कायाकल्प/५
५
सन्ध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली, तो यशोदानन्दन ने चक्रधर से पूछा-क्यों भैया, तुम्हारी राय में झूठ बोलना किसी दशा मे क्षम्य है, या नहीं?.
चक्रधर ने विस्मित होकर कहा-मै तो समझता हूँ, नहीं।
यशोदा-किसी भी दशा मे नहीं ? चक्रधर-मैं तो यही कहूँगा कि किसी दशा में भी नहीं, हालाँकि कुछ लोग परोपकार के लिए असत्य को क्षम्य समझते हैं ।
यशोदा०-मैं भी उन्हीं लोगों मे हूँ। मेरा ख्याल है कि पूरा वृत्तान्त सुनकर शायद आप भी मुझसे सहमत हो जायँ । मेने अहल्या के विषय में आप से झूठी बातें कही है । वह वास्तवमे मेरी लड़की नहीं है । उसके माता-पिता का हमें कुछ भी पता नहीं।
चक्रधर ने बड़ी-बड़ी आँखें करके कहा-तो फिर अापके यहाँ कैसे पायी ।
यशोदा०-विचित्र कथा है। १५ वर्ष हुए, एक बार सूर्यग्रहण लगा था । मैं उन दिनों कालेज में था। हमारी एक सेवा समिति थी। हम लोग उसी म्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग याये थे। तुम तो उस वक्त बहुत छोटे-मे रहे होगे । इतना बड़ा मेला फिर नही लगा । वही हमें यह लड़की एक नाली मे पड़ी
रोती मिली । । न जाने उसके माँ बाप नदी मे हव गये, या भीड़ मे कुचल गये । बहुत खोज की, पर उनका पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गये । ४५ वर्ष तक तो उसे अनाथालय मे रखा, लेकिन जब कार्यकर्तायों की पृट के कारण अनाथालय वन्द हो गया, तो अपने ही घर में उसका पालन पोषण करने लगा। जन्म से न हो,पर सरकारों से वह हमारी लडकी है। उसके कुलीन होने मे भी सन्देह नहा । उसका शील, स्वभाव और चातुर्य देखकर अच्छे-अच्छे घरों की स्त्रियाँ चकित रह जाती हैं । मै इधर एक साल से उसके लिए योग्य वर की तलाश में था। ऐसा आदमी चाहता था, जो स्थिति को जानकर उसे सहर्ष स्वीकार करे और पाकर अपने को धन्य समझे । पनों में आपके लेख देखकर और आपके सेवाकार्य को प्रशसा सुनकर मेरो धारणा हो गयी कि आप ही उसके लिए सबसे योग्य है । यह निश्चय करके आपके यहाँ पाया। मैंने आपसे सारा वृत्तान्त कह दिया । अब आपको अख्तियार है, उसे अपनायें या त्यागें । हाँ, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रन श्राप फिर न पायेंगे | में यह जानता हूँ कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी, पर यह भी जानता हूँ कि वोरात्माएँ सत्कार्य में विरोध की परवा नही करतो और अन्त मे उस पर विजय हो पाती हैं।
चक्रधर गहरे विचार में पड़ गये । एक तरफ अहल्या का अनुपम सौन्दर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता पिता का विरोध और लोक-निन्दा का भय, मन मे तर्क सग्राम होने लगा यशोदानन्दन ने उन्हें असमजस में पड़े देखकर कहा-श्राप चिन्तित देख पडते हैं और चिन्ता की बात भी है, लेकिन जब आप जैसे सुश-क्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्तव्य और न्याय से मुंह मोड़ें,तो फिर हमारा उद्धार हो चुका । मै अापसे सच कहता हूँ, यदि मेरे दो पुत्रों में से एक भी क्वॉरा होता और अहल्या उसे स्वीकार करती, तो मैं बढ़े हर्प स उसका विवाह उससे कर देता । अापके सामाजिक विचारो की स्वतन्त्रता का परिचय पाकर ही मने अापके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा है और यदि आपने भी अपने कर्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अवला की क्या दशा होगी।
चक्रधर रूप-लावण्य की अोर मे तो ऑखें बन्द कर सकते थे; लेकिन उदार के भाव को दवाना उनके लिए असम्भव था । वह स्वतन्त्रता के उपासक थे और निर्भी-कता स्वतन्त्रता की पहली सीढी है। उनके मन ने कहा- क्या यह काम ऐसा है कि समाज हॅसे ? समाज को इसकी प्रशसा करनी चाहिए। अगर ऐसे काम के लिए कोई मेरा तिरस्कार करे, तो मैं तृण बराबर भी उसकी परवाह न करूँगा। चाहे वह मेरे माता-पिता ही हों। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भो शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूँ। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है; लेकिन कर्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं । कर्तव्य के सामने माता पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है ।
यशोदानन्दन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा- भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।
यह कहकर यशोदानन्दन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे । चक्र-घर को कभी सितार की ध्वनि इतनी प्रिय, इतनी मधुर न लगी थी। और न चॉदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित | दायें-बायें चाँदनी छिटकी हुई थी और उसकी-मन्द छटा मे अहल्या रेलगाडी के साथ, अगणित रूप धारण किये दोड़तो चली जाती थी। कभी वह उछलकर आकाश जा पहुँचती थी, कभी नदियों की चन्द्र-चञ्चल तरगो मे । यशोदानन्दन को न कभी इतना उल्लास हुअा था, न चक्र घर का कभी इतना गर्व, दोनों अानन्द-कल्पना मे हवे हुए थे।
गाडी नागरे पहुंची, तो दिन निकल आया था । सुनहरा नगर हरे हरे कुजों के बीच में विश्राम कर रहा था, मानों वालक माता की गोद में सोया हो।
इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी हो ऐतिहासिक घटनाएँ याद आ गयों । सारा नगर किसी उजडे हुए घर की भॉति श्री-हीन हो रहा था ।
मुशी यशोदानन्दन अभी कुलियों को पुकार रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियो पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। मुसाफिरों के बिस्तरे, सन्दूक खोल-खोलकर देखे जाने लगे। एक थानेदार ने यशोदानन्दन का भी असबाब देखना शुरू किया।
यशोदानन्दन ने आश्चर्य से पूछा-क्यों माहव, ग्राज यह सख्ती क्यों है ?
