ऊषा-अनिरुद्ध
राधेश्याम कथावाचक

बरेली: राधेश्याम कथावाचक, पृष्ठ ५ से – ४८ तक

 

*श्री*
अंक पहला


*दृश्य पहला*


(स्थान–कैलास)

[गिरि शिखर पर शिव-पार्वती का दिखाई देना, दूसरी ओर
वाणासुर का शिवजी की पिंडी के सम्मुख एकाग्र भाव
से खड़े हुए तप करते दिखाई देना]


पार्वती–[स्वगत]देख तपस्या भक्तकी, डोल उठा कैलास।

तपसी ने तप डोर से खींचे उमा-निवास॥
अबतक आतारहा है, स्वामीके ढिंगदास।

किंतु आज स्वामी चले निज सेवक के पास॥

शिव–प्यारी पार्वती देखरही हो? इसी वीर तपस्वी के तप के कारण आज वृक्षों से वायु का प्रवाह मंद है, नदी का जल बंद है। मानसरोवर का शीतल जल मानरहित होकर खौल रहा है, कैलास ही नहीं सारा संसार डोल रहा है।

पार्वती--कैलासपते! मुझे तो इस वाणासुर पर बड़ी दया आती है, इसकी घोर तपस्या अब नहीं देखी जाती है। चलिये और इसकी मनोकामना पूर्ण कीजिये, इच्छानुसार वरदान दीजिये।

शिव--प्रिये, अभी तपस्या तो पूर्ण होने दीजिये । यह एक नहीं दो दो वरदान की इच्छा रखता है।

पार्वती--[आश्चर्य से] हैं ! दो वरदान ? दो वरदान कौन से ?

शिव--संतान और अजेयशक्ति का दान । परन्तु इसके लिये ये दोनों ही बातें कठिन हैं।

पार्वती--क्यों ?

शिव--इसलिए कि संतान का योग तो इसके भाग्य में ही नहीं है, और असुरोंको अजेयता का वर देना देवताओं की शक्ति को क्षीण करदेना है।

पार्वती-यदि वरदान कठिन न होते तो ऐसी उम्र तपस्या ही क्यों करनी पड़ती ?

शिव--इस उम्र तपस्या ही के कारण तो मैं इसे वर देने को तैयार हूं। परन्तु एक ही-अजेयशक्ति ही का-वर दे सकूगा। दूसरा देने को लाचार हूं।

पार्वती--क्यों ?

शिव--इसलिये कि संतान का वरदेना मुझे शोभा नहीं देता। यह तो ब्रह्मा के लिए ही ज्यादा उपयुक्त है। पार्वती-इसमें ब्रह्मा जी की क्या आवश्यकता है ? यदि आप आज्ञा दें तो दूसरा वर मैं दे सकती है। परन्तु मेरे वर से इसे पुत्र नहीं पुत्री प्राप्त होसकती है।

शिव-पुत्री ही सही, पुत्री प्राप्त होने पर भी इस की तपस्या समाप्त होसकती है।

पार्वती-ऐसा है तो चलिये और भक्त की इच्छा पूर्ण कीजिए।

(शिव-पार्वती का कैलास से प्रस्थान और शिव की पिंडी में प्रवेश)

वाणासुर- (प्रार्थना)

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् ।
मन्मथेश्वर,मन्मथेश्वर, मन्मथेश्वर त्राहिमाम् ॥
गंगधारी तापहारी सौख्यकारो एहिमाम् ।
कष्ट गंजन भय विमअन इष्टदानं देहिमाम् ॥

(प्रार्थना की समाप्ति पर शिवजी की पिंडी का फटना और उसमें शिव-पार्वती का दिखाई देना)

शिव-पार्वती-[एक साथ ] वरंब्रूहि, वरंब्रूहि, वरंब्रूहि ।

वाणासुर-[आखें खोलकर ] जय, अय, भूतभावन, शंकर महादेव की जय:-

जिनके भ्रकुटि-विलास में, विश्व सफल लय होय ।
आये जन के सामने, गिरिजा शंकर लोय ॥
पूर्ण तपस्या होगई, इस सेवक को श्राज ।
वर देने को स्वयं ही, आये श्री महाराज ॥
शिव-माँगो, भक्तराज माँगी ! क्या इच्छा है ?

वाणासुर-प्रभो, आपतो अंतर्यामी हैं, घट घट की जानने

वाले हैं:

भक्तों को देते रहे, सदा आप वरदान ।
है उदारता आपकी विश्व विदित भगवान ।
मनवाँछित वर दीजिये, होजनका कल्यान ।
सेवक सर्वप्रकार से, पड़ाचरण में आन ॥

[चरणों मे गिर जाता है।
 

शिव-उठो, भक्तराज उठो । मैं वरदान देता हूँ कि संग्राम में तुम्हे कोई मनुष्य नही जीत सकेगा।

वाणासुर-[उठकर प्रसन्नता से] जय, जय, त्रिपुरारी की जय !

पार्वती-कहो, भक्तराज ! अब और क्या इच्छा है ?

वाणासुर-मातेश्वरी, अभी अभी वरंब्रूहि का वाक्य आफ्ने और मेरे इष्टदेव महेश्वर ने साथ साथ कहा था । उन्होंने तो वरप्रदान करदिया, अव आपसे एक वरदान की इच्छा रखता हूँ?

पार्वती-भक्तराज, मैंने तो जब तुम समाधि में थे तभी संकल्प करलिया था कि तुम्हें एक पुत्री का वरदान दूंगी। अतएव मेरे आशीर्वाद से तुम्हारे यहां एक ऐसी कन्या का जन्म होगा जो सतियों में श्रेष्ठ, पतिव्रताओं में अग्रणी, सुन्दरता में अद्वितीय और संसार में माननीय होगी । जिसका उज्वल चरित्र सुनकर नारिजाति शिक्षा पायेगी और जो उषा काल में जन्म लेने के कारण ऊषा के नाम से पुकारी जायगी।

वाणासुर-धन्य माहेश्वरी।

शिव-ले मैं अब देता तुझे, भक्त धजा यह दान । तेरी जय का रहेगी, यह सर्वदा निशान ।।

(ध्वजा देना)
 

वाणासुर-जय, जय, जय!

[शिवजी के हाथ में से ध्वजा लेना और पर्दा गिरना]

दूसरा दृश्य

(स्थान रास्ता)

[नारद का गाते हुए प्रवेश]

गाना

नारद-श्रीरामकृष्ण गोपाल हरीहर केशव माधव गिरधारी ।
देवकीनन्दन कंसनिकन्दन खलदल गञ्जन असुरारी ॥
मनमोहन सोहन भय भंजन नन्द सुवन करुणाकारी ।
यशुमतिलाल दयाल वेणुधर विपतिविदारण अवतोरी॥

नारायण, नारायण,

शिवजी का नाम है भोलानाथ, इसीलिये तो समय समय पर वे अपने भोलेपन को प्रकट करडालते हैं। इन दिनों भी भोले बाबा भूले हैं । तभी तो वाणासुर को अजेय शक्ति प्रदान की है । यह नहीं विचार किया कि इन असुरोके दल को बढ़ाना देवताओ को कष्ट पहुंचाना है।

पर हमारे भोले बाबा को इसकी क्या परवाह ! उन्होंने तो इस समय प्रासुरी शक्ति ही को बढ़ाया है, मानो नाग को दूध पिलाया है।

भस्मासुर को वरदान देने की बात अभी बहुत पुरानी नही हुई है। रावणासुर पर कृपा करने की कथा तो बच्चा २ तक जानता है । अव नया तूफान उठने का सामान यह वाणासुर का वरदान है। हमें तो मालूम होता है कि यह वरदान पानवाला बलवान वाणासुर एक बार सारे संसार को हिलायेगा और कैलासी बाबा की आड़ में वैष्णवों पर गजब ढायगा । उस सब का परिणाम क्या होगा ? शैव और वैष्णव सम्प्रदाय में झगड़े की एक जबर दस्त आंधो पायेगी और इस देशकी ऐक्य के सूत्र में बंधी हुई जाति के टुकड़े २ करायेगी। हाय, समय की गति न जाने तू क्या करके दिखायगी ।

कट पर और कप्ट यह है कि श्री पार्वती जी ने भी असुर को एक पुत्री देने की कृपा दिखलाई है। इस प्रकार उन्होंने भी उसकी ताकत बढ़ाई है।

खैर जी जैसा कुछ होगा देखा जायगा । नारायण, नारायण,

ठहर कर
 

चल नारद, वाणासुर की सभा में चलकर देख तो सही, पुत्री के जन्मोत्सव की कैसी धूमधाम है। अपने नारायण को तो अपने धानन्द से काम है। नारायण, नारायण ।(चले जाना)

___०____

॥ तीसरा दृश्य ॥

(स्थान छावनी)

[चारों ओर से सशस्त्र सिपाहियों के बीच में विष्णुदास नामक एक बूढे वैष्णव का खरे हुए दिखाई देना और वाणाहर का उसपर गरमाना।]

वाणासुर--बोल, बोल, मेरे वाणों के लक्ष, मेरी श्वन के निशाने, मेरे क्रोध की शान्ति, मेरी क्षुधा के भोजन, तू विष्णु की भक्ति नहीं छोड़ेगा? विष्णुदास-विष्णु की भक्ति ? छोड़ दूंगा । कब-जब इस संसार में यह शरीर नहीं रहेगा, जब इस शरीर में यह हृदय नहीं रहेगा, अब इस हृदय में यह श्वास नहीं रहेगी, जब इस श्वास में धारणा नहीं रहेगी. और जब इस धारणा में गोविंद नहीं रहेंगे!

