करता, परन्तु यह भी कहता है कि पहले संसार का त्याग करना होगा, इस आपातप्रतीयमान माया के जगत् का त्याग करना होगा। इस त्याग का अर्थ क्या है? पहले ही कहा जा चुका है कि त्याग का प्रकृत अर्थ है सब जगह ईश्वरदर्शन, सब जगह ईश्वरबुद्धि कर लेने पर ही हम वास्तविक कार्य करने में समर्थ होंगे। यदि इच्छा हो तो सौ वर्ष जीने की इच्छा करो, जितनी भी सांसारिक वासनाये हैं, सब भोग कर लो, केवल उन सब को ब्रह्मस्वरूप मे दर्शन करो, उनको स्वर्गीय भावना में परिणत कर लो, उसके बाद चाहे सौ वर्ष जीवन धारण करो। इस जगत् मे दीर्घ काल तक आनन्दपूर्ण होकर कार्य करते हुये सम्भोग करने की इच्छा करो। इसी प्रकार कार्य करने पर तुम्हे वास्तविक मार्ग मिल जायगा। इसे छोड कर अन्य कोई मार्ग नहीं है। जो व्यक्ति सत्य को न जान कर अबोध की भाँति संसार के विलास-विभ्रम में निमग्न होता है, समझ लो कि उसे प्रकृत मार्ग मिला नहीं, उसका पैर फिसल गया है। दूसरी ओर जो
[ २४० ]व्यक्ति जगत् को त्याग कर वन में जाकर अपने शरीर को कष्ट देता है, धीरे धीरे सुखा कर अपने को मार डालता है, अपने हृदय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है, अपने सभी भावो को मार डालता है, और कठोर, बीभत्स और रूखा हो जाता है, समझ लो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनो दो सिरे की बाते है, दोनो ही भ्रम है, एक इस ओर, दूसरा दूसरी ओर। दोनो ही लक्ष्यभ्रष्ट है, दोनो ही पथभ्रष्ट है।

वेदान्त कहता है, इस प्रकार कार्य करो―सभी वस्तुओं में ईश्वरबुद्धि करो, समझो कि वह सब में है, अपने जीवन को भी ईश्वर से अनुप्राणित, यहाँ तक कि उसे ईश्वररूप ही समझो―यह जान लो कि यही हमारा एक मात्र कर्तव्य है, केवल यही हमारे लिये जानने की एक मात्र वस्तु है―कारण ईश्वर सभी वस्तुओं में विद्यमान है, उसे प्राप्त करने के लिये और कहाँ जाओगे? प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक भाव में, प्रत्येक चिन्ता में वह पहले से ही स्थित है। इसी प्रकार समझकर हमे अवश्य ही कार्य करते जाना होगा। यही एक मात्र पथ है, अन्य नहीं। इस प्रकार करने पर कर्मफल तुमको लगेगा नहीं। कर्मफल तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं कर पायेगा। हम देख ही चुके है कि हम जो कुछ भी कष्ट भोग करते है उसका कारण ये ही सब व्यर्थ की वासनाये है। परन्तु जब इन वासनाओ में ईश्वरबुद्धि के द्वारा वे पवित्र भाव धारण कर लेती है, ईश्वरस्वरूप हो जाती है, तब उनके आने से भी फिर कोई अनिष्ट नहीं होता। जिन्होंने इस रहस्य को नहीं जाना है, उनको इसे जानने से पहले तक इसी आसुरी जगत् में रहना पडेगा।' लोग नहीं जानते कि यहाँ उनके चारों ओर सर्वत्र कितने अनन्त [ २४१ ]आनन्द की खान पड़ी हुई है, किन्तु वे उसको खोज निकाल नहीं पाते। आसुरी जगत् का अर्थ क्या है? वेदान्त कहता है―अज्ञान।

वेदान्त कहता है कि हम अनन्त जल से पूर्ण नदी के तट पर रह कर भी प्यास से मर रहे है। ढेरो खाद्य सामने रखा है, फिर भी भूखों मर रहे है। यह आनन्दमय जगत् यही विद्यमान है। परन्तु हम उसे खोज नहीं पाते। हम उसी में रह रहे है। वह सर्वदा ही हमारे चारो ओर रहता है, परन्तु हम उसे सदा ही कुछ और समझ कर भ्रम में पड़ जाते हैं। विभिन्न सभी धर्म हमारे सामने उस आनन्दमय जगत् को दिखाने को आगे आते हैं। सभी हृदय इस आनद की खोज कर रहे है। सभी जातियो ने इसकी खोज की है, वर्मों का यही एक मात्र लक्ष्य है, और यही आदर्श विभिन्न भाषाओ में भी प्रकाशित हुआ है; भिन्न भिन्न धर्मों में जो सब छोटे छोटे मतभेद है, वे सब केवल कहने के दॉवपेच है, वास्तव में कुछ भी नहीं है। एक व्यक्ति एक भाव को एक प्रकार से प्रकट करता है, दूसरा दूसरी प्रकार, किन्तु मैं जो कुछ कहता हूँ, शायद तुम वही बात दूसरे प्रकार की भाषा में व्यक्त कर रहे हो। फिर भी मैं शायद अकेले ही प्रसिद्ध होने की आशा में, अथवा अपने मन के अनुसार चलना पसन्द करता हूँ और इसलिये कहता हूँ―'यह मेरा मौलिक मत है।' इन्ही कारणो से हमारे जीवन में परस्पर ईर्ष्या, द्वेष आदि की उत्पत्ति होती है।