थानेदार-आप लोगों ने जो कॉटे बोये हैं, उन्ही का फल है। शहर में फिसाद हो गया है।
यशोदा-अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुया?
इतने मे समिति का एक तेवक दौड़ता हुआ या पहुँचा । यशोदानन्दन ने ग्रागे बढकर पूछा-क्यों राधामोहन, यह क्या मामला हो गयो ? अभी जिस दिन म गया हूँ, उस दिन तक तो दगे का कोई लक्षण न था।
राधा-जिस दिन श्राप गये, उसी दिन पंजाब से मौलवी दीनमुहम्मद साहब का श्रागमन हुअा। खुले मैदान मे मुसलमानों का एक बड़ा जलसा हुया । उसमें मौलाना साहब ने न जाने क्या लहर उगला कि तभी से मुसलमानो को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिन्दुत्रों को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाय, पर कुरबानी न होने पायेगी। दोनों तरफ से तैयारियाँ हो रही है, हम लोग तो समझाकर हार गये।
यशोदानन्दन ने पूछा-ख्वाना महमूद कुछ न बोले ।
राधा-वही तो उस जलसे के प्रधान थे।
यशोदानन्दन आँखें फाड़कर बोले-ख्वाजा महमूद !
राधा~जी हॉ, ख्वाना महमूद | आप उन्हें फरिश्ता समझे, असल में वे रेंगे सियार हैं। हम लोग हमेशा से कहते पाते हैं कि इनसे होशियार र हए, लेकिन आपको न जाने क्यों उन पर इतना विश्वास था ।
यशोदानन्दन ने श्रात्म ग्लानि से पीड़ित होकर कहा-जिस आदमी को श्राज २५ बरसों से देखता अाता हूँ, जिसके साथ कालेज में पढा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेम्बर था, उसपर क्योंकर विश्वास न करता। दुनिया कुछ कहे, पर मुझे ख्वाजा महमूद पर कभी शक न होगा।
राधा-आपको अख्तियार है कि उन्हें देवता समझे, मगर अभी अभी आप देखेंगे कि वह कितनी मुस्तैदी से कुरबानी की तैयारियों कर रहे हैं। उन्होने देहातों से लठैत बुलाये हैं, उन्हीं ने गौएँ मोल ली हैं और उन्हीं के द्वार पर कुरबानी होने जा रही है।
यशादा०-- ख्वाना महमूद के द्वार पर कुरबानी होगी। उनके द्वार पर इसके पहले या तो मेरी कुरबानी हो जायगी, या ख्वाजा महमूद की। तॉगेवाले को बुलाओ।
राधा-बहुत अच्छा हो यदि आप इस समय यही ठहर जायें ।
यशादा०-वाह-वाह ! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहते हो, मैं यहीं रह जाऊँ । जो औरो पर बीतेगी वही मुझपर भी बीतेगी, इससे क्या भागना । तुम लोगों ने बड़ी भूल की कि मुझे पहले से सूचना न दी ।
राधा-कल दोपहर तक तो हमें खुद हो न मालूम था कि क्या गुल खिल रहा है। ख्वाजा साहब के पास गये तो उन्होंने विश्वास दिलाया कि कुरबानी न होने पायेगी, आप लोग इत्मीनान रखें । हमसे तो यह कहा, उधर शाम ही को लठैत श्रा पहुँचे और मुसलमानों का डेपुटेशन सिटी मैजिस्ट्रेट के पास कुरबानी की सूचना देने पहुँच गया ।
यशादा.-महमूद भी डेपुटेशन में थे ? राधा-~वही तो उसके कर्ता-धर्ता थे, भला वही क्यों न होते ? हमारा तो विचार है कि वही इस फिसाद की जड़ हैं।
यशोदा--अगर महमूद मे सचमुच यह काया पलट हो गयी है, तो मैं यही कहूँगा कि धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करनेवालो वस्तु ससार में नहीं। और कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो महमूद में द्वेष के भाव पैदा कर सके । चलो, पहले उन्हीं से बातें होगी। मेरे द्वार पर तो इस वक्त बड़ा जमाव होगा।
