कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ १२ से – २३ तक

 

चक्रघर डरते हुए घर पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है; उसपर कालीन विछी हुई है और एक अधेड़ उम्र के महाशय उसपर बैठे हुए है। उनके सामने हो एक कुरसी पर मुशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था । चक्रधर के प्राण सूख गये । अनुमान से ताड़ गये कि यह महाशय वर की खोज में आये हैं । निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला | वोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा ?

निर्मला ने मुस्कराकर कहा-नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वारे ही‌

रहोगे ! जाओ, बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है। आज क्यों इतनी देर लगायी?

चक्रधर-यह है कौन ?

निर्मला-आगरे के कोई वकील है, मुंशी यशोदानन्दन !

चक्रधर-मै तो घूमने जाता हूँ। जब यह यमदूत चला जायगा, तो आऊँगा।

निर्मला-वाह रे शर्मीले ! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठ ।

चक्रधर-घर में भोजन भी है कि व्याह ही कर देने का जी चाहता है ? मैं कहे देता हूँ, विवाह न करूँगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय ।

किन्तु स्नेहमयी माता कब सुननेवाली थी। उसने उन्हें जबरदस्ती पकडकर सिर में तेल डाल दिया सन्दूक से एक धुला हुआ कुरता निकाल लायी और यों पहनाने लगी, जैसे कोई बच्चे को पहनाये । चक्रधर ने गरदन फेर ली।

निर्मला-मुझसे शरारत करेगा, तो मार बैठूँगी। इधर ला सिर ! क्या जन्म- भर छटे सॉड़ बने रहने का जी चाहता है ? क्या मुझसे मरते दम तक चूल्हा-चक्की कराता रहेगा ? कुछ दिनों तो बहू का सुख उठा लेने दे।

चक्रधर-तुमसे कौन कहता है भोजन बनाने को ? मैं कल से बना दिया करूँगा। मंगला को क्यों छोड़ रखा है ?

निर्मला- अब मैं मारनेवाली ही हूँ। आज तक कभी न मारा; पर आज पीट चलूँगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ ।

इतने में मुशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो ? जरा यहाँ तो आओ।

चक्रधर के रहे-साहे होश भी उड़ गये। बोले-जाता तो हुँ, लेकिन कहे देता हूँ, मैं यह जुआ गले मे न डालुगा । जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाय और कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बाँधकर गृहस्थी मे जुत जाय।

निर्मला-सारी दुनिया जो करती है, वही तुम्हें भी करना पड़ेगा | मनुष्य का जन्म होता ही किस लिए है ?

चक्रधर-हजारों काम है।

निर्मला-रुपए आज भी नहीं लाये क्या ? कैसे आदमी हैं कि चार-चार महीने हो गये, रुपए देने का नाम ही नहीं लेते ! जाकर अपने दादा को किसी बहाने से भेज दो। कहीं से जाकर रुपए लायें। कुछ दावत आवत का सामान करना ही पड़ेगा, नहीं तो कहेंगे कि नाम बड़े और दर्शन थोड़े।

चक्रधर बाहर आये, तो मुंशी यशोदानन्दन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले--अब की 'सरस्वती' मे आपका लेख दे‌

चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैमनस्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताये हैं, वे वहुत ही विचारपूर्ण हैं।

इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयता-पूर्ण आलोचना ने चक्रधर को मोहित कर लिया। वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुशी बज्रधर बोल उठे-आज बहुत देर लगा दी। राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या? (यशोदानन्दन से) राजा साहब की इनके ऊपर बड़ी कृपा है। बिलकुल लड़कों की तरह मानते हैं। इनकी बातें सुनने से उनका जी ही नहीं भरता। (नाई से) देख, चिलम बदल दे और जाकर झिनकू से कह दे, सितार वितार लेंकर थोड़ी देर के लिए यहाँ आ जाय। इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साहब ने एक हाँड़ी अच्छा दही माँगा है। कह देना, दही खराव हुआ, तो दाम न मिलेंगे।

यह हुक्म देकर मुशीजी घर मे चले गये। उधर की फ्रिक थी, पर मेहमान को छोड़कर न जा सकते थे। आज उनका ठाट बाट देखते ही बनता था। अपना अल्पकालीन तहसीलदारी के समय का आलपाके का चोंगा निकाला था उसी जमाने की मदील भी सिर पर थी। आँखों में सुरमा भी था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का व्याह होनेवाला है। चक्रधर शरमा रहे थे कि यह महाशय इनके वेश पर दिल में क्या कहते होंगे। राजा साहब की बात सुनकर तो वह गड़-से गये।

मुशीजी चले गये, तो यशोदानन्दन बोले— अब आपका क्या काम करने का इरादा है?

