कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ९ से – १२ तक

 

कई महीने बीत गये । चक्रधर महीने के अन्त में रुपए लाते और माता के हाथ रख देते। अपने लिए उन्हे रुपए की कोई जरूरत न थी। दो मोटे कुरतों पर काट देते थे। हाँ, पुस्तको से उन्हें रुचि यो; पर इसके लिए कॉलेज का पुस्तकालय खुला हुआ था, सेवा कार्य के लिए चन्दों से रुपये या जाते थे । मुंशी वज्रघर द भी कुछ सीधा हो गया । डरे कि इससे ज्यादा दबाऊँ, तो शायद यह भो हाथ से निकल जाय। समझ गये कि जब तक विवाह की बेङी पाँव मे न पड़ेगी यह महाशय काबू आयेंगे । वह बेङी बनवाने का विचार करने लगे।

मनोरमा की उम्र अभी १३ वर्ष से अधिक न हो, लेकिन वक्रधर को उसे पढ़ाते
हुए बड़ी झेप होती थी। वह यही प्रयत्न करते थे कि टाकुर साहेब की उपस्थिति ही में उसे पढायें। यदि कभी ठाकुर साहब कही चले नाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता था।

एक दिन चक्रधर इसी सकट मे जा फँसे । ठाकुर माहब कही गये हुए थे। चक्रधर कुरसी पर बैठे, पर मनोरमा की ओर न ताककर द्वार की ओर ताक रहे थे, मानो वहाँ बैठते डरते हों। मनोरमा वाल्मीकीय रामायण पढ रही थी। उसने दो-तीन बार चक्रधर की और ताका, पर उन्हें द्वार की ओर ताकते देखकर फिर किताब देखने लगी। उसके मन में सीता के वनवास पर एक शङ्का हुई थी और वह इसका समाधान करना चाहती थी। चक्रधर ने द्वार की ओर ताकते हुए पूछा-चुप क्यों बैठी हो, आज का पाठ क्यों नहीं पढती ?

मनोरमा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ, आज्ञा हो तो पूछूंँ ?

चक्रधर ने कातर भाव से कहा- क्या बात है ?

मनोरमा-रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला, तो वह चली क्यों गयी ?

चक्रधर-और क्या करती ?

मनोरमा-वह जाने से इनकार कर सकती थी। एक तो राज्य पर उनका अधिकार भी रामचन्द्र ही के समान था, दूसरे वह निर्दोष थी। अगर वह यह अन्याय न स्वीकार करतीं, तो क्या उन पर कोई आपत्ति हो सकती थी ?

चक्रधर-हमारे यहाँ पुरुषों की आज्ञा मानना स्त्रियों का परम धर्म माना गया है। यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जाती।

मनोरमा यह तो मै जानती हूँ कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा माननी चाहिए। लेकिन क्या सभी दशाओं में ? जब राजा से साधारण प्रजा न्याय का दावा कर सकती है, तो क्या उसकी स्त्री नहीं कर सकती ? जब गमचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी. और अन्त:करण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निन्दा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहाँ का न्याय था?

चक्रधर-राज धर्म का आदर्श भी तो पालन करना था !

मनोरमा-तो क्या दोनों प्राणी जानते थे कि हम संसार के लिए आदर्श खड़ा कर रहे हैं ? इससे तो यह सिद्ध होता है कि वे कोई अभिनय कर रहे थे। अगर आदर्श भी मान लें, तो यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है। यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते ?

चक्रधर बड़े असमंस में पड़ गये। उनके मन में स्वयं यही शङ्का और लगभग इसी उम्र में पैदा हुई थी, पर वह इसका समाधान न कर सके थे। अब साफ साफ जवाब देने की जरूरत पड़ी, तो बगलें झॉकने लगे। मनोरमा ने उन्हें चुप देखकर फिर पूछा-क्या आप भी उन्हें घर से निकाल देते?

चक्रधर-नहीं, मै तो शायद न निकालता ।

मनोरमा-आप निन्दा की जरा भी परवा न करते ?