राधा-जी हॉ, इधर आपके द्वार पर जमाव है, उधर ख्वाजा साहब के ! बीच मे थोडी-सी जगह खाली है। ' तीनों श्रादमी तांगे पर बैठकर चले | सड़कों पर पुलिस के जवान चक्कर लगा रहे थे । मुसाफिरों की छड़ियाँ छीन ली जाती थी। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। सिपाही तुरन्त ललकारता था। दुकानें सब बन्द थीं, कुंजड़े भी साग वेचते न नजर आते थे । हॉ, गलियों में लोग जमा हो-होकर बातें कर रहे थे।
कुछ दूर तक तीनो श्रादमी मोन धारण किये बैठे रहे। चक्रधर शक्ति होकर इधर उधर ताक रहे थे। जरा भी घोड़ा रुक जाता, तो उनका दिल धड़कने लगता कि किसी ने तॉगा रोक तो नहीं लिया, लेकिन यशोदानन्दन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिन्ह दिखायी दे रहा था। उनके मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी। हिंदू और मुसलमान का भेद ही न मालूम होता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि और शहरों में कैसे हिन्द-मुसलमानों में झगडे हो जाते हैं। और तीन ही दिन मे यह नौबत आ गयी।
सहसा उन्होंने उत्तेजित होकर कहा-राधामोहन, देखो, मै तो यहीं उतरा जाता हूँ ! जरा महमूद से मिलूंगा। तुम इन वावू साहब को लेकर घर जाओ । श्राप मेरे एक मित्र के लड़के हैं, यहाँ सैर करने आये हैं। बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना और देखो, अगर देवसयोग से मैं लौटकर न आ सकूँ, तो घबराने की बात नहीं । जब लोग खून खच्चर करने पर तुले हुए हैं, तो सब कुछ सम्भव है और में उन अाद-मियों में नहीं हूं कि गौ को हत्या होते देखू और शान्त खड़ा रहूँ। अगर मै लाटकर न पा सक, तो तुम घर में हला देना कि अहल्या का पाणि ग्रहण आप ही के साथ, कर दिया जाय।
यह कहकर उन्होंने कोचवान से ताँगा रोकने को कहा।
चक्रधर में भी आपके साथ ही रहना चाहता हूँ।
यशोदा-नही भैया, तुम मेरे मेहमान हो, तुम्हें मेरे साथ रहने की जरूरत नहीं। तुम चलो, में भी अभी पाता हूँ।
चक्रधर-क्या पार समझते है कि गौ रक्षा आप ही का धर्म है, मेरा धर्म नहीं ?
यशोदा-नहीं, यह बात नहीं वेटा । तुम मेरे मेहमान हो और तुम्हारी रक्षा करना मेरा धर्म है। इस वक्त ताँगा धीरे-धीरे ख्वाजा महमूद के मकान के सामने या पहुँचा। हजारों आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डण्डे न थे, पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाये हुए थे। यशोदानन्दन को देखते ही कई आदमी उनकी तरफ लपके, लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा— तुमसे लड़ने नहीं आया हूँ। कहाँ हैं ख्वाजा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो, तो लोग हट गये?
जरा देर में एक लम्बा सा आदमी, गाढे़ को अचकन पहने, आकर खड़ा हो गया। भरा हुआ बदन था, लम्बी दाढ़ी, जिसके कुछ बाल खिचड़ी हो गये थे और गोरा रंग। मुख से शिष्टता झलक रही थी। यही ख्वाजा महमूद थे।
यशोदानन्दन ने त्योरियाँ बदलकर कहा—क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ले में कभी कुरबानी हुई है?
महमूद—जी नहीं, जहाँ तक मेरा ख्याल है, यहाँ कभी कुरबानी नहीं हुई।
यशोदा॰—तो फिर आज आप यहाँ कुरबानी करने की नयी रम्म क्यों निकाल रहे हैं?