चक्रधर— अभी तो कुछ निश्चय नहीं किया है, हाँ, यह इरादा है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवा कार्य करूँँ।

यशोदा— इससे बढकर क्या हो सकता है। आप जितने उत्साह से समिति को चला रहे हैं, उसकी तारीफ नहीं की जा सकती। आप-जैसे उत्साही युवकों का ऊँचे आदर्शों के साथ सेवा क्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी ओर खींचा है। यह तो आपको मालूम ही होगा कि मैं किस इरादे से आया हूँ। अगर मुझे धन या जायदाद की परवा होती, तो यहाँ न आता! मेरी दृष्टि में चरित्र का जो मूल्य है, वह और किसी वस्तु का नहीं।

चक्रधर ने ऑखें नीची करके कहा— लेकिन मैं तो अभी गृहस्थी के बन्धन में नहीं पड़ना चाहता। मेरा विचार है कि गृहस्थी में फँसकर कोई तन मन से सेवा कार्य नहीं कर सकता।

यशोदा— ऐसी बात तो नहीं। इस वक्त भी जितने आदमी सेवा कार्य कर रहे हैं, वे प्राय सभी बाल-बच्चोंवाले आदमी हैं।

चक्रधर— इसी से तो सेवा कार्य इतना शिथिल है!

यशोदा— मैं समझता हूँ कि यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक से हों, तो स्त्री पुरुष के कामो में वाधक होने के बदले सहायक हो सकती है। मेरी पुत्री
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का स्वभाव, विचार, सिद्धान्त सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे। उसे कपड़े का शौक नहीं, गहने का शौक नहीं; अपनी हैसियत को बढ़ाकर दिखाने की धुन नहीं। आप के साथ वह मोटे-से-मोटे वस्त्र और मोटे-से-मोटे भोजन में सन्तुष्ट रहेगी। अगर आप इसे अत्युक्ति न समझें, तो मैं यहॉ तक कह सकता हूँ कि ईश्वर ने आपको उसके लिए बनाया है और उसको आपके लिए। सेवा-कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी। अँगरेजी, हिन्दी, उर्दू, संस्कृत पढ़ी हुई है; घर के कामों में इतनी कुशल है कि मैं नही समझता, उसके बिना मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी? मेरी दो बहुएँ हैं, लड़की की मा है; किन्तु सब-की-सब फूहड़; किसी में भी वह तमीज नहीं। रही शक्ल सूरत, वह भी आपको इस तसवीर से मालूम हो जायगी।

यह कहकर यशोदानन्दन ने कहार से तसवीर मॅगवायी और चक्रधर के सामने रखते हुए बोले— मै तो इसमें कोई हरज नहीं समझता। लडके को क्या खबर है कि मुझे बहू कैसी मिलेगी। स्त्री मे कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसन्द न आयी, तो वह उसकी नजरो से गिर जाती है, और उनका दाम्पत्य-जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहॉ तक कहता हूँ कि वर और कन्या में दो चार बार मुलाकात भी हो जानी चाहिए। कन्या के लिए तो वह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसन्द न आयी, तो वह और शादियाँ कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसन्द न आया, तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुजरेगी।

चक्रधर के पेट में चूहे दौडने लगे कि तसवीर क्योंकर ध्यान से देखूँँ। वहाँ देखते शरम आती थी, मेहमान को अकेला छोडकर घर में न जाते बनता था। कई मिनठ तक तो सब्र किये बैठे रहे, लेकिन न रहा गया। पान की तश्तरी और तसवीर लिये हुए घर में चले आए। चाहते थे कि अपने कमरे में जाकर देखें कि निर्मला ने पूछा— क्या बातचीत हुई? कुछ देंगे दिलायेंगे कि वही ५१) वालो मे हैं?

चक्रधर ने उग्र होकर कहा— अगर तुम मेरे सामने देने दिलाने का नाम लोगी तो जहर खा लूँगा।

निर्मला— वाह रे! तो क्या पचीस बरस तक यों ही पाला-पोसा है क्या? मुँह घो रखें!

चक्रधर— तो बाजार में खडा करके वेच क्यो नहीं लेती? देखो, कै टके मिलते हैं?