चक्रघर-नहीं, मैं झूठी निन्दा की परवा न करता ।

मनोरमा की आँखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे भी मन में थी। मैंने दादाजी से, भाई जी से, पण्डितजी से, लौंगी अम्मों से, भाभी से यही शङ्का की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान् हैं, उनके विषय में कोई शङ्का हो ही नही सकती। आपने आज मेरे मन की बात कही । मैं जानती थी कि आप यही जवाब देंगे। इसीलिए मैने आपसे पूछा था । अब मै उन लोगो को खूब भाड़े हाथों लूँगी।

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। पढ़ने-लिखने से उसे विशेष रुचि हो गयी, चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती । पहले की भांति अब हीले-हवाले न करती । जब उनके पाने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इन्तजार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम से कम यहाँ उनका निरादर न होगा, उनकी हसी न उड़ायी जायगी।

ठाकुर हरिसेवकसिह की आदत थी कि पहले दो चार महीनो तक तो नौकरों का वेतन ठीक समय पर दे देते; पर ज्यों ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जाती थी। उनके यहाँ कई नौकर ऐसे भी पड़े थे, जिन्होंने बरसों से अपने वेतन नहीं पाये थे । चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश मांँगते थे। उधर घर मे रोज तकरार होती थी। मुशी वजधर बार बार तकाजे करते, झंझलाते-मॉगते क्यों नहीं ? क्या मुँह मे दही जमाया हुआ है, या काम नहीं करते ? लिहाज भले आदमी का किया जाता है । ऐसे लुच्चो का लिहाज नहीं किया जाता, जो मुफ्त मे काम कराना चाहते हैं । आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन मॉगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ को लिखापढ़ी करने की उन्हें फुरसत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गये और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपए मांगे । ठाकुर साहब हँसकर बोले-वाह बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव है । चार महीनों से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी न मॉगा। अब तो आपके पूरे १२०) हो गये। मेरा हाथ इस वक्त तंग है। जरा दस-पाँच दिन ठहरिए । आपको महीने महीने अपना वितन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी । खैर, जाइये दस पाँच दिन मे रुपये मिल जायेंगे । चक्रधर कुछ न कह सके । लौटे, तो मुँह पर घोर निराशा छायी हुई थी। आज दादाजी शायद जीता न छोड़ेंगे। इस ख्याल से उनका दिल काँपने लगा। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपसे क्या कहा !

चक्रधर उसके सामने रुपये पैसे का जिक्र न करना चाहते थे । झेंपते हुए बोले- कुछ तो नहीं ।

मनोरमा-आपको रुपए नहीं दिये ?

चक्रधर का मुंह लाल हो गया। बोले-मिल जायँगे ।

मनोरमा-आपको १२०) चाहिए न ?

चक्रधर-इस वक्त कोई ऐसी जरूरत नहीं है ।

मनोरमा-जरूरत न होती तो श्राप मांगते ही न । दादाजी से बड़ा ऐब है कि 'किसी के रुपये देते हुए उन्हें मोह लगता है। देखिए, मैं जाकर'

चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न माना | तुरन्त घर मे गई और एक क्षण में पूरे रुपये लाकर मेज पर रख दिये, मानो कहीं गिने गिनाये रक्खे हुए थे।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब को व्यर्थ कष्ट दिया ।

मनोरमा-मेने उन्हें कष्ट नहीं दिया। उनसे तो कहा भी नहीं। दादाजी किसी की जरूरत नहीं समझते। अगर अपने लिए कभी मोटर मॅगपानी हो तो तुरत मंगवा लेंगे, पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरन्त चले जायेंगे, पर जिसके रुपए पाते हैं, उसको न देंगे।

वह तो पढने बैठ गयी, लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या पड़ी कि रुपए लुंँ, या न लुँ। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए । पाठ हो चुकने पर यह उठ खड़े हुए और बिना रुपये लिये बाहर निकल आये । मनोरमा रुपये लिये हुए पीछे पीछे बरामदे तक आयी । बार-बार कहती रही- इसे आप लेते जाइए, जब दादाजा दें, तो मुझे लौटा दीजिएगा। पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गये।