वाणासुर--बकवादी भक्त, तेरी बकवाद इस शिवराज्य में नहीं चलेगी। वैष्णव धर्म की टहनी इस शैव सम्प्रदाय के शासन में कभी नहीं फूले फलेगी--

दबाढूंगा, कुचलदूंगा, निगल डालूंगा चुटकी में।
तुम ऐसे तुच्छ मुनगों को मसल डालूंगा चुटकी मे ।।

विष्णुदास--मसल डाल ! मुझे मसल डाल या कुचल डाल इसकी परवाह नहीं । परन्तु जालिम राजा,यह तेरी प्रजा का एक बूदा ब्राह्मण-अपनी बुढ़ापे की आवाज में शेर की तरह गरज कर--तुमे यह चेतावनी देता है कि वैष्णव सम्प्रदाय का अपमान न कर, नहीं तो:-

आयेंगे भूकम्प तेरे राज में, गाज पट्टजायेगी इस साम्राज में ।
उतने संकट सिर पेभायेंगे तेरे, जितने हीरे हैं तेरे इस ताज में।।

वाणासुर--तेरी इन धमकियों से मैं डरनेवाला नहीं हूं ! अगर अपनी जिन्दगी चाहता है तो शेष सम्प्रदाय में आजा । अपने विष्णु की भक्ति छोड़दे ।

विष्णुदास-फिर वही बात, फिर वही बात:-

सूर्य चाहे अपनी गर्मी छोड़ दे, शेष चाहे अपनी शक्ती छोड़ दे ।
पर नहीं होगा यह तीनों कान में, विष्णु सेवक विष्णुभक्ती छोड़ दे ॥

वाणासुर--तो क्या तुझे यह नहीं मालूम कि मैं शिव का

सर्वोपरि भक्त हूं?

विष्णुदास--मालूम है, मालूम है, कि तूने शिव की घोर, तपस्या करके अजेय वर प्राप्त किया है, परन्तु--

व्यर्थ है वरदान जब अभिमान तनमे आगया ।
फिर कहाँ है तेज जब अज्ञान तनमें आगया ॥
रूप बनजायेगा वह वरदान ही अब शापका ।
फूटनेवाला है ओ पापी तेरा घट पाप का ॥

वाणासुर--देख मैं एक बार फिर कहता हूं कि शिव भक्त का आसन न हिला । नहीं तो, तू क्या सारे संसार के वैष्णवों को इस का फल भोगना होगा।

विष्णुदास--अबतक तूने कौनसी कसर छोड़ी है जो आगे के लिये ऐसी धमकी दे रहा है। तिलक हमारा तूने नष्ट किया, लाज, पत, सब तूने हमारी लेली। और अब हमारी गंध तक भी तुझे नहीं भाती ? अरे-

नष्ट जब होता है दाना, खेत है उगता तभी ।
काटते हैं जबकि केला, फूलता फलता तभी ।
त्योंही वैष्णव संगठन, दवकर नया रङ्ग लायगा।
यह वह झंडा है, जो सारे देश में फहरायगा ।।

वाणासुर-मौन होजा!

विष्णुदास-कभी नहीं !

वाणासुर-(खड्ग निकाल कर) यह खड्ग देख !

विष्णुदास-टूट जायगी। वाणासुर--हाँ, तेरे बदन पर !

विष्णुदास--नहीं, अन्यायी शासन पर !

वाणासुर--इसमें गरमी है।

विष्णुदास--लेकिन निर्दोष का लहू इसे ठंडी करदेगा।

वाणासुर-मेरा क्रोध फिर गरमी भरेगा ।

विष्णुदास--तो गरीबों की आह भस्म भी करदेगी:-

सताना बेगुनाहों का कहीं बरबाद होता है ।
सताताहै किसीको जो वह खुदही आप रोता है।।
सदा खाता है मीठेफल जो मीठे श्राम बोता है ।
जो कीकर को लगाता है, वही कांटोमें सोता है ॥

वाणासुर--यह आन बान ?

विष्णुदास--धर्म के कारण !

वाणासुर--ऐसा कठोर उत्तर ?

विष्णुदास--विष्णु भगवान के बल पर !

वाणासुर--देखना है तेरे विष्णु मगवान को !

विष्णुदास--[उपेक्षा से हंसकर] अरे तू ! तू विष्णुभगवान को क्या देखेगा । विष्णुभगवान को वह देखते हैं जिनके पास ज्ञान के नेत्र, प्रेम का हृदय, विद्या की रोशनी और धर्म की धारणा होती है :-

देह जाये, शीश जाये, प्राण जाये राम नहीं ।
धमकियों से इष्ट अपना, छोड़दे वह हम नहीं ।।
एक क्या सब पन्थ का, सिर धर्म पर तैयार है।
बच्चा २ वैष्णवों का, विष्णु पर बलिहार है।

विष्णुदास है; पर हमारा पन्थ नहीं है। जिस पन्थ में हमने

अन्म लिया, जिस पन्थ की गोद में हम पले, जिस पन्थ की कृपा से हम खड़े हुए, उसी पन्थ पर अत में इस शरीर को छोड़देंगे, परन्तु पराया पन्थ न ग्रहण किया है और न ग्रहण करेंगे:-

अन्य पन्थयों से न हमको प्यार है ।
पन्थ पर अपने ही बस आधार है॥
वैष्णवों का विष्णु जीवन सार है।
विष्णु-पद ही अपना मुक्ती-द्वार है॥

वाणासुर-तो जा, विष्णु के पुजारी, अपने विष्णु के द्वार घर जाने के लिये तैयार होजा।

विष्णुदास--तय्यार है । विष्णु के नाम पर बलिदान होने के लिए यह विष्णुदास तय्यार है, परन्तु यह याद रहे

रक्तसे लाखों बनेंगे विष्णु-भक्त,
विष्णु-भक्तों से धरा भर जायगी।
प्रीष्म यहधर कर वसन्ती रूपको,
धर्म का विरका हरा कर जायगी॥

वाणसुर--अगर मैं मैं हूँ तो इस वैष्णव-धर्म बिरवे को अड़ से उखाड़ डालूंगा।

विष्णुदास--और, अगर मेरी भक्ति में शक्ति है तो यह विरवा उखड़ने की अपेक्षा तेरे ही महल में लग आयगा। कोई विष्णु का भक्त, कोई विष्णु का सम्बन्धी वेरी पुत्री को अपनी पत्नी बनायगा:-

सच्चे हैं अगर विष्णु तो सबा यह वचन हो,
तेरे ही घर में न्याय से अन्याय दमन हो।

वैष्णव कुमार, शैव कुमारी को बरे जब,
इस वृद्ध की श्रात्मा को तमी चैन मन हो ।

बाणासुर-(वाण दिखाकर ) तो जा, सदा के लिये मौन होजा

[वाण मार देता है।]
 

विष्णुदास--आह ! [वाण लगने से गिरजाना ] धर्म पालन हो- गया । लेना, लेना, वैष्णव सम्प्रदाय के उपासको, विष्णुदास ब्राह्मण के बेटे चिरञ्जीवी कृष्णदास, इस अत्याचारी से मेरी हत्या का बदला लेना । (मृत्यु)

कृष्णदास--(आकर) लूंगा, लूंगा, इस हत्याकारी से बदला अवश्य लूंगा । धर्मवेदी पर पलिदान होने वाले बूढ़े पिता, तुम सुख के साथ विष्णु-लोक को जाओ । इस अत्याचार का समा- चार भगवान विष्णु तक पहुंचानो। पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्र, तुम सब इस हत्या के साक्षी हो । मैं अगर विष्णुदास का पुत्र हू; मैं अगर वैष्णव सम्प्रदाय की रज हूं, तो पिता की इस लाश के पास खड़े होकर प्रतिक्षा करता हूं कि शैव और वैष्णवों का झगड़ा मिटा दूंगा । इस अशान्ति का शान्ति के साथ बदला लूंगा।

वाणासुर--साँप के बच्चे, चुप होजा । सिपाहियो, इसे भी करलो गिरफ्तार ।

कितने ही वैधाव--(आकर) बस खबरदार!

[अचानक इन वैष्णयों को देखकर वाणासर और सिपाहियों का आश्चर्य में प्राजाना कि हमारे राज्य शोणितपुर में इतने

लोग आज वैष्णव होगये!]

दृश्य चौथा

-(स्थान रास्ता)-

[कृष्णदास का चन्द वैष्णवों के साथ आना]

_____:०:_____

कृष्णदास--[आवेश पूवर्क ] संगठन, संगठन, संगठन करो। बिना मंगठन किए अब काम नहीं चलेगा। शेष लोग आज क्यों बढ़े हुये हैं जानते हो?