निर्मला— तुम तो अभी से ससुर के पक्ष मे मुझसे लड़ने लगे। व्याह के नाम ही में कुछ जादू है क्या!

इतने में चक्रधर को छोटी बहन मगला तश्तरी में पान रखकर उनको देने लगा तो कागज में लिपटी हुई तस्वीर उसे नजर आयी। उसने तस्वीर ले ली और लालटेन के सामने ले जाकर बोली— यह बहू की तस्वीर है। देखो, कितनी सुन्दर है! झिनकू—(यशोदानन्दन से) हुजूर को गाने का शौक मालूम होता है।

यशोदा॰—अजी, जब था तब था। सितार वितार की दो-चार गतें बजा लेता था। अब सब छोड़-छाड़ दिया।

झिनकू—कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे। अब की आप ही की हो।

यशोदानन्दन ने भी दो-चार बार इनकार करने के बाद काफी की धुन में एक ठुमरी छेड़ दी। उनका गला मँजा हुया था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त है होकर गाया कि सुनने वाले झूम-झूम गये। उनकी सुरीली तान साज में मिल जाती थी। वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बाँध दिया। झिनकू के भी छक्के छुट गये। मजा यह कि साथ-ही-साथ सितार भी बजाते थे। आस पास के लोग आकर जमा हो गये। समाँ बँध गया। चक्रधर ने यह आवाज सुनी, तो दिल में कहा—यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में है, उसी रंग में रँगे हुए। अब झेंप जाती रही। बाहर आकर बैठ गये।

वज्रघर ने कहा—भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया। बहुत दिनों से ऐसा गाना न सुना था। कैसी रही, झिनकू?

झिनकू—हुजूर, कुछ न पूछिए, सिर धुन रहा हूँ। मेरी तो अब गाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। आपने हम सबी का रंग फीका कर दिया। पुराने जमाने के रईसों की क्या बातें हैं।

यशोदा॰—कभी-कभी जी बदला लिया करता हूँ, वह भी लुक छिपकर। लड़के सुनते हैं, तो कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं समझता हूँ, जिसमे यह रस नहीं, वह किसी सोहबत में बैठने लायक नहीं। क्यों बाबू चक्रधर, आपको तो शौक होगा?

वज्रधर—जी, छू नहीं गया। बस, अपने लड़कों का हाल समझिए।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा—मैं गाने को बुरा नहीं समझता। हाँ, इतना जरूर चाहता हूँ कि शरीफ लोग शरीफों ही में गायें बजायें।

यशोदा॰—गुणियों की जात पात नहीं देखी जाती। हमने तो बरसों एक अन्धे फकीर की गुलामी की, तब जाके सितार बजाना आया।

आधीरात के करीब गाना बन्द हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानन्दन बाहर आकर बैठे, तो वज्रधर ने पूछा—आपसे कुछ बातचीत हुई?

यशोदा—जी हाँ, हुई, लेकिन साफ नहीं खुले।

वज्रधर—विवाह के नाम से चिढ़ता है।

यशोदा॰—अब शायद राजी हो जायँ।

वज्रघर—अजी, सैकड़ें आदमी आ-आकर लौट गये। कई आदमी तो दस दस हजार तक देने पर तैयार थे। एक साहब तो अपनी रियासत ही लिख देते थे, लेकिन इसने हामी न भरी। दोनों श्रादमी सोये। प्रातःकाल यशोदानन्दन ने चक्रवर से पूछा-क्यों बेटा, एक दिन के लिए मेरे साथ आगरे चलोगे ?

चक्रधर -मुझे तो आप इस जजाल मे न फंसायें, तो वहुत अच्छा हो ।

यशोदा० -तुम्हें मजाल में नहीं फँसाता वेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मन्त्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सन्या मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्त्तव्य समझेगी । मै स्वार्थवश ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मै स्वय गरे की हिन्द-सभा का मन्त्री हूँ और सेवा कार्य का महत्व समझता हूँ। अगर मै समझता कि यह सम्बन्ध आपके काम में बाधक होगा, तो कभी आग्रह न करता । मैं चाहता हूँ कि आप एक बार अहल्या से मिल लें। यों तो मैं मन से आपको अपना दामाद बना चका, पर अहल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूँ। आप भी शायद यह पसन्द न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूँ। आप शरमायें नहीं, यों समझ लीजिए कि आप मेरे दामाद हो चुके; केवल मेरे साथ सैर करने चल रहे है। आपको देखकर आपकी सास, साले सभी खुश होगे।