महमूद—इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जजबात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक को भूल गये थे, लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवा नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जजबात की परवा करें। मुसलमानों को शुद्धि करने का आप को पूरा हक हासिल है, लेकिन कम-से कम पाँच सौ बरसों मे आपके यहाँ शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती। आप लोगों ने एक मुर्दा हक को जिन्दा किया है। इसीलिए न, कि मुसलमानों की ताकत और असर कम हो जाय। जब आप हमें जेर करने के लिए नये नये हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि अपने हथियारों को दूनी ताकत से चलायें।
यशोदा॰—इसके यह मानी है कि कल आप हमारे द्वारों पर, हमारे मन्दिरों के सामने, कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें। आप यहाँ हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे, तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।
यह कहकर यशोदानन्दन फिर ताँगे पर बैठे। दस-पाँच आदमियों ने ताँगे को रोकना चाहा, पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। दम के दम ताँगा उड़ता हुया यशोदानन्दन के द्वार पर पहुँच गया, जहाँ हजारो आदमी खड़े थे। इन्हें देखते हो चारों तरफ हलचल मच गयी। लोगों ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। अभी तक फोज का अफसर न था, फौज दुविधे में पड़ी हुई थी, समझ में न आता था कि क्या करें। सेनापति के आते ही सिपाहियों में जान-सी पड़ गयी, जैसे सूखे धान मे पानी पड़ जाय।
यशोदानन्दन ताँगे से उतर पड़े और ललकारकर बोले—क्यों भाइयो, क्या विचार है? यहाँ कुरबानी होगी? आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरवानी नहीं हुई । अगर आज हम यहाँ कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मन्दिर के सामने गौ-हत्या न होगी!
कई आवाजें एक साथ आयी- हम मर मिटेंगे, पर यहाँ कुरबानी न होने देंगे।
यशोदा-- खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो। वह लोग सब तरह से लैस.हैं । ऐसा न हो कि तुम लाठियो के पहले ही वार में वहाँ से भाग खडे हो ?
कई आवाजें एक साथ न्यायी-भाइयो, सुन लो; अगर कोई पीछे कदम हटायेगा,तो उसे गौ-हत्या का पाप लगेगा।
एक सिक्ख जवान-अजी देखिए, छक्के छुड़ा देगे।
एक पजाबी हिन्दू-एक एक को गरदन तोड के रख दूंगा।
आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानन्दन आगे बढे और जनता 'महावीर'और 'श्रीरामचन्द्र' की जय ध्वनि से वायुमण्डल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानो ने भी डण्डे सँभाले । करीब था कि दोनों दलो मे मुठभेड़ हो जाय कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदानन्दन के सामने खड़े हो गये और विनीत, किन्तु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पाँव रखकर जाइए । मेरे देखते यह अनर्थ न होने पायेगा ।
यशोदानन्दन ने चिढ़कर कहा हट जानो। अगर एक क्षण की भी देर हुई, तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा।
चक्रधर-पाप लोग वहाँ जाकर करेंगे क्या ?
यशोदा० --- हम इन जालिमों से गौ को छीन लेंगे।
चक्रधर-अहिसा का नियम गौत्री ही के लिए नहीं, मनुष्यों के लिए भी तो है ।
यशोदा-कैसी बातें करते हो, जी! क्या यहाँ खडे होकर अपनी ऑखो से गो की हत्या होते देखें?
चक्रधर-अगर आप एक बार दिल थामकर देख लेंगे, तो यकीन है कि फिर.आपको कभी यह दृश्य न देखना पडे । ।
यशोदा-हम इतने उदार नहीं है ।
चक्रधर-ऐसे अवसर पर भी ?
थशोदा०-हम महान्-से-महान् उद्देश्य के लिए भी यह मूल्य नहीं दे सकते । इन दामों स्वर्ग भी महँगा है।
चक्रधर-मित्रो, जरा विचार से काम लो।
कई अावाजे-विचार से काम लेना कायरों का काम है।
एक सिक्ख जवान-जब डण्डे से काम लेने का मौका पाए, तो विचार को बन्द करके रख देना चाहिए।
चक्रधर-तो फिर जाइए; लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आप को अपने एक -भाई का खून करना पड़ेगा। सहसा एक पत्थर किसी तरफ से आकर चक्रवर के सिर मे लगा। खून की धारा बह निकली, लेकिन चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं । सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अगर मेरा खून और कई जानों की रक्षा कर सके, तो इससे उत्तम कौन सी मृत्यु होगी।
फिर दूसरा पत्थर श्राया, पर अव को चक्रधर को चोट न लगी। पत्थर कानों के पास से निकल गया ।
यशोदानन्दन गरजकर बोले- यह कौन पत्थर फेंक रहा है ? सामने क्यों नहीं याता? क्या वह समझता है कि उसी ने गो रक्षा का ठीका ले लिया है ? अगर वह बड़ा वीर है तो क्यों नहीं चन्द कटम प्रागे श्राफर अपनी वीरता दिखाता ? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेकता है ?
एक अावाज-धर्म-द्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है ?
यशोदानन्दन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सञ्चा हिन्दू है।
एक अावाज-सच्चे हिन्दू वही तो होते हैं, जो मोके पर बगले झॉकने लगे और शहर छोडकर दो चार दिन के लिए खिसक जायें ।
कई यादमी-~यह कौन मन्त्री पर आक्षेप कर रहा है.? कोई उसकी जमान पकड़ कर क्यों नहीं खींच लेता ?