एक वैष्णव--जानते हैं, उनकी शक्ति इसलिए बढ़ी हुई है कि उनमें संगठन है।

दूसरा वैष्णव--हरहर महादेव की पुकार होते ही दल के दल घरों से निकल आते है।

तीसरा वैष्णव--इन शवों में धर्मान्धता बहुत पाई जाती है।

चौथा वैष्णव--और सब से बड़ी बात तो यह है कि राजा भी उनका साथी है।

कृष्णदास--इसीलिये तो मेरी राय है कि संगठन करो।

वैष्णव धर्म के माननेवालो, अपने इष्टदेव पर श्रद्धा रखनेवालो तुमने कभी यह भी सोचा है कि तुम क्यों कमजोर हो ? तुम सब एक अच्छे जानदार, सुगन्धि से परिपूर्ण, लहकते और महकते हुये पुष्प हो, परन्तु कमी इतनी है कि एक तागे में पिरोये हुए नहीं हो :--

बिखरे पुष्पों को नहीं, मिलता वह सुस्थान ।
जैपा गाला के सुग्न, पाते हैं सम्मान ।।

एक वैष्णव--जाति की सेवा के वास्ते जाति का बच्चा २ एक

हो जाय।

दूसरा वैष्णव--एक वैष्णव की हानि सारे सम्प्रदाय की हानि समझी जाय।

तीसरा वैष्णव--एक की पुकार पर एक हजार सहायकों का झुंड सहायता को आजाय ।

चौथा वैष्णव--कोई अगर दुष्टता की दृष्टिसे वैष्णवों की ओर एक अंगुली भी उठाय तो उसका सारा हाथ मरोड़ दिया जाय ।

कृष्णदास--हाँ, यही तो संगठन है । इसी संगठन को मैं आज चाहता हूँ। मेरी मंशा यह नहीं है कि तुम दूसरों पर प्रहार करो, दूसरों को मारने के लिये उठ खड़े हो, बल्कि दूसरे तुमको गाजर मूली की तरह तोड़ न सकें, ऐसी शक्ति उत्पन्न करो। दूसरों को बतादो कि हम भी शरीरवाले हैं । हमारे शरीर मे भी मनुष्यता का रूधिर है।और हमारे उस रुधिर मे भी गरमी है:--

खिलौने खांड के होकर, नहीं जग में बने हैं हम । चबाना जिनका मुश्किल है, वह लोहे के चने हैं हम ।।

एक वैष्णव--परन्तु.........

कृष्णदास--हॉ,हाँ,कहो।।

एक वैष्णव--एक बात है। शैव सम्प्रदाय के मुकाबले में वैष्णव--संगठन खड़ा करना मनुष्य जाति का उदार उद्देश्य नहीं है। इससे मनुष्य जाति मात्र की एकता में वाधा पड़ती है।

कृष्णदास--ठीक है । परन्तु दलबन्दी तो जगत्कर्ता ही ने आदि काल से रक्खी है । नहीं तो चौरासी लाख योनियोंके बनाने की क्या जुरूरत थी ? एक ही मनुष्य योनि निर्माण की जाती ! एफ वैष्णव--हा समझा, इससे आप का मतलव शायद यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों में स्वतन्त्र है।

कृष्णदास--हां । अब रही यह बात कि इस संगठन से परस्पर में द्वेष पड़ता है; सो यह बाद भी नहीं है।

एक वैष्णव--सो किस प्रकार ?

कृष्णदास--सुनो और समझो, प्रीति बराबर वालों में होती है, छोटे-बड़ों में नहीं होती। बड़ी मछली हमेशा छोटी मछली को खा जाया करती है । बड़ी चिड़िया हमेशा छोटी चिड़िया को सताया करती है । परन्तु जहां दो बराबर की शक्तियाँ होगी, वहां एक से दूसरी डरती रहेगा; और इसी कारण परस्पर मे लड़ाई नहीं होगी।

तीसरा वैष्णव--तब तो संगठन एकता का मूल है।

कृष्णदास--हाँ, इसीलिये तो मेरा कहना है कि संगठन करो।

एक वैष्णव--तो यह संगठन इस नये युग की नई कल्पना है ।

कृष्णदास--नहीं, प्राचीन रचना है। राक्षसों के संगठन ही के कारण रावण ने सुरपति तक को परास्त कर डाला था । सूर्य, चन्द्र, वरुण, कुवेर और यमराज तक को बंदीग्रह में डाला था। उसी रावण को बानरों के संगठन द्वारा श्री रघुनाथ जी ने आन की भान में हरा दिया। इस प्रकार संगठन की शक्ति का चमत्कार सारे संसार को दिखा दिया ।

नाश उसका तब हुआ, जब संगठन जाता रहा ।
ठनगई भाई से तो, सब कांकपन जाता रहा ॥

एक वैष्णव--बस, निश्चित हो गया कि संगठन वैष्णवों की आन है। दूसरा वैष्णव--संगठन आति का प्राण है।

तीसरा वैष्णव--संगठन मनुष्य का आधार है।

चौथा वैष्णव--संगठन के बिना सृष्टि का संहार है ।

कृष्णदास--संगठन का तत्त्व समझना हो तो जल के बिन्दुओं से पूछो । एक एक विन्दु मिलकर जब नदी बनजाती है तो बड़े से बड़े पर्वत को बहादेती है। संगठन की शक्ति जानना हो तो आग की चिनगारियों से पूछो । एक एक चिनगारी मिलकर जब प्रचण्ड ज्वाला बनजाती है। तो बड़े से बड़े राजमहल को जलादेती है, संगठनका बल देखना हो तो प्रकाश की किरणोसे पूछो । एक एक किरण मिलकर जब तीन धूप का स्वरूप बनजाती है तो ऊचे से ऊंचे हिमशिखर को पिघला देती है।

एक वैष्णव--श्रीमान् का कथन सत्य है।

कृष्णदास--बोलो, अपने बच्चों की रक्षा करना मंजर है ?

सब--हाँ,

कृष्णदास--अपनी माताओं और बहिनों की रक्षा करना मंजूर है ?

कृष्णदास--तो आयो भाइयो, धर्म के नाते, जाति के नाते, और देशके नाते, पांव जमाकर, सिर उठाकर, छाती खोलकर, राक्षसों की शक्ति को चकनाचूर करने के लिये शोणितपुर के मस्तक पर संगठन की शहनाई बजाओ, और वैष्णव दल को विजयनाद सुनाछो--

करो तुम संगठन ऐसा कि जिससे जगमें विस्मय हो ।
करो तुम संगठन ऐसा कि जिससे जाति निर्भय हो ।

अनाचारी के अत्याचार की जड़ मूल से क्षय हो ।
जमीं आसमाँतक एक वैष्णव धर्म की जय हो ॥

[पहले से] जाओ तुम वैष्णव समाज को कायम करायो । [दूसरे से]तुम शैव सम्प्रदायके आदमियोंके गलेमें विष्णु-कंठी पहनावे को रचना रचाओ । [तीसरे से] तुम वैष्णव दल के अखाड़े खुलवानो, [चौथे से] और तुम प्रचार के काम में लग जाओ:--

ऐसा प्रचार हो कि जगादे जहान को।
त्रैलोक्य सारा जानले वैष्णव की शान को॥
प्राणों के साथ रखना है इस आन बान को।
इस पान कान पर ही मिटाना हैं प्रान को॥

गाना

विश्व का प्यारा है वह, जिसको है प्यारा संगठन ।
क़ौम की क़िस्मत का है ऊँचा सितारा संगठन ॥
निर्धनों का धन है निबेल का है बल,निर्गुण का गुण ।
बेबसों का बस है, बेचारों का चारा संगठन ॥
तीर्थ की पदवी से, होजाती है पद्वी तीर्थराज ।
करत जब जमुना से गंगाजी की धारा संगठन ॥
गर तुम्हें जीना हो जग में, तो यह रक्खो मन्त्रा याद ।
ज़िन्दगी का एक ही बस है सहारा संगठन ।।
संगठन के संगठन जाती है जिस इंसान की ।
उसका करदेता है दुनिया से किनारा संगठन ।।
इन्द्रियों का संगठन रखता है जैसे जिस्म को ।
त्यों ही रक्खेगा हमें बस यह हमारा संगठन ॥

पांचवां दृश्य

(वाणासुर का दखार)

["ऊषा का जन्म होचुका है, उसके “जन्मोत्सव की धूम धाम होरही है]

गाना

गायिकायें--

हाँ गानो बधाई, कन्या आई, रोजमहल में श्राज ।
हिलमिल के चलो सब नारी, हाथन मैं लै लै थारी ।
सन्तान को घड़ी है, खुशी बढ़ी चढ़ी है ।
साजो साज समाज । हां-गाओ बधाई० ॥१॥
पुर में है आज श्राह्लाद, पाया है उमा का प्रसाद ।
सब देउ मुबारिकबाद । हाँ-गानो वधाई० ॥२॥

एक दर्षारी--[आगे बढकर]

घड़ी आजकी धन्य है, भरी राज की गोद ।
कन्या जन्मी महल में, घर घर छाया मोद ॥

दूसरा दर्वारी:--

नभ पृथ्वी सब गा रहे, विविध वधाई आन ।
चन्द्रकला जैसी बड़े, राजसुत्ता की शान ॥

वाणासुर--(स्वगत) अहा! कन्या, कन्या ! कितना प्यारा शब्द है ! यह शब्द आजही नहीं उसी दिन से प्यारा मालूम हो रहा है, जिसदिन कि श्री पार्वती जी ने इसका प्रसाद दिया था। एक दर्वारी--सत्य है श्री महाराज । परन्तु .....