इस सम्बन्ध में अब और भी प्रश्न आते है। जो ऊपर कहा गया है वह मुख से कह देना तो अत्यन्त सरल है। वचपन से ही सुनता आ रहा हूँ―सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि करो―सब ब्रह्ममय हो जायगा―

१९ [ २४२ ]
तब सभी विषयों का वास्तविक सम्भोग कर पाओगे, किन्तु जैसे ही हम संसारेक्षत्र मे उतर कर कुछ धक्के खाते है वैसे ही हमारी सब ब्रह्मवुद्धि उड़ जाती है। मै मार्ग मे सोचता जा रहा हूॅ, सभी मनुष्यो मे ईश्वर विराजमान है--एक बलवान् मनुष्य ने आकर मुझे धक्का दिया, बस मै चित होकर गिर पडा। झठ उठा, रक्त मस्तक में चढ़ गया--मुट्ठी बँध गई--विचारशक्ति नष्ट होगई। बिलकुल उन्मत्त हो उठा, स्मृति लुप्त हो गई--उस व्यक्ति के अन्दर ईश्वर को न देखकर मैने भूत देखा। जन्म के साथ ही साथ उपदेश मिलता है, सर्वत्र ईश्वरदर्शन करो, सभी धर्म यही सिखाते है--सभी वस्तुओ मे, सब प्राणियों के अन्दर, सर्वत्र ईश्वरदर्शन करो। न्यू टेस्टामेण्ट मे ईसामसीह ने भी इस विषय मे स्पष्ट उपदेश दिया है। हम सभी ने यह उपदेश पाया है--किन्तु काम के समय ही हमारा गोलमाल प्रारम्भ हो जाता है। ईसप् की कहानियों में एक कथा है। एक विशालकाय सुन्दर हरिण तालाब में अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपने बच्चे से कहने लगा, "देखो, मै कितना बलवान हूॅ, मेरा मस्तक देखो कैसा भव्य है, मेरे हाथ पॉच देखो कैसे दृढ़ और मांसल है, मै कितना तेज दौड़ सकता हूॅ।" यह बात कहते ही उसने दूर से कुत्तो के भौकने का शब्द सुना।सुनते ही वह ज़ोर से भागा। बहुत दूर दौडने के बाद हॉफते हाँफते फिर बच्चे के पास आया। बच्चा बोला, 'अभी तो तुम कह रहे थे, मैं बडा बलवान् हूॅ, फिर कुत्तो का शब्द सुनकर भागे क्यों?' हरिण बोला--'यही तो बात है, कुत्तो की भों भो सुनकर ही मेरा सब ज्ञान लुप्त हो जाता है।' हम लोग भी जीवन भर यही करते रहते है। हम इस दुर्बल मनुष्य जाति के सम्बन्ध मे कितनी आशाये बॉधते रहते है, किन्तु कुत्तों के भौकते ही हरिण की भाॅति भाग खड़े होते हैं! यदि
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ऐसा है तो यह सब शिक्षा देने की क्या आवश्यकता है? अत्यधिक आवश्यकता है। समझ रखना चाहिये, एक दिन मे कुछ नही हो जाता।