चक्रधर बडे सकटा में पड़े। सिद्धान्त-रूप से वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पान में थे; पर इस समय प्रागरे जाते हुए उन्हें बढ़ा सकोच हो रहा था । कहीं उसकी इच्छा न हुई तो ? कौन बड़ा सजीला जवान हूँ, बात चीत करने में भी तो चतुर नही, और उसके सामने तो शायद मेरा मुँह ही न खुले । यही उसने मन फीका कर लिया, तो मेरे लिए डूब मरने की जगह होगी। फिर कपड़े लते भी नहीं है, बस, यही दो कुरतों को पूँजी है । बहुत हैस-वैस के बाद बोले-पापसे सच कहता हूँ, मैं अपने को ऐसी . ऐसी सुयोग्य स्त्री के योग्य नहीं समझता।

यशोदा०-इन हीलों से मैं पापका दामन छोड़नेवाला नही हूँ। मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूँ। आप सकोच के कारण ऐसा कह रहे हैं; पर ग्रहल्या उन चचल लड़कियों में नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े। आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। हाँ, मैं इतना कर सकता हूँ कि आपकी ख़ातिर से पहले यह कहूँ कि आप परदेशी आदमी है, यहाँ सैर करने आये हैं । स्टेशन पर होटल पूछ रहे थे। मैंने समझा, सीधे आदमी है, होटल मे लुट जायँगे, साथ लेता अाया । क्यो, कैसी रहेगी?

चक्रधर ने अपनी प्रसन्नता को छिपाकर कहा- क्या यह नहीं हो सकता कि मै और किसी समय आ जाऊँ ?

यशोदा०-नहीं, मै इस काम मे विलम्ब नहीं करना चाहता। में तो उसी को लाकर दो चार दिन के लिए यहाँ ठहरा सकता हूँ, पर शायद अापक घर के लोग यह पसन्द न करेंगे।

चक्रवर ने सोचा-अगर मैने और ज्यादा टालमटोल की, तो कही यह महाशय सचमुच ही अहल्या को यहाँ न पहुंचा दें। तब तो सारा परदा ही खुल जायगा ! घर की दशा देखकर अवश्य ही उसका दिल फिर जायगा। एक तो जरा-सा घर, कहीं बैठने की जगह नही, उसपर न कोई साज, न सामान । विवाह हो जाने के बाद दूसरी बात हो जाती है। लड़की कितने ही बड़े घराने की हो, समझ लेती है, अब तो यही मेरा घर है-अच्छा हो या बुरा। दो चार दिन अपनी तक्दीर को रोकर शान्त हो जाती है । बोले-जी हाँ, यह मुनासिब नहीं मालूम होता । मैं ही चला चलूँगा।

घर में विद्या का प्रचार होने से प्रायः सभी प्राणी कुछ न कुछ उदार हो जाते है। निर्मला तो खुशी से राजी हो गयी। हाँ, मुन्शी वज्रघर को कुछ सकोच हुअा, लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरिसेवकसिह को सूचना देनी थी। चक्रधर यों तीसरे पहर पढाने जाया करते थे, पर श्रान ६ बजते-बजते ना पहुंचे।

ठाकुर साहब इस वक्त अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहान्त हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर सँभाला कि ठाकुर साब उसपर रीझ गये और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया । नाम और गुण मे इतना प्रत्यक्ष विरोध बहुत कम होगा। लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूक टो तो उड़ जाय, पर गृहिणी.का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी।

क्षीण जलधारा बरसात की नदी की भाँति बढ़ने लगी और इस समय तो स्थूल प्रतिमा की विशाल मूति थी, अचल और अपार । बरसाती नदी का जल गढ़हो और.गढ़हियों में भर गया था। बस, जल ही जल दिखायी देता था। न आँखों का पता या, न नाक का, न मुँह का, सभी जगह स्थूलता व्याप्त हो रही थी, पर बाहर की.स्थूलता ने अन्दर की कोमलता को अक्षुण्ण रखा था। सरल, सदय, हँसमुख, सहन-शोल स्त्री थी, निसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सजनता यो,.जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती थी। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था । वह उदार न हो, पर कृपण न यी । ठाकुर साहब कभी कभी उसपर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक वार.मारा भी था, पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता था । ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।

इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस छिड़ी हुई थी। ठाकुर साहव झला भल्ला-कर बोल रहे थे, और लौंगी अपराधियों की भाँति सिर झुकाये खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा-वावूनी आये हुए हैं, आपसे कुछ कहना चाहते हैं ।

ठाकुर साहब की भौहें तन गयीं। बोले-कहना क्या चाहते होगे, रुपए मॉगने. श्राये होंगे। अच्छा, नाकर कह दो कि श्राते है, बैठिए । लौंगी-इनके रुपए दे क्यों नहीं देते ? वेचारे गरीब आदमी हैं; सकोच के मारे नहीं मांगते, कई महीने तो चढ गये ?

ठाकुर-यह भी तुम्हारी मुर्खता थी जिसकी बदौलत मुझे यह तावान देना पड़ता है। कहता था कि कोई ईसाइने रख लो, दो-चार रुपये में काम चल जायगा। तुमने कहा-नहीं, कोई लायक आदमी होना चाहिए। इनके लायक होने मे शक नहीं; पर यह तो बुरा मालूम होता है कि जब देखो रुपए के लिए सिर पर सवार । अभी कल कह दिया कि घबराइए नही, दस-पाँच दिनों मे मिल जायेंगे। तब तक फिर भूत की तरह सवार हो गये।

लौंगो-कोई ऐसी ही जरूरत या पढ़ी होगी, तभी आये होंगे । १२०) हुए न ? मैं लाये देती हूँ।

ठाकुर-हॉ, सन्दूक खोल कर लाना तो कोई कठिन काम नहो । अखर तो उने होती है, जिसे कुआँ खोदना पड़ता है।

लोगी-वही कुऑ तो उन्होने भी खोदा है । तुम्हें चार महीने तक कुछ न मिले, तो क्या हाल होगा, साचो। मुझे तो वेचारे पर दया पाती है।

कह कहकर लौंगी गयी ओर रुपये लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आयो । सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।

ठाकुर-लायी भी तो रुपये, नोट न थे क्या ?

लौंगी-जैसे नोट वैसे पर क्या इसमे भी कुछ भेद है?

ठाकुर-अब तुमसे क्या कहूँ। अच्छा, रख दो, जाता हूँ। पानी तो नहीं वरस रहा है कि भींग रहे होगे।

ठाकुर साहब ने झंझलाकर रुपए उठा लिये पोर बाहर चले; लेकिन रास्ते में.क्रोध शान्त हो गया। चक्रधर के पास पहुंचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।

चक्रधर-पापको कष्ट देने..

ठाकुर-नही-नहीं, मुझे कई कष्ट नहीं हुआ। नेने आपसे दस-पॉच दिन में देने का वादा किया था। मेरे पास रुपए न थे, पर स्त्रियों को तो आप जानते हैं;कितनी चतुर होती हैं । घर में सए निकल पाए । यह लीजिए।

चक्रधर-मै इस वक्त एक दूसरे हो काम से पाया हूँ। मुझे एक काम ते अागरे जाना है । शायद दो-तीन दिन लगेगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।

ठाकुर-हॉ हाँ, शौक से जाइए, मुझने पूछने की जरूरत न थी।

ठाकुर साहब अन्दर चले गये, तो मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने ला रहे हैं?

चक्रधर-एक जरूरत से ज्ञाता हूँ।

मनोरमा-कोई बीमार है क्या ?

चक्रधर-नहीं, बीमार कोई नहीं है । मनोरमा- फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं ? जब तक न तलाइएगा, में जाने न दूंगी।

चक्रधर-लौटवर बता दूंगा।

मनोरमा-जी नहीं, मै यह नहीं मानती, अभी बतलाइए।

चक्रधर-एक मित्र मे मिलने जाता हूँ।

मनोरमा-आप मुस्करा रहे हैं ! में समझ गयी, नौकरी की तलाश में जाते हैं।

चक्रधर नहीं मनोरमा, यह बात नहीं है। मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

मनोरमा-तो क्या आप हमेशा इसी तरह देहातो मे घुमा करेंगे ?

चक्रधर-विचार तो ऐसा ही है, फिर जैसी ईश्वर की इच्छा।

मनोरमा-आप रुपए कहाँ से लायेंगे? उन कामों के लिए भी तो रुपयो की जरूरत होती होगी?

चक्रधर-भिक्षा माँगूंगा । पुण्य कार्य भिक्षा हो पर चलते हैं।

मनोरमा-तो पानकल भी आप भिक्षा मांगते होंगे ?