वाणासुर--हाँ, कहो।

एक दरबारी--आजका आनन्द चौगुना भानन्द होजाता यदि पुत्री के स्थान में पुत्र जन्म का समाचार आता।

वाणासुर--पुत्र हो या पुत्री, दोनोंही आनन्द की वस्तु हैं। जो लोग पुत्री की अपेक्षा पुत्र को ज्यादा प्यार की दृष्टि से देखते हैं मेरी राय में वे भूल करते हैं :-

एक वृक्ष की दो डाले हैं, एक डाल के दो वर हैं।
पुत्री हो या पुत्र जगतमें, दोनों एक बराबर हैं॥

दूसरा दर्वारी--निःसन्देह महाराज के विचार बड़े उत्तम हैं।

वाणासुर--जिस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम के लिये विद्या, वाण- प्रस्थाश्रम के लिये तीर्थ यात्रा और सन्यास के लिये चित्त की वृत्तियों के निरोध का विधान है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम के लिये भी सन्तानोत्पत्ति का आनन्द ही प्रधान है । वे लोग भूलते हैं जो कन्या से पुत्र को अधिक आनन्द की वस्तु समझते हैं । मैं पूछता हूं, क्या कन्या शब्द सन्तान की परिभाषा के अन्दर नहीं भाता है -

एक देह के नयन दो, होते ज्यों शृंगार ।
उसीतरह सुत या सुता, है दोनों इक़सार ॥

एक दर्वारी--श्री महाराज की बात काटना अनुचित है, परन्तु एक बात कहे विना जी नहीं मानता ?

वाणासुर--हां, हां, कहो, वह बात भी कह डालो।

एक दर्बारी--कन्या फिर भी पराई होती है । वाणासुर--यह ठीक है, परन्त महाशय, पुत्र क्या पराया नहीं होता है ? पुत्र की दृष्टि सदैब पिता के धन पर रहती है ! पिता के राज पर, पिता के ताजपर, पिता के मानपर, पिता की शान पर रहती है । परन्तु पुत्री । पुत्री केवल प्रेम ही की चाहना रखती है । प्रेमही की निस्वार्थ कामना रखती है:--

बेटे की भांति वह न सताती है बाप को ।
होके बड़ी न आँख दिखाती है बाप को।
जीवन में भुलाती है नहीं याद बापकी ।
सुसराल में भी रखती है मर्याद बापकी ।।

दूसरा दरबारी--श्री महाराज ठीक कह रहे हैं।

वाणासुर--अश्वपति के नाम को विख्यात करने वाली सावित्री कौन थी?

सब दरबारी--कन्या।

वाणासुर--राजर्षि जनक के नाम को यश देनेवाली जानकी कौन थी?

सब दर्बारी-कन्या !

वाणासुर--गिरराज हिमाचल की शान ऊंची करनेवाली कौन है ?

सब०--भगवती पार्वती।

वाणासुर--नरराज द्रुपद का नाम अमर करनेवाली कौन है ?

सब०-महारानी द्रौपदी।

वाणासुर--तो बस समझलो कि कन्या की पदवी कितनी ऊंची है। जिस जाति ने नारी का आदर नहीं किया है वह कभी ऊपर को नहीं उठी है। यह सारी सृष्टि ही नारी रूप है। भगवती पार्वती के विना महेश्वर की महिमा अपार है। पृथ्वी के बिना जल बेकार है। ज्योति के बिना नेत्रमें अंधकार है । विद्या के बिना बड़े से बड़ा मनुष्य गंवार है।-

नारि जाति ही सृष्टि में, होती गुण-भाण्डार ।
इसीलिये तो सृष्टि भी, कहलाती है नार ।।

दूसरा दर्वारी--यथार्थ है।

वाणासुर--पुरुष स्वभावतः इतना स्वार्थी है कि एकबार पाणिग्रहण करलेने पर भी दूसरा विवाह करलेता है। किंतु नारी अपने पति का शव जल जाने के बाद भी जीवन पर्यन्त विवाह करना तो एक ओर किसी दूसरे पुरुष का विचार तक मन में लाना घोर पाप समझती हैं। पुरुष ऐसा अधम है कि वह प्रत्येक समय नारी को अपने प्रामोद की सामग्री समझता है। परन्तु नारी पतित अवस्था में रहने पर भी पुरुष की मनोवृत्ति का संभालना अपना कर्तव्य समझती हैं।-

नारी ही पुरुषो को रण में वीर बनाया करती है।
नारी ही दुख के अवसर पे धीर धराया करती हैं॥
पुरुषों ही की सेवा में सब जन्म बिताया करती हैं।
खुद तकलीफ़ उठाकर उनको सुख पहुचाया करती हैं॥

[पुरोहित जी का आना]
 

पुरोहित--जय, जय, शोणितपुराधीश महाराज की जय, ग्रजराजेन्द्र श्री वाणासुर महाराज की जय।

वाणासुर--आइये, भाइये, शुक्लजी महाराज आइये । कहिये कन्या कैसी है ? पुरोहित--महाहाहा ! राजराजेन्द्र, कन्या तो सारी सृष्टि की सुन्दरता लेकर भाई है। प्रभातकाल के आकाश के समान निर्मल, प्रातःकालीन वायु के समान मनोहर, अरुणोदय के समय बढ़ती हुई किरणों के समान तेजवती और सूर्योदय के समय पूर्ण विकास को प्राप्त होनेवाली कमलिनी के समान कोमल, उज्ज्वल, स्निग्ध और शोभावाली है।

वाणासुर--यह सब भगवान शंकर और भगवती पार्वती का फल है । शुक्लजी आपने उसका कुछ नाम भी विचारा है ?

पुरोहित--हां महाराज। नाम विचारने के लिये तो मैं ने अपने तमाम पोथी पत्रों को लौट पलट डाला है। मेरे विचार से पृथ्वीनाथ, उषःकाल में जन्म लेने के कारण "उषा नाम रखना उचित होगा।

वाणासुर--ऊषा! अहा, बड़ा अच्छा नाम है, बड़ा प्यारा नाम है, उमाजी की राशि से मिलता हुआ नाम है। वही रखिये !

पुरोहित--और श्रीमहाराज......

वाणासुर--कहिये!

[जन्म-पत्रिका खोलकर दिखाता है]
 

पुरोहित-जन्म पत्रिका भी मैं ने तैयार करली है !

वाणासुर--महा, यह तो आपने बड़ा अच्छा काम किया । अच्छा तो बताइये ग्रह कैसे हैं ?

पुरोहित--राजेश्वर, जन्म-पत्रिका बताती है कि आपकी पुत्री विद्या में सरस्वती, गुणों में सावित्री, रूप में उमा और बल में दुर्गा के समान होगी।

वाणासुर-आयु? पुरोहित--बहुत अच्छी है।

वाणासुर--भाग्येश ।

पुरोहित--बहुत अच्छा है।

वाणासुर--लग्नेश!

पुरोहित--बहुत अच्छा है।

वाणासुर--धर्म का ग्रह ?

पुरोहित--वह भी बहुत अच्छा है।

बाणासुर--सौभाग्य ?

पुरोहित--वह भी बहुत अच्छा है।

[नारद का प्रवेश
 

नारद--[स्वगत हंसते हुए] सब अच्छा ही अच्छा है। वाह शुक्लजी महाराज,नारायण, नारायण ।

पुरोहित--महाराज, यह कन्या मनमाना वर पायेगी, और पापको कीर्ति बढ़ायेगी!

नारद--[आग बढ़कर ] नारायण, नारायण ! राजेन्द्र ! आप की पुत्री के जन्म का समाचार सुनकर मेरे हृदय में भी बड़ा आनन्द हुआ है, और उसी आनन्द के कारण इस समय यह आगमन हुआ है।

वाणासुर--पधारिये,पधारिये श्रीनारद जी महाराज, पधारिये। यह सब आपकी कृपा और भगवती पार्वती के वरदान का प्रसाद है। अच्छा देवर्षि जी, आप उचित अवसर पर पधारे, आपभी सरा जन्म-पत्रिका को विचारें।

नारद--हां, हाँ, तो लाइये जन्म-पत्रिका इधर लाइये । [पत्रिका सोलकर देखना] राजन् , कन्या के ग्रह तो अति उत्तम हैं ! पुरोहित--मैं ने भी यही विचारा था !

नारद--परन्तु पिता के लिये ग्रह कुछ वक्र हैं।

पुरोहित--मैं ने भी तो यही विचारा था !

वाणासुर--शुक्लजी आपने यह कहां विचारा था ?

पुरोहित--महाराज, अपने मनमें मैं यह बात विचार चुका था। जब बताने की घड़ी आई तभी थापने नारदजी के हाथ में पत्रिका पहुंचाई।

नारद--महाराम, शुक्लजी ने यह बात इसलिये नहीं बताई कि आपके ग्रह वक्र बताने के पहले इनके ग्रह वक्र होजाते । नारायण, नारायण,

पुरोहित--नहीं, ज्योतिपविद्या बड़ी अगम है । संभव है कि देवर्षि ने जन्मपत्रिका पर पूरी दृष्टि न डाली हो ! आज्ञा हो तो मैं फिर देखू !

वाणासुर--आप तो रोज ही देखते रहेंगे, इस समय भगवान् नारदजी को देखने दीजिये । हाँ तो देवर्षिजी, पिताके लिये इसक अह कैसे हैं ?