'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।' आत्मा के सम्बन्ध मे पहले सुनना होगा, उसके बाद मनन अर्थात् चिन्ता करनी होगी, उसके बाद लगातार ध्यान करना होगा। सभी आकाश देख पाते है, और तो क्या, जो छोटे कीड़े भूमि पर फिरते रहते है वे भी ऊपर की ओर देखने पर नील वर्ण आकाश को देखते है, किन्तु वह हमारे पास से कितनी-कितनी दूर है--बोलो तो! इच्छा करने पर तो मन सभी जगह जा सकता है, किन्तु इस शरीर को प्रयत्न करके चलना सीखने मे ही कितना समय बीत जाता है। हमारे सभी आदर्शों के सम्बन्ध मे भी यही बात है। आदर्श हमसे बहुत दूर है, और हम उनसे बहुत नीचे पडे हुये है, तथापि हम जानते है कि हमे एक आदर्श मान कर रखना आवश्यक है। इतना ही नही, हमे सर्वोच्च आदर्श रखना ही आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति इस जगत् मे कोई आदर्श लिये बिना ही जीवन के इस अन्धकारमय पथ पर भटकते फिरते है। जिसका एक निश्चित आदर्श है वह यदि एक हजार भूलों मे पड़ सकता है तो जिसका कोई भी आदर्श नहीं है वह दस हज़ार भूल करेगा यह निश्चय है। अतएव एक आदर्श रखना ही अच्छा है। इस आदर्श के सम्बन्ध में जितना हो सके सुनना होगा; उतने दिन सुनना होगा जितने दिन वह हमारे अन्तर मे प्रवेश नहीं करता, हमारे मस्तिष्क में प्रवेश नहीं करता, जब तक वह हमारे रक्त के भीतर प्रवेश नहीं करता, जब
[ २४४ ]तक वह हमारे रक्त के प्रत्येक बिन्दु में, कण कण में प्रवेश नहीं करता, जब तक वह हमारे शरीर के अणु-परमाणु में व्याप्त नहीं हो जाता। अतएव यह आत्मतत्व पहले हमे सुनना होगा। कहा गया है कि 'हृदय भावोच्छ्वासो से पूर्ण होने पर ही मुख वाक्य का उच्चारण करता है।' इसी प्रकार हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी कार्य करता है।

चिन्ता ही हमारी कार्यप्रवृत्ति की नियामक है। मन को सर्वोच्च चिन्ता द्वारा पूर्ण करके रक्खो, दिनानुदिन ये सभी भाव सुनते रहो, मास प्रति मास इसका चिन्तन करो। पहले पहल सफलता न मिले; कोई हानि नहीं, यह विफलता तो स्वाभाविक ही है, यह तो मानव- जीवन का सौन्दर्य स्वरूप है। इस प्रकार की विफलता न होती तो जीवन क्या होता? यदि जीवन में इस विफलता को जय करने की चेष्टा न रहती, तो जीवन धारण करने का कोई प्रयोजन ही न रह जाता। उसके न रहने पर जीवन की कविता कहाँ रहती? यह विफलता, यह भ्रम रहने से भी क्या हर्ज है? गाय कभी झूठ बोलते नहीं सुनी जाती, किन्तु वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव बार बार असफल हो जाओ तो भी कोई हानि नहीं है, सहस्रों बार, बार बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो, किन्तु सहस्र बार असफल होने पर फिर एक बार प्रयत्न करो। सब जीवो में ब्रह्मदर्शन ही मनुष्य का आदर्श है। यदि सब वस्तुओ में उसको देखने में तुम सफल न हो तो कम से कम एक ऐसे व्यक्ति में कि जिसको तुम सब से अधिक प्रेम करते हो, उसका दर्शन करने की चेष्टा करो―उसके बाद एक अन्य व्यक्ति में दर्शन करने की चेष्टा करो―इसी प्रकार तुम आगे बढ़ सकते हो। [ २४५ ]आत्मा के सम्मुख तो अनन्त जीवन पड़ा हुआ है–अध्यवसाय के साथ चेष्टा करने पर तुम्हारी वासना अवश्य पूर्ण होगी।

"अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनह्वे आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत् तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मान ततो न विजुगुप्सते॥

यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानत।
तत्र को मोह. कः शोक एकत्वमनुपश्यत.॥

(ईशोपनिषद्, ४-७ श्लोक)