यशोदानन्दन-श्राप लोग सुन रहे हैं, मुझपर जैसे-कैसे टोप लगाये जा रहे हैं । मैं सच्चा हिन्दू नही हूँ, मैं मौका पड़ने पर बगले झाँकता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा अादमी अापका मन्त्री बनने के योग्य नहीं है | आप उस श्रादमी को अपना मन्त्री बनायें, जिसे आप सच्चा हिन्दू समझते हों। मैं धर्म से पहले अपने यात्म गौरव की रक्षा करना चाहता हूँ।
कई प्रादमी-महाशय, श्रापको ऐसे मुँहफट आदमियों की बात का खयाल न करना चाहिए।
यशोदा०—यह मेरी पचीस बरसों की सेवा का उपहार है । जिस सेवा का फल अपमान हो, उसे दूर हो से मेरा सलाम है ।
यह कहते हुए मुशी यशोदानन्दन घर की तरफ चले । कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, कई श्रादमी उनके पैरो पडने लगे, लेकिन उन्होंने एक न मानी। वह तेजस्वी आदमी थे। अपनी सस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भॉति शासन करना चाहते थे ।अालोचनायों को सहन करने की उनमे सामर्थ्य ही न थी।
उनके जाते ही यहाँ आपस में 'तू तू, मैं-मैं होने लगी। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगा। गालियों की नौवत आयी, यहाँ तक कि दो चार श्रादमियों से हाथा-पाई मी हो गयी। चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसल मानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर से बोले-हजरात, मै कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहता हूँ।
एक आदमी-सुनो, सुनो, यही तो अभी हिन्दुओं के सामने खडा था।
दूसरा अादमी-दुश्मनों के कदम उखड़ गये । सब भागे जा रहे हैं ।
तीसरा आदमी-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है । देखो,-क्या कहता है ?
चक्रधर-अगर इस गाय की कुरबानी करना श्राप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शोक से कीजिए । मैं श्रापके मजहबी मामले में दखल नहीं दे रहा हूँ। लेकिन क्या यह लाजमी है कि इसो जगह कुरबानी की जाय ।
एक आदमी-हमारी खुशी है; जहाँ चाहेगे, कुरबानी करेंगे, तुमसे मतलब ?
चक्रधर-वेशक, मुझे बोलने का कोई हक नहीं है, लेकिन इस नाम की जो इजत मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है। इसलाम ने कमी दूसरे मजहबवाला को दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा दूसरो के जजबात का एहत-राम किया है। वगद द और रूम, स्पेन और मित्र की तारीखें उस मजहबी अाजादी को शाहिद हैं, जो इसलाम ने उन्हें अता को थीं। अगर आप हिन्दू जजगत का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इसलाम के वकार मे फर्क न पायेगा!
एक मौलवी ने जोर देकर कहा-रेमी मीठा-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं । कुरबानो यहीं होगी। जब दूसरे हमारे कार जन करते हैं, तो हम उनके जजबात का क्यो लिहाज करें?
ख्वाजा महसूद बड़े गौर से चक्रधर की बाते सुन रहे थे। मोलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले- क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यही हो ? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती ?
मौलवी साहब ने ख्वाना महमूद को तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा-मजहब के मामले में उलमा के सिवा पार किसी को दखल देने का मजाज नही है।
ख्याजाचुरा न मानिएगा, मोलवी साहब ! अगर दस सिपाही याकर यहाँ खड़े हो जॉय, तो चग ले झॉकने लगिएगा!
मौलवी-किसीकी मजाल है कि हमारे दीनी उभूर में मजाहमत करे।
खाजा-आपको तो अपने हलवे मांडे से काम है, जिम्मेदारो तो हमारे ऊपर आयेगो, दुकाने तो हमारी लुटेगी, श्रापके पास फटे बोरिये और फूटे बधने के सिवा ओर क्या रखा है। जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गये, ता हमे भी अपनी जिद से बाज अा जाना चाहिए। क्या आप समझते है, वे लोग यारले डर- कर भागे? हमारे दुगुने अादमी थे । अगर चढ़ पाते, तो संभलना मुश्किल हो जाता। मौलवी-जनाव, जिहाद करना कोई खालाजी का घर नहीं । श्राप दुनिया के वन्दे हैं, दीन हकीकत क्या समझे ?