नारद--मेरे विचार से तो राजेन्द्र, इसके विवाह के समय रक्तपात होगा। आपको स्वयं किसी महारथी के साथ लड़ना पड़ेगा और घोर संग्राम करना पड़ेगा।

वाणासुर--[प्रसन्न होकर ] अहा, तबतो अानन्द ही आनन्द है। यह ग्रहों का टेढ़ापन नहीं बल्कि मेरी प्रसन्नता का चिन्ह है। युद्ध के नाम से मेरी भुजाएं फड़कती हैं, छाती फूलती है, रग रग में उत्साह बढ़ता है, रुए२ में रौद्ररस का संचार होता है, और ऐसा मालूम होता है कि वीरता का समुद्र उमड़ा हुआ चला आ रहा है :--

रणभूमी ही रंग भूमि है, वीर बहादुर योधा की ।
समरभूमि ही सुयशभूमि है, इस वाणासुर योधा की॥
धनसा गरजू, जलसा बरसू जब मैं हो रण के बसमें ।
तब नवजीवन सा आता है इस शरीर की नसनसमें॥

नारद--तो महाराज, इतना हम बताये देते हैं कि उस युद्ध का परिणाम दुःखान्तक नहीं होगा। युद्धकाल की समाप्ति पर स्वयं भगवात् शंकर आपके गृह पर आयेगे और संगाम के अभिनय पर सुख की यवनिका गिरायेगे।

वाणासुर--तबतो महान् हर्ष है । अपूर्व उत्साह है । अतीव आनन्द है । और अद्वित्तीय सुख्ख है।:-

दास के घर आयेगे स्वामी दया के वास्ते ।
कष्ट खुदही वे करेंगे अष कृपा के वास्ते ।।
तबतो इस किस्मतका तारा सबसे ऊंचा जायगा।
लग्न में लग्नेश होकर चन्द्रमा आ जायगा ॥

नारद--एक बात और कहना रह गई राजेन्द्र ।

वाणासुर--वह भी कह डालिए।

नारद-आपकी पुत्री का-

वाणासुर-हां, खोलकर कहिये ।

नारद--ग्रह बताते हैं-

वाणासुर--हां, हाँ, गह क्या बताते हैं ?

नारद--किसी वैष्णव के साथ पाणिप्रहण होगा। वाणासुर--हैं ! वैष्णव के साथ पाणिग्रहण होमा ! बस, बस, नारदजी महाराजा, बन्द कर दीजिए इस जन्म-पत्रिका को । यदि ऐसे ग्रह हैं तो फाड़ फेकिए इस जन्म-पत्रिका को । युद्ध होने की चिन्ता नहीं, रक्तपात होने का दुःख नहीं, परन्तु वैष्णक को कन्या विगही जाय यह किसी प्रकार सहन नहीं :-

भौंचाल आये भूमि पै, या सिन्धु सूखजाय ।
आँधी उठे तूफान छठे, विश्व डगमगाय ।।
संसार की सब आफतें चाहे करें तबाह ।
पर वैष्णव के साथ में होगा नहीं विवाह ।।

नारद--वास्तव में यह घटना बड़ी शोचनीय होनायगी । नारायण, नारायण।

वाणासुर--परन्तु, होतो जब जायगी जब मैं होजाने दूंगा ! नारदजी आप जानते हैं कि मैं शिवजी का अनन्य भक हूं। शैव सम्प्रदाय का प्रचारक हू। जबतक पृथ्वी पर मेरा यह पॉव है, इस पांव के ऊपर यह छाती है, इस छाती के ऊपर यह हाथ है,और इस हाथ में यह जबर्दस्त गदा है, तबतक कौक ऐसा माई का लाल है जो युद्ध में मुझे परास्त कर सकता है।

मैं वह शक्ती का पुतला हू, सभामें रिपु को लीलूंगा ।
गरजकर शेर की मानिन्द, रिपु का रक्त पीलूंगा॥

नारद--राजेन्द्र की शक्ति ऐसी ही है।

वाणासुर--नारदजी, मैं वैष्णव सम्प्रदाय का कट्टर शत्रु हूं। उसरोज इसी शत्रुता के कारण मैं ने विष्णुदास नामक एक वैष्णव को प्राण-दण्ड दे डाला था। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि मेरी प्रजा के बहुत से मूर्खलोग मेरा सामना करने को आ गए । मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे राज्य में वैष्णवों का इतना जोर बढ़ गया । उसी दिन मैंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि पहले तो राजी से वैष्णवों को समझाऊंगा, शैवधर्म में उन्हें लाने का उपाय रचाऊंगा, और अन्त में यदि वे नहीं मानेंगे तो विष्णुदास की तरह उन्हें भी ठिकाने लगाऊंगा।:-

बहादुर को कहीं किञ्चित् भी भयखाना न आता है।
मैं राजा हू', प्रजा से मुझको उरजाना न आता है ।।

नारद--परन्तु राजन् , इन ग्रहों से आप किस प्रकार बचाउ करेंगे?

बाणासुर--उपाय करेगे। सुनो, आज सबके सामने यह बात खोलकर कहे देता हूं कि विवाह के योग्य जब राजकुमारी होजायगी तो उसके कुछ दिन पहले ही जल के भीतर एक खम्भे पर महल बनाकर उसमें कैद करदी जायगी। वैष्णव तो क्या किसी भी जीव के पास तक उसकी हवा न पहुंचाई जायगी।:-

देखना है किसतरह वैष्णव विवाह रचायेंगे।
किसतरह ग्रह अपना फल संसार में दिखलायेंगे।
मेरा गृह जायेगा तो ग्रह भी न रहने पायेगा।
मेरी एक हुंकार से जग में प्रलय होजायेगा।

विष्णुदास की आत्मा-

उदय हुआ है दुष्ट अब, तेरा पिछला पाप । मिथ्या होसकता नहीं, ब्रह्मवंश का शाप ॥

(सब आश्चर्य में भाजाते हैं)
 

छठा दृश्य

[मिहन्त माधोदास के साथ साथ गोमतीदास, सरयूदास, कौशिकीदास,आदि २ शिष्यगण अंदर से “संध्या भारती की जय जय सीताराम" कहते हुए पाते है]

माधोदास--[बाहर आकर] आओ भैया गोमतीदास, कौशिकीदास, सरयूदास, आयो। भारतीजी होचुकी, अब सत्संगजी होता है।

सरयू०--जो आज्ञा।

कौशिकी०--गुरुजी, रामजी की नारी मंदोदरी थी न ?

माधो०--हां बच्चा कौशिकीदास । शैव सम्प्रदाय में एक रामजीदास रावण हुआ जिसके अनेकन भाई हुए । जिनके नाम कुम्भकरण, मेघनाद, विभीषण, अहिरावण, महिपासुर श्रादि थे।

गोमती०--गुरुजी, महिषासुर तो रामावतार मे नहीं था।

माधो०--नहीं भाई तुम नहीं समझे । विष्णुजी ने रामजी का अवतार धर के महिषासुर को मारा है। रामजी और विष्णुजी दोनों एक ही हैं । शास्त्र का ऐसा ही वचन है । हमने अक्षर थोड़े ही पढ़े हैं, यह तो राम खुरपा से अनुभव होगया है। रामाणजी में लिखा है-“करोति सुलमं सर्वरामस्य महती खुरपा"-इसका अर्थ बड़े २ शास्त्री, महात्मा और पण्डित भी नहीं जानते । यह तो केवल गुरुमुख से ही प्राप्त होता है। बाल का आदि, अयोध्या का मध्य और उत्तर का अन्त, जो जाने वह पूरा सन्त । सुनो प्रथम इसी सल्लोक का अर्थ सुनाया जाता है। सरयू०--गरुजी, श्लोक का या सल्लोक का ?

गोमती०--चुपमूर्ख, गुरुकी बात काटता है ? भस्म हाजायगा!

माधो०--"कराति सुलभ सर्व रामस्य महती खुरपा"

सरयू०--हैं ! खुरपा या कृपा ?

गोमती०--चुप बे। फिर गुरुकी बात काटी? भत्म होजायगा!

माधो०-इस सल्लोक का अर्थ यह है कि अपने भक्त पर करके जब रामजी उसे खुरपा देदेते है तो फिर उसे सारे पदार्थ सुलभ होजाते हैं, दुलेभ कुछ नहीं रहता। वो उस खुरपे से सब कुछ करसकता है । खुरपे से बगीचे में घास छीले. मिट्टी बोटे प्रथ्वी में दबाहुआ धन निकाले,चिमटेका कामले और कभी शैवों से झगड़ा होजाय तो शैवों के सरमें मारदे ।

सब--सत्य है, गुरुवाणी सत्य है।

माधो०--सुनो, सावधान होकर सुनो । आज रामचन्द्रजी के विवाह से सत्संगजी प्रारम्भ होगा :--

"आयान्तं दशरथंश्रुत्वा भानुकेतुं नृपोत्तमम् ।
सतुआनों कारयामास जनकः सेतूननेकशः॥

अर्थात् महाराज जनक ने जब भानुकेतु को आते सुना तब मतमोंके सेतु अनेक स्थानों में बंधवादिए । अर्थात् जब जनकजीने बहुत की बारातजी लाते सुना तब उस बारातको केतुजीके समान मानकर सतुओंजी के पुल बंधवा दिए, जिससे बारात डूषजाय ।

सरयू०--गुरुजी, रामायणजी में तो ऐसा नहीं कहा है !