"वह अचल है, एक है, मन से भी अधिक द्रुत गति वाला है। इन्द्रियाँ उसके पूर्व चल कर भी उसको प्राप्त नहीं होतीं। वह स्थिर रह कर भी अन्यान्य द्रुतगामी पदार्थों से आगे जानेवाला है। उसमे रह कर ही हिरण्यगर्भ सब के कर्मफलो का विधान करते है। वह चञ्चल है, वह स्थिर है, वह दूर है, वह निकट है, इस सब के भीतर है, फिर भी वह इस सब के बाहर भी है। जो आत्मा के अन्दर सब भूतो का दर्शन करते है, और सब भूतो में आत्मा का दर्शन करते है वे कुछ भी छिपाने की इच्छा नहीं करते। जिस अवस्या में ज्ञानी व्यक्ति के लिये समस्त भूत आत्मस्वरूप हो जाते हैं, उस अवस्था में उस एकत्वदर्शी पुरुष को शोक अथवा मोह कहाँ रह सकता है?" [ २४६ ]सब पदार्थों का यह एकत्व वेदान्त का और एक प्रधान विषय है। हम आगे चल कर देखेंगे कि किस प्रकार वेदान्त सिद्ध करता है कि हमारा समस्त दुःख अज्ञान से उत्पन्न है; वह अज्ञान और कुछ नहीं―यही बहुत्व की धारणा है―यह धारणा कि मनुष्य मनुष्य से भिन्न है, पुरुष और स्त्री भिन्न है, युवा और शिशु भिन्न है, जाति जाति से भिन्न है, पृथिवी चन्द्र से पृथक् है, एक परमाणु दूसरे परमाणु से पृथक् है यह ज्ञान ही वास्तव में सब दुःखों का कारण है। वेदान्त कहता है कि यह भेद वास्तविक नहीं है। यह भेद केवल भासित होता है, ऊपर से दीख पड़ता है। वस्तुओं के अन्तस्तल में वही एकत्व विराजमान है। यदि तुम भीतर जाकर देखो तो इस एकत्व को देखोगे―मनुष्य मनुष्य का एकत्व, नर नारी का एकत्व, जाति जाति का एकत्व, ऊँच नीच का एकत्व, धनी और दरिद्र का एकत्व, देवता और मनुष्य का एकत्व। सभी तो एक है―और यदि और भी भीतर प्रवेश करो तो देखोगे―अन्य प्राणी भी एक ही है। जो इस प्रकार एकत्वदर्शी हो चुके है उनको फिर मोह नहीं रहता। वे अब उसी एकत्व में पहुँच गये है, जिसको धर्मविज्ञान में ईश्वर कहते है। उनको अब मोह कैसे रह सकता है? मोह उसको उत्पन्न ही कैसे होगा? उन्होंने सभी वस्तुओं का आभ्यन्तरिक सत्य जान लिया है, सभी का रहस्य जान लिया है। उनके लिये अब दुःख कसे रह सकता है? वे अब क्या वासना-कामना करेगे? वे सभी वस्तुओ के अन्दर वास्तविक सत्य की खोज करके ईश्वर तक पहुँच गये है, जो जगत् का केन्द्रस्वरूप है, जो सभी वस्तुओ का एकत्व- स्वरूप है। यही अनन्त सत्ता है, यही अनन्त ज्ञान है, यही अनन्त आनन्द है। वहाँ मृत्यु नहीं, रोग नहीं, दुःख नहीं, शोक नहीं, [ २४७ ]अशान्ति नहीं। है केवल पूर्ण एकत्व―पूर्ण आनन्द। तब वे किसके लिये शोक करेंगे? वास्तव में उस केन्द्र में, उस परम सत्य में मृत्यु नहीं है, दुःख नहीं है, किसी के लिये शोक करना नहीं है, किसी के लिये दुःख करना नहीं है।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमत्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्‌।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यद्घाच्छाशतीभ्यः समाम्य:॥

( ईशोपनिषद्‌, ८ वॉ श्लोक )

"वह चारों ओर से घेरे हुये है, वह उज्ज्वल है, देहशून्य है, व्रणशून्य है, स्नायुशृन्य है, वह पवित्र और निष्पाप है, वह कवि है, मन का नियामक है, सब से श्रेष्ठ और स्वयम्भू है; वह सवेदा ही यथायोग्य सभी के काम्य वस्तुओं का विधान करता है।" जो इस अविद्यामय जगत्‌ की उपासना करता है वह अन्धकार में प्रवेश करता है। जो इस जगत्‌ को ब्रह्म के समान सत्य समझकर उसकी उपासना करते है वे अन्धकार में भ्रमण करते हैं, किन्तु जो आजीवन इस संसार की उपासना करते है, उससे ऊपर और कुछ भी लाभ नहीं कर पाते, वे और भी घने अन्धकार में प्रवेश करते है। किन्तु जिन्होंने इस परम सुन्दर प्रकृति का रहस्य जान लिया है, जो प्रकृति की सहायता से दवी प्रकृति का चिन्तन करते है वे मृत्यु का अतिक्रमण करते हैं एंव दैवी प्रकृति की सहायता से अमरत्व का भोग करते है।

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहित मुखम्‌।
तत्त्व पृपन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥

[ २४८ ]

तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि।
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि॥

(ईश॰ उप॰ १५-१६)

"हे सूर्य, हिरण्मय (स्वर्ण के) पात्र द्वारा तुमने सत्य का मुख ढँक रक्खा है। सत्य धर्म वाला मैं जिससे उसे देख पाऊं, इसके लिये उसको हटा दो। ... मैं तुम्हारा परम रमणीय रूप देखता हूँ―तुम्हारे अन्दर जो यह पुरुष है वह मैं ही हूँ।"




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