ख्वाग-बना है, आपकी शहादत तो कही नहीं गयी है । जिल्लत तो हमारी है ।। मौलवी-भाइयो, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं । श्राप ही फैसला कीजिए कि दीन मामलात मे उलमा का फैसला वाजिब है, या उमरा का एक मोटेताजे दटियल श्रादमी ने कहा- आप विस्मिल्लाह कीजिए । उमरा को.दीन से कोई सरोकार नहीं।
यह सुनते ही एक श्रादमी बड़ा सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई यादमी गाय की सींगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रघर यह दृश्य देखकर तिलमिला उठे। निराशा और क्रोध से काँपते हुए बोले भाइयो, एक गरीब, वेकस जानवर को मारना बहादुरी नहीं। खुदा वेकसों के खून से नहीं खुश होता। अगर नवॉमर्दी दिखानी है तो क्सिी शेर का शिक्षार करो, किसी चीते को मारो, किसी जगली सुअर का पीछा करो। उसकी कुरबानी से, मुमकिन है, खुदा खुश हो । जब तक हिन्दू सामने खड़े थे, किसी को हिम्मत न पड़ी कि छुरा हाथ में लेता। नव वे चले गये, तो आप लोग शेर हो गये ?
एक आदमी-तो क्यों चले गये ? मैदान में खड़े क्यो न रहे ? गौ-रक्षा का जोश दिखाते । दुम दबाकर भाग क्यों खड़े हुए ?
चक्रधर-भाग नही खड़े हुए और न लड़ने मे वे आपसे कम ही है। उनकी समझ में यह बात आ गयी कि जानवर की हिमायत में इन्सान का खून बहाना इन्सान को मुनासिब नहीं।
मौलवी-शुक्र है, उन्हें इतनी समझ तो अायी !
चक्रधर-लेकिन आप तो अभी तक उनकी दिलनारी पर कमर बाँधे हुए है। खैर, श्रापको अख्तियार है, जो चाहें, करें। मगर मै यकीन के साथ कहता हूँ कि यह दिलजारी एक दिन रग लायेगी। यह न समझिए कि इस वक्त कोई हिन्दू मैदान में नहीं है । हर एक कुरबानी हिन्दुस्तान के २१ करोड़ हिन्दुओं के दिलों मे जख्म कर देती है, और इतनी बड़ी तादाद के दिलों को दुखाना बड़ी से बड़ी कौम के लिए भी एक दिन पछतावे का वाइस हो सक्ता है। अगर आपकी गिना है, तो शोक से खाइए । लाखों गौएँ रोज करल होती है, हिन्दू सिर नहीं उठाते । फिर यह क्योंकर मुमकिन है कि वह आपके मजहबी मामले में दखल दें ? हिन्दुओ से ज्यादा वेतअस्सुव कौम दुनिया में नहीं है, लेकिन जव श्राप उनकी दिलजारी और महन दिलजारी के लिए कुरबानी करते हैं, तो उनको जरूर सदमा होता है । और उनके दिलों में जो शोला उठता है, उसका श्राप कयास नहीं कर सकते। अगर श्रापको यकीन न आये,तो देख लीनिये कि इस गाय के साथ ही एक हिन्दू कितनी खुशी से अपनी जान दे देता है! यह कहते हुए चक्रधर ने तेजी से लपककर गाय की गरदन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इन्सान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।
सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी साहब ने क्रोध से उन्मत्त होकर कहा-कलाम-पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जायगा।
चक्रधर-हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी भी कुरबानी हो।
ख्वाजा महमूद-क्यो भई, तुम्हारा घर कहाँ है?
चक्रधर-परदेशी मुसाफिर हूँ।
ख्वाजा-कसम, खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। नाम के लिए तो गाय को माता कहनेवाले बहुत हैं; पर ऐसे बिरले ही देखे, जो गौ के पीछे जान लड़ा दें। तुम कलमा क्यों नही पढ़ लेते?
चक्रधर-मै एक खुदा का कायल हूँ। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊँ?
ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमानो हो। हमारे हजरत को अल्लाह ताला का रसूल मानते हो?
चक्रघर-बेशक मानता हूँ, उनकी इज्जत करता हूँ और उनकी तौहीद का कायल
ख़्वाजा-हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नही करते?
चक्रधर-जरूर करता हूँ, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूँ, अगर वह पाक-साफ न हो।
ख्वाजा-काश, तुम-जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहाँ तो लोग हमे मलिच्छ कहते हैं। यहाँ तक कि हमे कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। उनकी थालियों में कुत्ते खाते हैं। पर मुसलमान उनके गिलास में पानी नहीं पी सकता। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। अब कुछ कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमो में इत्तफाक हो जाय। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि कुरवानी न होगी।
चक्रधर-और साहबों से तो पूछिए।
कई आवाजें-होती तो जरूर, लेकिन अब न होगी। आप वाकई दिलेर आदमी हैं।
ख्वाजा-यहाँ आप कहाँ ठहरे हुए हैं? मै आपसे मिलूँगा।
चक्रधर-बाप क्यों तकलीफ उठायेंगे, मैं खुद हाजिर हूँगा।
ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गयी। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस 'नौजवान' की 'हिम्मत' और 'जवाँमर्दी' को नारीफ करते हुए चले।
चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल पाये यार उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देसकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा या रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली। अगर यहाँ कुरबानी हो जाती, तो हम मुँह दिखाने लायक भी न रहते।
एक बूदा--आज तुमने वह काम कर दिखाया, जो सैकड़ो आदमियों के रक्त पात से भी न होता।
चक्रधर-मैंने कुछ भी नहीं किया। यह उन लोगा की शराफत थी कि उन्होंने मेरी अनुनय-विनय सुन ली।
यशोदा०--अरे भाई, रोने का भी तो दृग होता है। अनुनय विनय हमने भी सैकड़ा ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझतो हो गयी। आइए, आपके घाव को मरहम-पट्टी तो हो जाय!