माधो०-बच्चा, हम जो कहते हैं वह शास्त्र का वचन है। इतने पर भी सारे बराती तैरकर चले भाए, और महाराज दशरथजी ने जिस धूमधाम से पारोतजी को चढ़ाया सो बसान में नहीं पाता-

रूपाणि मदनोधृत्वा बहूनि रति संयुतः ।
ददृशे रामचन्द्रस्य विवाहं परमाद्भुतम् ।।

मानो मदन कहिए कामदेव, सो अपनी बहू रति को रूपाणि कहिए रुपये में गिरवी धरके रामचन्द्रजी का अद्भुत विवाह देखता भया।

सप--धन्य है, धन्य है।

माधो०--फिर बढ़ारजी भार्थी, जिसमें बड़े बड़े बरातियों के भोजन को महाराज जनकजी ने बड़ी २ कठिनाई से बड़े बनवाये । उस बड़ों को बनाने के लिए--

"शतयोजनविस्तीर्णान् कटाहान् कृतवान्मुनिः"

एक मुनि ने सौ सौ योजन के विस्तारवाली कदाइयाँ बनायीं । तब-

"आकाशात्तप्ततैलस्य वृष्टिर्जाता समन्ततः"

आकाश से गरमागरम तेल बरसकर उन कढ़ाइयों में गिरा तव कहीं घड़े बने । अब परोसने के लिए-

<poem>"युगपदशसहस्राण नपाणौँ बुद्धिशालिनाम् । तोलने विफलीभूता चेष्टा तेषां बलान्विताम् ॥"<poem>

दसहजार बुद्धिमान् और बलवान् राजाओं की एक साथ चेष्टा करने पर भी एक बड़ा नहीं उठा-

सरयू०--अरे, यह क्या गड़बड़ घोटाला है ? रामायण में यह कथा कहाँ है ? गोमती०--चुप मूर्ख,गुरु की बात,काटता है ? भस्म होजायगा !

माधो०--नब दस हजार राजाओं से भी वह बड़ा नहीं उठा तब-

"नाना भटयोद्धानां प्रेषयामास रावणः"

रावण ने भटयोद्धाओ के नाना को भेजा । अंतर्यामी विष्णु अवतार रामजी ने भटों के नाना को भाते हुए जानकर हनुमानजी को बुलाया । उन्होंने-

“कपिःसंगृह्य तान् सर्वान् मर्दयामास सत्वरं।"

सब बड़ों को पकड़ २ कर जल्दी जल्दी मसल डाला ! तब वह पड़े परोसेगये और सब ने खाये । इत्यार्षे श्रीवाल्मीकीय रामायणे बालकांडे समाप्तम् । बोलो श्रीरामचन्द्र की जय ।

सब-जय।

माधो०--सुनो भाई, श्रीरामायणजी में लिखा है-

"दुर्लभं नाम रामस्य मनुष्यैरन्तिमे क्षणे"

अर्थात् अन्त समय में मनुष्यों को राम नाम नहीं ले मिलता। इसलिए अभी लेलो। बोलो श्री रामचन्द्र की जय ।

सब--श्रीरामचन्द्र की जय ।

कृष्णदास का प्रवेश ]
 

कृष्णदास--(स्वगत) इन्हीं की-इन्हीं की-वैष्णव संगठन को इन्हीं जैसे पुरुषों की आवश्यकता है। संगठन ऐसे ही महात्माओं द्वारा हो सकता है :--

येही हैं संगठन शब्द को घर २ जो पहुंचायेंगे।

अपनी आवाजों से सोता वैष्णव धर्म जगायेंगे। (प्रकट ) महन्तजी महाराज, प्रणाम । माधो०--जय रघुनाथजी की बच्चा, जय रघुनाथजी की। आओ, सत्संगजी सुनलो।

कृष्णदास--बड़ी अच्छी बात है । मैं तो इसीलिए आया हूं।

माधो०--“लक्ष्मणेन सहारण्ये रामो राजीवलोचनः ।
सीतामन्वेषयन् शैलं ऋष्यमूकमुपागमत् ॥"

अब कीचकंधा काण्ड प्रारम्भ होता है । अयोध्याकाण्ड, उत्तरकाण्ड, युद्धकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, आरिन्यकाण्ड, बालकाण्ड, बारी बारी से छै काण्डों का तो सत्संग होगया। अब सातवाँ

काण्ड--कींचकंधा काण्ड-चलता है ।

सरयू--तो महाराज, बालकाण्ड के बाद कीचकंधा कागड भाता है?

माधो०--हां बच्चा। छठा काण्ड बालकाण्ड, उसके आगे सातवाँ काण्ड कीचकंधाकाण्ड आता है । इस काण्ड में नारद और सनत्कुमार ऋषि का सम्वाद है। धनों में बरसात का पानी नहीं सूखा था, बड़ी कीच कंध थी। इसी से वाल्मीकिजी ने इस काण्ड का नाम कीचकंधा काण्ड रक्खा है।

कृष्ण--(स्वगत) शोक ! महाशोक !! यह क्या ऊटपटाँग बकता है ! जिसे काण्डों के क्रमतक का ज्ञान नहीं है वह आज सत्संग करता है ? सचमुच ऐसे ही मूखों ने वैष्णव धर्म का झंडा गिराया है, और अपने आपही अपने इष्टदेव का हास्य कराया है । और यह इलोक तो भी वाल्मीकीय रामायण का नहीं है !

माधो०-हाँ भैया, सुनो--

“सीतामन्वेषयन् शैलं ऋष्यमूकमुपागमत् ।”

ऋयि कहिए रीछ, और मूक कहिए गूंगा । अर्थात् रामजी अब लक्ष्मणजी के साथ बनों में सीता माता को ढूंढते फिर रहे ये तब उन्हें एक गूंगा रीछ मिला । शैलका अर्थ है पर्वत । उस स्थान में पर्वत नगीच था । सो श्रीरामचंद्रजी लक्ष्मण सहित उसके ऊपर जा चढ़े । उपागमत् का अर्थ है ऊपर जा चढ़े । याद रखना।

सरयू०--महाराज, उपागमत् का अर्थ ऊपर जाचढ़े किस प्रकार ?

माधो०--यह इंगिल भाषा का शब्द है। यह भाषा कलिकाल में प्रचार पायेगी । जब हम श्रीरामेश्वरजी की यात्रा में गए रहे तब बंगदेश के एक बङ्गाली बाबा से उपागमत् का अर्थ सुना रहा। हाँ, तो उपागमत् कहिए पर्वत के ऊपर चढ़गए । नहीं तो रामचन्द्रजी को गूंगे रीछ से बड़ा भारी युद्ध करना पड़ता।

गोमती०--और जो वह रीछ रामजी का दास होता तो ?

माधो०--तो रामजी उसे बोलनेवाला बनादेते । क्योंकि रामायणजी में कहा ही जो है-'मूकं करोति वाचालम्।। रामका दास होता तो गूंगा ही नहीं होता। क्योंकि राम आसरे रामजी के दासों की महिमा रामजी से बड़ी है । बस अधिक समय होगया। कीचकधा काण्डका बाकी सत्संग ठीक इसी समय कल होगा।

कृष्ण--(स्वगत) हाय ! वैष्णव धर्म के पुजारियो तुमपर बड़ा तरस आता है।

गोमती०--एक बात और बतादीजिए गुरुजी । राम राक्षस थे या रावण राक्षस था। माधो०--यह बड़ी साधारण बात है । क्योंकि रामायणजी में लिखा है कि-

रामो दाशरथिः साक्षाद्भगवान्विश्ववाहकः ।
आत्मावै सर्वभूतानां प्राणाः वैसर्वप्राणिनाम्॥

इस प्रमाण से रावण भी राक्षस था और राम भी ........

कृष्ण०--(रोककर) ठहरिए महाराज, यह आप कैसा अर्थ कररहे हैं !

माधो०--अरे बाबा! अर्थ करते २ तो खोपड़ी थकगयी। अच्छा आज यहीं सत्संगजी की समाप्ति होती है । बोलो रामलला की--

सब--जय।

माधो०--भेखजी की--

सब--जय।

माधो०--सब संतन की-

सब--जय।

माधो०--अखाड़े की-

सब०.--जय।

कृष्ण--(स्वगत) निश्चित होगया। वैष्णवो, तुम्हारे पतन का कारण आज निश्चित होगया । जिस रामायण को विद्वान् लोग आदर से सिर झुकाते हैं उसी गमायण के नाम पर अण्ट- सण्ट श्लोक बोलकर उनके अर्थों का अनर्थ किया जाता है ! हा, ऐसे ही ऐसे मूखों ने शास्त्रों को बिगाड़ा है। बस, सब से पहले हमें इन्हीं लोगो को सुधारने की आवश्यकता है । क्योकि शत्रु पर चढ़ाई करने के पहले अपने किले की कमजोरी को दूर करना ही दूरदर्शिता है :-

जगेगे देश के सब वैष्णव तब देश जांगेगा।
पुकारों से इन्हीं की धर्म का उद्देश जागेगा ॥
सभी मत जब मिलेंगे, बैर की तल्वार टूटेगी ।
बहेगी प्रीति की धारा दुधारी बार टूटेगी॥

(प्रकट) भू मण्डल के सच्चे देव ! यह आपका दास श्रापसे कुछ प्रश्न कर सकता है ?

माधो०--हाँ, अवश्य।

कृष्ण--रामायणजी में किसका परित्र प्रधान है ?

माधो०--श्रीरामचन्द्रजी का।

कृष्ण--श्रीरामचन्द्रजी कौन थे ?