चक्रधर--हॉ, मॉगता क्यो नहीं । न मागू, तो काम कैसे चले ।

मनोरमा-मुझसे तो अापने कभी नहीं मांगा।

चक्रधर-तुम्हारे ऊपर तो विश्वास है कि जब मॉDगा, तब दे दोगी, इसीलिए कोई विशेष काम पा पड़ने पर मॉगूगा।

मनोरमा-और जो उस वक्त मेरे पास न हुए तो।

चक्रघर- तो फिर कभी मॉगूंगा।

मनोरमा-तो श्राप मुझसे अभी माँग लीजिए, अभी मेरे पास रुपए है, दे दूंगी। फिर आप न जाने किस वक मॉग बैठे ।

यह कहकर मनोरमा अन्दर गयी और क्लवाले १२०) रुपए लाकर चक्रधर के सामने रख दिये।

चक्रधर इस वक्त तो मुझे जरूरत नहीं । फिर कभी ले लूँगा।

मनोरमा-जी नहीं, लेते जाइए। मेरे पास खर्च हो जायेंगे | एक दफे भी बाजार गयी, तो यह गायब हो जायेंगे । इसी डर के मारे मैं बाजार नहीं जाती।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब से पूछ लिया है ?

मनोरमा उनसे क्यों पूछ् ? गुड़िया लाती हूँ, तो उनसे नहीं पूछती, तो फिर.इसके लिए उनसे क्यों पूछ ?

चक्रधर--तो फिर यो मै न लूँगा । यह स्थिति और ही है। यह ख्याल हो सकता है कि मेने तुमसे रुपए ठग लिये । तुम्ही सोचो, हो सकता है या नहीं।

मनोरमा--अच्छा, आप अमानत समझकर अपने पास रखे रहिए। इतने में सामने से मुश्की घोड़ों की फिटन नाती हुई दिखायी दी। घोड़ों के साजों पर गगा ममुनी काम किया हुआ था। चार सवार भाले उठाये पीछे दौड़ते चले पात थे । चक्रघर-कोई रानी मालूम होती है ।

मनोरमा-जगदीशपुर की महारानी है । जब उनके यहाँ जाती हूँ, मुझे एक.गिनी देती हैं । ये आठों गिनियाँ उन्हीं की दी हुई हैं । न जाने क्यों मुझे बहुत.मानती हैं।

चक्रधर-इनको कोठी दुर्गाकुण्ड की तरफ है न ? मैं एक दिन इनके यहाँ भिक्षा माँगने जाऊँगा।

मनोरमा-मैं जगदीशपुर की रानी होती, तो आपको बिना माँगे ही बहुत-सा धन - दे देती।

चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-तब भूल जाती।

मनोरमा-जी नहीं, मै कभी न भूलती।

चक्रधर-अच्छा, कभी याद दिलाउँगा। इस वक्त यह रुपए अपने ही पास रहने दो।

मनोरमा - अापको इन्हे लेते सकोच क्यों होता है ? रुपए मेरे हैं, महारानी ने मुझे.दिये हैं । मै इन्हें पानी में डाल सकती हूँ, किसीको मुझे रोकने का क्या अधिकार है । आप न लेंगे तो मै सच कहती हूँ, याज ही जाकर इन्हें गगा में फेंक पाऊँगी।

चक्रधर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा-तुम इतना अाग्रह करती हो, तो मै लिये लेता हूँ, लेकिन इसे अमानत समझगा।

मनोरमा प्रसन्न होकर बोली-हॉ, अमानत ही समझ लीजिए।

चक्रधर-तो मैं नाता हूँ । किताब देखती रहना ।

मनोरमा-अाप अगर मुझसे बिना बताये चले जायेंगे, तो मैं कुछ न पढगी।

चक्रधर-यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है । बतला ही हूँ। अच्छा, हँसना मत । तुम जरा भी मुस्कराई और मैं चला।

मनोरमा-में दोनों हाथों से मुंह बन्द किये लेती है।

चक्रधर ने झंपते हुए कहा- मेरे विवाह की कुछ बातचीत है | मेरी तो इच्छा नहीं है; पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिये जाते हैं ।

यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ साथ आयो । जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरत अपने कमरे में लौट प्रायी। उसकी आँखे डबडवायी हुई थीं और बार-चार रुलाई अाती थी, मानो चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हो!