चक्रधर को कमरे में बिठाकर यशोदानन्दन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा - आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहल्या, आज तुम्हारी पाक परीक्षा होगी।
अहल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानो के हाथों से गौ की रक्षा को?
यशोदा०--वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। बेचारे रास्ते में मिल गये। यहाँ सैर करने आये है। मसूरी जायेंगे।
अहल्या-वागीश्वरी से) अम्माँ, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे। दादा, मैं कोठे पर बैठी सब तमाशा देख रही थी। जब हिन्दुओं ने उनपर पत्थर फेकना शुरू किया, तो ऐसा क्रोध आता था कि वहीं से फटकारूँ। बेचारे के सिर से खून निकलने लगा, लेकिन वह जरा भी न बोले। जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए, तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सब के सब उनपर टूट न पड़े। बड़े ही साहसी आदमी मालूम होते हैं? सिर में चोट आयी है क्या?
यशोदा०-हाँ, खून जम गया है, लेकिन उन्हें उसकी कुछ परवा ही नहीं। डॉक्टर को बुला रहा हूँ।
वागीश्वरी-खा पी चुकें, तो जरा देर के लिए यहीं भेज देना। मेरे लडकों की जोड़ी तो हैं?
यशोदा०-अच्छी बात है। जरा सफाई कर लेना।
पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोनन्दन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी वधवा दी। फिर देर तक बातें होती रहीं। धीरे-धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालु-जनों ने तो चक्रधर के चरण छुए। आखिर भोजन का समय पाया। जब लोग खाने बैठे, तो यशोदानन्दन ने कहा- भाई, बाबूजी से जो कुछ कहना हो, कह लो; फिर मुझसे शिकायत न करना कि तुम उन्हें नहीं लाये। बाबूजी, इस घर की तथा मुहल्ले की कई स्त्रियों की इच्छा है कि आपके दर्शन करें। आपको कोई आपत्ति तो नहीं है?
वागीश्वरी-हाँ बेटा, जरा देर के लिए चले आना; नहीं तो अपने घर जाके कहोगे न कि मैंने जिन लोगों के लिए जान लड़ा दी, उन्होंने बात भी न पूछी।
चक्रधर ने शरमाते हुए कहा-आप लोगों ने मेरी जो खातिर की है, वह कभी नहीं भूल सकता। उसके लिए मैं सदैव आपका एहसान मानता रहूंगा।
ज्योही लोग चौके से उठे, अहल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की। दीवार की तस्वीरे साफ की, फर्श फिर से झाड़कर विछाया, एक छोटी सी मेज पर फूलो का गिलास रख दिया, एक कोने में अगरबत्ती जलाकर रख दी। पान बनाकर तश्तरी में रखे। इन कामों से फुरसत पाकर उसने एकान्त मे बैट कर फूलों को एक माला गॅयनी शुरू की। मन में सोचती थी कि न जाने कौन हैं, स्वभाव कितना सरल है। लजाने मे तो औरतो से भी बढे हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने मे ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि यह इतने साहसी होंगे।
सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा- बेटी, दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।
अहल्या 'ऊँह' करके रह गयी। हॉ, उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदानन्दनजी चक्रधर को लिये हुए कमरे में आये। वागीश्वरी और अहल्या दोनो खड़ी हो गयीं। यशोदानन्दन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गये। वागीश्वरी पखा झलने लगी; लेकिन अहल्या मूर्ति को भॉति खड़ी रही।
चक्रधर ने उढ़ती हुई निगाहा से अहल्या को देखा। ऐसा मालूम हुआ, माना कोमल, लिग्ध एवं सुगन्धमय प्रकाश की लहर सी आँखों मे समा गयी।
वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा-कुछ जलपान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम जैसे वीरो को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया! अहल्या, जरा गिलास में पानी तो ला। भैा, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतियाँ कर डालीं। कहाँ है वह माला, जो तूने गयी थी? अब पहनाती क्या नहीं?
अहल्या ने लजाते हुए कॉपते हाथों से बोला चक्रधर के गले में माला डाल दी, और आहिस्ता से बोली- क्या सिर ज्यादा चोट ती?
चक्रधर--नहीं तो; बाबूजी ने ख्वाहमख्वाह पट्टी बॅधवा दी। । वागीश्वरी--जब तुम्हें चोट लगी है, तब इसे इतना क्रोध याया था कि उस यादमी को पा जाती, तो मुँह नोच लेती। क्या काम करते हो, बेटा?