माधो०--कौन थे ? साक्षात् विष्णु भगवान् के अवतार थे। कृष्ण-अच्छा तो विष्णुजीका दिया हुआ कौनसाधर्म है ?

माधो०--वैष्णव ।

कृष्ण०--वह किसके द्वारा उन्नति के शिखर से भवनति की भमि पर आया।

माधो०--शैवों के।

कृष्ण--तो अब वैष्णव दल को जगाना है ना ?

माधो०--हाँ।

कृष्ण--आप भी कृपा करके वैष्णवों को जगाने में सहायता देंगे?

माधो०--अवश्य अवश्य । अबतक तो हम गुरुवाणी जी से निकली हुई रामायण जी काही सत्संगजी करते रहे, अब आप जैसा बतायेंगे वैसा कहदिया करेगे । क्योंकि रामायणजी में लिखा है--

"धर्मस्यैवोपकाराय उद्भवन्तीह साधवः "

हमसाधू हैं, हमारा धर्म के ही लिए उद्भव हुआ है। इसलिए धर्म का काम हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?

कृष्ण--ऐसा है तो पाइए, मेरे साथ चलने का कष्ट उठाइए।

माधो०--अच्छा भक्तराज, जैसी तुम्हारी इच्छा । चलिए ।

कृष्ण --यह वह चिंगारी है जो इस समय अविद्यारूपी रास्त्र से छुपी हुई है । परन्तु जिस समय संगठन-मण्डल की ज्ञानवायु चलेगी तभी ये चिंगारी भी चटकेगी । और ऐसी चटकेगी कि जिससे घृणा-प्रचार, जनसंहार, मादि समस्त विकार भस्म हो जायेंगे, और संसार के निवासी सच्ची शांति पायेगे।

सुखद सत्संग होगा विश्व का मङ्गल मनाने को ।
जगेंगे जग के सब वैष्णव, सभी जगके जगाने को

गाना

हम घर घर सदा लगायेंगे, वैष्णव का धर्म जगायेंगे । सञ्चा सत्संग रचायेंगे, वैष्णव का धर्म जगायेंगे।

सिखलायेंगे विश्व को, प्रेम ज्ञान और कर्म ।
फैलायेंगे जगत में, शुद्ध वैष्णव धर्म ॥

जीवन को सुफल बनायेंगे, वैष्णव का धर्म जगायेंगे ।

पहुँचायेंगे गगनपै, अपना विजय निशान ।
मृतक तुल्य संसार को, देंगे जीवन दान ।।

खुद भी बलिहारी जायेंगे, वैष्णव का धर्म जगायेंगे ॥

(सब का जाना।)
 

___०___

दृश्य सातवां

(ऊषा का शयनागार)

[ ऊषा वीणा बजाकर गाती है ]

गाना

ऊषा-

प्रेम ही है सब जगमें सार ।
बिना नदी के जैसे पर्वत बिनु फल जैसे डार।
त्योंही प्रेम विना प्राणी का जीवन है निःसार ॥

[भाषण] प्रहा, कैसा मनोहर दृश्य है। समस्त संसार शोभायमान दीख रहा है । जान पड़ता है कि सारे संसार में वसंत ऋतु की शोभा छाई हुई है। पुष्प फूल रहे हैं, भौरे गूजरहे हैं। और मन्द मन्द वायु शरीर में नवजीवन संचार कर रहा है। यह सब क्या है ? प्रेम देवताका ही तो खेल है:-

गाना

लता लता से, चन्द्रकला से बरसे झम फुहार ।
सकल सृष्टि कररही है मानो,आज प्रेम भंगार ॥

[भाषण] अहा,नदियाँ उमड़ उमड़ कर अपने प्रियतम समुद्र से मिलने जारही हैं। हरे भरे मैदान और खेत इन नदियों के बढ़ते हुए जल को लेने के लिये अपनी गोद फैलाये हुए हैं। पौधे बढ़गये हैं, और फल आने में थोड़ा ही समय शेष है । वेदान्तियों का यह कथन कि संसार प्रसार है सर्वथा भ्रांतिपूर्ण और निंंम्रूल है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि सृष्टि सदा नवयौवना रहती है, उसे कभी बुढ़ापा भाता ही नहीं :--

गाना

तनमें मनमें बस्ती बनमें, है वह प्रेम निखार ।
मानो आज प्रेम-सागर में, लय होगा संसार ॥

[गाते गाते ऊषा सोजाती है और स्वप्न देखती है कि पार्वती जी अनिरुद्ध के साथ उसका पाणिग्रहण कराती है तभी चौंक कर उठखड़ी होती है ]

ऊषा--हैं।यह मैंने क्या देखा ! अभी अभी क्या देखा । क्या यह स्वप्न था, या 'जागृति ? नहीं २ स्वप्न था । जाग्रत अवस्था में क्या कोई पुरुष ऊषा की ओर आंख उठाकर देखसकता है। अहा, वह पुरुष भी कोई अलौकिक पुरुष था, वह सूरत भी कोई स्वर्गीय सूरत थी। ऐसा जान पड़ता था कि एक ओर ऊषा की सदेह प्रतिमा और दूसरी ओर वह मनहर मूर्ति, दोनों एक दूसरे को देखरहे हैं। फिर ? फिर ? वह दिव्यमूर्ति नेत्रों द्वारा उषा को मूर्छित करके ऊषा के हृदय के कोष से सहसा कोई रन निकालने का प्रयत्न कर रही थी। परन्त ऊषा पीछे हटती थी और लज्जित नेत्रों से उसके चरण की ओर देखरही थी। इसके बाद ? क्या हुआ ? अचानक उमाजी ने ऊषा को समझाया कि यह मनमोहन पुरुष तेरा पति होगा। बस, बस इतनेही में ऑरव खुलगई ! क्या संसार में और भी कोई ऊषा है ? अथवा मैं स्वप्न में अपना ही अभिनय देख रही थी। नहीं, यह मैंने अपने ही विषय में स्वप्न देखा है, क्योंकि मैं उमाजी के प्रमाद से इस लोक में आयी हूं। उमाजी मेरी माता हैं । वही मेरा विवाह करेंगी। विवाह के विषय में उन्हीं का पूर्णाधिकार है । परन्तु क्या यह स्वप्न सच्चा होसकता है ? हृदय तो यही कहता है कि यह अवश्य सच्चा होगा । आह ! अंदर ही अंदर एक अग्नि सी सुलग रही है । लेटना कठिन होगया है । परन्तु अभी तो रात बहुत बाकी है। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता ! अच्छा, फिर एक बार उस दिव्यमूर्ति का ध्यान धरलूं ! नहीं नहीं, मैं ठगीसी जा रही हूं। मेरे विचार चारों ओर बिना लगाम के घोड़ों की तरह भाग रहे हैं । अरी सरस्वती, शारदा, माधुरी, मनोरमा, प्रतिभा और प्रभा, चंचला और चित्रलेखा तुम सब कहाँगई ? यहां तो आओ!

[सखियों का श्राना]
 

शारदा--अरी, क्या हुआ ?

सरस्वती--अपनी सखी को क्या होगया ?

ऊषा--न जाने आज मेरा चित्त इतना क्यों व्यथित है। नींद नहीं आती है, तबियत बहुत ज्यादा घबराती है।

शारदा-क्यों ! क्या कोई आश्चर्यकारी स्वप्न देखा ?

ऊषा--स्वप्न ! मैं नहीं जानती कि वह स्वप्न था या जागृति ! पर देखा कुछ अवश्य था । मैंने देखा कि एक अलौ- किक प्रतिभावाला पुरुष ऊषा नामक बालिका की ओर वृक्ष की डाली की नाई प्रेम का हाथ बढ़ाये हुए चला रहा है । उसके मुख से सौन्दर्य और शुद्ध-प्रेम की छटा निकलकर ऊषा के श्वेत गात को लालायित करती जा रही है। इसके पश्चात् उमाजी ने भाकर कहा कि यही युवक ऊषा का पति होगा।

सरस्वती--अरी, ये स्वप्न की बातें ऐसी ही होती हैं । मैंने भी एक स्वप्न देखा है। माधुरी--अच्छा, तो तुम भी अपना स्वप्न सुनाडालो ।

सरस्वती--यदि मैं सुनाऊंगी तो तुम सब हंसोगी।

प्रभा--हंसने की बात होगी तो हंसेगी, अकारण थोड़ेही हंसेंगी !

सरस्वती--अच्छा तो सुनो । मैंने स्वप्न में देखा कि मेरे पति लक्ष्मी नामक एक दूसरी स्त्री से अपना विवाह कररहे हैं और मैं भी प्रसन्नता पूर्वक उस विवाह में सम्मिलित हो रही हूं। भला, तुम्ही बताभो, क्या ऐसा स्वप्न सच्चा हो होसकता है ?

प्रतिमा--कदापि नहीं।

सरस्वती--मैने तो अनेकों बार स्वप्न देखे हैं, परन्तु आज तक एकभी स्वप्न सच्चा न निकला।

प्रभा--और मेरी तो सुनो, मेरा स्वप्न इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक है।

ऊषा--अच्छा, तो तू भी सुना।

प्रभा--मैंने स्वप्न में देखा कि मैं जब रसोई बना चुकी तो परोसने के समय भूलसे एक कच्ची रोटी अपने पति की थाली में रखगयी । उन्होंने क्रोध में भरकर मेरे गिलास खींचकर मारा। वह गिलास तो मेरे नहीं लगा। परन्तु मैंने जो उनके बेलन मारा वह लग गया। [सबका हंसना]

माधुरी--परन्तु मेरा एक स्वप्न तो सच्चा निकला।

मनोरमा--अच्छा तो तुमभी उस स्वप्न को सुनायो ।

माधुरी--एक बार मैंने स्वप्न में देखा कि मेरा विवाह मेरेही ग्राम के किसी मतवाले युवक के साथ होगा। मेरे पिता तीन वर्ष तक वर की तलाश में घूमे, पर मन्तमें वही स्वप्न सच्चा हुआ। ऊषा–तो मेरा स्वप्न भी सच्चा होगा। यदि नहीं होगा तो मैं उसे सच्चा करने का प्रयत्न करूंगी। में वीर-बाला हूं। जिस पति को एक बार स्वप्न में वर लिया, उसके ही साथ विवाह करूंगी, और यदि वह न मिला तो जन्म भर कुआँरी रहूंगी। भारत की एक साधारण से साधारण नारी भी जब एक बार किसी पुरुष को अपना पति मान लेती है तो फिर वह जीवन पर्यन्त दूसरे पुरुष का विचार तक मनमें लाना पाप समझती है। फिर मैं तो महाराजा वाणासुर की कन्या हूं। और उमाजी की कृपा से स्वप्न में एक दिव्य पुरुष को वर चुकी हूं। अहा, अब तो वे स्वप्न वाले महापुरुष ही मेरे सर्वस्व है।

*गाना*

मोहिं सपने में दरस दिखाय गयोरे,
मेरो मन मोहन सोहन रसिया।

आउत में सपने हरि को लखि नेसुक्बार संकोच न छोड़ी।
आगेह्वै आड़ेभये "मतिराम" महूं चितयोचित लालच ओड़ी॥
ओठन को रसलेन को आलिरी मेरी गही कर कांपत ठोड़ी।
औरभई न सखी कछु बात, गई इतनेही में नींद निगोड़ी॥

बरजोरी दौरी मैं घर संग,
बौरी मोहिं बनायगयोरे। मोहिं॰॥

पौढ़ी हती पलका पर मैं निशि, ज्ञानरुध्यान पियामन लाये।
लागिगई पलकें पलसों, पल लागतही पल में पियां आये॥
ज्योंही उठी उनके मिलिवे कहं जागि परी पिय पास न आये।
"मीरन" और तो सोयके खोवत, हौं सखि प्रीतम जागिगंवाये॥

सुन्दर सुघर मनोहर प्यारो,
अँखियन बीच समाय गयोरे॥

चित्रलेखा--सखी, धीर धरो, इतनी न अकुलाओ। मेरा विश्वास है कि यह स्वप्न सच्चा होगा, और अवश्य सच्चा होगा। हमारे यहाँ प्राचीन समय से स्वप्न मे बीती हुई बातों का अर्थ बतलाने का एक शास्त्र चला आया है। उस समय की बहुतेरी स्त्रीयां तो इस शास्त्र में बड़ी प्रवीण होती थीं। परन्तु आज भी वह शास्त्र लुप्त नही हुआ है। यह दूसरी बात है कि आज उसके जाननेवालो की संख्या कम है।

ऊषा--तू उस शास्त्र को जानती है?

चित्र०-हाँ, जानती हूं।

ऊषा--तो मेरे स्वप्न का चित्र खींचकर बतला। मैं भी वो देखूं कि तेरा शास्त्र कैसा है!

चित्र०-ऐसे थोड़े ही बताऊंगी,पहले थोड़ी मिठाई तो मंगाओ!

ऊषा--सखी, मेरा चित्त अत्यन्त व्यग्र हो रहा है। देर मतकर।

चित्र०-अच्छा देखो, [काले तख्ते पर इन्द्र का चित्र बनाकर] क्या तुम्हारा मनोवांछित वर यही है?

ऊषा--नहीं, नहीं,

चित्र०-[कामदेव का चित्र बनाकर] अच्छा तो यह है?

ऊषा--बहन, तुम तो हंसी कर रही हो। दुःखमें सहानुभूति दिखलाने के बजाय दिल्लगी कर रही हो। वह मूर्ति इससे कहीं अधिक सुन्दर, शोभायमान, लावण्यमयी और उज्ववल थी।

चित्र०-अच्छा, और देखो।[कृष्ण का चित्र बनाकर दिखाती है]

ऊषा--न जाने क्यों मेरा मुख इस चित्र के सामने नहीं ठहरता है! नाक और भौं तो कुछ इससे मिलती झुलती थी।

चित्र०-अच्छा, और सही[प्रद्युम्न का चित्र बनाकर] इसे देखो।' ऊषा--यही है, यही है। (ठहरकर) नहीं नहीं, भ्रम हुआ, बड़ी भूल हुई। मुख, नाक और भौं तो मिलगई। परन्तु सूरत से आयु उतनी नहीं जान पड़ती। मेरा हृदया कहरहा है कि मै अब किनारे तक आगई हूं केवल दोचार हाथ ही की और कसर है।

चित्र०-तो बस, होचुका। अब मैं चित्र भी नहीं दिखला सकती। मुझे इतनी ही विद्या आती है।

ऊषा--मेरी बहन, मेरी प्यारी बहन, मुझपर कृपाकर। अमृत का प्याला होठों से लगाकर न हटा, यदि अधिक तरसायगी तो मेरे प्राण निकल जायेगे।

चित्र०-अच्छा, [अनिरुद्ध का चित्र बनाकर] इस चित्र को देख।

ऊषा--हाँ, हाँ यही है! यही है! (आगे बढ़ती है)

चित्र०-[चित्र को मिटाकर] नही, यह चित्र मैंने भूल से दिखला दिया है। यह चित्र वह चित्र नहीं होसकता। ऊषा--देखो, तुम मुझपर इतना अत्याचार न करो। मैं स्वयं पीड़ित हूं। मैं स्वयं सताई हुई हूं। मुझपर दया करो।

[चित्रलेखा फिर अनिरुद्ध का चित्र बनाती है और ऊषा उसे देखकर चित्रलिखितसी रह जाती है]

चित्र०-क्यों बहन ऊषा, बोलती क्यों नहीं? तुम तो बिलकुल पाषाणमयी अहिल्या होगंई।

माधुरी--मैं तो अपने स्वामीके सामने खूब चंचल होजाती हूं!

सरस्वती--परन्तु ऊषा तो केवल चित्र को देखकर ही साक्षात् चित्रसी बनगंई, जब पति के सामने जायेंगी तो न जाने क्या दशा होगी। ऊषा--स्वप्न सञ्चा है और सच्चा होगा; इसमे तनिक सन्देह नहीं । बहन चित्रलेखा, तुमने मेरे एक बड़े भारी रोग की शान्ति कर दी । मैं जितनी भी तुम्हारे प्रति कृतज्ञता प्रकट करू; थोड़ी है।

सरस्वती--हाँ जी, इनकी कृतज्ञ कैसे न होयोगी ।

ऊषा--परमात्मा वह समय जल्द लाये, जब कि मैं बहन चित्रलेखा के ऋण को धन द्वारा नहीं, बल्कि अपने प्रेम द्वारा धुझा सकू।

सरस्वती--अच्छा तो अब इनसे यह कहिए कि उस मूर्ति के प्रत्यक्ष दर्शन करायें!

ऊषा--सखी, यह तो तूने मेरे मनकी बात कह डाली। (चिनालेखा से) बहन चित्रलेखा बता, अब उस देवता से सनेह भेंट कैसे होगी ! मै धन छोड़ सकती हूं, धाम त्याग सकती हूं, राज्यको ठोकर मार सकती हू, यहां तक कि प्राणोंको भी न्योछावर करसकती हूं-केवल एक बार दर्शन के लिये-दर्शन के पीछे यदि मृत्यु भी आजाय तो मैं अपना सौभाग्य समझूगी। संसार में देह धारण करके मनुष्य तरह तरह के ध्येय का ध्यान करता है, किन्तु मुझे इस समय केवल दोही का ध्यान है। एक उस मनोहर चित्रका और दूसरा तेरा । तू मेरी बड़ी बहन है, तू मेरी सच्ची सखी है । जिस प्रकार से भी हो,उस मूर्ति को यहाँले आ।

चित्र०--मैं तुम्हारे लिये सब कुछ करूंगी। मुझे तो दीखता है कि ईश्वर ने समस्त विद्याएँ मुझ आज ही के लिये प्रदान की हैं । मैं आकाश-मार्ग में उड़ना भी तो जानती हूं।

ऊषा--बस तो फिर ! काम ही बनगया। अब देर न कर ! भगवती पार्वती मेरा तेरा और उनका कल्याण करें। चित्र--ले सखी, मैं तेरी खालिर योगिनी बनकर चली। पंखसे--मन्त्रों के अपने पक्षिनी बनकर चली।

उषा--पक्षिनी बनकर नहीं, एक सिद्धिनी बनकर चली। उस सजीवन को, पवन की नन्दिनी बनकर चली ।।

[चित्रलेखा का योगशक्ति द्वारा आकाश गमन । सब का आश्रय म देखना । उधर सीनका बदलना और द्वारिकापुरी का दृश्य दिखाई देना । अनिरुद्ध सोरहा है और चित्रलेखा उसकी ओर को जारही है।

ड्रापसीन.