चक्रधर--अभी तो कुछ नहीं करता, पड़े-पड़े खाया करता हूँ, मगर जल्द ही कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। धन से तो मुझे बहुत प्रेम नहीं है और मिल भी जाय, तो मुझे उसको भोगने के लिए दूसरों की मदद लेना पड़े। हॉ, इतना अवश्य चाहता हूँ कि किसी का आश्रित होकर न रहना पड़े।
वागीश्वरी--कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलती क्या?
चक्रधर-नौकरी करने को तो मेरी इच्छा ही नहीं है। मैने पक्का निश्चय कर लिया है कि नौकरी न करूँगा। न मुझे खाने का शौक है, न पहनने का, न ठाट बाट का, मेरा निर्वाह बहुत थोड़े मे हो सकता है।
वागीश्वरी--और जब विवाह हो जायगा, तब क्या करोगे।
चक्रधर---उस उक्त सिर पर जो आयेगी, देखी जायगी। अभी से क्यों उसको चिन्ता करूँ?
वागीश्वरी-जल-पान तो कर लो, या मिठाई भी नहीं खाते?
चक्रधर मिठाइयाँ खाने लगे। इतने में महरी ने पाकर कहा- बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खाँसी आ रही है, तिल-भर भी नही रुकनी, कोई दवाई दे दो।
वागीश्वरी दवा देने चली गयी। अहल्या अकेली रह गयी तो चक्र वर ने उसकी ओर देखकर कहा-आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मै तो इस उपहार के योग्य न था।
अहल्या-वह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।
चक्रधर--मेरा परम सौभाग्य है कि बैठे बैठाये इस पद को पहुँच गया।
अहल्या--आपने आज इस शहर के हिन्दू मात्र की लाज रख ली। क्या और पानी हूँ?
चक्रधर-तृप्त हो गया। आज मालूम हुआ कि जल में कितना स्वाद है। शायद अमृत मे भी यह स्वाद न होगा।
वागीश्वरी ने आकर मुस्कराते हुए कहा--भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयाँ नहीं खायीं। क्या उसे देखकर भूख-प्यास बन्द हो गयी? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।
अहल्या--अम्मॉ, तुम छोटे बड़े किसी का लिहाज नहीं करतीं!
वागीश्वरी-अच्छा, बताओ, तुमने इनकी रक्षा के लिए कौन कौन सी मनौतियाँ की थी?
अहल्या-मुझे आप दिक करेंगी, तो चली जाऊँगी।
चक्रघर यहाँ कोई घण्टे भर तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृत्तात पूछा-कै भाई हैं, कै बहिन हैं, पितानी क्या करते हैं, बहनो का विवाह हुआ है या नहीं? चक्रधर को उसके व्यवहार में इतना मातृ-स्नेह भरा मालूम होता था, मानों उससे उनका पुराना परिचय है! चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आये। और भी कितने ही आदमी मिलने आये थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पचायत बनायी जाय और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तब हुआ करें। चक्रधर को भी लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहल्या और वागीश्वरी छत पर लेटी, तो वागीश्वरी ने पूछा--अहल्या, सो गयी क्या?
अहल्या-नहीं अम्मा, जाग तो रही हूँ।
वागीश्वरी~हाँ, आज तुझे क्यों नींद आयेगी। इनसे व्याह करेगी?
अहल्या--अम्मा, मुझे गालियाँ दोगी, तो मैं नीचे जाकर लेटुंगी, चाहे मच्छर भले ही नोच खाये।
वागीश्वरी- अरे, तो मै कौन-सी गाली दे रही हूँ। क्या व्याह न करेगी? ऐसा अच्छा वर तुझे और कहाँ मिलेगा?
अहल्या--तुम न मानोगी, लो, मैं जाती हूँ।
वागीश्वरी-मै दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ। तुम्हारी इच्छा हो, तो बातचीत की जाय। अपनी ही बिरादरी के हैं। कौन जाने, राजी हो जायें।
अहल्या -सब बातें जानकर भी?
वागीश्वरी-तुम्हारे बाबूजी ने सारी कथा पहले ही सुना दी है।
अहल्या--तो कही माने न?
वागीश्वरी--टालो मत, दिल की बात साफ-साफ कह दो।
अहल्या--तुम मेरे दिल का हाल मुझसे अधिक जानती हो, फिर मुझसे क्यों पूछती हो? वागीश्वरी वह धनी नहीं, याद रखो।
अहल्या--मै धन की लोडी कभी नहीं रही।
वागीश्वरी--तो अब तुम्हें सशय में क्यो रखूँ। तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने है के लिए इन्हें काशी से लाये हैं। इनके पेस और कुछ हो या न हो, हृदय अवश् है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगो के हिस्सों में आता है। ऐसा स्वामी पाक तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा।
अहल्या ने डबडबायी हुई आँखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टाचार का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आँखों से बाहर निकलते हुए कॉपता और लजाता है।